श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 289 प्याऊ… ?

अपने काम के सिलसिले में प्रेस के लिए रवाना हुआ हूँ।  देखता हूँ कि रास्ते में एक प्याऊ का बड़ा फ्लेक्स लगा है।  आजकल पानी ठंडा रखने के लिए उपयोग किए जाने वाले बीस लीटर वाले तीन कंटेनर चेन से बंधे हैं। ग्लास भी चेन से बंधे हुए रखे हैं। प्याऊ के लिए जितना स्थान घेरा गया है,  मुश्किल से उसके बीस प्रतिशत भाग में यह तीनों कंटेनर हैं। शेष अस्सी प्रतिशत का वर्णन करूँ तो कंटेनरों के दोनों ओर एक राजनीतिक पार्टी के हाईकमान के कट आउट लगे हैं। कंटेनर के ऊपर की ओर फ्लेक्स से तोरण बनाया गया है। उस पर राजनीतिक पार्टी का नाम लिखा है और स्थानीय इकाई के सदस्यों के फोटो लगे हैं। यहाँ तक कि कंटेनर के पीछे वाले हिस्से में भी इस राजनीतिक पार्टी के एक दिवंगत नेता का बड़ा-सा फोटो लगा दिया गया है।

मन कुछ कसैला-सा हो गया। यह कैसी व्यवस्था है जहाँ तिल को ताड़ बनाकर और मुट्ठी भर काम को पहाड़ बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। सोचते-सोचते प्रेस के निकट पहुँच चुका हूँ।

यहाँ सड़क के बीच बने एक छोटे से प्राचीन मंदिर से मुड़कर आगे जाना है। देखता हूँ कि यहाँ भी सामने की ओर बने देवी के मंदिर के सामने एक प्याऊ लगी है। तथापि दृश्य यहाँ कुछ अलग है। काले रंग के तीन बड़े-बड़े मटके। हरेक की क्षमता लगभग सौ लीटर है। ग्लास यहाँ भी हैं। ऊपर की ओर एक छोटा-सा फ्लेक्स भी है। इस फ्लेक्स पर जिनके स्मरणार्थ प्याऊ शुरू की गई है, उनका नाम लिखा है। फोटो के स्थान पर मंदिर में विराजित देवी का फोटो छपा है।

मुझे अपना ननिहाल याद आ गया। ग्रीष्मावकाश में हम राजस्थान में अपनी ननिहाल जाया करते थे। मैं देखता था कि गाँव में सार्वजनिक स्थानों पर, गाँव से आसपास के गाँवो या ढाणी (बस्ती) के लिए जानेवाले रास्तों पर, टीबों (रेत के टीले) के पास बड़े-बड़े मटकों से प्याऊ लगा कर प्राय: बुज़ुर्ग महिलाएँ बैठी होती थीं।  समाज विज्ञान और मनोविज्ञान की दृष्टि से देखें तो वृद्धों का समय बीत सके, इसकी सार्थक सामाजिक व्यवस्था लोक ने कर रखी थी। प्याऊ के आसपास का वातावरण ठंडा और सुखद होता था। आते-जाते पथिक प्याऊ के पास ही बैठकर कुछ सुस्ता भी लेते। उन दिनों रामझरे से पानी पिलाया जाता था। ये रामझरे तांबे या पीतल से बने होते थे।

विज्ञान कहता है कि तांबे के पात्र में रखा पानी शरीर के लिए गुणकारी होता है। कॉपर के एंटीबैक्टीरियल तत्व शरीर को लाभ पहुँचाते हैं। तांबे के पात्र में रखा जल ग्रहण करने से शरीर की ऊर्जा में वृद्धि होती है। यह जल पाचनशक्ति को बेहतर करता है। कहते हैं कि इस जल से मानसिक शांति भी मिलती है। बचपन में मानसिक शांति-अशांति का तो पता नहीं था पर तपते रेगिस्तान में तांबे के रामझरे से झरने वाले जल के स्वाद एवं तृप्ति के आगे, समुद्र-मंथन के बाद देवताओं द्वारा किया गया अमृतपान भी फीका था।

हाँ, उन दिनों प्याऊ का कोई फ्लेक्स नहीं बनता था। प्यासे को पानी पिलाना न प्रचार था ना दिखावा। पानी पिलाना कर्म था, पानी पिलाना धर्म था।

सोचता हूँ कि कहाँ आ पहुँचे हैं हम? यह कैसी प्रदर्शनप्रियता है? जहाँ छाछ भी नहीं बेची जाती थी, वहां पानी पिलाना भी टीआरपी टूल हो चला है।

भारतीय दर्शन कहता है-

अमृतम् सर्व भूतानाम्, जलम् सर्वस्य जीवनम्।

यस्मान् न सानुप्राप्तम्, तस्मान् दानम् वरं परम्।

अर्थात सभी प्राणियों के लिए जल अमृत के समान है, जल सभी का जीवन है। जिसकी प्राप्ति नहीं होती (बनाया नहीं जा सकता), उसका दान परम श्रेष्ठ होता है।

तब और अब के जीवन दर्शन का अंतर कभी ‘प्याऊ’ शीर्षक की एक कविता में उतरा था-

खारा पानी था उनके पास,

मीठे पानी का सोता रहा

तुम्हारे पास,

तब भी,

उनके खड़े होते रहे महल-चौबारे,

और तुम, उसी कुटिया के सहारे,

सुनो..!

बोतलबंद पानी बेचना

उनकी प्रवृत्ति रही,

प्याऊ लगना मेरी प्रकृति रही,

जीवन के आयामों का

अनुसंधान, अपना-अपना…

जीवन के अर्थ पर

संधान, अपना-अपना…!

जीवन हमारा है। अपने जीवन के अर्थ का संधान हमें स्वयं ही करना होगा। तथापि मनुष्य होने के नाते वांछित है कि कुछ ऐसा किया जाए जिससे प्यास, आकंठ तृप्त हो सके। शेष निर्णय अपना-अपना।

© संजय भारद्वाज 

17: 37 बजे, 17 मई 2025

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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