हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 53 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 53☆

☆ संतोष के दोहे ☆

 

चिंतन पहले सब करें, बाद करें सब काम

तभी सफलता भी मिले, कभी न हों नाकाम

 

झूम उठा मन देख कर, निरखि नियति का रूप

उत्सव सा मौसम लगे, नित नव रंग स्वरूप

 

गली बगीचों में दिखें, नव युगलों की भीर

अब विस्मय क्या कीजिये, रखिये बस मन धीर

 

बिना चाह के हमें खुद, मिलता मान यथेष्ट

कर्मों की खातिर सदा, रहिये तनिक सचेष्ट

 

राह ताकती कौमुदी, पावस पूनम रात

पाकर मधु वो खिल उठी, पुलकित सब जज्बात

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ राष्ट्रकवि दिनकर स्मृति विशेष – साहित्य के सूर्य दिनकर ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की  राष्ट्रकवि दिनकर  जी की स्मृति में  विशेष रचना – साहित्य के सूर्य दिनकर)

☆ राष्ट्रकवि दिनकर स्मृति विशेष – साहित्य के सूर्य दिनकर ☆   

दिनकरजी की प्रसिद्ध पंक्तियां

क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो

उसको क्या जो दंत हीन विषरहित विनीत सरल हो।।

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी को समर्पित मेरी चंद पंक्तियाँ

 

साहित्य के सूरज थे दिनकर नामधारी

रामधारी सिंह सिंह को भी मात करे थे

जंग छेडी़ कविता से जागरूकता फैलाई

देशभक्ति की मिसाल बने रचनाओं से थे

रेणुका की हुंकार से क्रांति का बिगुल फूँका

राष्ट्र कवि का वीरासन साहित्य-उद्गारक थे

पुत्र थे माँ धरती के कृषक के घर जन्मे

पढे लिखे कई पद औ पद्मविभूषण पाए थे

पुरस्कार ज्ञानपीठ पाया उर्वशी के लिए

साहित्य चूड़ामणि से वे सम्मानित हुए थे

रश्मि रथी के ये रथी कुरुक्षेत्र में न लडे़

कविता गंगा से वीर रस  प्रवाह किये थे

वीर को ही शोभती है दया क्षमा गुण कहा

भुजंग  भी वीर यदि परितोष क्षमा के थे

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र 440010

(मनहरण घनाक्षरी)

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ राष्ट्रकवि दिनकर स्मृति विशेष –  ओ राष्ट्रकवि, हुँकार भरो  ☆ श्री अमरेंद्र नारायण

श्री अमरेंद्र नारायण

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं  देश की एकता अखण्डता के लिए समर्पित व्यक्तित्व श्री अमरेंद्र नारायण जी की राष्ट्रकवि  दिनकर जी की स्मृति में  एक भावप्रवण कविता ओ राष्ट्रकवि, हुँकार भरो )

☆ राष्ट्रकवि दिनकर स्मृति विशेष –  ओ राष्ट्रकवि, हुँकार भरो  

 

ओ राष्ट्रकवि, बुझती जाती चिनगारी है

हुँकार भरो, अब तो हुँकार की बारी है

 

अब सात  नहीं,साठोत्तर पन्ने उलट गए

समर शेष ही  नहीं,  जटिल होता जाता

जाने कब की मिट गयी आस शुभ उस दिन की

अब गहन निराशा से जन मानस भर जाता

 

जो सपना देखा था माता के बेटों ने

वह सपना ही रह गया देश के नयनों में

आदर्शों के पौधे तो कब के सूख गए

उनकी परिभाषा उड़ी समय के डैनों में

 

अपनी चिंता में लिप्त, व्यस्त  सम्पूर्ण  तंत्र

आगे बढ़ कर हम किसको दोषी ठहराएँ?

परिवेश समूचा निरुत्साह कहीं पर बेबस

किस से मंदिर की दीपशिखा हम जलवायें ?

 

क्या होगा उन बुझती आँखों के सपनों का

क्या होगा शैशव के खिलते उन फूलों का?

क्या होगा उन सूखी जाती धाराओं का?

क्या होगा उन विश्वास -आस के कूलों का?

