डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘काम की चीज़ ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 125 ☆

☆ व्यंग्य – काम की चीज़

नेताजी फिर से थैला भर लॉलीपॉप लेकर जनता के बीच पहुँचे।लॉलीपॉप के बल पर दो चुनाव जीत चुके थे, अब तीसरे की तैयारी थी। ‘जिन्दाबाद, जिन्दाबाद’ के नारे लगाने वाले समर्थकों और चमचों की फौज थी।चमचे दिन भर मेहनत करके सौ डेढ़-सौ आदमियों को हाँक लाये थे।नेताजी के लिए यह मुश्किल समय था।एक बार चुनाव फतह हो जाए, फिर पाँच साल आनन्द ही आनन्द है।फिर पाँच साल तक जनता की शक्ल देखने की ज़रूरत नहीं।

नेताजी धड़ाधड़ श्रोताओं की तरफ लॉलीपॉप उछाल रहे थे कि भीड़ में से कोई काली चीज़ उछली और नेताजी के कान के पास से गुज़रती हुई पीछे खड़े उनके एक चमचे शेरसिंह की छाती से टकरायी।नेताजी ने घूम कर देखा तो एक पुराना सा काला जूता शेरसिंह के पैरों के पास पड़ा था और शेरसिंह आँखें फाड़े उसे देख रहा था।देख कर नेताजी का मुँह उतर गया, लेकिन दूसरे ही क्षण वे सँभल गये।शेरसिंह को बुलाया, जूता जनता को दिखाने के लिए कहा, बोले, ‘देखिए भाइयो, ये मेरी बातों के लिए विरोधियों का जवाब है।यही तर्क है उनके पास और यही है उनकी सभ्यता।लेकिन मैं उनको इस भाषा में जवाब नहीं दूँगा।छमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।इसका जवाब जनता देगी, आप देंगे।इस चुनाव में इन उपद्रवियों को भरपूर जवाब मिलेगा।मैं इसे आप पर छोड़ता हूँ।’

नेताजी भाषण समाप्त करके चले तो तो शेरसिंह गुस्से से कसमसाता हुआ बोला, ‘मैं जूते वाले को ढूँढ़ कर उसके सिर पर यही जूता दस बार बजाऊँगा,तभी मेरा कलेजा ठंडा होगा।’

नेताजी गुस्से से उसकी तरफ देखकर बोले, ‘नासमझ मत बनो।यह जूता हमारे बड़े काम आएगा।इसे सँभाल कर रखना।यह हमारे हजार दो हजार वोट बढ़ाएगा।हमारे देश के लोग बड़े जज़्बाती होते हैं।’

इसके बाद हर चुनाव-सभा के लिए चलते वक्त नेताजी शेरसिंह से पूछते, ‘वह रख लिया?’ और शेरसिंह द्वारा उन्हें आश्वस्त करने के बाद ही आगे बढ़ते।

फिर हर सभा में वे बीच में रुककर कहते, ‘एक ज़रूरी बात आपको बताना है जो विरोधियों के संस्कार और उनके अस्तर (नेताजी ‘स्तर’ को ‘अस्तर’ कहते थे)को दिखाता है।’ फिर वे शेरसिंह से हाथ ऊँचा कर जूता दिखाने को कहते। आगे कहते, ‘देखिए, पिछले महीने श्यामगंज की सभा में मुझ पर यह जूता फेंका गया।यह मेरे खिलाफ विरोधियों का तर्क है।लेकिन मुझे इसके बारे में उन्हें कोई जवाब नहीं देना है।अपना सिद्धान्त है, जो तोको काँटा बुवै ताहि बोउ तू फूल। मेरे बोये हुए फूल आपके हाथों में पहुँचकर विरोधियों के लिए तिरशूल बन जाएंगे।मैं इस घटिया हरकत का फैसला आप पर छोड़ता हूँ।मुझे कुछ नहीं करना है।’

वह जूता जतन से शेरसिंह के पास बना रहा और नेताजी की हर चुनाव-सभा में प्रस्तुत होता रहा।जूते के कारण नेताजी को भाषण लंबा करने की ज़रूरत नहीं होती थी।लोगों के जज़्बात को उकसाने का काम जूता कर देता था।जब कभी शेरसिंह उसे लेकर भुनभुनाने लगता तो नेताजी समझाते, ‘भैया, ज़रा जूते का मिजाज़ समझो।यह इज़्ज़त उतारता भी है और बढ़ाता भी है।यह आदमी के ऊपर है कि वह उसका कैसा इस्तेमाल करता है।पालिटिक्स में हर चीज़ के इस्तेमाल का गुर आना चाहिए।कुछ समझदार लोग तो अपनी सभा में खुद ही जूता फिंकवाते हैं।राजनीति में अपमान छिपाया नहीं, दिखाया और भुनाया जाता है।’

एक दिन नेताजी के मित्र और समर्थक त्यागी जी उनसे बोले, ‘भैया, पिछली मीटिंग में मुझे लगा कि आप जो जूता दिखा रहे थे वह पहले जैसा नहीं था।’

नेताजी हँसे, बोले, ‘आप ठीक कह रहे हैं।दरअसल वह ओरिजनल जूता एक सभा में शेरसिंह से खो गया था, तो मैंने अपने ड्राइवर का जूता मँगा लिया।उसे दूसरा खरिदवा दिया।यह जूता भी काले रंग का है।जनता को कहाँ समझ में आता है कि असली है या नकली।दिखाने के लिए जूता होना चाहिए,काम रुकना नहीं चाहिए।‘

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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