हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – निर्वाण से आगे.. ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – निर्वाण से आगे..? ?

असीम को जानने की

अथाह प्यास लिए

मैं पार करता रहा

द्वार पर द्वार,

अनेक द्वार,

अनंत द्वार,

अंतत: आ पहुँचा

मुक्तिद्वार…,

प्यास की उपज

मिटते नहीं देख सकता मैं,

चिरंजीवी जिज्ञासा लिए

उल्टे कदम लौट पड़ा मैं,

मुक्ति नहीं तृप्ति चाहिए मुझे,

निर्वाण नहीं सृष्टि चाहिए मुझे!

©  संजय भारद्वाज

(अपराह्न 1:18 बजे, 23.6.2021)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 99 ☆ भावना के दोहे – श्राद्ध पक्ष ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे – श्राद्ध पक्ष । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 99 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – श्राद्ध पक्ष ☆

हाथ पांव धोकर सभी, बैठे पुरखे द्वार।

स्वागत उनका कर रहा, अपना ही परिवार।।

 

पितरों का तर्पण करें, श्राद्ध पक्ष में आज।

पुरखों के आशीष से, बनते बिगड़े काज।।

 

दूर गए हमसे सभी, दिल के है वे पास।

विदा हुए संसार से, हैं वे सबके खास।।

 

करकशता है काग की, बनी यही पहचान।

फिर भी मिलता है उसे, श्राद्धपक्ष सम्मान।।

 

कांव कांव वो कर रहा, बैठ मुंडेर काग।

लेने आया भाग से, पितरों का वह भाग।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 88 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं   “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 88 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

(प्राणायाम, चकोरी, हरियाली, हिलकोर, प्रसून)

नमस्कार कर सूर्य का, करिए प्राणायाम

नित होगा जब योग तब, तन-मन में आराम

 

प्रेम चकोरी-सा करें, जैसे चाँद-चकोर

इक टक ही वो ताकती, किये बिना ही शोर

 

रितु पावस मन भावनी, बढ़ती जिसमें प्रीत

सब के मन को मोहते, हरियाली के गीत

 

जब भी देखा श्याम ने, राधा भाव विभोर

प्रेम बरसता नयन से, राधा मन हिलकोर

 

देख प्रेयसी सामने, मन में खिले प्रसून

जब आँखे दो-चार हों, खुशियां होतीं दून

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 4 (31-35)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #4 (31-35) ॥ ☆

 

रघु ने अपनी श्शक्ति से मरूभूमि को जलमय किया

नदियों को निस्तारदायी वनों को उज्जवल किया ॥ 31॥

 

पूर्व को सेना ले जाते रघु त्यों ही राजित हुये

शिव जटा से गंगा ला ज्यों भागीरथ भासित हुये ॥ 32॥

 

बली गज फल – वृक्ष सब उत्पाद रचता मार्ग ज्यों

रघु ने भी नृप आदिकों को हटा खोजी राह ज्यों ॥ 33॥

 

विजय प्राप्त करते महाराज रघु यों दिशा पूर्व में जीत के राज्य सारे

घने ताड़ वृक्षों से जो श्याम दिखता था पहुँचे वहाँ उस उदधि के किनारे ॥ 34।

 

नदी वेग सम वृक्ष -उच्छेद करते हुये रघु से करने को अपनी सुरक्षा

झुक बेत सा विनत हो नम्रता में ही सुह्राके नृपों ने तो समझी कुशलता ॥ 35॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – हो सकता है..! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – हो सकता है..!? ?

जाने क्या है;

इन दिनों

कविताएँ उपजती नहीं..,

हो सकता है;

विसंगतियाँ कम हो रही हों,

स्थितियाँ अनुकूल हो रही हों..,

पर संभावना की पीठ पर

आशंका सदा गुदी होती है,

हो सकता है;

मनुष्यता भरभरा रही हो,

संवेदना पथरा रही हो…!

 

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 10.09 बजे, 17.9.21

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 115 ☆ अनुस्वार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता  संतुलन। इस विचारणीय विमर्श के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 115 ☆

? कविता – अनुस्वार ?

चंचला हो

नाक से उच्चारी जाती

मेरी नाक ही तो

हो तुम .

माथे पर सजी तुम्हारी

बिंदी बना देती है

तुम्हें धीर गंभीर .

पंचाक्षरो के

नियमों में बंधी

मेरी गंगा हो तुम

अनुस्वार सी .

लगाकर तुममें डुबकी

पवित्रता का बोध

होता है मुझे .

और

मैं उत्श्रंखल

मूँछ मरोड़ू

ताँक झाँक करता

नाक से कम

ज्यादा मुँह से

बकबक

बोला जाने वाला

ढ़ीठ अनुनासिक सा.

हंसिनी हो तुम

मैं हँसी में

उड़ा दिया गया

काँव काँव करता

कौए सा .

पर तुमने ही

माँ बनकर

मुझे दी है

पुरुषत्व की पूर्णता .