 

यहाँ भूख गरीबी ख़त्म नहीं है हो पाई

राष्ट्र द्रोही उन्मुक्त रम्भाते  चलते हैं

जिन हाथों में पतवार देश की नौका की

रत्नाकर का वे कोष खुरचते रहते हैं

 

कोई संचय में है दिवस और निशि लिप्त ,व्यस्त

कोई  लूट रहा है राष्ट्र -सम्पदा  मुक्त हस्त

सीधे सच्चे सब देख रहे होकर तटस्थ

सहते जाते चुप-चाप और भयभीत त्रस्त

 

ओ राष्ट्रकवि तुमने तो कहा था उसी समय

है समर शेष, अब फिर उसको दुहराओ हे

जो हैं तटस्थ उनका अपराध करो निश्चित

हुंकार करो, हुंकार ज्योति बरसाओ हे

 

वह ज्योति जो अब भूख गरीबी दूर करे

वह ज्योति जो तोड़े रूढ़ि की  जंजीरें

वह ज्योति जो लाये समाज में समरसता

ज्योति जो खींचे नव भारत की तस्वीरें

 

अब भी अगाध   शक्ति है भारत के उर में

जागे  तो वह स्वर्णिम विहान ला  सकती है

संकल्प अगर दृढ़  हो तो नभ से खींच -खींच

गंगा की धारा अवनी तक ला सकती है

 

इसलिए चुनौती दो भारत की मूर्छा को

आलस्य और  इस हीन भाव को फटकारो

फिर एक बार हुंकार भरो प्यारे कविवर

सोई  उर्जा को राष्ट्रकवि फिर  ललकारो !

 

©  श्री अमरेन्द्र नारायण 

२७ अगस्त २०२०

शुभा आशर्वाद, १०५५ रिज़ रोड, साउथ सिविल लाइन्स,जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश

दूरभाष ९४२५८०७२००,ई मेल amarnar @gmail.com

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ स्त्रैण ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ स्त्रैण

दायित्व की

सांकलों से बांधकर

स्थितियों के कुंदों और

बटों से मारते रहे वे,

विवशता के दरवाज़े

की ओट में

असहमति के जूते तले

कुचलते रहे वे,

जाने क्या है,

बार-बार

उठ खड़ी हुई,

मेरी जिजीविषा,

हर बार

स्त्री सिद्ध हुई!

 

©  संजय भारद्वाज 

(आगामी कविता संग्रह ‘वह’ से एक कविता)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 41 ☆ संकल्प मन में ठान ले ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक नवगीत  “संकल्प मन में ठान ले .)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 41 ☆

☆ संकल्प मन में ठान ले  ☆ 

 

जिंदगी हर पल परीक्षा ले रही है मान ले।

आत्मा तो अंश है भगवान का यह जान ले।।

 

यह जरूरी है नहीं  मिल जाए सब आसानी से।

लक्ष्य पाने के लिए संकल्प मन में ठान ले।।

 

चाहता है, तू अगर जीना खुशी के साथ में।

वक्त कुछ अपने लिए भी कीमती पहचान ले।।

 

दुःख देता है न कोई और ना  ही सुख तुम्हें।

कर्म का प्रतिफल सुनिश्चित है यही संज्ञान ले।।

 

शोर कोलाहल अहम अभिमान भटकाता सदा।

मुक्ति पाना है अगर तो मुक्ति के अरमान ले।।

 

मिट नहीं सकती कभी हस्ती अगर प्रभु साथ हैं।

चक्र सो जा छोड़ चिंता और चादर तान ले।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 63 – आशाओं के द्वार खुलेंगे .. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना आशाओं के द्वार खुलेंगे…… । )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 63 ☆

☆ आशाओं के द्वार खुलेंगे ….  ☆  

 

सिकुड़े सिमटे पेट

पड़े रोटी के लाले

दुर्बल देह मलीन

पैर में अनगिन छाले

मन में है उम्मीद

कभी कुछ तो बदलेगा

इस बीहड़ में कब तक खुद को रहे संभाले।।

 

सूरज के संग उठें

रात तक करें मजूरी

घर आकर सुस्ताते

बीड़ी जलाते सोचें,

क्यों रहती है भूख

हमारी रोज अधूरी,

कौन छीन लेता है अपने हक के रोज निवाले।।

 

अखबारों में

अंतिम व्यक्ति की तस्वीरें

बहलाते मंसूबे

स्वप्न मनभावन लगते

और देखता फिर

हाथों की घिसी लकीरें

क्या अपनी काली रातों में होंगे कभी उजाले।।

 

अपना मन बहलाव

एक लोटा अरु थाली

इन्हें बजा जब

पेट पकड़कर गीत सुनाते

बहती मिश्रित धार

बजे सुख-दुख की ताली।

आशाओं के द्वार खुलेंगे, कब बंधुआ ताले।।

 

