श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 353 ☆
लघुकथा – प्रतीक्षा की प्रतीक्षा
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
आंखों पर साया करते झुर्रियों भरे हाथ किसी छाया की चाह नहीं थे, बल्कि किसी अपने की राह तकते समय की आदत बन चुके थे। यह चेहरा, समय के उस पृष्ठ की तरह था, जिसका उत्तर खोजना खुद एक अनुत्तरित प्रश्न बन गया था।
अम्मा एक वृद्धा नहीं, वो मां हैं, जिसने जीवन दिया, परंतु बदले में जीवन भर प्रतीक्षा ही पाई।
बेटी प्रतीक्षा को विदेश भेजा था ‘कुछ बन जाने’ के लिए। पर अब वर्षों से उनका क्रम बन गया है नज़रें टिकाए प्रतीक्षा की प्रतीक्षा का। कोई पत्र नहीं, कोई संदेश नहीं, बस एक उम्मीद, बाकी रह गई है। जो हर सुबह उन की आंखों में उगती है और हर संध्या जिंदगी सी बुझने लगती है। बेटी नहीं लौटी तो नहीं ही लौटी।
प्रतीक्षा की प्रतीक्षा एक पूरी पीढ़ी की उम्मीदें हैं, जो गाँवों से निकलकर शहरों की चकाचौंध में गुम हो रही है। अम्मा के हाथ की रेखाएँ, चेहरे की झुर्रियां केवल उम्र की नहीं, बुजुर्ग होती पीढ़ी के उस त्याग की कथा कहती हैं जो रोटियाँ बेलने, खेतों में काम करने और अकेलेपन से जूझते हुए गुजरे वर्षों की गाथा कहना तो चाहती है पर उसे सुनने वाला कोई पास नहीं।
उम्मीद है और प्रतीक्षा बस।
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© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