हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे ☆ श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे ☆ हेमन्त बावनकर

बिस्तर

घर पर बिस्तर

उसकी राह देखता रहा

और

उसे कभी बिस्तर ही नहीं मिला।

 

वेक्सिन 

किसी को अवसर नहीं मिला

किसी ने अवसर समझ लिया

मुफ्त का मूल्य

कोई कुछ समझ पाता

तब तक कई दायरे के बाहर आ गए।

 

ऑक्सीज़न

ऑक्सीज़न तो कायनात में  

कितनी करीब थी।  

सब कुछ बेचकर भी

एक सांस न खरीद सके,

अब किससे क्या कहें कि-

साँसें इतनी ही नसीब थी?

 

कफन

किसी को कफन मिला

किसी का कफन बिक गया

उस के नसीब को क्या कहें

जो पानी में बह गया।

 

सीना

लोग कई इंचों के सीनों के साथ

भीड़, रैली, माल, रेस्तरां

जमीन पर और हवा में

घूमते रहे बेहिचक।

सुना है

उनमें से कई करा रहे हैं

सीनों का सी टी स्कैन.  

 

वेंटिलेटर

वेंटिलेटर पर खोकर

अपने परिजनों को

अंत तक परिजन भी

यह समझ ही नहीं पाए

कि आखिर वेंटिलेटर पर है कौन?

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 106 ☆ अंतर नहीं होता कवि और चित्रकार में ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की  एक भावप्रवण कविता – अंतर नहीं होता कवि और चित्रकार में।  इस भावप्रवण रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 106 ☆

? अंतर नहीं होता कवि और चित्रकार में ?

चित्रकार की तूलिका की जगह

कवि के पास होती है कलम

और रंगों की जगह शब्द कैनवास बड़ा होता है,

विश्वव्यापी कवि का

अपनी कविता मे वह

समेट लेना चाहता है सारी दुनिया को

अपनी बाहों में शब्दों के घेरे से

लोगों के देखे पर अनदेखे संवेदना से सराबोर दृश्य

अपने हृदय में समेट लेती हैं

कवि और चित्रकार की भावनाये

फिर कभी एकांत में डैवेलप करता है

मन के कैमरे में कैद 

सारे दृश्य कवि कविता में

और

चित्रकार चित्र में

जिसे पढ़कर या सुनकर

या देखकर

लोग पुनः देख पाते हैं

स्वयं का ही देखा पर अनदेखा दृश्य

और इस तरह बन जाते हैं

एक के हजार चित्र , कविता से

हर मन पर अलग-अलग रंग के

ठीक वैसे ही

जैसे उतार देता है चित्रकार

दो तीन फ़ीट के कैनवास पर हमारे देखते-देखते एक

मनोहारी चित्र

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दो कवितायेँ ☆ [1] चेतना के पूर्वाधार [2] अंतिम ही अभाव है ☆ सुश्री मनिषा खटाटे

सुश्री मनिषा खटाटे

☆ दो कवितायेँ ☆ [1] चेतना के पूर्वाधार [2] अंतिम ही अभाव है ☆  सुश्री मनिषा खटाटे☆ 

(मरुस्थल काव्य संग्रह की दो कवितायेँ )

[1]

चेतना के पूर्वाधार

चेतना के अवचेतन में,

बसता है जगत कल्पना और अवधारणाओं का,

ज्ञान और अनुभूति के आकाश तले,

टिमटिमाते हैं तारे स्वर्ग से रात दिन,

आत्मा को करते हैं प्रकाशित,

मनुष्य के फूल की जड़ हैं मूलाधार,

सुगंध हैं सहस्त्रार,

जो हवां से बहती और सागर में उमडती,

किंतु आश्चर्य यह कि,

अहंम ही है अव्यक्त का एक आयाम,

और अंततः अस्तित्व है दूसरा,

जगत और सौंदर्य का अव्यक्त संसार,

अहम भी खिलता उस अव्यक्त से,

पूर्वाधार है चेतना के,

खिलता है ब्रह्म का कमल,

वासना के कीचड़ से.

 

[2]

अंतिम ही अभाव हैं.

एक आयाम का ही यथार्थ है जगत और मै.

अनेक सदर्भो से अभिव्यव्त होता है वह,

मैं मेरे अहं की ओर मुडती हुँ,

और जगत स्वयं उस एक में

स्थित है.

सर्वव्याप्त समय और आकाश

उस एक के है रुप, परंतु है सापेक्ष

अपितु,

गुरुत्व बल है उत्कांती का भाव,

चेतना और सर्व उत्थान का भी.

