डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘सच से दो- दो हाथ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 119 ☆

☆ लघुकथा – सच से दो- दो हाथ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

सूरज की किरणें उसके कमरे की खिड़की से छनकर भीतर आ रही हैं। उसने लेटे- लेटे ही गहरी साँस ली – ‘ सवेरा हो गया फिर एक नया दिन,पर मन इजाजत ही नहीं दे रहा बिस्तर से उठने की। करे भी क्या उठकर? उसके जीवन में कुछ बदलने वाला थोड़े – ही है? वही-वही बातें, उसके शरीर को स्कैन करती निगाहें, मन में काई-सी जमी घुटन, जो न चुप रहने देती है, न चीखने। उसके शरीर का सच और घरवालों की आँखों को दिखता सच! दो पाटों के बीच वह घुन -सा पिस रहा है। कैसे समझाए उन्हें कि आँखों देखा हमेशा सच नहीं होता। ओफ्! —-‘

तब तो अपना सच उसकी समझ से भी परे था। छोटा ही था, स्कूल – रेस में भाग लिया था। उसने दौड़ना शुरू किया ही था कि सुनाई दिया – ‘अरे! महेश को देखो, कैसे लड़की की तरह दौड़ रहा है।‘ गति पकड़े कदमों में जैसे अचानक ब्रेक लग गया हो। वह वहीं खड़ा हो गया, बड़ी मुश्किल से सिर झुकाकर धीरे-धीरे चलता हुआ सब के बीच वापस आ खड़ा हुआ। क्लास में आने के बाद भी बच्चे उसे बहुत देर तक ‘लड़की-लड़की‘ कहकर चिढ़ाते रहे। तब से वह कभी दौड़ ही नहीं सका, चलता तो भी कहीं से कानों में आवाज गूँजती – ‘लड़की है, लड़की।‘ वह ठिठक जाता।

 ‘महेश! उठ कब तक सोता रहेगा?‘ – माँ ने आवाज लगाई। ‘ कॉलोनी के सब लड़के क्रिकेट खेल रहे हैं, तू क्यों नहीं खेलता उनके साथ? कितनी बार कहा है लड़कों के साथ खेला कर। घर में घुसकर बैठा रहता है लड़कियों की तरह।‘

‘मुझे अच्छा नहीं लगता क्रिकेट खेलना‘ – उसने गुस्से से कहा।

माँ के ज्यादा कहने पर वह साईकिल लेकर निकल पड़ा और पैडल पर गुस्सा उतारता रहा। सारा दिन शहर में घूमता रहा बेवजह इधर – उधर। साईकिल के पैडल के साथ ही विचार भी बेकाबू थे – ‘ बचपन से लेकर बड़ा होने तक लोगों के ताने ही तो सुनता आया है। आखिर कब तक चलेगा यह लुका छिपी का खेल ? ‘

घर पहुँचकर उसने साईकिल खड़ी की, कमरे में जाकर अपनी पसंद का शॉल निकाला और उसे दुप्पटे की तरह ओढ़कर सबके बीच में आकर बैठ गया।

सूरज की किरणों ने आकाश पर अधिकार जमा लिया था।  

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – richasharma1168@gmail.com  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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