हेमन्त बावनकर
☆ कविता ☆ मैं मंच का नहीं, मन का कवि हूँ! ☆
जी हाँ!
मैं स्वांतः सुखाय ही लिखता हूँ।
जब अन्तर्मन में कुछ शब्द बिखरते हैं
जब हृदय में कुछ उद्गार बिलखते हैं
तब जैसे
शान्त जल-सतह को
कंकड़ तरंगित करते हैं।
तब वैसे
शब्द अन्तर्मन को स्पंदित करते हैं।
बस
कोई घटना ही काफी है।
बच्चे का जन्म
बच्चे की किलकारी
फूलों की फुलवारी
राष्ट्रीय संवाद
व्यर्थ का विवाद
यौवन का उन्माद
गूढ़ चिंतन सा अपवाद।
इन सबके उपरान्त
किसी अपने का
किसी वृद्ध का देहान्त
हो सकता है एक कारण
कुछ भी हो सकता है कारण
तब हो जाता है कठिन
रोक पाना मन उद्विग्न।
तब जैसे
मन से बहने लगते हैं शब्द
व्याकुल होती हैं उँगलियाँ
ढूँढने लगती हैं कलम
और फिर
बहने लगती है शब्द सरिता
रचने लगती है रचना
कथा, कहानी या कविता।
शायद इसीलिए
कभी भी नहीं रच पाता हूँ
मन के विपरीत
शायरी, गजल या गीत।
नहीं बांध पाता हूँ शब्दों को
काफिये मिलाने से
मात्राओं के बंधों से
दोहे चौपाइयों और छंदों से।
शायद वो प्रतिभा भी
जन्मजात होती होगी।
जिसकी लिखी प्रत्येक पंक्तियाँ
कालजयी होती होंगी
आत्मसात होती होंगी।
मैं तो बस
निर्बंध लिखता हूँ
स्वछंद लिखता हूँ
मन का पर्याय लिखता हूँ
स्वांतः सुखाय लिखता हूँ।
जी हाँ!
मैं स्वांतः सुखाय ही लिखता हूँ।
किन्तु,
मन को आपसे साझा जो करना है
शायद इसीलिये
मैं मंच का नहीं मन का कवि हूँ।
© हेमन्त बावनकर
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
मन से दिल तक
अति सुन्दर!
साधुवाद!
👏👏👏👏
बहुत बहुत सुंदर कविता !
वाह..! ईमानदारी से व्यक्त भाव। प्रभावी रचना।