डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक मज़ेदार व्यंग्य ‘वैज्ञानिक सोच का हश्र’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 166 ☆

☆ व्यंग्य – वैज्ञानिक सोच का हश्र

 नन्दलाल को हम ‘लाइव वायर’ कहते हैं। हमेशा उत्तेजना की स्थिति में रहता है। अपने विश्वासों और निष्कर्षों के खिलाफ कोई बात सुनना उसे मंज़ूर नहीं। कहीं भी सड़क के किनारे उसे किसी के साथ बहस में उलझा देखा जा सकता है। घर के लोगों का कहना है कि पता नहीं चलता कि वह कब सोता है और कब बिस्तर छोड़ देता है।
दरअसल नन्दलाल स्कूल में मजूमदार सर का चेला रहा है। मजूमदार सर विज्ञान के शिक्षक थे। क्लास में जितना किताबी ज्ञान देते थे उतना ही अंधविश्वासों और ढकोसलों की बखिया उधेड़ते थे। जादूगरों और ओझाओं-गुनियों की ट्रिक्स की क्लास में पोल खोलते रहते थे। बर्तन से लगातार भभूत या पानी गिराना, मुँह से कई गोले निकालना, खरगोश या कबूतर प्रकट करना, आदमी को डिब्बे में बंद कर डिब्बे को बीच से काट देना— सब की असलियत मजूमदार सर क्लास में बताते थे और छात्रों को अंधविश्वासों से बचने की नसीहत देते थे। ग़रज़ यह कि मजूमदार सर पक्के विज्ञान के मार्गदर्शक थे।

नन्दलाल के सिर पर उन्हीं का जादू चढ़ गया था। अब वह जहाँ भी अंधविश्वास या ढकोसला देखता, उसकी पोल-पट्टी खोलने में लग जाता। कई बाबाओं की भूमि में समाधि लेने की योजना में उसके कारण पलीता लग गया। कई बाबाओं की महिलाओं को पुत्रवती बनाने की योजना उसके कारण विफल हो गयी। बड़े आयोजनों में भी वह प्रवचनकर्ताओं से सवाल- जवाब करने लगता और कई बार भक्तों के सामने गुरूजी का पानी उतर जाता। कोई और उपाय न होने पर ऐसे गुरुओं ने नन्दलाल पर ‘नास्तिक’ का ठप्पा लगा दिया था। सड़क पर मजमा लगाने वाले जादूगर नन्दलाल को पहचानने और उसके मुहल्ले से बचने लगे थे।

नन्दलाल को ताज़ी सूचना पास के गाँव में एक हँसिया वाले बाबा की मिली थी जो हँसिया से ऑपरेशन करके लोगों के रोग ठीक करते थे। सूचना मिलते ही नन्दलाल का चैन हराम हो गया। दूसरे दिन वह अपने जैसे दो दोस्तों के साथ बाबाजी के अड्डे पर पहुँच गया। बाबाजी एक पुराने मन्दिर में विराजे थे। चार पाँच चेले श्वेत वस्त्रों में उनके आसपास तैनात थे। मन्दिर के सामने करीब आधा किलोमीटर लंबी लाइन लगी थी जिसमें कई संभ्रांत, पढ़े-लिखे लगने वाले लोग भी दिखते थे। मन्दिर के सामने एक बड़ा सा पात्र रखा था जिस पर ‘दान-पात्र’ लिखा था।

नन्दलाल ने मन्दिर के सामने पहुँच कर देखा, अन्दर बाबाजी हाथ में हँसिया थामे एक लेटे हुए आदमी के पेट पर कुछ क्रिया कर रहे थे। उन्होंने हँसिये की नोक उसके पेट पर थोड़ी देर तक टिकायी और फिर लाल रंग से भीगे रुई के टुकड़े को हाथ उठाकर भीड़ को दिखाया। भीड़ ने प्रसन्न होकर जयजयकार की।उसके बाद बाबाजी ने मरीज़ के पेट के ऊपर अपनी हथेली घुमायी, और फिर उसे उठने का इशारा किया। मरीज़ उठकर बाबाजी को प्रणाम कर मन्दिर में ही कहीं अंतर्ध्यान हो गया।

आदतन नन्दलाल की बेचैनी बढ़ने लगी। मन्दिर में घुसकर वह बाबाजी के पास पहुँचने की कोशिश करने लगा। चेलों ने उसे ढकेला, बोले, ‘नीचे चलो। यहाँ कहाँ चढ़े आते हो?’

नन्दलाल बोला, ‘मुझे ऊपर आने दो। बाबाजी का ऑपरेशन देखना है।’

चेले बोले, ‘ऑपरेशन कोई नहीं देख सकता। जब तुम्हारी बारी आये तब आना। नीचे लाइन में लगो।’

नन्दलाल भीड़ की तरफ मुँह करके सीढ़ियों पर खड़ा होकर ऊँचे स्वर में बोलने लगा, ‘भाइयो, यह सब प्रपंच है। हँसिया से कोई ऑपरेशन नहीं हो सकता। घाव हो जाएगा तो सेप्टिक या टेटनस हो जाएगा। जान खतरे में पड़ जाएगी। घर जाकर डॉक्टर को दिखाइए।’

बाबाजी ने हाथ रोक कर रहस्यपूर्ण नज़रों से चेलों की तरफ देखा। चेले इशारा समझ गये। चिल्लाये, ‘अरे यह कोई नास्तिक, अधर्मी आ गया है। बाबाजी के इलाज पर शक करता है। मारो इसे।’

वे लाठी उठाकर नन्दलाल की तरफ लपके। लाइन में से भी ‘भगाओ, हटाओ इसे’ की आवाज़ें आयीं।

एक चेला चिल्लाया, ‘अरे यह पुराना पापी है। जब गणेश जी ने दूध पिया था तब इसी ने कई मन्दिरों में जाकर बिलोरन की थी। आज इसे नहीं छोड़ना है।’

चेलों को अपनी तरफ लपकते देख नन्दलाल जान बचाकर भागे। नन्दलाल के साथी  भी दौड़ लगाकर अपनी मोटरसाइकिलों तक पहुँचे। मदद की उम्मीद में इधर-उधर देखा तो दो पुलिसवाले दूर पेड़ के नीचे आराम करते दिखे।

नन्दलाल और उसके साथियों के मोटरसाइकिल स्टार्ट करते-करते बाबा जी के चेले लाठियाँ लहराते उन तक आ पहुँचे। चलते-चलते भी तीनों की पीठ पर दो-तीन लाठियाँ पड़ गयीं। पीछे से चेले चिल्लाये, ‘अब लौट कर मत आना बच्चू, नहीं तो अपने पाँवों पर चल कर नहीं जा पाओगे।’

शाम को मुहल्ले के थाने से नन्दलाल का बुलावा आ गया। दरोगा जी उसे जानते थे। कोमल स्वर में बोले, ‘मेरे पास शिकायत आयी है कि तुम हँसिया वाले बाबा के कार्यक्रम में बखेड़ा करने पहुँच गये थे। हम जानते हैं कि तुम्हारा सोच सही है, लेकिन ज़माने का वातावरण देख कर चलो। बड़े-बड़े लोग इन बाबाओं के पीछे बैठे हैं। ज़्यादा समाज सुधार के चक्कर में रहोगे तो किसी दिन जेल में ठूँस दिए जाओगे। फिर ज़मानत भी नहीं मिलेगी। ज़िन्दगी खराब हो जाएगी। इसीलिए थोड़ा सोच-समझ कर काम करो।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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