श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “अपने संस्कारों को हमने…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 124 – कविता – अपने संस्कारों को हमने… ☆

अपने संस्कारों को हमने,

घर-आँगन में तापा।

पथ से भटके संतानों के,

छिप-छिप रोते पापा।

 *

तन पर पड़ीं झुर्रियां देखीं,

सिर में छाई सफेदी ।

दर्पण ने सूरत दिखलाई

दिल ने खोया आपा।

 *

जोड़-तोड़ कर भरी तिजोरी,

अंतिम समय में लोचा।।

जीवन जीना सरल है भैया,

सबसे कठिन बुढ़ापा।

 *

गलत राह पर चढ़े शिखर में,

गिरते आँखों देखा।

बुरे काम का बुरा नतीजा,

जोगी ने घर नापा।।

 *

बनी हवेली रही काँपती,

वक्त में काम न आई।

साँसों की जब डोर है टूटी,

यम ने मारा लापा।

 *

जिन पर था विश्वास हमारा,

घात लगा धकियाया।

गैरों ने ही दिया सहारा,

अखबारों ने छापा।

 *

देर सही अंधेर नहीं है,

सूरज तो निकलेगा।

दशरथ नंदन हैं अवतारी

रावण ने भी भाँपा।

 *

अपने संस्कारों को हमने,

अपने हाथों तापा।

पथ से भटके संतानों के,

छिप-छिप रोते पापा।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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