सघर्षरत है मनुष्य अपने स्वयं से ही,

ये कथा है तथा चरित्रात्मक टिप्पणियाँ,

उस चित्रकार की,

राह अदभूत है,

आरंभ है कण, कण से,

कायण भी है वह इस एक का.

रंगो में या चित्रो में जगत है चित्रकार का.

और स्वयं के ही आयाम, ही चित्र बनाता,

संघर्ष है स्वयं  और स्वरं के मध्यमें फिर,

अंतिम ही अभाव है,

और शुन्य ही है अंतिम.

© सुश्री मनिषा खटाटे

नासिक, महाराष्ट्र (भारत)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 88 – वृक्षारोपण   पर्यावरण संरक्षण – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  पर्यावरण दिवस के सन्दर्भ में एक कविता  “वृक्षारोपण   पर्यावरण संरक्षण। इस सामयिक एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 88 ☆

? वृक्षारोपण पर्यावरण संरक्षण ?

फूले उपवन डाली डाली

इनकी सुन्दरता निराली

झुम झुम कर गा रही

कोयल मतवाली काली

 

वृक्ष हमारे जीवन के अंग

बना कर रखे इनका संग

अपने हाथों करें संरक्षण

काट कर न करें इनको तंग

 

मिले हमको अनेक औषधी

जिससे मिटे जड़ से व्याधि

स्वस्थ शरीर सुन्दर मन

वृक्षों के नीचे बैठे तपोधी

 

करें हम वृक्षों का रोपण

तन मन हो इस पर अर्पण

भूले न इनको लगाकर

तभी होगा अपना समर्पण

 

अपने जीवन में करें प्रण

जैसे भुख के लिए अन्न

शुध्द वायु जीवन के लिए

वृक्षों का करें संरक्षण

 

पाकर हरी भरी धरा

मन भी होगा हरा भरा

बचाएंगे हम पर्यावरण

अपना ले हम परम्परा 

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (26-30) ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (26-30) ॥ ☆

यज्ञ हेतु भूलोक का, अन्न हेतु दिवलोग

दोहन राजा ने किया ले समुचित सहयोग ॥ 26॥

 

अन्य कोई नृप कर सका नहीं कीर्ति में मात

तस्करता केवल हुई सुनने भर की की बात ॥ 27॥

 

रोगी को औषधि सदृश, शिष्ट शत्रु आराध्य

तथा सर्प विष सदृश थे, दुष्ट स्वजन भी त्याज्य ॥28॥

 

ब्रह्रा ने सिरजा उसे था यों तत्व सहेज

गुण था परहित काज ही मानो एक विशेष ॥ 29॥

 

सागर वेषिृत भूमि जहॅ शेष न था कोई भूप

एक नगर की भाँति तहँ शासन किया अनूप ॥ 30॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#49 – दोहे – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #49 –  दोहे  ✍

क्षणभर का सानिध्य ही, तन में भरे उजास।

 दर्शन की यमुना हरे, युगों युगों की प्यास।।

 

हृदय और मरुदेश में, अंतर नहीं विशेष।

हरित भूमियों के तले, पतझड़ के अवशेष ।।

 

तन-मन में शैथिल्य है, गहरा है अवसाद ।

एक सहारा शेष है, अपने प्रिय की याद।।

 

यह सांसों की बांसुरी ,कब लोगे तुम हाथ ।

प्रश्नाकुल साधे कहें, कब तक रहें, अनाथ।।

 

मरुथल जैसी जिंदगी, अंतहीन भटकाव।

 हरित भूमियों से मिले, जीवन के प्रस्ताव।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 48 – मौसम कुछ अनमना… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “मौसम कुछ अनमना…  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 48 ।। अभिनव गीत ।।

☆ मौसम कुछ अनमना…  ☆

छींके पर सूरज रख

कहती महतारी

साँझ बहिन आगे की

करलो तैयारी

 

चूल्हे पर चढ़ा दिये

संयम के आलू

आखिर अब समय

हुआ करने ब्यालू

 

चाँद किये मुँह टेढ़ा

पूछता मुंडेरों से

कैसी क्या बन पायी

संध्या तरकारी?

 

सभी ओर बिखरे हैं

जगह जगह चमकीले

टिमटिम जुगनू जैसे

तारे नीले नीले

 

मौसम कुछ अनमना

दबे छिपे देखरहा

मध्य रात्रि की लकदक

साडी जड़तारी

 

बहुत कुछ छिपाया

था गोरोचन अगरु गंध

प्राची ने पढ़ दिया है

यह सारा निबंध

 

अलसाये पेड़ लगे

जमुहाई लेते से

अरुण खड़ा प्रात की

खोले अलमारी

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

05-06-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – टिटहरी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – टिटहरी  ?

