श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री धर्मपाल महेंद्र जैन जी द्वारा लिखित “साहित्य की गुमटी” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 179 ☆
☆ “साहित्य की गुमटी” – व्यंग्यकार… श्री धर्मपाल महेंद्र जैन ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक : साहित्य की गुमटी
लेखक: धर्मपाल महेंद्र जैन
प्रकाशक.. शिवना प्रकाशन, सीहोर
पृष्ठ 158, मूल्य 275 रु
चर्चा: विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल
धर्मपाल महेंद्र जैन का व्यंग्य-संग्रह साहित्य की गुमटी, समकालीन भारतीय समाज, सत्ता, भाषा और डिजिटल संस्कृति पर तीखी किन्तु सुसंस्कृत टिप्पणी करता है। इसे पढ़ते हुए विनोद के साथ-साथ चित्त में चुभन का भी अनुभव होता है। धर्मपाल जी के व्यंग्य की सार्थकता हँसाते हुए सोचने को विवश करना कही जा सकती है।
यह किताब 48 व्यंग्य रचनाओं का ऐसा संकलन है जहाँ हर रचना एक नए सामाजिक विषय पर यथार्थ के दरवाजे खोलती है। इन व्यंग्य लेखों को पढ़कर कहा जा सकता है कि वे रहते भले ही कैनेडा में हैं पर वे भारतीय समाज से मुकम्मल तौर पर जुड़े हुए हैं।
‘ज़हर के सौदागर’ से लेकर ‘रेवड़ी बाँटने वाले मालामाल’ तक लेखक ने जिस पैनेपन से समाज की नब्ज़ पर उंगली रखी है, वह उन्हें एक सफल व्यंग्यकार के रूप में स्थापित करती है।
व्यंग्य के विषयवस्तु की विविधता परिलक्षित होती है। व्यंग्य का तेवर प्रत्येक रचना में बरकरार रखा गया है।
‘ज़हर के सौदागर’ जैसी शुरुआती रचना से ही लेखक पाठक को अपने तीखे हास्य और प्रतीकात्मकता के भँवर में खींच लेता है। ‘ज़हर’ यहाँ केवल रसायन नहीं बल्कि वह मानसिक, सांस्कृतिक, भाषाई, राजनीतिक विष है जो धीरे-धीरे हमारी चेतना को ग्रस रहा है। लेखक न केवल ज़हर बेचने वाले की दुकान को केन्द्र में रखकर पूँजीवाद, अपराध, अफसरशाही और समाज के विकृत होते मूल्यों पर वार करता है बल्कि उन संरचनाओं की भी आलोचना करता है जहाँ “पिछवाड़े से धंधा” करने को शिष्टाचार समझा जाने लगा है।
‘किनारे का ताड़ वृक्ष’ एक प्रतीकात्मक रचना है, जहाँ सत्ता में बढ़ती महत्वाकांक्षाएं, विरासत को छोड़कर आत्म-महत्व के शिखर की ओर भागती जटाएँ एक विडंबनात्मक यथार्थ रचती हैं। वटवृक्ष और ताड़ वृक्ष का यह बिंब भारतीय राजनीति और साहित्यिक जगत की एक यथार्थ कथा बन जाता है।
डिजिटल समाज नया युग बोध है। ‘वाट्सऐप नहीं, भाट्सऐप’ में सोशल मीडिया पर साहित्यिक व्यक्तित्वों की ऊलजलूल प्रशंसा की झड़ी, समूहों की राजनीति और आत्ममुग्धता पर कटाक्ष है। लेखक जिस प्रकार से “भाटगिरी” शब्द का प्रयोग करता है, वह आज के डिजिटली सक्रिय साहित्यिक समाज पर तीखा व्यंग्य है । यह रचना हमारे आज के ‘वर्चुअल’ समाज की एक मज़बूत विडंबना है, जहाँ प्रशंसा अब ‘पारस्परिक लेन-देन’ का व्यापार बन चुकी है। सत्ता और व्यवस्था पर तीखा वार करता उनका व्यंग्य ‘बम्पर घोषणाओं के ज़माने में’ है। राजनीतिक पाखंड, खोखली योजनाओं और “बिना पैरों वाली घोषणाओं” का ऐसा विस्फोट किया गया है कि पाठक मुस्कराते हुए देश की विकास यात्रा पर सोचने को मजबूर हो जाता है। सत्ता द्वारा की जाने वाली घोषणाएँ किस तरह प्रचार का साधन बनती जा रही हैं, इसका वर्णन जितना मनोरंजक है, उतना ही मर्मांतक भी।
