श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 142 ☆

☆ ‌एक आत्म कथा – समाधि का वटवृक्ष ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

एक बार मैं देशाटन के उद्देश्य से घर से निकला जंगलों के रास्ते गुजर रहा था, कि सहसा उस नीरव वातावरण में एक आवाज तैरती सुनाई दी।

“अरे ओ यायावर मानव! कुछ पल मेरे पास रूक और मेरी भी राम कहानी सुनता जा और अपने जीवन के कुछ कीमती पल मुझे देता जा। ताकि जब मैं इस जहां से जाऊं तो मेरी अंतरात्मा का बोझ थोडा़ सा हल्का हो जाय।”

जब मैंने कौतूहल बस अगल बगल देखा तो वहीं पास में ही जड़ से कटे पड़े धराशाई वटवृक्ष से ये आवाज़ फिज़ा में तैर रही थी। और दयनीय अवस्था में गिरा पड़ा वह वटवृक्ष मुझसे आत्मिक संवाद करता अपनी राम कहानी सुनाने लगा था, मैंने जब ध्यानपूर्वक उसकी तरफ देखा तो पाया कि उसके तन पर मानवीय अत्याचारों की अनेक अमानवीय कहानियां अंकित थी।उसका तना जड़ से कटा गिरा पड़ा था और उसके पास ही उसकी अनेकों छोटी-छोटी शाखाएं भी कटी बिछी  पड़ी थी।

वह धरती के सीने पर गिरा पड़ा था, बिल्कुल महाभारत के भीष्म पितामह की तरह, उसके चेहरे पर चिंता और विषाद की असीम रेखाएं खिंची पड़ी थी। वहीं पर उसके हृदय में और अधिक लोकोपकार न कर पाने की गहरी पीड़ा भी थी।

उसका हृदय तथा मन मानवीय अत्याचारों से दुखी एवं बोझिल था। उसने अपने जीवन काल के बीते पलों को अपनी स्मृतियों में सहेजते हुए मुझसे कहा।

“प्राकृतिक प्रकीर्णन द्वारा पक्षियों के उदरस्थ भोजन से बीज रूप में मेरा जन्म एक महात्मा की कुटिया के प्रांगण के भीतर धरती की कोख से हुआ था। धरती की कोख में एक नन्हे बीज रूप में मैं पड़ा पड़ा ठंडी गर्मी सहता पड़ा हुआ था कि एक दिन काले काले मेघों से पड़ती ठंडी  फुहारों से तृप्त हो उस बीज से नवांकुर फूट पड़े थे।जब मेरी कोमल लाल लाल नवजात पत्तियों पर महात्मा जी की निगाहें पड़ी,तो वे मेरे रूप सौन्दर्य पर रीझ उठे थे। उन्होंने लोक कल्याण की भावना से मुझे उस कुटिया प्रांगण में रोप दिया था। वे रोज सुबह शाम पूजा वंदना के बाद बचे हुए अमृतमयी गंगाजल  से मेरी जड़ों को सींचते तो उसकी शीतलता से मेरी अंतरात्मा निहाल हो जाती, और मैं खिलखिला उठता।।

इसी तरह समय अपनी मंथर गति से चलता रहा और समय के साथ मेरी आकृति तथा छाया का दायरा विस्तार लेता जा रहा था।इसी बीच ना जाने कब और कैसे महात्मा जी को मुझसे पुत्रवत स्नेह हो गया था।

मुझे तो पता ही नहीं चला, वे रोज कभी मेरी जड़ों में खाद पानी डाला करते, और कभी मेरी जड़ों पर मिट्टी डाल चबूतरा बना लीपा पोता करते, और परिश्रम करते करते जब तक कर बैठ जाते तो मेरी शीतल छांव‌ से उनके मन को अपार शांति मिलती। मेरी शीतल घनेरी छांव  उनकी सारी पीड़ा और थकान हर लेती। उनके चेहरे पर उपजे आत्मसंतुष्टि का भाव देख मैं भी अपने सत्कर्मो के आत्मगौरव के दर्प से भर उठता।मेरा चेहरा चमक उठता और मेरी शाखाएं झुक झुक कर अपने धर्म पिता के गले में गलबहियां डालने को व्याकुल हो उठती।

