श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 67 – किस्साये तालघाट – भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

शाखा तालघाट के लेखापाल महोदय अनूठे व्यक्तित्व के स्वामी थे. उनका परिवार जिला मुख्यालय जो उनका गृहनगर भी था, में निवास कर रहा था और ऐसा माना जाता था कि सप्ताहांत में वे भी पारिवारिक सुख का आनंद लेते थे. पर सोमवार से शनिवार तक उनका तालघाट में एफ. बी. (फेसबुक नहीं) याने फोर्स्ड बैचलर का रूप होता था. ऐसी स्थिति में कामचलाऊ पाककला उन्हें आती थी तो सोमवार के डिनर से लेकर शनिवार के लंच तक की व्यवस्था के मामले में वे आत्मनिर्भर थे. तालघाट शाखा के शाखाप्रबंधक की भार्या अन्नपूर्णा स्वरूपा थीं और उनके सुझाव और सहमति पर ही लेखापाल जी का हर सोमवार का लंच शाखाप्रबंधक निवास में हुआ करता था.

परदेश में जब भी परिवार के बिना रहने की नौबत आती है तो सभी घर का खाना मिस करते हैं. दाल चांवल सब्जी और तवा रोटी की महत्ता ऐसे समय ही महसूस होती है. ये कांबिनेशन सरल, सुपच और स्वादिष्ट होता है जो कभी बोर नहीं करता. यह सादगी पर अपनेपन से भरी डिश, सप्ताहांत के बाद अगले छै दिनों के लिए रिचार्ज कर देता है. तो इस सोमवारीय गर्मागर्म और सामान्य पर स्वादिष्ट लंच मिल जाने का श्रेय लेखापाल जी भगवती कृपा, स्वयं का भाग्यवान होना और शाखाप्रबंधक जी का उनके प्रति संवेदनशील होने को देते थे. इस कारण ही वे उनका सपत्नीक सम्मान भी किया करते थे पर इसका यह मतलब कतई नहीं था कि वे उन्हें कार्यभार और उत्तरदायित्व में अतिरिक्त सहयोग करें. कम ही बोलते थे, अपनी कलम का हमेशा कंजूसी से ही प्रयोग करते थे, शाखा की राजनीति से उनका कोई लेना देना नहीं होता था. चाय पीने की आदत नहीं थी पर कॉफी के पाऊच उनकी ड्रायर में पर्याप्त होते थे. शाखा परिसर में चायवाले से मीठा दूध दिन में दो बार बुलाकर  उससे स्वयं ही कॉफी बनाकर तरोताजा होने की सफल कोशिश वे नियमित रूप से किया करते थे. शाम को तालघाट के अपने अस्थायी आवास में पहूँच कर उनकी भोजन पकाने की प्रक्रिया शुरु हो जाती थी और साथ ही ऑन हो जाता था उनका छोटा पर जबरदस्त पोर्टेबल टीवी जो केबल के दम पर मनोरंजन सेवा का सतत प्रसारण करता रहता था. रात्रिभोजन के समय भी और बाद में भी टीवी चलता रहता और उनके निद्रामग्न होने पर भी चलता रहता क्योंकि सोने के पहले टीवी या लाइट्स बंद करने की उनकी आदत नहीं थी. उनके सुबह नींद से उठने पर भी बेचारे टेलीविजन को आराम नहीं मिल पाता था और वो तब ही बंद होता जब ये घर में ताला लगाकर बैंक जाने के लिए निकलते. एक बार तो ऐसा भी हुआ कि शनिवार से चलता हुआ टीवी सोमवार रात को ही विश्राम पा सका. फिर भी उसने याने उनके टीवी ने शिकायत नहीं की, अपनी सेवा निर्बाध देता रहा. यह निश्चित करना मुश्किल था वो ज्यादा काम करते थे या उनका टीवी. पर यह पक्का था कि टीवी अपने मालिक की आदतों से वाकिफ था और बहुत मजबूती से उनके मनोरंजन का ख्याल रखता था.

आसक्तिहीनता लेखापाल जी की पहचान बन गई थी और निर्विकार होना उनका स्वभाव. उनके दुश्मन नहीं थे पर उनके दोस्त भी नहीं थे. दोस्ती हो या दुश्मनी, दोनों के लिये भावनाओं का ज्वार भाटा आवश्यक होता है. ये उनके पास नहीं था तो लोग भी तटस्थ ही रहते. ऐसे व्यक्तित्व के साथ आप कितना भी रहें पर ऐसे लोग न तो आपको याद करते हैं न ही खुद याद आते हैं. बैंक की वार्षिक लेखाबंदी हो या ऑडिट इंस्पेक्शन, इन सभी मौके पर भी वे उत्साहहीनता और निर्विकार होने का ही एहसास कराया करते. स्टाफ सोच में पड़ जाता पर वे इन सब मायावी चीजों से संत वैराग्य का भाव रखते थे.

बैंकिंग में डेबिट और क्रेडिट की एंट्रियों का समायोजित होना बैंकिंग प्रणाली है पर हम बैंकर्स सपाट सतह के नहीं होते, हम में इंसानियत के गुण और दोष दोनों पाये जाते हैं. हममें से अधिकतम में हमेशा कुछ डेबिट और कुछ क्रेडिट प्रविष्टियां आउटस्टैंडिंग रह ही जाती हैं. यही हमारी पहचान होती है. प्रायः कहीं हमारा या किसी और का नुकीलापन हमें चुभ जाता है तो कहीं दो क्रेडिट प्रविष्टियों वाले छोर मिल जाते हैं और दोस्ती की शुरुआत हो जाती है.  दिल से दिल का मिलना डेबिट प्रविष्टियों का भी होता है जिसे हमप्याला, हमकश और हमचौंसर कहा जाता है.

