हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ 27 साल पहले की 26 जनवरी की यादें… ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है अविस्मरणीय संस्मरण  ‘27 साल पहले की 26 जनवरी की यादें…। हम आपसे आपके अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

☆ संस्मरण ☆ 27 साल पहले की 26 जनवरी की यादें… ☆  

(श्री अजीत सिंह हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं ।  उन्होंने 19 वर्षों तक जम्मू और कश्मीर में ऑल इंडिया रेडियो के संवाददाता के रूप में काम किया ।  बाद में वह 2006 में समाचार दूरदर्शन केंद्र हिसार के निदेशक के रूप में सेवानिवृत्त हुए । )

वर्ष 1995 में जम्मू के मौलाना आज़ाद स्टेडियम में आयोजित गणतंत्र दिवस समारोह के दौरान जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल, जनरल केवी कृष्णराव को मारने के उद्देश्य से आतंकवादियों द्वारा किए गए  धमाकों ने भारतीय मानस को बुरी तरह हिला दिया था ।

राज्यपाल बाल बाल बच गए लेकिन आठ अन्य व्यक्तियों की मौत हो गई और 40 से अधिक घायल हो गए। तीन टाइम बम एक के बाद एक निर्धारित स्थानों पर फटे थे।

पहला ब्लास्ट राज्यपाल के भाषण खत्म होने से कुछ मिनट पहले मुख्य गेट के पास हुआ ।  दूसरा पब्लिक ब्लॉक के पास हुआ, जहां राज्य सूचना विभाग के कर्मचारी पब्लिक एड्रेस सिस्टम को संभाल रहे थे।  मारे गए लोगों में मेरे मित्र फील्ड पब्लिसिटी ऑफिसर अनिल अबरोल और उनके दो साथी कर्मचारी शामिल थे। 

उनके पीछे मीडिया के लोग बैठे थे, पर वे सभी सुरक्षित बच गए। तीसरा ब्लास्ट उस मंच के करीब था जहां राज्यपाल भाषण दे रहे थे ।

जम्मू कश्मीर में ऑल इंडिया रेडियो के वरिष्ठ संवाददाता होने के नाते मुझे वहां होना चाहिए था लेकिन मैं वहां नहीं पहुंच सका।

मुझे लेने के लिए सरकारी गाड़ी  समय पर मेरे पास नहीं पहुंची।  सुरक्षित स्थानों पर जाने के लिए सरकारी गाड़ी ही ठीक रहती है। जब तक मैं कर सकता था, तब तक इंतजार करने के बाद, मैंने अपनी कार निकाली और अपने निजी सुरक्षा अधिकारी को अपने साथ लेकर गणतंत्र दिवस समारोह स्थल के लिए रवाना हो गया ।

सुरक्षाकर्मियों ने मुझे ज्यूल चौक पर यह कहते हुए रोका कि राज्यपाल पहले ही आ चुके हैं और इसके बाद किसी को भी आने की अनुमति नहीं दी जानी थी ।  मैंने उन्हें बताया कि मैं कौन था और मेरा वहां होना कितना महत्वपूर्ण था ।  मेरा प्रेस कार्ड, कार पास और स्टेनगन के साथ मेरे पीएसओ की उपस्थिति का भी उन पर कोई असर नहीं पड़ा।

इसी दौरान वहां एक वरिष्ठ अधिकारी आए और कहने लगे कि वे मुझे पहचानते हैं पर  किसी को भी प्रवेश की अनुमति नहीं दी जा सकती ।  यदि अनुमति दी जाती है, तो यह उनकी नौकरी का सवाल हो सकता है, उन्होंने तर्क दिया ।  मुझे पहले ही देर हो चुकी थी । 

अधिकारी ने स्टेडियम तक पहुंचने के लिए मुझे एक और रास्ता बताया।  उन्होंने मुझे सलाह दी कि साइड रोड लेकर सामान्य पार्किंग के लिए निर्धारित  गांधी मेमोरियल कॉलेज से होकर थोड़ा पैदल चल स्टेडियम के गेट पर पहुंचा जा सकता है।  मैंने अपनी कार कालिज में छोडी़ और स्टेडियम के मुख्य द्वार तक पहुंचने के लिए  एक छोटे से लकड़ी के पैदल पुल को पार करने वाला था, कि एक बड़ा विस्फोट सुनाई पड़ा और धुआं उठता देखाई दिया। मैंने सोचा कि यह कलाकारों द्वारा किसी नाटक प्रस्तुति का हिस्सा हो सकता है। लेकिन जल्द ही बड़ी संख्या में लोग स्टेडियम से बाहर भागते दिेखाई दिए ।  दो और धमाके हुए और फिर हर तरफ भागमभाग की अराजकता थी ।

पी एस ओ ने कहा तुरन्त वापिस चलिए और हम कार को दूसरे रास्ते से लेते हुए रेडियो कालोनी लौट आए। कुछ और जानकारी जुटा घर से ही आकाशवाणी दिल्ली को समाचार फाइल कर दिया। विस्तृत ब्यौरा बाद में दिया।

राज्यपाल ने दोपहर बाद 4 बजे राजभवन में प्रेस कांफ्रेंस बुलाई। उन्होंने जानकारी दी कि आतंकवादियों ने उन स्थानों पर टाईम बम दबा दिए थे जहां से राज्यपाल को गुज़रना था। गणतंत्र दिवस समारोह की हर गतिविधि का निर्धारित समय निमंत्रण कार्ड से ले लिया गया होगा। 

1990 के बाद से राज्य में भड़की आतंकवादी हिंसा में टाईम बम से विस्फोट का यह पहला मामला था। आतंकवाद की टैक्नोलॉजी ने ख़तरनाक रुप

ले लिया था।   इसके पीछे निश्चित रूप से पाकिस्तान का हाथ था। ऐसी योजना पर अमल पाकिस्तान की आईएसआई गुप्तचर संस्था की भागीदारी के बिना नहीं किया जा सकता था।

एक पत्रकार ने राज्यपाल से पूछा कि क्या वह विस्फोटों से घबरा नहीं गए थे क्योंकि एक के बाद एक तीन बम फटे  थे ।

सेना के पूर्व प्रमुख रहे जनरल कृष्णाराव शांत मुद्रा में थोड़ा मुस्कुराए और कहा, “सैनिक के रूप में, हम एक अलग ही मिट्टी से बने होते हैं ।”

अब मैं कभी कभी सोचता हूं कि  क्या मैं सरकारी गाड़ी समय पर न आने और पुलिसकर्मियों द्वारा मुझे लम्बे रास्ते पर डाल कर और ज्यादा लेट करने से ही शायद एक सम्भावित बड़ी दुर्घटना से बच गया? लेट  होते समय मुझे  गुस्सा आ रहा था और मैं कुछ चिड़चिड़ा भी हो रहा था। पर बचाव हो गया तो ये कारक अच्छे भी लगे। एक राहत सी महसूस हुई।

