डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य ‘कथा पुल के उद्घाटन की ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 188 ☆

☆ व्यंग्य ☆ कथा पुल के उद्घाटन की

पुल उद्घाटन के लिए तैयार है। सबेरे से ही गहमागहमी है। पूरे पुल को फूलों की झालरों से सजाया गया है। सरकारी अमला पुलिस की बड़ी संख्या के साथ हाज़िर है। उद्घाटन मंत्री जी के कर-कमलों से होना है।

पुल का भूमि-पूजन चार पाँच साल पहले तब की सत्ताधारी और अब की विरोधी पार्टी ने किया था। तब पुल की लागत सात सौ करोड़ आँकी गयी थी, अब बढ़कर तेरह सौ करोड़ हो गयी। अब विरोधी पार्टी वाले वहाँ इकट्ठे होकर हल्ला मचा रहे हैं। उनका कहना है कि पुल की शुरुआत उन्होंने की थी, इसलिए उसका उद्घाटन उन्हीं के कर-कमलों से होना चाहिए। सत्ताधारी पार्टी का जवाब है कि उद्घाटन का अधिकार योजना को पूरा करने वालों का होता है, भूमि- पूजन करके भाग जाने वालों का नहीं। पुलिस हल्ला मचाने वालों से निपटने में लगी है।

मंत्री जी आ गये हैं और गहमागहमी बढ़ गयी है। बहुत से तमाशबीन इकट्ठा हो गये हैं। मीडिया वाले फोटोग्राफरों के साथ आ गये हैं। उनके बिना कोई कार्यक्रम संभव नहीं।
लेकिन उद्घाटन से ऐन पहले कुछ पेंच फँस गया है। बड़े इंजीनियर साहब ने पुल के बीच में, ऊपर, फीता काटने का इन्तज़ाम किया है, लेकिन मंत्री जी ने ऊपर चढ़ने से इनकार कर दिया है। आदेश हुआ है कि फीता नीचे ही बाँधा जाए और उद्घाटन नीचे ही हो। वजह यह कि मंत्री जी के साथ सौ दो-सौ समर्थक पुल के ऊपर जाएँगे। कई पुल उद्घाटन से पहले या उद्घाटन के कुछ ही दिन के बाद बैठ गये, इसलिए मंत्री जी ‘रिस्क’ नहीं लेना चाहते। उनका कहना है कि उन्हें अभी बहुत दिन तक जनता की सेवा करना है, उनका जीवन कीमती है, इसलिए वे पुल पर चढ़ने का जोखिम नहीं उठाएंगे। परिणामतः तालियों और जयजयकार के बीच नीचे ही उद्घाटन का कार्यक्रम संपन्न हो गया।

मंत्री जी के पास भीड़ में एक मसखरा घुस आया है। हँस कर मंत्री जी से कहता है, ‘मंत्री जी, कुतुब मीनार और लाल किला पाँच सौ साल से कैसे खड़े हैं? उन पर तो रोज हजारों लोग चढ़ते उतरते हैं। ‘ मंत्री जी कोई जवाब नहीं देते। एक पुलिस वाला मसखरे को पीछे ढकेल देता है।

मंत्री जी की खुशामद करने के इच्छुक एक अधिकारी कहते हैं, ‘सर,आपका डेसीज़न बिलकुल सही है। एब्सोल्यूटली राइट। वी शुड नॉट टेक अननेसेसरी रिस्क। ‘

वे मंत्री जी के चेहरे की तरफ देख कर फिर कहते हैं, ‘सर,ये पाँच सौ साल से खड़ी इमारतें हमारे लिए प्राब्लम बनी हुई हैं। इनकी वजह से हमें बार बार शर्मिन्दा होना पड़ता है। सर, अगर हमारे पुल और सड़कें सौ साल तक चलेंगीं तो एम्प्लायमेंट जेनरेशन कैसे होगा और नयी पीढ़ी को काम कैसे मिलेगा? इसलिए मेरा तो सुझाव है, सर, कि इन पुरानी इमारतों को फौरन डिमॉलिश कर दिया जाए, उन पर फौरन बुलडोज़र चला दिया जाए। सर, इस मामले में आप कुछ कोशिश करें तो नेक्स्ट जेनरेशन आपकी बहुत थैंकफुल होगी।’    

मंत्री जी ने सहमति में सिर हिलाया।   

उद्घाटन के बाद पुल जनता के हितार्थ खुल गया है। अधिकारी ध्वनि-विस्तारक पर बार- बार घोषणा कर रहे हैं कि अब जनता आवे और पुल के इस्तेमाल का सुख पावे। लेकिन पुल पर सन्नाटा है। लोग दूर से टुकुर-टुकुर देख रहे हैं। कोई पुल पर पाँव नहीं धरता।

अधिकारियों में सुगबुगाहट फैल गयी—‘भरोसा नहीं है। दे डोन्ट बिलीव अस। ‘

एक अधिकारी ने पुलिस के अफसर से पूछा, ‘क्या हम पुल पर पुलिस फोर्स का मार्च करा सकते हैं? इट विल हैव अ गुड एफेक्ट। ‘

जवाब मिला, ‘नो सर,इट इज़ नॉट एडवाइज़ेबिल। फोर्स कदम मिला कर चलेगी तो पूरी फोर्स का वज़न एक साथ पुल पर पड़ेगा। इट इज़ रिस्की। ‘

अधिकारियों में फिर फुसफुसाहट है। फिर एक सीनियर अधिकारी एक युवा अधिकारी के कान में कोई मंत्र देता है और युवा अधिकारी अपना स्कूटर उठाकर निकल जाता है। बाद में पता चलता है कि उसका लक्ष्य वह चौराहा था जहाँ रोज़ मज़दूर मज़दूरी की तलाश में घंटों बैठे रहते थे। थोड़ी ही देर में वहाँ एक ट्रक में तीस चालीस मज़दूर आ गये, जिन्हें अधिकारियों ने पुल पर दौड़ा दिया। वे खुशी खुशी, बेफिक्र, पुल पर दौड़ गये। उनकी देखा-देखी कुछ और लोग अपनी हिचक को छोड़कर पुल पर चढ़ गये। फिर जनता की आवाजाही शुरू हो गयी।

इस तरह पुल पर लगा ग्रहण हटा और उसे जनता-जनार्दन के द्वारा अंगीकार किया गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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