‘तानाशाह का मकबरा’ एक और रचना है जो सत्ता के जाने के बाद की उपेक्षा, विस्मरण और जनता के बदलते सरोकारों पर टिप्पणी करती है। यह व्यंग्य केवल किसी मृत शासक का पोस्टमॉर्टम नहीं करता बल्कि यह दर्शाता है कि स्मृति को कैसे राजनीतिक और प्रशासनिक उदासीनता ने धूमिल कर दिया है।
भक्ति और प्रसिद्धि का गठजोड़ आज की विसंगति है।
‘आज के भक्तिकाल में’ और ‘लाइक बटोरो और कमाओ’ जैसे व्यंग्य आज के ‘डिजिटल भक्ति आंदोलन’ पर गहरी चोट करते हैं। एक ओर लेखक यह दिखाते हैं कि कैसे “प्रसिद्धि प्रसाद” जैसा पात्र साहित्य की विधाओं को छोड़ सरकारी कविता की भक्ति में लग जाता है, वहीं दूसरी ओर फेसबुक पर ‘लाइक्स’ की दौड़ में लगे ‘प्रसिद्धि प्रसाद’ की छवि डिजिटल भिक्षुक की हो जाती है।
धर्मपाल महेंद्र जैन की विशेषता उनकी भाषा है। वे संस्कारों से बँधे लेकिन समकालीन मुहावरे में ढले हुए शब्दों से रचना को सजाते हैं। उनकी भाषा का व्यंग्य न केवल चुभता है बल्कि भीतर तक व्याप्त होता है। उनका शिल्प परिष्कृत है, वाक्य गठन में कसावट है, और हास्य में अर्थ की बहुलता है।
‘राजा और मेधावी कंप्यूटर’ जैसी रचना में तकनीक के युग में सत्ता की मानसिकता पर शानदार व्यंग्य है। कंप्यूटर की ‘बुद्धिमत्ता’ और राजा की ‘मूर्खता’ का तालमेल एक उत्कृष्ट विडंबना का उदाहरण है।
‘भाषा के हाईवे पर गड्ढे ही गड्ढे’ लेखक की आत्मालोचनात्मक रचनाओं में से एक है। यह समकालीन आलोचना-पद्धति पर गहरा कटाक्ष करती है। ‘मित्रगण’ और ‘अमित्रगण’ के बीच की विभाजन रेखा और आलोचना को रचना की बजाय लेखक के चरित्र पर केंद्रित करना—यह सब कुछ ऐसा सच है जिसे हम जानते तो हैं, पर कहने का साहस धर्मपाल जी जैसा व्यंग्यकार ही जुटा पाता है।
‘साहित्य की गुमटी’ समकालीन व्यवस्था की सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और भाषाई तस्वीर को व्यंग्य की नजर से रेखांकित करने वाला दर्पण है। इसमें ‘ईडी है तो प्रजातंत्र स्थिर है’, ‘विदेश में परसाई से दो टूक’, ‘सबसे बड़ा प्रोफेसर, हिंदी का’ जैसी रचनाएँ न केवल वर्तमान की समस्याओं को उभारती हैं बल्कि पाठक को भाषा, व्यवस्था और साहित्य पर सोचने को प्रेरित करती हैं।
लेखक ने व्यंग्य को गुदगुदी का माध्यम नहीं, झकझोरने का औज़ार बना कर प्रस्तुत किया है। यह संग्रह बताता है कि व्यंग्य केवल हास्य नहीं है, यह अपने समय की तीव्र प्रतिक्रिया है, और धर्मपाल महेंद्र जैन इसके सजग व्याख्या कर्ता हैं।
जो पाठक व्यंग्य को केवल मनोरंजन नहीं, सृजनात्मक प्रतिरोध मानते हैं, उनके लिए यह किताब महत्वपूर्ण संग्रह है।
चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