श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “नहि पावस ऋतुराज यह…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 183 ☆ नहि पावस ऋतुराज यह… ☆
स्वतंत्र होने पर जो आदर सम्मान मिलता है, वो पिंजरे में रहने पर नहीं मिल सकता। वैचारिक समृद्धता से परिपूर्ण व्यक्ति सही योजना के साथ टीम वर्क पर कार्य करता है और अपनी उपयोगिता को सिद्ध करते हुए सुखद वातावरण निर्मित करता जाता है। संगठन के साथ जुड़ाव होने पर एकता की शक्ति स्वाभाविक रूप से झलकती है। दूसरी तरफ अपने आपको बंधनो में बांध कर कम्फर्ट जोन में रहने वाला कोई भी नयी योजना को शुरू करने में झिझकता है। यदि किसी तरह कुछ करने भी लगे तो उसका परिणाम आशानुरूप नहीं होता। कारण साफ है, जमीनी स्तर पर कैसे कार्य होता है ये पिंजरे में बैठकर समझा नहीं जा सकता है।
जैसी संगत वैसी रंगत के कारण, बंधनों को अपना सुरक्षा कवच मानने वाले लोगों को ही अपना सलाहकार बना कर बड़ी काल कोठरी बनाने लगते हैं, जिसमें कोई भूलवश भले आ जाए पर जल्दी ही छटपटाने लगता है और मौका मिलते ही भाग जाता है। आने- जाने की प्रक्रिया तो भावनाओं की परीक्षा है जिससे सभी को गुजरना पड़ता है। मजे की बात तो ये है कि उम्रदराज लोग भी सही और गलत में भेद करने की हिम्मत जुटा रहे हैं और खुलकर अपने विचारों पर बोल रहे हैं। सत्य की राह पर चलने का सुख जब मिले तभी चल पड़ें। कहते हैं, राह और राही दोनों सही होते हैं तो भगवान भी मदद करने को आतुर हो उठते हैं।
बसंत ऋतु का आगमन, पतझड़ का होना, नई कोपलों का बनना, बौर का फूलना, फागुनी रंग, चैत्र की आहट सब जरूरी है। योग्य नेतृत्व के छाया तले, निश्चित रूप से सभी को फलने- फूलने का मौका मिलेगा।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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