हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है  एक लघुकथा “फर्ज़”। )  

☆ लघुकथा – फर्ज़ ☆

( इंडिया टुडे में प्रकाशित सत्य घटना पर आधारित)

शैलेंद्र भैया आज होते तो कितने खुश होते? भाई को याद कर ज्योति के नेत्र नम हो गए। बड़ी मुश्किल से वह अपने आँसू रोक पा रही थी। यही स्थिति घर के सभी लोगों की थी। कोई किसी से कुछ भी नहीं कह पा रहा था। सभी अपने आंसुओं के सैलाब को रोक कर विवाह के रस्मों को निभाने का प्रयास कर रहे थे।

अचानक एक गाड़ी आकर रुकती है। धड़धड़ाते हुए कुछ फौजी अपने शोल्डर बैग लेकर उतरते हैं। घर-परिवार के सब लोग विस्मित नेत्रों से देखते हैं। अरे! इनमें से कुछ तो शैलेंद्र के मित्र हैं, जो उसकी निर्जीव देह तिरंगे में लपेट कर लाये थे।

सब लोगों के साथ बाबूजी भी स्तब्ध थे। तभी उन फ़ौजियों में से एक ने आगे बढ़कर बाबूजी के चरण स्पर्श करते हुए कहा – “बाबूजी, हम शैलेंद्र के मित्र हैं, आपके बेटे और ज्योति बहन के भाई।”

बाबूजी के नेत्र भर आए और उसे गले लगाकर रो पड़े। शैलेंद्र के मित्रों की आँखें भी भर आईं थीं। तभी एक और मित्र आगे बढ़ा और बाबूजी के कंधे पर हाथ रखकर बोला – “बाबूजी, ऐसे दिल छोटा नहीं करते। चलिये हम सब मिलकर शादी की रस्में पूरी करते हैं।”  

और फिर देखते ही देखते शादी का माहौल ही बदल गया।

यह बात बिजली की तरह सारे गाँव में फैल गई।

सारे गाँव ने और यहाँ तक कि दूल्हे के परिवार ने भी देखा कि कैसे शैलेंद्र के मित्रों ने बढ़ चढ़ कर शादी की एक एक रस्म निभाने का भरसक प्रयत्न किया जो एक भाई को निभानी होती हैं।    

शैलेंद्र के पिताजी का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। वे मन ही मन सोच रहे थे कि – “आज मेरा बेटा इस दुनिया में नहीं है किन्तु, ईश्वर ने मुझे इतने बेटे दिये हैं जो मेरे सुख और दुख में शामिल होने के लिए सदैव तैयार हैं।”

दूसरी ओर शैलेंद्र के मित्र नम नेत्रों से अपने मित्र को याद कर रहे थे और सोच रहे थे – “ईश्वर हमें शक्ति दें, ताकि हम देश की सुरक्षा के साथ ही अपने भाइयों के सुख दुख में शामिल हो सकें।”

© हेमन्त बावनकर

पुणे 

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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जगत सिंह बिष्ट

अत्यंत प्रेरक, सकारात्मक और मर्मस्पर्शी!

Shyam Khaparde

मर्मस्पर्शी रचना, एक बेहतर समाज की कल्पना, बधाई हो

सत्येंद्र सिंह

बहुत सुंदर लघकथा। पढते पढ़ते आंखें भर आईं। बधाई।