डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कथा – शुभचिन्तक। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 222 ☆

☆ कहानी – शुभचिन्तक

कॉलोनी में चौधरी साहब का आतंक है। वे कॉलोनी की अघोषित नैतिक पुलिस हैं। कॉलोनी में कोई भी गड़बड़ करे, चौधरी साहब उसकी पेशी ले लेते हैं। कॉलोनी के छोटे से पार्क में सुबह-शाम अपने तीन चार हमउम्रों के साथ उनकी बैठक जमती है। उस वक्त कॉलोनी के लड़के-लड़कियाँ पार्क से दूरी बना कर चलते हैं।

चौधरी साहब को सबसे ज़्यादा चिढ़ कान पर मोबाइल चिपकाये घूमते लड़कों- लड़कियों से होती है। देखते हैं तो इशारों से बुला लेते हैं, फिर शुरू हो जाते हैं— ‘आप कोई बड़े बिज़नेसमैन हैं? किसी कंपनी के डायरेक्टर या मैनेजर हैं? यह आपको घंटों बात करने की ज़रूरत क्यों होती है? पैसे खर्च नहीं होते? स्टूडेंट के लिए इतनी ज़्यादा बात करना क्यों ज़रूरी है?’

लड़के-लड़कियाँ चौधरी साहब से तो कुछ नहीं कहते, लेकिन घर आकर माँ-बाप के सामने उखड़ जाते हैं— ‘हम बात करते हैं तो चौधरी अंकल को क्यों तकलीफ होती है? उनके ज़माने में मोबाइल नहीं होता था, हमारे ज़माने में है तो इस्तेमाल भी होगा। और फिर जब हमारे पेरेंट्स को एतराज़ नहीं है तो वे क्यों चार आदमी के सामने टोका-टाकी करते हैं?’

उनके माता-पिता समझाते हैं, ‘चौधरी साहब बुज़ुर्ग हैं। वे सब का भला चाहते हैं। उन्हें लगता है कि तुम लोग अपने पैसे और टाइम की फिजूलखर्ची करते हो, इसीलिए वे बोलते हैं। ही मीन्स वैल। उनकी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए।’

लेकिन लड़के-लड़कियाँ कसमसाते रहते हैं। अपनी स्वतंत्रता में यह दखलन्दाजी उन्हें बर्दाश्त नहीं होती। चौधरी साहब को देखते ही उनका माथा चढ़ता है, लेकिन उनकी उम्र का लिहाज है।

चौधरी साहब का खयाल है कि मोबाइल ने देश के लोगों को बरबाद कर दिया है। लड़के-लड़कियांँ दिन भर मोबाइल से ऐसे चिपके रहते हैं जैसे यही उनकी रोज़ी-रोटी हो। एक बार कान से चिपका सो चिपका, पता नहीं कब अलग होगा। किसी से रूबरू बात करना मुश्किल है। चौधरी साहब का सोच है कि जो कमाते नहीं उन्हें सोच समझकर खर्चा करना चाहिए।

चौधरी साहब के घर के सदस्य, ख़ासकर बच्चे, उनसे ख़ौफ़ खाते हैं। अपने मोबाइल छिपा कर रखते हैं और बात करते वक्त दरवाजा बन्द करना नहीं भूलते।

चौधरी साहब को शिकायत कॉलोनी में काम करने वाली बाइयों से भी है। अब बाइयों को भी मोबाइल का रोग लग गया है। ज़्यादातर बाइयों के हाथ में मोबाइल चमकता रहता है। चौधरी साहब को और भी तकलीफ तब होती है जब कॉलोनी में काम करने वाले मज़दूरों और मज़दूरिनों के हाथ में भी उन्हें मोबाइल दिखायी पड़ता है। उन्हें समझ में नहीं आता कि दिन भर मेहनत करके तीन चार सौ रुपये कमाने वाले लोग मोबाइल की विलासिता कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं।

चौधरी साहब के घर में विमला बाई काम करती है। स्वभाव से अच्छी है। काम के प्रति गंभीर है। चोरी- चकारी की आदत नहीं। आप घर उसके हवाले छोड़ कर आराम से घूमने-घामने जा सकते हैं। घरवाला पहले रिक्शा चलाता था, लेकिन कुछ दिन बाद शरीर जवाब देने लगा। अब सड़क के किनारे सब्ज़ी का ठेला लगाता है। दो लड़के और एक लड़की है। एक लड़का एक मोटर गैरेज में काम करता है, दूसरा साइकिल पर सब्ज़ी की टोकरी रखकर घूमता है।लड़की की शादी हो गयी है।