यह सब क्यों हुआ, कैसे हुआ, इसे शायद कोई नहीं जानता। भाग्य और किस्मत की बातों में भी मेरा यकीन नहीं। जो कुछ होता है, बाई चांस ही होता है। अच्छे बुरे कर्मों का सिद्धान्त भी सही नहीं बैठता। सावधानी से एक हद तक बचाव होता है पर हमेशा नहीं। बस सावधानी रखें, बाकी चांस पर छोड़ दें। चांस का सिद्धान्त क्या है, इसे अल्गोरिदम ढूंढने की कोशिश कर रहा है। फिलहाल इसे भगवान ही जानता है या फिर वह भी नहीं हो जानता है । 

 

 ©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

संपर्क: 9466647037

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ यादों के झरोखे से… दास्तां दो पंजाबी दोस्तों की … ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है अविस्मरणीय मित्रता की मिसाल  ‘यादों के झरोखे से… दास्तां दो पंजाबी दोस्तों की …’। हम आपसे आपके अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

☆ जीवन यात्रा ☆ यादों के झरोखे से… दास्तां दो पंजाबी दोस्तों की … ☆  

गुरमीत ने कश्मीर सिंह को मौत के मुंह से बचा लिया…….

गुरमीत चंद भारद्वाज और कश्मीर सिंह पंजाब के होशियारपुर जिले के अपने पैतृक गांव नंगल खिलाड़ियां में बचपन में ही दोस्त बन गए थे।  फुटबॉल के खेल ने उनकी दोस्ती को और मजबूत किया पर स्कूल की पढ़ाई के बाद उनके रास्ते अलग-अलग हो गए। 

कश्मीर सिंह पहले भारतीय सेना में भर्ती हुए और चार साल बाद नौकरी छोड़ पंजाब पुलिस में शामिल हो गए। और फिर 1973 में गायब हो गए ।

कई साल बाद, पता चला कि वह पाकिस्तान की जेल में बंद था और भारतीय जासूस होने के लिए दी गई अपनी मौत की सजा का इंतज़ार कर रहा था। 

गुरमीत भारद्वाज ने बी ए,एम ए करने के बाद यू पी एस सी की प्रतियोगिता पास की और वर्ष 1969 में भारतीय सूचना सेवा में आ गए । दिल्ली और शिमला में सूचना और प्रसारण मंत्रालय के विभिन्न विभागों में वरिष्ठ पदों पर काम करते हुए, वे 2006 में ऑल इंडिया रेडियो चंडीगढ़ में समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए । 

गुरमीत जब भी अपने गांव जाते तो वे अपने गुमशुदा दोस्त कश्मीर सिंह की पत्नी परमजीत कौर से भी मिलते।  वह कहती, अब तुम बड़े अफसर बन गए हो, कश्मीर सिंह की रिहाई के लिए भी कुछ करो। 

गुरमीत ने कश्मीर सिंह की रिहाई के लिए कई पत्र विदेश  मंत्रालय को लिखे लेकिन कुछ भी होते नहीं लग रहा था ।

(1 -2.  कश्मीर सिंह 50 वर्ष पहले और अब 3. गुरमीत चंद भारद्वाज)

और फिर, गुरमीत को सार्क शिखर सम्मेलन के लिए 2004 में भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पाकिस्तान यात्रा को कवर करने के लिए ऑल इंडिया रेडियो द्वारा इस्लामाबाद भेजा गया।  वह पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ की प्रेस कॉन्फ्रेंस को कवर कर रहे थे, जब उसने अपने दोस्त कश्मीर सिंह के लिए कुछ करने का एक मौका देखा ।  उन्होंने जनरल से पूछा कि पाकिस्तान उन भारतीय कैदियों को क्यों नहीं रिहा कर रहा है जिन्होंने अपने कारावास का कार्यकाल पूरा कर लिया था ।  जनरल ने ऐसे किसी भी कैदी के पाकिस्तानी जेल में होने से इनकार किया लेकिन गुरमीत कागज के एक टुकड़े पर विवरण के साथ तैयार थे। कश्मीर सिंह की पत्नी परमजीत कौर की तरफ से लिखी गई एक दरखास्त उन्होंने पाकिस्तान के विदेश मंत्री कसूरी को थमा दी। कसूरी ने वादा किया  कि इस मामले में वे शीघ्र उचित करवाई करेंगे।

इस बीच गुरमीत ने पाकिस्तान के एक और मंत्री अंसार बर्नी से दोस्ती भी कर ली जो मानव अधिकारों के मामलों में विशेष रुचि रखते थे। 

गुरमीत 2006 में रिटायर हो गए पर अपने दोस्त कश्मीर सिंह को पाकिस्तान से बाहर लाने के लिए लगातार प्रयास करते रहे ।  करीब 35 साल तक पाकिस्तान की नौ जेलों में रहे कश्मीर सिंह आखिरकार 2008 में रिहा हो कर भारत आ गए। यह कश्मीर सिंह के लिए एक नया जीवन था और उनके करीबी दोस्त गुरमीत चंद के लिए एक बड़ी संतुष्टि थी।

पंजाब सरकार और कुछ व्यक्तियों ने कश्मीर सिंह को कुछ वित्तीय मदद दी।  पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने  10 हज़ार रूपये महीना की पेंशन लगा दी। कश्मीर सिंह की पत्नी को महालपुर कस्बे में एक आवासीय प्लॉट दिया गया। उनके बेटे को शिक्षा विभाग में क्लर्क की नौकरी दी गई।

कश्मीर सिंह की उम्र 80 साल से अधिक है और वह अपने पैतृक गांव नंगल खिलाड़ियां में रहते हैं ।  गुरमीत चंडीगढ़ में बस गए हैं, लेकिन अक्सर अपने गांव जाते हैं ।  वे पिछले 41 वर्षों से जूनियर और सीनियर स्तर के फुटबॉल टूर्नामेंट का आयोजन कर रहे हैं। उन्होंने गांव के विदेशों में जा बसे अपने दोस्तों की आर्थिक मदद से गांव में फुटबॉल स्टेडियम बनवाया है ।

कश्मीर सिंह और गुरमीत भारद्वाज फुटबॉल के प्रति अपने पुराने जनून को अब गांव के युवा खिलाड़ियों में जगा रहे हैं।

 ©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

संपर्क: 9466647037

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ बेजुबान की आत्मकथा ☆ श्री राकेश कुमार

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में अगला संस्मरण – “बेजुबान (तख़्त) की आत्मकथा”.)   

