श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अंगूठे का कमाल”।)  

? अभी अभी ⇒ अंगूठे का कमाल? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

अंगूठी उंगलियों में शोभा देती है, अंगूठे में नहीं। कहने को हमारे हाथों में पांच पांच उंगलियां हैं, लेकिन उंगली, उंगली है और अंगूठा, अंगूठा। जब यह किसी कागज़ पर लगाया जाता है तब तो अंगूठा निशानी बन जाता है, लेकिन जब किसी को दिखाया जाता है, तो ठेंगा कहलाता है।

बड़े मोटे होते हैं ये अंगूठे, चाहे हाथ के हों, या दोनों पांव के। पतली पतली नाजुक उंगलियों की तुलना में आप इन्हें, मोटा

हाथी भी कह सकते हैं। बचपन में हमारा शरीर इतना लचीला होता है कि एक नन्हा सा बालक हाथ का ही नहीं, अपने दोनों पांवों का अंगूठा भी आसानी से चूस सकता है। ऐसा क्या है इस अंगूठे में, कि कुछ बच्चे पेट भरने के बाद भी अंगूठा ही चूसा करते हैं। अंगूठा, हमारे जमाने की चुस्की था। कोई हमें क्या बहलाएगा, हमारा अंगूठा ही हमारे काम आएगा। ।

निरक्षर को बोलचाल की भाषा में अंगूठा छाप कहते हैं। जहां पढ़े लिखे अपने हस्ताक्षर छोड़ते हैं, वहां एक अनपढ़ बड़े आत्म विश्वास के साथ, अपना अंगूठा निशानी छोड़ जाता है। जब वे इस संसार से गए, तो अपने बाद, कई कानूनी कागजों और दस्तावेजों पर अपने अंगूठे की छाप छोड़ गए।

साक्षरता अभियान में हमारे कई अनपढ़ लोगों ने अपने हस्ताक्षर करना सीख लिया। अब रामप्रसाद गर्व से अपने हस्ताक्षर करता है, अंगूठा नहीं लगाता। वैसे उसके लिए आज भी काला अक्षर भैंस बराबर ही है। उसका आज भी यही मानना है, कि ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होय, जब कि रामप्रसाद तो ढाई नहीं, पांच अक्षर लिख और बांच सकता है, तो क्या वह महा पंडित नहीं हुआ। ।

हमारा केरल प्रदेश सौ प्रतिशत साक्षर है, लेकिन वहां के पढ़े लिखे लोगों को नौकरी करने अन्य प्रदेशों में जाना पड़ता है, जहां आज भी गांव गांव में आंगनवाड़ी और प्रौढ़ शिक्षा अभियान जारी है। आज भी याद आता है, अटल जी का आव्हान, चलो इस्कूल चलें। कितना ठंडा ठंडा, कूल कूल, हमारा स्कूल।

द्वापर युग में ही कौरव पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य, अंगूठे का महत्व जान गए थे, तभी तो अपने ऑनलाइन शिष्य एकलव्य से गुरु दक्षिणा में अंगूठा मांग लिया। ये अंगूठा मुझे दे दे, सत् शिष्य ! कोई आज का शिष्य होता तो अपने गुरु को अंगूठा दिखा देता, अब तो गुरुजी सरकार तो मुझे स्कॉलरशिप दे रही है, और आपको दो कौड़ी की तनख्वाह। जाओ, कहीं और ट्यूशन करो। ।

जब से हमारा देश पेपर करेंसी से मुक्त हुआ है, वह पूरी तरह डिजिटल हो चुका है। कागज की महत्ता को देखते हुए, सभी शासकीय और अर्ध शासकीय कामकाज, पेपरलेस होते चले जा रहे हैं। दफ्तरों में हाजरी रजिस्टर नहीं, ई – हस्ताक्षर किए जा रहे हैं। संचार क्रांति आजकल डिजिटल क्रांति बन चुकी है।

हमने भी कब से कागज पत्तर और कलम दवात का मोह छोड़ दिया है। आज हमारे हाथ में भी स्मार्ट एंड्रॉयड फोन, लैपटॉप, डेस्क टॉप और कंप्यूटर है। लेकिन हम इतने लालची नहीं ! आज भी एक अदद 4-G एंड्रॉयड फोन से हम सभी लिखा पढ़ी, चिट्ठी पत्री और चैटिंग सफलतापूर्वक संपन्न कर लेते हैं, और इसमें हमारा एकमात्र सहारा और सहयोगी होता है, हमारा मात्र अंगूठा। ।

कभी जब हमारी उंगलियां टाइपराइटर पर चलती थी, तो दसों उंगलियों को रोजगार मिल जाता था। हम जब टाइप करते थे, तो लगता था, हम कोई हरमुनिया बजा रहे हैं। सारेगम, पधनीसा की जगह हमारा हिंदी कीबोर्ड होता था, बकमानजन, सपिवप।

अंग्रेजी कीबोर्ड आज भी यूनिवर्सल है, asdfg, hjkl इत्यादि इत्यादि।

अब मात्र चार अंगुल का तो हमारा एंड्रॉयड फोन का की -बोर्ड, कहां कहां उंगली रखी जाए ? आपको आश्चर्य होगा, हमारा केवल अंगूठा किस खूबी और दक्षता से पूरा की बोर्ड चला लेता है। एक हाथ में मोबाइल और दूसरे हाथ का केवल अंगूठा ही यह अभी अभी रोज इसी तरह आपकी सेवा में प्रस्तुत करता चला आ रहा है। मुझे नहीं पता, आप कौन से कर कमल से यह कार्य निष्पादित करते हैं। ।

मेरे मन मस्तिष्क ने महर्षि वेद व्यास की तरह, मेरे अंगुष्ठ रूपी श्रीगणेश को, विचारों की श्रृंखला को, एक कड़ी में पिरोकर, अग्रेषित किया और हमारे अंगुष्ठ महाराज, गणेश जी की तरह, फोन के की बोर्ड पर, उसे यथावत उतारते चले गए। इसमें हमारे अथवा मेरे मैं का कोई योगदान नहीं।

तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा। यह सिर्फ हमारे अंगूठे का कमाल है। अगर कुछ अच्छा है तो वह सब उसका है, अगर अच्छा नहीं, तो सब कुछ मेरा है।

थ्री चीयर्स एंड थम्स अप।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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