डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख परखिए नहीं–समझिए । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 159 ☆

☆ परखिए नहीं–समझिए ☆

जीवन में हमेशा एक-दूसरे को समझने का प्रयत्न करें; परखने का नहीं। संबंध चाहे पति-पत्नी का हो; भाई-भाई का हो; मां-बेटे का हो या दोस्ती का… सब विश्वास पर आधारित हैं, जो आजकल नदारद है। परंंतु हर व्यक्ति को उसी की तलाश है। इसलिए ‘ऐसे संबंध जिनमें शब्द कम और समझ ज्यादा हो; तक़रार कम, प्यार ज़्यादा हो; आशा कम, विश्वास ज़्यादा हो–की दरक़ार हर इंसान को है। वास्तव में जहां प्यार और विश्वास है, वही संबंध सार्थक है, शाश्वत है। समस्त प्राणी जगत् का आधार प्रेम है, जो करुणा का जनक है और एक-दूसरे के प्रति स्नेह, सौहार्द, सहानुभूति व त्याग का भाव ‘सर्वे भवंतु सुखीनाम्’ का प्रेरक है। वास्तव में जहां भावनाओं का सम्मान है, वहां मौन भी शक्तिशाली होता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘खामोशियां भी बोलती हैं और अधिक प्रभावशाली होती हैं।’

यदि भरोसा हो, तो चुप्पी भी समझ में आती है, वरना एक-एक शब्द के अनेक अर्थ निकलने लगते हैं। इस स्थिति में मानव अपना आपा खो बैठता है। वह सब सीमाओं को लाँघ जाता है और मर्यादा के अतिक्रमण करने से अक्सर अर्थ का अनर्थ हो जाता है, जो हमारी नकारात्मक सोच को परिलक्षित करता है, क्योंकि ‘जैसी सोच, वैसा कार्य व्यवहार।’ शायद! इसलिए कहा जाता है कि कई बार हाथी निकल जाता है, पूँछ रह जाती है।

संवाद जीवन-रेखा है और विवाद रिश्तों में अवरोध उत्पन्न करता है, जो वर्षों पुराने संबंधों को पल-भर में मगर की भांति लील जाता है। इतना ही नहीं, वह दीमक की भांति संबंधों की मज़बूत चूलों को हिला कर रख देता है और वे लोग, जिनकी दोस्ती के चर्चे जहान में होते हैं; वे भी एक-दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं। उनके अंतर्मन में वह विष-बेल पनप जाती है, जो सुरसा के मुख की मानिंद बढ़ती चली जाती है। इसलिए छोटी-छोटी बातों को बड़ा न किया करें, उससे ज़िंदगी छोटी हो जाती है…बहुत सार्थक संदेश है। परंंतु यह तभी संभव है, जब मानव क्रोध के वक्त रुक जाए और ग़लती के वक्त झुक जाए। ऐसा करने पर ही मानव जीवन में सरलता व असीम आनंद को प्राप्त कर सकता है। सो! मानव को ‘पहले तोलो, फिर बोलो’  अर्थात् सोच-समझ कर बोलने का संदेश दिया गया है। दूसरे शब्दों में तुरंत प्रतिक्रिया देने से मानव मन में दूरियां इस क़दर बढ़ जाती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है और जीवन-साथी– जो दो जिस्म, एक जान होते हैं; नदी के दो किनारों की भांति हो जाते हैं, जिनका मिलन जीवन-भर संभव नहीं होता। इसलिए बेहतर है कि आप परखिए नहीं, समझिए अर्थात् एक-दूसरे की परीक्षा मत लीजिए और न ही संदेह की दृष्टि से देखिए, क्योंकि संशय, संदेह व शक़ मानव के अजात-शत्रु हैं। वे विश्वास को अपने आसपास भी मंडराने नहीं देते। सो! जहां विश्वास नहीं; सुख, शांति व आनंद कैसे रह सकते हैं? परमात्मा भाग्य नहीं लिखता; जीवन के हर कदम पर हमारी सोच, विचार व कर्म हमारा भाग्य लिखते हैं। इसलिए अपनी सोच सदैव सकारात्मक रखिए। संसार में जो भी अच्छा लगे, उसे ग्रहण कर लीजिए और शेष को नकार दीजिए। परंतु किसी की आलोचना मत कीजिए, आपका जीवन सार्थक हो जाएगा। वे सब आपको मित्र सामान लगेंगे और चहुंओर ‘सबका मंगल होय’ की ध्वनि सुनाई पड़ेगी। जब मानव में यह भावना घर कर लेती है, तो उसके हृदय में व्याप्त स्व-पर व राग-द्वेष की भावनाएं मुंह छुपा लेती हैं अर्थात् सदैव के लिए लुप्त हो जाती हैं और दसों दिशाओं में दिव्य आनंद का साम्राज्य हो जाता है।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। वह हमें किसी के सम्मुख झुकने अर्थात् घुटने नहीं टेकने देता, क्योंकि वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है और दूसरों को नीचा दिखा कर ही सुक़ून पाता है। सुख व्यक्ति के अहं की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की। इसलिए दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण व्यक्ति का जीवन ही सार्थक व सफल होता है। इसलिए मानव को सुख में अहं को निकट नहीं आने देना चाहिए और दु:ख में धैर्य नहीं खोना चाहिए। दोनों परिस्थितियों में सम रहने वाला मानव ही जीवन में अलौकिक आनंद प्राप्त कर सकता है। सो! जीवन में सामंजस्य तभी पदार्पण कर सकेगा; जब कर्म करने से पहले हमें उसका ज्ञान होगा; तभी हमारी इच्छाएं पूर्ण हो सकेंगी। परंतु जब तक ज्ञान व कर्म का समन्वय नहीं होगा, हमारे जीवन की भटकन समाप्त नहीं होगी और हमें अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होगी। इच्छाएं अनंत है और साधन सीमित। इसलिए हमारे लिए यह निर्णय लेना आवश्यक है कि पहले किस इच्छा की पूर्ति, किस ढंग से की जानी कारग़र है? जब हम सोच-समझकर कार्य करते हैं, तो हमें निराशा का सामना नहीं करना पड़ता; जीवन में संतुलन व समन्वय बना रहता है।