☆ संस्मरण ☆ बेजुबान (तख़्त) की आत्मकथा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

(इतिहास के झरोखों से)

हमारा जीवन परिवर्तनों के कई दौर से गुजर चुका है। एक समय था घर की बैठक खाना (Drawing Room) में एक बड़ा सा तख्त रहता था, जिस पर हमारे दादाजी विराजमान रहते थे।  क्या मजाल कि कोई उस पर बैठ सके, पिताजी भी नीचे दरी पर आसन लगा कर उनके चरणों की तरफ बैठ कर उर्दू दैनिक “प्रताप” से खबरें सुनाते थे क्योंकि दादाजी की नज़र बहुत कमज़ोर हो गई थी। शायद यही कारण रहा होगा।  मेरी लेखनी में भी कई बार उर्दू के शब्दों का समावेश हो जाता है। घर के वातावरण का प्रभाव तो पड़ता ही है ना।

दादाजी ने साठवे दशक के मध्य में दुनिया से अलविदा कहा और उनके जाने के पश्चात तख्त (तख्ते ताऊस) की भी बैठक खाने से विदाई दे दी गई। क्योंकि वो तीन टांगो के सहारे ही था एक पाए के स्थान पर तो बड़ा सा पत्थर रखा हुआ था।

अब घर में Drawing Room की बाते होने लगी थी, पिताजी ने सब पर विराम लगा दिया कि एक वर्ष तक कुछ भी नया नहीं होगा क्योंकि एक वर्ष शोक का रहता है। हमारी संस्कृति में ये सब मान दंड धर्म के कारण तय थे।

एक वर्ष पश्चात निर्णय हुआ कि कोई सोफा टाइप का जुगाड किया जाय और अब उसको Drawing Room कहा जाय।

इटारसी की MP टीक से 1966 में मात्र 130 में  (2+1+1) का so called sofa set बन गया था।

अभी lock down में जब मैं अधिकतर समय घर पर बिता रहा हूं तो कल दोपहर को जब मोबाइल पर लिख रहा था तो आवाज सी आई कभी हमारे पे भी तवज्जो दे दिया करे बड़े भैया। मैने चारो तरफ देखा कोई नहीं है Mrs भी घोड़े बेच कर सो रही है। फिर आवाज़ आई मैं यहीं हूं जिस पर आप 55 वर्ष से जमे पड़े हो। आपका बचपन, जवानी और अब बुढ़ापे का साथी सोफा बोल रहा हूँ। आपने उस मुए fridge पर तो मनगढ़ंत किस्से लिख कर उसकी market value बढ़ा दी। हमारा क्या ?

वो तो हम चूक गए नहीं तो fevicol के विज्ञापन (एक TV adv में पुराने लकड़ी के सोफे की लंबी यात्रा का जिक्र है @ मिश्राइन का सोफा)  में आप और मैं दोनों छाए रहते रोकड़ा अलग से मिलता!

वो भी क्या दिन थे जब कई बार पड़ोस में जाकर कई रिश्ते तय करवाए थे। लड़के वालो पर impression मारने के लिए मुझे यदा कदा बुलाया जाता था। मोहल्ले में मुझे तो लोग रिश्तों के मामले में lucky भी कहने लग गए थे। ऐसा नहीं, मोहल्ले के लड़को की reception में भी जाता था। स्टेज पर दूल्हा और दुल्हन मेरी सेवाएं ही लेते थे। परंतु वहां मेरे two seater पर पांच पांच लोग फोटो के चक्कर में चढ़ जाते थे। रात को मेरी कमर में दर्द होता था। आपके बाबूजी पॉलिश/ पेंट से तीन साल में मेरे शरीर को नया जीवन दिलवा देते थे। खूब खयाल रखते थे। हर रविवार को कपड़े से मेरे पूरे बदन को आगे पीछे से साफ कर मेरी मालिश हो जाती थी। उनके जाने के बाद आप तो बस अब रहने दो मेरा मुंह मत खुलवाओ कभी सालों में ये सब करते हो।

उस दिन आप मित्र को कह रहे थे इसको भी साठ पर retd कर देंगे भले ही आप तो retirement  के बाद भी लगे हुए हो। कहीं पड़ा रहूंगा। क्योंकि शहरों में अब तो चूल्हे के लिए कोई पुरानी लकड़ी को free में भी नहीं लेते। सरकार की तरफ से LPG का इंतजाम जो कर दिया गया है।

आपकी तीन पीढ़ियों का वजन सहा है, मैं कहीं ना जाऊंगा भले ही दम निकल जाए।

मैने सोचा बोल तो शत प्रतिशत सही रहा है, अपने प्रबुद्ध मित्रो से Group में इस विषय पर  विचार विमर्श करेंगे। 

 

© श्री राकेश कुमार 

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – संस्मरण ☆ लेखांक # 7 – मी प्रभा… अभिमंत्रित वाटा ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? आत्मकथन ?

☆ लेखांक# 7 – मी प्रभा… अभिमंत्रित वाटा ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

आयुष्य खूप सरळ साधं होतं, वीस वर्षाची असताना लग्न, बाविसाव्या वर्षी मुलगा, घर..संसार इतकंच आयुष्य !

पण वयाच्या चौदाव्या वर्षीच माझ्या आयुष्यात “ती ” आली होती, तिच्या विषयी मी असं लिहिलंय, 

ही कोण सखी सारखी,

माझ्या मागे मागे येते

हलकेच करांगुली धरूनी

मज त्या वाटेवर नेते —–

मला त्या अभिमंत्रित वाटेवर नेणारी माझी सखी म्हणजे माझी कविता!

कविता करायची उर्मी काही काळ थांबली होती, कालांतराने…कविता  सुचतच होती,  त्या मासिकांमध्ये प्रकाशित होत होत्या. १९८५ बहिणाई मासिकाने आयोजित केलेल्या कविसंमेलनात कविता वाचली.त्या संमेलनाचे अध्यक्ष होते कविवर्य वसंत बापट !ते “कविता छान आहे” म्हणाले, सर्वच नवोदितांना वाटतं तसं मलाही खूप छान वाटलं ! 

त्यानंतर अनेक काव्यसंस्था माहित झाल्या. काव्य वाचनाला जाऊ  लागले. एका दिवाळी अंकाचं काम  पहायची संधी अचानकच मिळाली, साहित्यक्षेत्रात प्रवेश झाला. लग्नाच्या  आधी मी कथा, कविता लिहिल्या होत्या ! लेखन हा माझा छंद होताच पण लग्नानंतर मी काही लिहीन असं मला वाटलं नव्हतं ! पण पुन्हा नव्याने  कविता कथा लिहू लागले !

या अभिमंत्रित वाटेवर चालताना खूप समृद्ध झाले. अनेक साहित्यिक भेटले. स्वतःची स्वतंत्र ओळख निर्माण झाली. लेखनाचा आनंद वेगळाच असतो. मी चांगलं लिहिते याची नोंद इयत्ता दहावीत असताना हिंदीच्या जयंती कुलकर्णी मॅडमनी घेतली होती, माझ्या सहामाही परिक्षेत लिहिलेल्या “फॅशन की दुनिया” या निबंधाचं त्यांनी भरभरून कौतुक केलं होतं.

पण भविष्यात मी लेखिका, कवयित्री, संपादक होईन असं मला वाटलं नव्हतं ! मी अजिबातच महत्वाकांक्षी नव्हते….नाही ! घटना घडत गेल्या आणि मी घडले . कदाचित पुण्यात असल्यामुळेही असेल ! कविसमुदायात सामील झाले,काव्यक्षेत्रात स्वतःची स्वतंत्र ओळख मिळाली !

वेगळं जगता आलं,हीच आयुष्यभराची कमाई ! मी शाळेत असताना शैलजा राजेंच्या खूप कादंब-या वाचल्या होत्या. लग्नानंतर त्या रहात असलेल्या सोमवार पेठेत रहायला आले. त्यांना जाऊन भेटले. पुढे त्यांनी माझ्या दिवाळी अंकासाठी कथाही पाठवली. मी “अभिमानश्री” या स्वतःच्या वार्षिकाचे जे चार अंक काढले,ते संपादनाचा चौफेर आनंद देऊन गेले.

अनेक साहित्यिक कलावंत भेटले, मुलाखती घेतल्या….कवितेचे अनेक कार्यक्रम केले.अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलनात निमंत्रित कवयित्री म्हणून सहभाग नोंदवला! गज़ल संमेलनातही !

माझ्यासारख्या सामान्य स्त्रीला खूप श्रीमंत अनुभव या साहित्य क्षेत्रानेच मिळवून दिले…दोन नामवंत काव्य संस्थांवर पदाधिकारी म्हणून काम पहाता आलं, साहित्य विषयक चळवळीत सक्रिय सहभाग नोंदवतात आला !

खूप वर्षांपूर्वी कवयित्री विजया संगवई भेटल्या अचानक, टिळक स्मारक मंदिरात.  नंतर तिथल्या पाय-यांवर बसून आम्ही खूप गप्पा मारल्या. तेव्हा त्या म्हणाल्या होत्या, “आपण कवयित्री आहोत हे किती छान आहे, आपल्या एकटेपणातही कविता साथ देते,आपण स्वतः मधेच रमू शकतो “. ते अगदी खरं आहे !

नियतीनं मला या अभिमंत्रित वाटेवर आणून सोडल्याबद्दल मी खरंच खूप कृतज्ञ आहे…

अल्प स्वल्प अस्तित्व मज अमूल्य वाटते

दरवळते जातिवंत खुणात आताशा

अशी मनाची भावावस्था होऊनही बराच काळ लोटला…….

या वाटेवर मनमुक्त फिरताना उपेक्षा, कुचेष्टा, टिंगलटवाळीही वाट्याला आली, पण जे काही मिळालं आहे, त्या तुलनेत हे अगदीच नगण्य !

सांग “प्रभा” तुज काय पाहिजे इथे अधिक?

रिक्त तुझ्या या जीवनात बहरली गज़ल

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – संस्मरण ☆ लेखांक # 6 – मी प्रभा… डेक्कन जिमखान्यावर ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? आत्मकथन ?

☆ लेखांक# 6 – मी प्रभा… डेक्कन जिमखान्यावर ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

१९६५ साली आम्ही भांडारकर रोडवर चित्रशाळेच्या क्वार्टर्समध्ये रहायला गेलो.  तेव्हा मी बालशिक्षण मंदिर या शाळेत चौथ्या इयत्तेत प्रवेश घेतला. आम्हाला शिकवायला खारकरबाई होत्या, त्या नऊवारी साडी नेसत. आमचा चौथी अ चा वर्ग तिस-या मजल्यावर होता. शाळेसमोर पी.वाय. सी.ग्राउंड. घरापासून शाळा अगदी जवळ होती. मी आणि माझी धाकटी बहीण व एक चुलत भाऊ बालशिक्षण मंदिरमधे, तर मोठा भाऊ विद्या महामंडळमधे.  नंतर या शाळेचं नाव “आपटे प्रशाला” झालं ! 

आमच्या घराजवळ साने डेअरी,– समोर निलगिरी बंगल्याचे बांधकाम चालले होते. सध्या चित्रशाळेच्या त्या जागेवर मोठे काॅम्लेक्स झाले आहे. आम्ही ज्यांच्या जागेत तीन वर्षे राहिलो, त्यांना तिथे फ्लॅट मिळाला. बालशिक्षणमध्ये चौथी पास झाल्यावर मी डे.जि. भावे हायस्कूल- आत्ताचे विमलाबाई गरवारेमध्ये जाऊ लागले. राजा किल्लेदार, दिलीप मैदर्गी आणि मी बरोबरच  शाळेत जायचो, तिथे रहाणारी मालती पांडे ही माझी जवळची मैत्रीण.  पण तिची शाळा सकाळी असायची. 

आमच्या आजूबाजूला सगळे बंगलेच होते.  जवळच मर्ढेकर बंगला होता, मोडक बंगला होता. 

रसिक नावाचा एक सुंदर बंगला होता आणि त्याच्या समोर पवार क्वार्टर्सची बिल्डींग. ती वास्तू आजही तेव्हा होती तशीच आहे.

आपटे रोडवर “कमल” बंगल्यात माझी मावशी रहायची, आणि युनिव्हर्सिटी रोडवर रेंजहिल काॅर्नरला दुस-या एका मावशींचा टोलेजंग बंगला आहे. आम्ही त्यांच्याकडे अधूनमधून जात असू.  जंगली महाराज रोडवर शशीविहार बंगला आमच्या एका नातेवाईकांचा होता, तिथे ही आम्ही जायचो. तसंच सदाशिव पेठेत वैद्यवाड्यात अभिनेते मास्टर छोटू – यशवंत दत्तचे वडील रहायचे.  त्यांच्याकडे आणि जवळच असलेल्या “विद्याभवन” या आमच्या काकींच्या वडलांच्या मालकीच्या वास्तूत, आणि लोकमान्यनगरला आत्याकडे– असे आम्ही या सर्व नातेवाईकांकडे नेहमी जात असू.

ही सर्व ठिकाणं त्या काळात वारंवार पायाखालून गेलेली. तसेच आई आम्हाला संभाजी पार्क आणि कमला नेहरू पार्कमध्ये खेळायला आणि भेळ खायला नेत असे. कमला नेहरू पार्कमध्ये “सांगू कशी मी” या सिनेमाचं शूटिंग पहिल्याचं आठवतंय– पंजाबी ड्रेस घातलेली जयश्री गडकर अजूनही आठवतेय! 