( 5 जून से आरम्भ पर्यावरण विमर्श की रचनाओं में आज तीसरी रचना।)

भीषण सूखे में भी
पल्लवित होने के प्रयास में,
जस- तस अंकुर दर्शाती
अपने होने का भास कराती
आशाओं को, अंगुली थाम
नदी किनारे छोड़ आता हूँ।

आशाओं को
अब मिल पायेगा
पर्याप्त जल और
उपजाऊ जमीन।

ईमानदारी से मानता हूँ
नहीं है मेरा सामर्थ्य,
नदी को खींचकर
अपनी सूखी ज़मीन तक लाने का,
न कोई अलौकिक बल
बंजर सूखे को
नदी किनारे बसाने का।

वर्तमान का असहाय सैनिक सही,
भविष्य का परास्त योद्धा नहीं हूँ,
ये पिद्दी-सी आशाएँ,
ये ठेंगु-से सपने,
पलेंगे, बढ़ेंगे,
भविष्य में बनेंगे
सशक्त, समर्थ यथार्थ,
एक दिन रंग लायेगा
मेरा टिटहरी प्रयास।

जड़ों के माध्यम से
आशाओं के वृक्ष
सोखेंगे जल, खनिज
और उर्वरापन..,
अंकुरों की नई फसल उगेगी,
पेड़ दर पेड़ बढ़ते जाएँगे,
लक्ष्य की दिशा में
यात्रा करते जाएँगे।

मैं तो नहीं रहूँगा
पर देखना तुम,
नदी बहा ले जाएगी
सारा नपुंसक सूखा,
नदी कुलाँचें भरेगी
मेरी ज़मीन पर,
सुदूर बंजर में
जन्मते अंकुर
शरण लेंगे
मेरी ज़मीन पर,
और हाँ..,
पनपेंगे घने जंगल
मेरी ज़मीन पर..!

#लक्ष्य की दिशा में आज एक कदम बढ़े। शुभ दिवस#

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक कविता # 95 ☆ दरअसल ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक सकारात्मक कविता  ‘दरअसल )  

☆ सकारात्मक कविता ☆ दरअसल ☆

दरअसल 

कुछ नहीं कहना ,

 

अभी गर्मी 

बहुत अधिक है, 

 

कोरोना अभी

लाशें खरीद रहा है,

 

 मन है पर बहुत 

उचाट सा रहता है, 

 

दरअसल

 ये है कुछ कहो,

 

पर तुम ध्यान भी

 नहीं देते इस उहापोह में,

 

दिक्कत ये  हो गई है

 कि सब कुछ बदल रहा है, 

 

ब्याज भरे संबंधों का

हिसाब-किताब हो रहा है,

 

दरअसल 

कोविड ने

दुरस्ती का ठेका लिया है

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #39 ☆ # हे राही ! तू क्यों है उदास # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है महामारी कोरोना से ग्रसित होने के पश्चात मनोभावों पर आधारित एक अविस्मरणीय भावप्रवण कविता “# हे राही ! तू क्यों है उदास #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 30 ☆

☆ # हे राही ! तू क्यों है उदास # ☆ 

हे राही ! तू क्यों है उदास ?

तेरी क्यों रूक रही है सांस ?

यह जीवन चक्र है

फिर भी तू क्यों है निराश ?

 

इन पीड़ित लोगों के बारे में सोच

इनके बहते आंसुओं को पोछ

इनका सबकुछ महामारी में लुट गया

अपनों का साथ राह में छूट गया

भरा-पूरा परिवार वीरान  हो गया

नियति के आगे मजबूर इन्सान हो गया

तू इनके मन में जगा जीवन की आस

हे राही ! तू क्यों है उदास ?

 

पहले पड़ी महामारी की मार

दूजे में छूट गए रोजगार

भटक रहे हैं भूखे-प्यासे

उखड़ ना जाए इनकी सांसे

मदद क लिए उठें है क ई हाथ

सभी संगठन दे रहें हैं साथ

तू भी इनमें शामिल होकर

कर अलग कुछ खास

हे राही ! तू क्यों है उदास

 

दु:ख दर्द में जीना सीखो

जहर मिले तो पीना सीखो

खुद हंसो, पीड़ितों को हंसाओ

उनके जीवन में खुशियां लाओ

खुशियों से बढ़ेगी इम्यूनिटी

जीवन में आयेगी पाॅजिटिवीटि

तू आदर्श बन,

दूर कर महामारी का त्रास

हे राही! तू क्यों है उदास 

© श्याम खापर्डे 

04/06/2021

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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