रोज रात में

पड़े पड़े गिनते हैं तारे

जितना घना अंधेरा

उतनी चमक तेज है

क्या मावस के बाद

पुनम के योग हमारे

बदलेंगे कब ये दिन और छटेंगे बादल काले।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ समय…. ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ समय.. ☆

जो बोया

लहलहा रहा है,

समय का फेर

समझ आ रहा है,

ताउम्र जिसने

निगले सूरज,

जुगनू की रोशनी में

दिन बिता रहा है।

 

©  संजय भारद्वाज 

22.9.2018

#आपका दिन प्रकाशवान हो

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ग़ज़ल ☆ श्री बलजीत सिंह ‘बेनाम’

श्री बलजीत सिंह ‘बेनाम’

(श्री बलजीत सिंह ‘ बेनाम ‘ जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आपकी रचनाएँ  विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित। विभिन्न मुशायरों व सभा संगोष्ठियों में काव्य पाठ। कई मंचों द्वारा सम्मानित। सम्प्रति – संगीत अध्यापक। आज प्रस्तुत है आपकी एक बेहतरीन ग़ज़ल  )

 ☆ कविता ☆ ग़ज़ल ☆ श्री बलजीत सिंह ‘बेनाम’ ☆ 

 

ज़ियादा न मुश्किल का इम्कान रख

नज़र में नए रोज़ सौपान रख

सदा तूने औरों की धड़कन सुनी

कभी मेरी धड़कन का भी ध्यान रख

वो तेरा सनम या कोई ग़ैर है

मोहब्बत में इतनी तो पहचान रख

वफ़ाओं के रोशन सदा दीप कर

कभी दिल की राहें न सुनसान रख

अभी रस ज़माने में बिखरा कहाँ

कहा किसने उपनाम रसख़ान रख

© श्री बलजीत सिंह ‘बेनाम’

सम्पर्क : 103/19 पुरानी कचहरी कॉलोनी, हाँसी, ज़िला हिसार(हरियाणा)
मोबाईल नंबर:9996266210

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 14 – वक्त कभी रुकता नहीं ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता वक्त कभी रुकता  नहीं ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 14 – वक्त कभी रुकता नहीं

 

जीवन वक्त के पीछे चलता है, वक्त कभी रुकता नहीं,

हम वक्त को नजरअंदाज करते है वक्त कभी नजरअंदाज करता नही ||

 

जीवन-चक्र वक्त का गुलाम है, वक्त कभी टूटता नही,

मत करो नजरअंदाज वक्त को,वक्त कभी वापिस लौट कर आता नहीं ||

 

दिन रात चलता है वक्त, वक्त घड़ी देखकर चलता नहीं,

चकते-चलते जीवन रुक जाता है मगर वक्त कभी रुकता नहीं ||

 

हिम्मत हारने से कुछ नहीं होता, वक्त के साथ हम चलते नहीं,

ये हमारी फिदरत है वक्त के भरोसे रह जिंदगी में कुछ करते नही ||

 

हम भले बुरे में वक्त का बंटवारा करते, वक्त कभी कुछ कहता नहीं,

अच्छा बुरा वक्त हमारी सोच है, वक्त अपना बंटवारा करता  नहीं ||

 

वक्त के संग जिंदगी गुजार ले, वक्त जिंदगी के लिए रुकता नहीं,

जिंदगी झुक जाएगी वक्त के आगे, वक्त जिंदगी के आगे कभी झुकता नहीं ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 51 ☆  सबको जाना ही है ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “ सबको जाना ही है”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 51 ☆

☆  सबको जाना ही है ☆

 

हरदम का साथ कहाँ, सबको जाना ही है

ज़िंदगी की रस्में हैं, उन्हें निभाना ही है

 

मंज़र पल में बदलता, कहीं भी मुकाम नहीं

बादल हों चाहें ग़म के, हमें मुस्कुराना ही है

 

आसमान में उड़ते परिंदे, हार मानते कहाँ

पतंगों सा ख़्वाबों को, हमें उडाना ही है

 

सूखता शजर गर्मियों में, बारिश में खिल उठता

कितनी भी मुश्किलें हों, गीत गुनगुनाना ही है

 

मिटटी में जिस्म होगा, रह जायेंगे मीठे बोल

जो सरगम अमर हो जाए, वो तो गाना ही है

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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