गावाकडे मोठी शेतीवाडी असल्यामुळे, वडील फळांचा ट्रक मंडईत आला की पुण्यात येत.  गावाकडे आमच्या संत्री, मोसंबी व सिताफळाच्या बागा होत्या. इतर पिकेही घेतली जात. ट्रक ट्रान्स्पोर्टचा व्यवसायही होता. 

पुण्यात आले की वडील सिनेमा, सर्कस पहायला घेऊन जात. दोस्ती, बैजूबावरा,साधी माणसं  हे त्या काळात पाहिलेले सिनेमा अजून आठवतात ! वडलांबरोबर गुडलक, किंवा संतोष भुवनमध्ये जायचो जेवायला ! कावरेचं आईसक्रीमही ठरलेलं !

याच काळात शेजारच्या मर्ढेकर बंगल्यात रहात असलेल्या धुमाळ मामांशी ओळख झाली.  ते आमच्या नात्यातलेच पण अगदी सख्खे मामा वाटायचे.  त्यांनी आमचे खूप लाड केले, शाळेला जायला उशीर झाला की ते मला सायकलवरून शाळेत सोडत. तेव्हा ते बी.एम.सी.सी .ला शिकत होते. बारामतीची बरीच मुलं मर्ढेकर बंगल्यात रहात होती. विजय धुमाळ हे आमचे मामा होते, ही खूपच भाग्याची गोष्ट !

पुण्यातले ते दिवस खूपच सुंदर  होते ! आम्ही चित्रशाळेच्या बैठ्या चाळीत तीन वर्षे राहिलोय ! नंतर आमच्या तालुक्याच्या ठिकाणी शिरूर-घोडनदीला गेलो !

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ यादों के झरोखे से… यादें 11 जनवरी 1966 की ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है  आकाशवाणी जम्मू की क्षेत्रीय समाचार इकाई के 50 वर्ष पूर्ण होने पर आपका एक अविस्मरणीय संस्मरण  ‘यादों के झरोखे से… यादें 11 जनवरी 1966 की’। हम आपसे आपके अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

☆ संस्मरण  ☆ यादों के झरोखे से… यादें 11 जनवरी 1966 की ☆  

लालबहादुर शास्त्री लोकप्रिय प्रधान मंत्री थे। 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध में विजय से उनकी लोकप्रियता और भी बढ़ गई थी। उनके सादा जीवन और ईमानदारी के अनेकों किस्से सुनने में आते थे।

ताशकंद में 1966 के समझौते के बाद वहीं रहस्यमयी परिस्थितियों में जब उनका स्वर्ग वास हुआ तो पूरा देश स्तब्ध रह गया। शोक की लहर फैल गई।11 जनवरी को उनका शव जब भारत लाया जा रहा था तो उन्हें कंधा देने वालों में रूस के प्रधान मंत्री कोसीगिन और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान भी शामिल थे।

मैं उस समय कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में तृतीय वर्ष का विद्यार्थी था। हम सभी बहुत उदास थे। रेडियो पर खबरें सुन रहे थे और हैरान थे कि ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर के तुरंत बाद यह सब कैसे हो गया?

बस यूं ही किसी ने खबर फैला दी कि शास्त्री जी के अंतिम दर्शन के लिए सरकार ने मुफ्त रेलगाड़ियां चला दी हैं। बस हम सभी दिल्ली जाने के लिए तैयार हो गए।

अपने ग्रुप में हम 15 के करीब विद्यार्थी थे और ऐसे कितने ही ग्रुप थे। रेलगाड़ी ठसाठस भरी थी।

जनवरी की कड़ाके की ठंड में हम शाम आठ बजे के करीब दिल्ली पहुंचे। जहां शास्त्री जी का शरीर अंतिम दर्शन के लिए रखा हुआ था, वहां पहुंचे तो देखा कि तीन चार किलोमीटर लंबी लाइन लगी हुई थी। पुलिस वाले किसी को लाइन से बाहर जाने ही नहीं दे रहे थे। सड़क के किनारे पर पाइप लगाकर छोटा रास्ता बनाया गया था।

हम भी लाइन में लग गए पर घंटे भर बाद भी लाइन सरक ही नहीं रही थी। भूख भी लग रही थी और ठंड भी कमाल थी।

हम लाइन से बाहर आ गए कुछ खाने पीने के लिए। एक रेहड़ी पर चाय, मट्ठी, बिस्किट वगैरा खाकर कुछ गुज़ारा किया और वहीं अंगीठी तापने लगे। सर्दी बढ़ती ही जा रही थी और अंतिम दर्शन करने वालों की लाइन और लंबी हो गई थी। हम पहले की अपनी जगह भी छोड़ चुके थे।

यह लाइन तो कल सुबह तक भी खत्म नहीं होगी। रात भर खड़े खड़े और थक जाएंगे। इससे अच्छा है, यहीं कहीं उठते बैठते अंगीठी तापते रहें, दर्शन सुबह कर लेंगे, एक मित्र ने सुझाव दिया और सबने हामी भर दी।

हम यह बात कर ही रहे थे कि एक व्यक्ति जो पास में ही बैठा अंगीठी ताप रहा था, टपक से बोला, “हम आपको दर्शन करा सकते हैं बाबूजी। पांच रुपए एक के हिसाब से लगेंगे”।

“अबे अंतिम दर्शन पर भी टिकट लगता है क्या?

हैरान व थोड़े गुस्से के साथ हमने उससे पूछा।

“देखलो बाबूजी, चलना है तो बात करो”, उसने उत्तर दिया। वह कोई मजदूर लग रहा था। उसके हाथ में कोई औेजार भी था।

“ना, तू कोई पुलिस का आदमी है, या कौन है जो लाइन के बाहर से दर्शन करा देगा”?

“आपको इससे क्या मतलब?

दर्शन करा दूंगा पर पैसे पहले लूंगा। यकीन नहीं हो, तो इस चाय वाले से पूछ लो”।

“अजी, यह 200 रूप से ज़्यादा की दिहाड़ी बना चुका है अब तक”, हमारे पूछने से पहले ही चाय वाला बोल उठा।

“पर कैसे?  हमने पूछा।

मजदूर दिखने वाला व्यक्ति बोला, “यह जो पाइप देखते हो ना, लाइन को सही रखने लिए जो लगाई गई है। यह हमने लगाई है और हम ही इसकी देखभाल व मरम्मत वगैरा कर रहे हैं। चलना है तो निकालो पांच रुपए, हाथ में पकड़ो यह रैंच और चलो हमारे साथ एक एक आदमी, मजदूर बनके”, बंदे ने फुर्ती दिखाते हुए कहा।

हमारे एक साथी को गुस्सा आया और उसने उसकी बाजू पकड़ कर मरोड़ दी। गाली देते हुए बोला,” पांच रुपए और वो भी मरे हुए आदमी के अंतिम दर्शन को, बड़ा कमीना बन्दा है बे तू”।

बात झगड़े में बढ़ने लगी थी । उसके और भी कुछ साथी आ गए और हमारे साथी भी गर्म हो रहे थे। बड़ी मुश्किल से बीच बचाव हुआ।

वह चाय वाला भी उसी की मदद को आ गया। “जेब में पैसे नहीं, आ गए दिल्ली की सैर करने। वो देखो, तुम्हारे जैसा एक बाबू बैठा है रजाई में। सर्दी से कुड़क रहा था। मैंने दी है एक घंटे के लिए पांच रुपए में”।

दिल्ली के इस बाज़ार की हमने कल्पना नहीं की थी। हम लाइन में नहीं लगे। बस यूं ही टहलने के लिए आस पास निकल गए। दूसरी जगह जाकर चाय पी, अंगीठी सेकते हुए। सुबह करीबन चार बजे लौटे तो देखा कि लाइन समाप्त हो चुकी थी।

पुलिस वाले जल्दी जल्दी कह रहे थे। हम दौड़ते हुए गए। शास्त्री जी के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन किए हाथ जोड़ कर। शास्त्री जी की धर्मपत्नी ललिता शास्त्री जी व उनके परिजन हाथ जोड़े गम्भीर मुद्रा में बैठे थे। एक क्षण के लिए हमारी आंखें भी नम हो गईं।

 

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – संस्मरण ☆ मी प्रभा… मुक्काम सदाशिव पेठ – लेखांक # 5 ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? आत्मकथन ?

☆ मी प्रभा… मुक्काम सदाशिव पेठ – लेखांक# 5 ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

आम्ही १९६० साली पुण्यात रहायला आलो, तेव्हा मी चार वर्षांची होते. आम्ही भिकारदास मारूतीजवळ पायगुडे वाड्यात रहात होतो, तळमजल्यावर घरमालक म्हणजे आईच्या आत्यांचे कुटुंब, पहिल्या मजल्यावर “स्वस्तिक चष्मा” चे पाटोळे आणि दुस-या मजल्यावर आम्ही रहात होतो.  शेजारी जादूगार रघुवीर यांचा बंगला होता– “जादूची शाळा”.  त्या बंगल्या विषयी अनेक अफवा होत्या, टाळ्या वाजवल्या की दिवे लागतात.आपोआप दारं उघडतात वगैरे. जादूगार रघुवीर दिसले की खूप छान वाटायचं, एखाद्या फँन्टसी सिनेमाचा नायक दिसल्यासारखे !

मी माँटेसरीत असल्यापासूनच्या या आठवणी !

याच काळात आमच्याकडे मुंबईहून नुकतंच लग्न झालेले मामा मामी आले होते, आणि मी त्यांच्याबरोबर “जंगली” हा आयुष्यातला पहिला  सिनेमा पाहिला होता !

घरासमोरच्या ग्राउंडवर आम्ही खेळायला जायचो.  त्या जागेवर नंतर टेलिफोन ऑफिस झालं.  असेच एकदा त्या ग्राउंडवर आम्ही खेळायला गेलो होतो. आमची आई पलिकडे बसली होती. तिच्या जवळ दोन मुली आल्या आणि म्हणाल्या, ‘ तुम्ही अगदी आमच्या मोठया बहिणीसारख्या दिसता,’. अशी ओळख झाली आणि नंतर त्या दोघी आईच्या मैत्रिणी झाल्या ! खूप साधे सरळ लोक होते सगळे. आम्ही आईच्या आत्यांच्या वाड्यात रहात होतो. पाटोळे आणि आम्ही दोनच भाडेकरू! नंतर पाटोळेनी स्वारगेटला बंगला बांधला!

आम्ही सरस्वती मंदिर शाळेत जायचो. दुसरीत असताना मला भावेबाई गॅदरींगमध्ये सहभागी करून घेण्यासाठी नृत्य शिकवत होत्या, पण मला नाचता आलं नाही. आणि ही खंत मनात कायम आहे ! १२ जुलै १९६१ हा पानशेतचं धरण फुटलं तो दिवसही आठवतोय.  आमच्या घराजवळ पुराचं पाणी आलं नव्हतं, पण एक साधू सांगत आला, भिकारदास मारूती पोलिस चौकीजवळ पाणी आलंय.  मग आम्ही पर्वतीजवळ राहणा-या नातेवाईकांकडे गेलो होतो, एवढंच आठवतंय.  त्या पुराचं गांभीर्य त्या वयात कळलं नव्हतं !

पुण्यात अनेक नातेवाईक होते. पासोड्या विठोबाजवळही आमचे एक नातेवाईक रहात होते, भाऊमहाराज बोळाजवळही एक नातेवाईक, शुक्रवार पेठेत भागिरथी बिल्डींगमध्येही नातेवाईक होते.  आम्ही एकमेकांकडे जात असू.  खूपच सुंदर पुणं होतं त्या काळातलं !पेशवे पार्क, पर्वती,  तळ्यातला गणपती, या ठिकाणी आम्ही सुट्टीच्या दिवशी जात असू ! हिराबागेत पायगुड्यांचा फर्निचरचा कारखाना होता आणि महात्मा फुले मंडईत माझ्या आजोबांचा फळांचा गाळा होता. “रम्य ते बालपण” म्हणतात ते अगदी खरं करणारा काळ. शेजारी भिकारदास मारूतीचे मंदिर आणि नारद मंदिर होतं ! सदाशिव पेठेबद्दल आपुलकी आजतागायत टिकून आहे. खरंच ते सोनेरी दिवस होते.

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

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मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग चार ☆ सौ राधिका भांडारकर

सौ राधिका भांडारकर

? आत्मसंवाद –भाग चार ☆ सौ राधिका भांडारकर ?

मी..वाचकांची अनेक पत्रे मी सांभाळून ठेवली आहेत.आता पत्रलेखन हा प्रकारच ऊरला नाही. फोनवर, ईमेलवर वाचकांशी संवाद होतो.

एकदा एकीने मला विचारले,”तुमची माझी काहीच ओळख नसताना, तुम्ही माझ्यावर इतकी जुळणारी कथा कशी काय लिहीलीत..?”

माझ्या मित्र परिवारातले लोकही गंमतीने म्हणतात,हिला काही सांगू नये.ही गोष्टच लिहील…आणि खरोखरच एकदा मी माझ्या मैत्रीणीच्या जीवनावरच कथा लिहीली होती.अर्थात् नावे बदलली होती.मैत्रीण म्हणाली,”कथा चांगली आहे ..पण तू हे लिहायला नको होतंस…”त्यानंतर कितीतरी दिवस तिने माझ्याशी अबोला धरला होता…असे काही अनुभव येतात ,पण म्हणून लिखाण थांबत नाही..

तो..तू नोकरी करत होतीस..नोकरी नसती तर तुझ्या हातून अधिक लेखन झालं असतं, असं नाही वाटत का?

