श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित  बदलते हुए ग्राम्य परिवेश पर आधारित एक अतिसुन्दर कविता – मेरा प्यार अभागा गाँव। इस रचना के सम्पादन के लिए हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के हार्दिक आभारी हैं । )

अगले सप्ताह रविवार से हम प्रस्तुत करेंगे श्री सूबेदार पाण्डेय जी  की एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली माई “।

☆ मेरा प्यार अभागा गाँव  ☆

उजड़  गये हैं घर-मुंडेर
 उजड़ रहे अब गाँव,
  पेड़ कट गए  दरवाजे के
   नहीं रही अब वो ठंडी छांव…
पट गये सब ताल-तलैया,
 सूख गया, कुँओं का नीर,
  पनघट खत्म हुए गाँवों से,
    कौन सुने अब उनकी पीर…
कौवे तक नहीं रहे गाँवों में,
 गोरी का सगुन  बिचारे कौन,
  पितृपक्ष भी हो गया सूना,
   आओ काग पुकारे कौन…
उजड़ गये सब बाग-बगीचे
 कजरी आल्हा हुए अब बंद,
  खत्म हुआ चहकना चिड़ियों का
   झुरमुट बंसवारी भी रहे चंद…
नहीं रही घीसू की मड़ई,
 नहीं रहे वो थिरकते पाँव
  नहीं रही वो सँकरी गलियाँ
   नहीं रहे वो चहकते गाँव…
नहीं रहा अब हुक्का-पानी,
 नहीं रहे वो गर्म-अलाव,
  गाँव की गोरी, चली शहर को,
   खाती नूडल, पास्ता और पुलाव…
जब से गगरी बनी सुराही,
 चला शहर गाँवो की ओर,
  खत्म हो गई लोकधुनें सब,
   रह गया बस डीजे का शोर…
खत्म हो गया अब  देशी
 गुड़, शर्बत और ठंडी लस्सी,
  ठेलों पर बिकता पिज्जा-बर्गर
   नहीं बनती है अब रोटी-मिस्सी…
शुरू हो गई अब गाँवों में
 आधुनिकता की अंधी रेस,
  ललुआ अब बन गया हीरो,
   धारे है निपट, जोकर  का वेश…
जब से आया शहर गाँव में,
 नहीं रही ममता की छाँव,
  रौनक सब खत्म हुई अब,
   उजड़ा-उजड़ा सा मेरा गाँव..

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments