आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा डॉ राजकुमार तिवारी ”सुमित्र’ जी की कृति “आदमी तोता नहीं” की काव्य समीक्षा।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 141 ☆
☆ काव्य समीक्षा – शब्द अब नहीं रहे शब्द – डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆
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काव्य समीक्षा
शब्द अब नहीं रहे शब्द(काव्य संग्रह)
डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’
प्रथम संस्करण २०२२
पृष्ठ -१०४
मूल्य २५०/-
आईएसबीएन ९७८-९३-९२८५०-१८-९
पाथेय प्रकाशन जबलपुर
☆ शब्द अब नहीं रहे शब्द : अर्थ खो हुए निशब्द – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆
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[, काव्य संग्रह, डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’, प्रथम संस्करण २०२२, पृष्ठ १०४, मूल्य २५०/-, आईएसबीएन ९७८-९३-९२८५०-१८-९, पाथेय प्रकाशन जबलपुर]
*
कविता क्या है?
कविता है
आत्मानुभूत सत्य की
सौ टंच खरी शब्दाभिव्यक्ति।
कविता है
मन-दर्पण में
देश और समाज को
गत और आगत को
सत और असत को
निरख-परखकर
कवि-दृष्टि से
मूल्यांकित कार
सत-शिव-सुंदर को तलाशना।
कविता है
कल और कल के
दो किनारों के बीच
बहते वर्तमान की
सलिल-धार का
आलोड़न-विलोड़न।
कविता है
‘स्व’ में ‘सर्व’ की अनुभूति
‘खंड’ से ‘अखंड’ की प्रतीति
‘क्षर’ से ‘अक्षर’ आराधना
शब्द की शब्द से
निशब्द साधना।
*
कवि है
अपनी रचना सृष्टि का
स्वयंभू परम ब्रह्म
‘कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू’।
कवि चाहे तो
जले को जिला दे।
पल भर में
शुभ को अमृत
अशुभ को गरल पिला दे।
किंतु
बलिहारी इस समय की
अनय को अभय की
लालिमा पर
कालिमा की जय की।
कवि की ठिठकी कलम
जानती ही नहीं
मानती भी है कि
‘शब्द अब नहीं रहे शब्द।’
शब्द हो गए हैं
सत्ता का अहंकार
पद का प्रतिकार
अनधिकारी का अधिकार
घृणा और द्वेष का प्रचार
सबल का अनाचार
निर्बल का हाहाकार।
समय आ गया है
कवि को देश-समाज-विश्व का
भविष्य उज्जवल गढ़ने के लिए
कहना ही होगा शब्द से
‘उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत’
उठो, जागो, बोध पाओ और दो
तुम महज शब्द ही नहीं हो
यूं ही ‘शब्द को ब्रह्म नहीं कहा गया है।’३
*
‘बचाव कैसे?’४
किसका-किससे?
क्या किसी के पास है
इस कालिया के काटे का मंत्र?
आखिर कब तक चलेगा
यह ‘अधिनायकवादी प्रजातन्त्र?’१५
‘जहाँ प्रतिष्ठा हो गई है अंडरगारमेंट
किसी के लिए उतरी हुई कमीज।‘१६
‘जिंदगी कतार हो गई’ १७
‘मूर्तियाँ चुप हैं’ १८
लेकिन ‘पूछता है यक्ष’१९ प्रश्न
मौन और भौंचक है
‘खंडित मूर्तियों का देश।’१९
*
हम आदमी नहीं हैं
हम हैं ‘ग्रेनाइट की चट्टानें’२०
‘देखती है संतान
फिर कैसे हो संस्कारवान?’२१
मुझ कवि को
‘अपने बुद्धिजीवी होने पर
घिन आती है।‘२३
‘कैसे हो गए हैं लोग?
बनकर रह गए हैं
अर्थहीन संख्याएँ।२४
*
रिश्ता
मेरा और तुम्हारा
गूंगे के गुड़ की तरह।२६
‘मैं भी सन्ना सकता हूँ पत्थर२८
तुम भी भुना सकते हो अवसर,
लेकिन दोस्त!
कोई उम्मीद मत करो
नाउम्मीद करने-होने के लिए। २९
तुमने
शब्दों को आकार दे दिया
और मैं
शब्दों को चबाता रहा। ३०
किस्से कहता-
‘मैं भी जमीन तोड़ता हूँ,
मैं कलम चलाता हूँ।३१
*
मैं
शब्दों को नहीं करता व्यर्थ।
उनमें भरता हूँ नित्य नए अर्थ।
मैं कवि हूँ
जानता हूँ
‘जब रेखा खिंचती है३२
देश और दिलों के बीच
कोई नहीं रहता नगीच।‘
रेखा विस्तार है बिंदु का
रेखा संसार है सिंधु का
बिंदु का स्वामी है कलाकार।‘३३
चाहो तो पूछ लो
‘ये कौन चित्रकार है ये कौन चित्रकार?’
समयसाक्षी कवि जानता है
‘भ्रष्टाचार विरोधी जुलूस में
वे खड़े हैं सबसे आगे
जो थामे हैं भ्रष्टाचार की वल्गा।
वे लगा रहे हैं सत्य के पोस्टर
जो झूठ के कर्मकांडी हैं।३६
*
लड़कियाँ चला रही हैं
मोटर, गाड़ी, ट्रक, एंजिन
और हवाई जहाज।
वे कर रही हैं अंतरिक्ष की यात्रा,
चढ़ रही हैं राजनीति की पायदान
कर रही हैं व्यापार-व्यवसाय
और पुरुष?
आश्वस्त हैं अपने उदारवाद पर।३७
क्या उन्हें मालूम है कि
वे बनते जा रहे हैं स्टेपनी?
उनकी शख्सियत
होती जा रही है नामाकूल फनी।
*
मैं कवि हूँ,
मेरी कविता कल्पना नहीं
जमीनी सचाई है।
प्रमाण?
पेश हैं कुछ शब्द चित्र
देखिए-समझिए मित्र!
ये मेरी ही नहीं
हर ऐरे गैरे नत्थू खैरे और
ख़ास-उल-खास की
जिंदगी के सफे हैं।
‘जी में आया
उसे गाली देकर
धक्के मारकर निकाल दूँ
मगर मैंने कहा- आइए! बैठिए।४४
वे कौन थे
वे कहाँ गए
वे जो
धरती को माँ
और आकाश को पिता कहते थे?
दिल्ली में
राष्ट्रपति भवन है,
मेरे शहर में
गुरंदी बाजार है।४७
कलम चलते-चलते सोचती है
काश! मैं
अख्तियार कर सकती
बंदूक की शक्ल।
मेरे शब्द
हो गए हैं व्यर्थ।
तुम नहीं समझ पाए
उनका अर्थ। ५२
आज का सपना
कल हकीकत में तब्दील होगा
जरूर होगा।५३
हे दलों के दलदल से घिरे देश!
तुम्हारी जय हो।
ओ अतीत के देश
ओ भविष्य के देश
तुम्हारी जय हो।
*
ये कविताएँ
सिर्फ कविताएँ नहीं हैं,
ये जिंदगी के
जीवंत दस्तावेज हैं।
ये आम आदमी की
जद्दोजहद के साक्षी हैं।
इनमें रची-बसी हैं
साँसें और सपने
पराए और अपने
इनके शब्द शब्द से
झाँकता है आदमी।
ये ख़बरदार करती हैं कि
होते जा रहे हैं
अर्थ खोकर निशब्द,
शब्द अब नहीं रहे शब्द।
*
© आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
२६-५-२०२३, जबलपुर
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