मी…नाही.मी पस्तीस वर्ष बँकेत नोकरी केली.त्या निमीत्ताने मला अनेक माणसे भेटली.

मी विवीध मनोवृत्तीची माणसे पाहिली.त्यांच्याशी संवाद साधले…संवाद साधता साधता मी त्यांना टिपत गेले.माणसातला माणूस शोधण्याचा मला छंदच आहे.खरं म्हणजे मूळात वाईट कुणीच नसतं..

परिस्थिती माणसाला भाग पाडते… त्यातूनच माझ्या कथांमधली पात्रे घडत गेली…मी जेव्हां लिहीते तेव्हा ती पात्र मला दिसतात..त्यांना चेहरा असतो..ती माझ्याशी बोलतात…हे आभासी क्षण माझ्या लेखन प्रवासातले अत्यंत आनंदाचे क्षण.,.त्यावेळी मी आणि शब्द निराळे नसतात…एका अद्वैताचा अनुभव असतो तो..

तो…(मिस्कीलपणे) हो पण तरीही अजुन तू इतकी मोठी लेखिका नाही झालीस…

मी…बरोबर आहे तुझं..पण मी माझ्या आनंदासाठी लिहीते.मला काहीतरी सांगायचं असतं म्हणून लिहीते..पु.भा. भावे कथा स्पर्धेत माझ्या “रंग..” या कथेला पुरस्कार मिळाला होता..तसे अनेक छोटे मोठे पुरस्कार माझ्या कथांना मिळाले..कथाकथनांनाही बक्षीसे मिळाली..विश्वसाहित्य संमेलनातही माझे कथाकथन झाले…पण हे अलंकार मला मिरवावेसे नाही वाटत…माझे वडील नेहमी म्हणायचे,”यश नेहमी मागे ठेवायचं आणि पुढे जायचं..नवे संकल्प करायचे..आणि त्याच्या पूर्तीसाठी झटायचे…”

तो…तुझ्या लेखनाच्या माध्यमातूनच तू काय संदेश देशील..?

मी… बापरे!!संदेश देणारी मी कोण..?

मात्र एक सांगते..?माणसाला एक तरी छंद असावा..एक तरी आपल्या ठायी असलेली कला ओळखावी आणि जोपासावी..कीर्ती ,प्रसिद्धी,नाव ,पैसा यासाठी नव्हे..कलेत स्पर्धा ,ईर्षा नसावीच मुळी…ती मुक्त असावी…स्वानंदासाठी असावी..

।।साहित्य संगीत कला विहीन:

साक्षात् पशु पुच्छ विषाणहीन:।।

कला परांङमुख व्यक्ती ही शेपुट नसलेल्या पशुसारखीच असते..

कला म्हणजे भावनांची अभिव्यक्ती..आपल्या अंतरंगात उमटणार्‍या भाव ,भावना..,रेखा,रंग ,ध्वनी,शब्द यांतून जेव्हां व्यक्त होतात तेव्हा त्याला कलारुप प्राप्त होते..

अंतरंग जागृत होतं तेव्हां चैतन्याचा आनंद मिळतो…

हा आनंद हेच माझं  सर्वोच्च पारितोषिक…

अरे!! कुठे गेलास…?

तो..कुठे नाही .इथेच तुझ्या अंतरंगात आहे..

मी…तुलाच धन्यवाद देते..आज तुझ्यामुळेच मी  हा आत्मसंवाद साधू शकले.. पुन्हा भेटू..नव्या चौकटीत..नव्या कल्पना घेऊन…

समाप्त…!!

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – संस्मरण ☆ मी प्रभा… मुक्काम सोमवार पेठ – लेखांक # 4 ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? आत्मकथन ?

☆ मी प्रभा… मुक्काम सोमवार पेठ – लेखांक#4☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सोमवार पेठेतल्या सोनवण्यांचं स्थळ आमच्या एका नातेवाईकांनी सुचवलं. सोनवणे हे दूधवाले सोनवणे म्हणून प्रसिद्ध होते, गावाकडे शेतीवाडी !पुण्यात लाॅजिंगचा व्यवसाय! मुलगा पदवीधर, उंच,सावळा नाकीडोळी नीटस ! 

नोव्हेंबरमध्ये साखरपुडा पिंपरीच्या वाड्यात आणि २६ जानेवारी १९७७ ला लग्न पुण्यात झालं !

एकत्र कुटुंब सासूबाई, दीर, जाऊबाई, त्यांची छोटी मुलगी, दुधाचा आणि लाॅजिंगचा  व्यवसाय !

चाकोरीबध्द आयुष्य– बायकांचं आयुष्य चार भिंतीत बंदिस्त ! सात आठ वर्षे जगून पाहिले तसे, पण नाही रमले. १९७७ साली लग्न, १९७८ साली मुलगा झाला.

मी, सासूबाई, जाऊबाई मिळून स्वयंपाक करत असू, इतर सर्व कामाला बाई आणि नोकर चाकर होते. आयुष्य चाकोरीबध्द, जुन्या वळणाचं वातावरण, हातभार बांगड्या, डोईवर पदर, उंबरठ्याच्या बाहेरचं जग माहित नसलेलं आयुष्य !   

शाळेत असताना कविता करत होते, कथा कविता प्रकाशितही झाल्या होत्या. लग्नानंतर थांबलेली कविता उफाळून वर आली. लिहू लागले. कथा, कविता, लेख प्रकाशित होऊ लागले ! देवी शारदेच्या कृपेने एम.ए.पर्यंतचं शिक्षण पूर्ण केलं ! पीएच.डी. साठीही नाव नोंदवलं, पण स्वतःच्या आळशीपणामुळेच पूर्ण होऊ शकलं नाही. घटना घडत गेल्या…वादळ वारे आले, गेले….संसार टिकून राहिला. कविता प्रकाशित झाल्या. कवितेला व्यासपीठ मिळालं, स्वतःची ओळख मिळाली. संमेलनाच्या निमित्ताने प्रवास घडले, दिवाळी अंकाचे संपादन केले ! साहित्य क्षेत्रातली ही मुशाफिरी निश्चितच सुखावह….मी इथवर येणं ही अशक्यप्राय गोष्ट होती…..पण आयुष्य पुढे सरकत राहिलं…मुलाचं मोठं होणं…इंजिनियर होणं…चांगला जाॅब मिळणं, आणि एक चांगला मुलगा म्हणून ओळख निर्माण होणं. कामवाली जेव्हा म्हणाली, ” मी सांगते सगळ्यांना,आमच्या सोनवणेवहिनींचा मुलगा म्हणजे सोनं आहे ,सोनं सुद्धा फिकं आहे त्याच्यापुढे,” तेव्हा मी भरून पावले. निश्चितच! ही दैवगती ! आयुष्य कटू गोड आठवणींनी भरलेलं !