गुजरते हुए समय के साथ मेरे विकास का क्षेत्र फल बढ़ता गया। अब मैं जवान हो चला था, और मैंने हरियाली की एक चादर तान दी थी अपने धर्म पिता के कुटिया के उपर तथा सारे प्रांगण को अपनी सघन शीतल छांव से ढंक दिया था। मेरी शीतल छांव‌ का एहसास धूप से जलते पथिक तथा मेरे पके फल खाते पंक्षियो के कलरव से सारा कुटिया प्रांगण गूंज उठता तो उसे सुनकर महात्मा जी का चेहरा अपने सत्कर्मों के आत्मगौरव से खिल उठता और उनके चेहरे काआभा मंडल देख मेरा मन मयूर नाच उठता। और उनकी प्रेरणा मेरे सत्कर्मो की प्रेरक बना जाती। और मैं भी लोकोपकार की आत्मानुभूति से संतुष्ट हो जाता। एक संत के सानिध्य का मेरी जीवन वृत्ति पर बड़ा ब्यापक असर पड़ा था। मेरी वृति भी लोकोपकारी हो गई थी।अब औरों के लिए दुख और पीड़ा सहने में ही मुझे आनंद मिलने लगा था।मैं लगातार कभी वर्षा कभी गर्मी की लू कभी पाला और तुषार  की प्राकृतिक आपदाओं को झेलते हुए भी निर्विकार भाव से तन कर खड़ा रहा आंधियों तूफानों के झंझावातों को झेल लोककल्याण हेतु तन कर खड़ा  लड़ता रहा।अब औरों के लिए खुद पीड़ा सहने  में ही मुझे सुखानुभूति होने लगी थी।और महात्मा जी ने मेरी जड़ों के नीचे बने चबूतरे को ही अपनी साधना स्थली बना लिया था। और लोगों का आना-जाना और सत्संग करना महात्मा जी के दैनिक जीवन का अंग बन गया था। मैंने अपने जीवन काल में महात्मा जी की वाणी और सत्संग के प्रभाव से अनेकों लोगों की जीवन वृत्ति बदलते देखा है। और एक दिन महात्मा जी को जीवन की पूर्णता पर इस नश्वर संसार से विदा होते भी देखा। अब मेरी उस  छाया के नीचे  बने चबूतरे को महात्मा जी  का समाधि स्थल बना दिया गया था।तब से अब तक महात्मा जी के सानिध्य में बिताए पलों ‌को अपने स्मृतिकोश में सहेजे, लोककल्याण की आस अपने हृदय में लिए उस समाधि को अपनी घनी शीतल छांव‌ में आच्छादित किए वर्षों से ज्यों का त्यों खड़ा हूं। मैंने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा। मैं कभी पंछियों का आश्रय बना, तो कभी थके-हारे पथिक की शरणस्थली।

पर हाय ये मेरी किस्मत! ना जाने क्यूं? ये मानव मुझसे रूठ गया। यह मुझे नहीं पता। वो अब तक अपने तेज धार कुल्हाडे से मुझे चोट पहुंचाता रहा, मैं शांत हो उस दर्द और पीड़ा को सहता रहा और वो अपना स्वार्थ सिद्धि करता रहा।

परंतु आज इन बेदर्द इंसानों ने सारी हदें पार कर दी, और मेरी सारी जड़े काट कर मुझे मरने पर विवस कर दिया। क्यों कि  उन बेदर्द इंसानों ने वहां भव्य मंदिर को बनाने का निर्णय ले लिया है, इस क्रम में पहली बलि उन्होंने मेरी ही ली है।

और इस प्रकार मैंने सोचा कि जब मैं इस जग से जा ही रहा हूं तो क्यों न अपनी राम कहानी तुम्हें सुनाता जाऊं, ताकि मरते समय मेरे मन की मलाल पीड़ा और घुटन थोड़ी कम हो जाय, और सीने का बोझ थोडा़ हल्का हो जाय। मैं अपने आखिरी समय में अल्पायु मृत्यु को प्राप्त हो, लोगों की और सेवा न कर पाने की टीस मन में लिए जा रहा हूं। मेरा तुमसे यही निवेदन है कि मेरी पीड़ा और दर्द से सारे समाज को अवगत करा देना। ताकि यह मानव समाज अब और हरे वृक्ष न काटे।इस प्रकार पर्यावरण संरक्षण का संदेश देते देते उस वृक्ष की आंखें छलछला उठी, उसकी जुबां ख़ामोश हो गई। वह वटवृक्ष मर चुका था, उस समाधि के वटवृक्ष की दयनीय स्थिति देखकर मेरा भावुक हृदय चीत्कार कर उठा था।  मैं इंसानी अत्याचारों का शिकार हुए उस धराशाई वटवृक्ष को निहार रहा था, अपलक किंकर्तव्यविमूढ़ असहज असहाय हो कर।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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