संतोष सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम धन है। इसलिए हमें जो भी मिला है, उसमें संतोष करना आवश्यक है। दूसरों की थाली में तो सदा घी अधिक दिखाई देता है। उसे देखकर हमें अपने भाग्य को कोसना नहीं चाहिए, क्योंकि मानव को समय से पहले और भाग्य से अधिक कभी, कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। संतोष अनमोल पूंजी है और मानव की धरोहर है। ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान,’ रहीम जी की यह पंक्ति इस तथ्य की ओर इंगित करती है कि संतोष के जीवन में पदार्पण करते ही सभी इच्छाओं का शमन स्वतः हो जाता है। उसे सब धन धूलि के समान लगते हैं और मानव आत्मकेंद्रित हो जाता है। उस स्थिति में वह आत्मावलोकन करता है तथा दैवीय व अलौकिक आनंद में डूबा रहता है; उसके हृदय की भटकन व उद्वेलन शांत हो जाता है। वह माया-मोह के बंधनों में लिप्त नहीं होता तथा निंदा-स्तुति से बहुत ऊपर उठ जाता है। यह आत्मा-परमात्मा के तादात्म्य की स्थिति है, जिसमें मानव को सम्पूर्ण विश्व तथा प्रकृति के कण-कण में परमात्म-सत्ता का आभास होता है। वैसे आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत है। संसार में सब कुछ मिथ्या है, परंतु वह माया के कारण सत्य भासता है। इसलिए हमें तुच्छ स्वार्थों का त्याग कर सुक़ून व अलौकिक आनन्द प्राप्त करने का अनवरत प्रयास करना चाहिए। इसके लिए आवश्यकता है उदार व विशाल दृष्टिकोण की, क्योंकि संकीर्णता हमारे अंतर्मन में व्याप्त दुष्प्रवृत्तियों को पोषित करती है। संसार में जो अच्छा है, उसे सहेजना बेहतर है और जो बुरा है, उसका त्याग करना बेहतर है। इस प्रकार आप बुराइयों से ऊपर उठ सकते हैं। उस स्थिति में संसार आपको सुखों का सागर प्रतीत होगा; प्रकृति आपको ऊर्जस्वित करेगी और चहुंओर अनहद नाद का स्वर सुनाई पड़ेगा।

अंत में मैं कहना चाहूंगी कि जीवन में दूसरों की परीक्षा मत लीजिए, क्योंकि परखने से आपको दोष अधिक दिखाई पड़ेंगे। इसलिए केवल अच्छाई को देखिए ;आपके चारों ओर आनंद की वर्षा होने लगेगी। सो! दूसरों की भावनाओं को समझने और उनकी बेरुखी का कारण जानने का प्रयास कीजिए। जितना आप उन्हें समझेंगे, आपकी दोष-दर्शन की प्रवृत्ति का अंत हो जाएगा। इंसान ग़लतियों का पुतला है और कोई भी इंसान पूर्ण नहीं है। फूल व कांटे सदैव साथ-साथ रहते हैं, उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। सृष्टि में जो भी घटित होता है–मात्र किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं; सबके मंगल के लिए कारग़र व उपयोगी सिद्ध होता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

29.8.22

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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