चारचौघींपेक्षा माझं आयुष्य वेगळं आहे हे नक्की ! हे वेगळेपण पेलणं निश्चितच कठीण गेलं !औरंगाबादच्या गझल संमेलनात मा.वसंत पाटील म्हणाले होते, ” कवी/कलावंत हा शापित असतो, तो तसा असावा लागतो,”– ते मला माझ्या बाबतीत शंभर टक्के पटलं आहे ! जसं जगायचं होतं तसं जगता आलं नाही…पण जे जगले ते मनःपूत आणि तृप्त करणारंही….कवितेची नशा ही वेगळीच आहे…..ती झिंग अनुभवली !” अल्प, स्वल्प अस्तित्व मज अमूल्य वाटते, दरवळते जातिवंत खुणात अताशा ” ही अवस्था अनुभवली ! मुलाचं लग्न…नातवाचा जन्म..सगळं सुखावह !

वाढतं वय …आजारपण ..सुखदुःखाचा खेळ ! जगरहाटी…अपयश, उपेक्षा, अपेक्षाभंग….या व्यतिरिक्तही आयुष्य बरंच काही भरभरून देणारं !

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 119 ☆ एक छोटी सी पहल ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय संस्मरण  ‘एक छोटी सी पहल…!’ )  

☆ संस्मरण # 119 ☆ एक छोटी सी पहल ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

घुघुवा के जीवाश्म विश्व इतिहास में अमूल्य प्राकृतिक धरोहर है, जो हमारे गांव के बहुत पास है और निवास (मण्डला जिला) से बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान के रास्ते पर स्थित है।

बहुत साल पहले घुघुवा फासिल्स श्रेणी लावारिस एवं अनजान स्थल था,वो तो क्या हुआ कि एक दिन हमारी खेती का काम करने वाले मजदूर मलथू ने बताया कि भैया जी, बिछिया के पास घुघुवा गांव के जंगल से पत्थर बने पेड़ पौधों को काटकर कोई ट्रकों से रात को जबलपुर तरफ ले जाता है, सुना है कोई बड़े डाक्टर साहब की हवेली बन रही है और ये कलात्मक पत्थर तराश कर हवेली में मीनार बनकर खड़े हो रहे हैं।मलथू की बात सुन हम अपने एक दोस्त के साथ साइकिल से घुघुवा रवाना हुए।

प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर ऊंचे-ऊंचे महुआ के वृक्षों की गहरायी घाटियों के बीच बसे स्वच्छंद विचारों वाले भोले भाले आदिवासी निश्छल,निष्कपट खुली किताब सा जीवन जीते खोये से मिले अपनेपन में। रास्ते भर पायलागी महराज कानों में गूंजता रहा।

हम आगे बढ़े,घुघुवा गांव में मुटकैया के सफेद छुई से लिपे घर के आंगन में साइकिल टिका कर मुटकैया के साथ जंगल तरफ पैदल निकल पड़े। रास्ते में मुटकैया ने बताया कि आजा- परपाजा के मुंहन से सुनत रहे हैं कि पहले यहां समंदर था, करोड़ों साल पहले धरती डोलती रही और उलट पुलट होती रही। पहाड़ के पहाड़ दब गए लाखों साल, फिर से भूकम्प आने पर ये पत्थर बनकर बाहर आ गए।

पार्क के बारे में हमने भी सुना था कि  यहां करोड़ों साल पहले अरब सागर हुआ करता था। प्राकृतिक परिवर्तन की वजह से पेड़ से पत्ते तक जीवाश्म में परिवर्तित हो गए। घुघवा  में डायनासौर के अंडे के जीवाश्म भी मिले हैं। सही समय पर बाहर ना आने और प्राकृतिक परिवर्तन के चलते ये पत्थर में परिवर्तित हो गए हैं।डेढ दो किलोमीटर तक घूम घूमकर हम लोगों ने पेड़ पत्तियों आदि के जीवाश्म का अवलोकन किया और गांव लौटकर पूरी जानकारी के साथ इसकी रपट जबलपुर के अखबारों और जबलपुर कमिश्नर को भेजी, हमने मांग उठाई कि तुरंत घुघुवा के जीवाश्म से छेड़छाड़ बंद की जानी चाहिए और घुघुवा को नेशनल फासिल्स पार्क के रूप में घोषित किया जाना चाहिए। अखबारों में छपा और तत्कालीन कमिश्नर श्री मदनमोहन उपाध्याय जी ने प्रेस फोटोग्राफर श्री बसंत मिश्रा के साथ घुघुवा के जीवाश्म श्रेत्र का अवलोकन किया। तत्काल प्रभाव से जबलपुर के डाक्टर की बन रही हवेली से वे कटे हुए जीवाश्म बरामद किए गए। हमारे द्वारा समय-समय पर घुघुवा को राष्ट्रीय जीवाश्म पार्क बनाये जाने हेतु दबाव बनाया गया और अंत में शासन द्वारा छै हजार करोड़ साल पुरानी जीवाश्म श्रृंखला को नेशनल फासिल्स पार्क घोषित कर दिया। धीरे धीरे काम आगे बढ़ा, पार्क के विकास के लिए पहली किश्त पचास लाख रिलीज हुई,उस समय हम भारतीय स्टेट बैंक की सिविक सेंटर शाखा में फील्ड आफीसर थे, अपने प्रयासों से सिविक सेंटर शाखा में घुघुवा नेशनल फासिल्स पार्क का खाता खुलवाया, पार्क  विकास संबंधी कार्य सर्वप्रथम जबलपुर विकास प्राधिकरण को सौंपा गया, जबलपुर विकास प्राधिकरण का कार्यालय हमारी शाखा के ऊपर स्थित था, बीच बीच में हम लोग घुघुवा में हो रहे विकास कार्यों को देखने जाते और खुश होते कि छोटी सी पहल से घुघुवा को अन्तर्राष्ट्रीय नक्शे पर स्थान मिला। यहां 6.5 करोड़ वर्ष पुराने जीवाश्म पाये गये हैं ये उसी समय के जीवाश्म हैं जब धरती पर डायनोसोर पाये जाते थे | घुघवा के जीवाश्म  पेड़ ,पौधों , पत्ती ,फल, फूल एवं  बीजों से संबंधित है | घुघवा राष्ट्रीय जीवाश्म उद्यान का कुल क्षेत्रफल 0.27 वर्ग किलोमीटर है | लगातार प्रयास के बाद घुघवा को राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया | घुघुवा नेशनल फासिल्स पार्क को महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया गया। हमने अभी भी मांग की है कि घुघुवा में एक ऐसा शोध संस्थान बनाया जाना चाहिए जहां पृथ्वी के निर्माण से लेकर पेड़ पौधों के फासिल्स बन जाने तक की प्रक्रिया पर शोधकार्य हों।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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