श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “पानी की कीमत”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 229 ☆
🌻लघु कथा🌻 पानी की कीमत🌻
गाँव की परंपरा रीति रिवाज हृदय को प्रसन्नता से भर देती है। जब कोई मेहमान घर आ जाए, तो दरवाजे पर ही लोटे का जल, भरी बाल्टी रखा जाता। पैर धोकर जब वह अंदर आए, तो घर के छोटे पैर छूकर प्रणाम करें। आशीषों की झड़ी लग जाती। इसी भाव पर जीये जा रहे थे रेशम लाल।
बेटे के घर शहर जा रहे थे पहली बार। सिर पर पगड़ी, काँधे पर गमछा और प्रेस किया हुआ धोती कुर्ता। साथ में साड़ी के पल्लू से बंधी हुई टोकरी, जिसमें धर्मपत्नी ने घर के शुद्ध घी की मिठाई बाँध रखी थी।
खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। पतंग की तरह लहरा रहे थे कि कब बेटे बहू के घर पहुंच जाए। जैसे ही घर पहुंचे। डोर बेल बजी, दरवाजा खुलते पिताजी ने देखा बेटा सामने ही बैठा है। अंदर जाने के पहले पैर धोना चाह रहे थे।
बेटे को आवाज देकर बोले– बेटा पानी चाहिए। बेटे ने तुरंत एक पानी से भरी बोतल, जो टेबल पर राखी थी पकड़ा दिया। पिताजी ने सोचा शायद इसी से पैर धोना है।
उन्होंने बोतल के पानी से पैर धो लिए। जैसे ही अंदर हुए गमछे से पैर को फटकारते पर यह क्या??? बेटे ने तो झड़ी लगा दी – – आपने इतनी महंगी बिसलरी बाँटल का पानी पैर धोकर बहा दिया। कुछ तो ख्याल किया होता।
बहू की भौहें भी चढ़ी हुई थीं। पैर छूना तो दूर वह तो कह उठी – – – ऑफिस का समय हो रहा है। अब तुम ही इन्हें संभालो, मैं तो चली।
रेशम लाल मानो, कटी पतंग जैसे गिरने लगे। मान सम्मान तो दूर आते ही पानी की कीमत बता रहे बेटा बहू। नीचे फर्श पर बैठते सोचने लगे – – –
किसी ने सच ही कहा है – – –
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सुन।
पानी गये न उबरे, मोती मानुष चुन।।
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© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