विमला बाई के साथ भी वही रोग है। झाड़ू लगाते लगाते कहीं से रिंग आ जाती है और वह झाड़ू बीच रास्ते में छोड़ कर दीवार से टिक कर बैठ जाती है। चौधरी साहब देखकर माथा  ठोकते हैं। ज़्यादा देर बात करने की गुंजाइश दिखी तो वह कान से मोबाइल चिपकाये बाहर निकल जाती है और चौधरी साहब का ब्लड-प्रेशर बढ़ने लगता है। ज़्यादा कुछ बोलने के लिए बहू बरजती है। कॉलोनी में अच्छी बाई को पा लेना किस्मत की बात है। दूसरी बात यह है कि नयी बाई को लगाने की बात उठते ही पुरानी लड़ने पर आमादा हो जाती है।

विमला बाई का अपने गाँव से रिश्ता अभी छूटा और टूटा नहीं। तीन बहनें हैं जो आस-पास के गाँवों में ब्याही हैं। दो भाई गाँव में ही हैं। चाचाओं, बुआओं, मौसियों से रिश्ते जीवित हैं। मन ऊबता है तो कहीं भी फोन लगा कर बैठ जाती है। फिर सुध नहीं रहती। कहाँ-कहाँ की खोज खबर लेती रहती है। कान से सुनी बातें दृश्यों में परिवर्तित होकर आँखों के सामने तैरती जाती हैं। मोबाइल छोड़ने का मन नहीं होता। जब बात बन्द होती है तब मन में कसक होती है कि बहुत पैसा खर्च हो गया। लेकिन यह मलाल अल्पजीवी ही होता है। काम से फुरसत मिलते ही मन फिर कहीं उड़ने को अकुलाने लगता है।

विमला बाई काम भले ही दो तीन घरों में करती हो, लेकिन उसकी पैठ कॉलोनी के कई घरों में है। कई घरों में वह कभी न कभी काम कर चुकी है। लेकिन उसे पता है कि घरों की मालकिनों  से उसके संबंध एक सीमा तक ही हैं। उसके बाद उनके रास्ते अलग-अलग हैं। मालकिनें जिस आत्मीयता से एक दूसरे से बात और व्यवहार करती हैं वैसी उसके लिए नहीं है। कई बार वह काम करते-करते चौधरी साहब की बहू के सामने अपने दुखड़े लेकर बैठ जाती है, लेकिन पाँच दस मिनट बाद ही वह महसूस करती है कि उसकी दुनिया में उनकी दिलचस्पी नहीं है। उनके सुख- दुख उसके सुखों-दुखों से भिन्न हैं।

घर में उसकी बातें सुनने वाला कोई नहीं होता। पति रात को थका हुआ आता है और खाना खा कर सो जाता है। लड़के कभी जल्दी तो कभी आधी रात को आते हैं। उन्हें भी माँ से बात करने की फुरसत नहीं होती। बस कॉलोनी की बाइयाँ ही हैं जो इत्मीनान से उसकी बात सुनती हैं। उनके साथ खूब मन के पन्ने खुलते हैं। एक दूसरे को अपनी व्यथा सुना कर हल्की हो जाती हैं। चौधरी साहब के घर पहुँचते-पहुँचते विमला बाई किसी दूसरी बाई के साथ सामने पुलिया पर बैठक जमा लेती है और खिड़की से झाँकते  चौधरी साहब कुढ़ कर बहू से कहते हैं, ‘लो देख लो, जम गयी बैठक। हो गया तुम्हारा काम।’

दिवाली-होली को विमला बाई को गाँव जाना ही है। गयी तो फिर हफ्ते भर तक वापस आने का नाम नहीं लेती। ऐसा ही गाँव से जुड़ी सभी बाइयों के साथ होता है। बाइयों के ग़ायब होते ही उनकी मालकिनों का मूड बिगड़ जाता है। सब को अपना जोड़ों का दर्द, स्पोंडिलाइटिस और डायबिटीज़ याद आने लगता है। जब तक बाइयाँ पुनः प्रकट नहीं होतीं, घर में खासा तनाव रहता है। बाइयों की खीझ घर के बच्चों पर उतरती है।