नोट :लेखापाल जी का इतना चरित्र चित्रण पर्याप्त है. हम सभी को पढ़ने पर लगता है कि ये कहानी तो हमने कहीं सुनी है और यही लेखन की सफलता है क्योंकि ये भी हमारी बैंकसेवा की यात्रा ही है जिसमें रास्ते और पड़ाव जाने पहचाने लगते हैं. कोशिश यही है कि ये किस्साये तालघाट जारी रहे पर इस कथानक का कोई क्लाइमेक्स संभव नहीं है. रिटायरमेंट के बाद भी तो ये वायरस पूरी तरह नष्ट नहीं हो पाता. आज भी हमेशा की तरह “your account has been credited with Rs. so and so “हमारा सबसे प्यारा और दुलारा मैसेज है.

अपडाउनर्स की यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट – भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

शाखा में मंगलवार का प्रारंभ तो शुभता लेकर आया पर उनको लेकर नहीं आया जिनसे काउंटर शोभायमान होते हैं. मौसम गर्मियों का था और बैंकिंग हॉल किसी सुपरहिट फिल्म के फर्स्ट डे फर्स्ट शो की भीड़ से मुकाबला कर रहा था. ये स्थिति रोज नहीं बनती पर बस/ट्रेन के लेट होने की स्थिति में और बैंकिंग केलैंडर के विशेष दिनों में होती है. जब भी ब्रेक के बाद बैंक खुलते हैं तो आने वाले कस्टमर्स हमेशा यह एहसास दिलाते हैं कि बैंक उनके लिए भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने हमारे लिए. यह महत्वपूर्ण होना ही कस्टमर्स का, विशेषकर ग्रामीण और अर्धशहरीय क्षेत्रों के कस्टमर्स का, हमसे अपेक्षाओं का सृजन करता है. विपरीत परिस्थितियों को पारकर या उनपर विजय कर कस्टमर्स की भीड़ को देखते देखते विरल करने की कला से हमारे बैंक के कर्मवीर सिद्धहस्त हैं और जब शाखाप्रबंधक अपने चैंबर से बाहर निकलकर इस रणभूमि में पदार्पण करते हैं तो शाखा की आर्मी का उत्साह और गति दोनों कई गुना बढ़ जाती है.

शाखा प्रबंधक जी के बैंकीय संस्कारों में भी यही गुण था और उस पर उनकी धार्मिकता से जड़ित सज्जनता ने इस विषम स्थिति पर बहुत शालीन और वीरतापूर्ण ढंग से विजय पाई. बस/ट्रेन के लेट आने पर देर से आने वाले भी इस संग्राम में चुपचाप जुड़ गये और अपने दर्शकों याने कस्टमर्स के सामने बेहतरीन टीमवर्क का उदाहरण पेश किया. कुछ कस्टमर्स की प्रतिक्रिया बड़े काम की थी “कि माना कि शुरुआत में परेशान थे पर “बिना लटकाये, टरकाये, रिश्वतखोरी” के हमारा काम हो गया. बहुत बड़ी बात यह भी रही कि इन बैंक के कर्मवीरों में इस प्रक्रिया में पद, कैडर, मनमुटाव, व्यक्तिगत श्रेष्ठता कहीं नजर नहीं आ रही थी. बैंक में आये लोगों के काम को निपटाने की भावना नीचे से ऊपर तक एक सुर में ध्वनित हो रही थी और यह भेद करना मुश्किल था कि कौन मैनेजर है और कौन मेसेंजर. जिनका बैंक में पदार्पण के साथ ही कस्टमर्स की भीड़ से सामना होता है, वो ऐसी विषम स्थितियों से घबराते नहीं है बल्कि अपने साहस, कार्यक्षमता, हाजिरजवाबी और चुटीलेपन से तनाव को आनंद में बदल देते हैं. इसमें वही शाखा प्रबंधक सफल होते हैं जो अपने कक्ष में कैद न होकर बैंकिंग हॉल की रणभूमि में साथ खड़े होते हैं. जैसा कि परिपाटी थी, विषमता से भरे इस दिन की समाप्ति सामूहिक और विशिष्ट लंच से हुई जिसने “बैंक ही परिवार है” की सामूहिक चेतना को सुदृढ़ किया. हम सभी लोग जो हमारे बैंक में होने की पहचान लिये हुये हैं, सौभाग्यशाली हैं कि हमारे पास कभी दो परिवार हुआ करते थे एक घर पर और दूसरा बैंक में. हालांकि अंतर सिर्फ घरवाली का ही होता था पर बहुत सारी घटनाएं हैं जब बैंक के मधुर रिश्तों ने घर संसार भी बसाये हैं.

नोट: किस्साये चाकघाट जारी रहेगा क्योंकि यही हमारी मूलभूत पहचान है. राजनीति, धर्म और आंचलिकता हमें विभाजित नहीं कर सकती क्योंकि हमें बैंक ने अपने फेविकॉल से जोड़ा है.

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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