विमला बाई के गाँव के घर में अभी माँ है। सयानी होने के बावजूद हाथ-पाँव दुरुस्त हैं। अभी भी संपन्न लोगों के घरों में टानकटउआ करके थोड़ा बहुत कमा लेती है। फालतू बैठे उसे चैन नहीं पड़ता।

विमला गाँव जाती है तो निहाल हो जाती है। रिश्तेदारों और बचपन की सहेलियों से मिलकर शहर की फजीहत और तनाव भूल जाती है। दुनिया भर की बातें होती हैं। सहेलियों से मिलकर बचपन फिर लौट आता है। एक हफ्ता कब गुज़र जाता है पता नहीं चलता। लौटते मन खिन्न होता है। सामने दिखती है वही थोड़े से पैसों के लिए बड़े लोगों की सेवा और घर की नीरस दिनचर्या। लेकिन ज़िन्दगी का शिकंजा ऐसा है कि निकल भागने का कोई रास्ता नहीं है।

विमला बाई गाँव से लौटती है तो कॉलोनी के कई घरों से राहत की ठंडी साँस निकलती है। मनहूस लगते दृश्य फिर सुहाने हो जाते हैं। फूलों में खुशबू लौट आती है। प्राणिमात्र के लिए फिर प्रेम का अनुभव होने लगता है।

विमला बाई के लौटने पर एक-दो दिन तक चौधरी साहब का मुँह फूला रहता है। अमूमन विमला बाई से गप लगाने वाले चौधरी साहब एक-दो दिन तक उससे बात नहीं करते। उनकी नज़र में गाँव का यह मोह फालतू है। उनकी समझ में नहीं आता कि गाँव में ऐसा क्या है जो विमला बाई जैसी स्त्रियों को बाँधे रखता है। जो शहर में है वह गाँव में कहाँ? विमला बाई को जाना ही है तो एक-दो दिन में सब से मिल-मिला कर वापस आ जाए। हफ्ते भर तक वहाँ क्या करना है? चौधरी साहब को रिश्ते के शादी-ब्याह में किसी गाँव जाना पड़ता है तो एक दिन में ही बोर हो जाते हैं। पूरा वक्त उबासियाँ लेते और ऊँघते बीतता है। गाँव की ज़िन्दगी की धीमी रफ्तार से एडजस्ट करना मुश्किल होता है।

एक-दो दिन की नाराज़ी के बाद चौधरी साहब कुर्सी खींचकर उपदेशक की मुद्रा में विमला बाई के सामने बैठ जाते हैं। कहते हैं, ‘विमला बाई, सँभल जाओ। न तुम मोबाइल पर टाइम और पैसा बर्बाद करना बन्द करती हो, न बार-बार गाँव जाना। मेरा सारा समझाना फालतू जाता है। इतने सारे नाते रिश्ते पालने से क्या मिलता है? पैसा बचाओ और जिन्दगी बेहतर बनाने की कोशिश करो। ये नाते रिश्ते किसी काम नहीं आते, पैसा ही काम आता है।’

विमला बाई उनकी बात सुनकर कुछ देर सिर झुका कर ज़मीन कुरेदती है, फिर चौधरी साहब की आँखों में झाँक कर जवाब देती है, ‘बाबूजी, आप ठीक कहते हैं, लेकिन मैं पागल नहीं हूँ। आपकी बात पर खूब सोचती हूँ। मैं यह सोचती हूँ कि पैसा आराम दे सकता है, परेशानियाँ कम कर सकता है, लेकिन खुशी नहीं दे सकता। खुशी तो रिश्तों-नातों से ही मिलती है। बगल में आदमी न हो तो लोग पैसा लूट कर चले जाते हैं। यहाँ कितने ही लखपती करोड़पती लोग हैं जो अकेले पड़े सड़ रहे हैं। उनके बेटे बाप की संपत्ति के लिए एक दूसरे की जान ले रहे हैं। आखिर में रिश्ते ही काम आते हैं, पैसा बेकार हो जाता है। रिश्ते में जो खुशी है वह पैसे में कहाँ?’
चौधरी साहब निरुत्तर होकर उसका मुँह देखते रह गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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