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 77 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – षोडशोऽध्यायः ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है षोडशोऽध्यायः

पुस्तक इस फ्लिपकार्ट लिंक पर उपलब्ध है =>> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 77 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – षोडशोऽध्यायः ☆ 

स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए सोलहवाँ अध्याय। आनन्द उठाइए। ??

– डॉ राकेश चक्र।।

☆ सोलहवाँ अध्याय – दैवीय और आसुरी स्वभाव ☆

श्रीकृष्ण भगवान ने इस अध्याय में अर्जुन को दैवीय व आसुरी स्वभाव के बारे में ज्ञान दिया। दो प्रकार के मनुष्य भगवान ने वर्णित किए हैं, एक दैव प्रकृति के तथा दूसरे आसुरी प्रवत्ति के। उनके गुण व अवगुण भगवान ने बताए हैं –

 

दैवीय मनुष्यों  के गुण इस प्रकार हैं

 

दैव तुल्य हैं जो मनुज,दैव प्रकृति सम्पन्न।

भरतपुत्र! होते नहीं, वे ईश्वर से भिन्न ।। 1

 

आत्म-शुद्ध आध्यात्म से,हो परिपूरित ज्ञान।

संयम अनुशीलन करे,सदा सुपावन दान।। 2

यज्ञ, तपस्या भी करें, पढें शास्त्र व वेद।

सत्य, अहिंसा भाव से, करें क्रोध पर खेद।। 2

 

शान्ति, क्षमा,करुणा,रखें,हो न हृदय में भेद।

लोभ विहीना ही रहें, करें दया, रख तेज।। 3

लज्जा हो , संकल्प हो, मन से रहे पवित्र।

यश की करे न कामना, धैर्य , प्रेम हो मित्र।।3

 

दम्भ, दर्प, अभिमान सब,हैं आसुरी स्वभाव।

क्रोधाज्ञान, कठोरता, देते सबको घाव।। 4

 

दिव्य गुणी देते रहे, मानव तन को मोक्ष।

वृत्ति आसुरी दानवी, माया करे अबोध।। 5

 

दो प्रकार के हैं मनुज, असुर,दूसरे देव।

दैवीय गुण बतला चुका, सुनलो असुर कुटेव।। 6

 

भगवान ने असुर स्वभाव के मनुजों के बारे में बताया है—

 

वृत्ति आसुरी मूढ़ नर, रखते नहीं विवेक।

हो असत्य,अपवित्रता, नहीं आचरण नेक।। 7

 

मिथ्या जग को मानते, ना इसका आधार।

सृष्टा से होकर विमुख,करते भोगाचार।। 8

 

आत्म-ज्ञान खोएँ असुर, चाहें दुर्मद राज।

बुद्धिहीन बनकर सदा, करें न उत्तम काज।। 9

 

मद में डूबें गर्व से , झूठ प्रतिष्ठा चाह।

मोह-ग्रस्त संतोष बिन, सबको करें तबाह।। 10

 

इन्द्रिय के आश्रित रहें,जानें केवल भोग।

चिन्ता करते मरण तक, रहते नहीं निरोग।। 11

 

इच्छाओं की चाह में, करें पाप के काम।

मुफ्त माल चाहें सदा, क्रोध करें अतिकाम।। 12

 

असुरों के स्वभाव के बारे में भगवान ने बताया——–

 

 व्यक्ति आसुरी सोचता, धन भी रहे अथाह।

वृद्धि उत्तरोत्तर करूँ, बस दौलत की चाह।। 13

 

मन में रखते शत्रुता, करें शत्रु पर वार।

सुख सुविधा चाहें सभी, सोचें मैं संसार।। 14

 

करें कल्पना मैं सुखी, मैं ही सशक्तिमान।

मुझसे बड़ा न कोय है, करें सभी सम्मान।। 15

 

चिन्ता कर, उद्विग्न रह, बँधे मोह के जाल।

चाहें इन्द्रिय भोग सब, बढ़ें नरक के काल।। 16

 

श्रेष्ठ मानते स्वयं को, करते सदा घमण्ड।

विधि-विधान माने नहीं, जकड़े मोह प्रचंड।। 17

 

अहंकार, बल, दर्प से, करते काम या क्रोध।।

प्रभु ईर्ष्या कर रहे , सत से रहें अबोध।।18

 

क्रूर , नराधम जो मनुज, और बड़े ईर्ष्यालु।

प्राप्त अधोगति को हुए , ईश न होयँ कृपालु।। 19

 

प्राप्त अधोगति को हुए, असुर प्रवृत्ति के लोग।

बार-बार वे जन्म लें, भोगें फल का भोग।। 20

 

तीन नरक के द्वार, काम, क्रोध सँग लोभ।

बुद्धिमान को चाहिए, कर लें इनसे क्षोभ।। 21

 

नरक द्वार से जो बचें, उनका हो कल्यान।

प्राप्त परमगति को करें, बढ़े सदा सम्मान।।22

 

जो जन शास्त्रादेश की,नहीं मानते बात।

उन्हें मिली सुख-सिद्धि कब, मिलती तम की रात।। 23

 

शास्त्र पढ़ें, उनको गुनें, जानें सुविधि- विधान।

उच्च शिखर पर पहुँचते, होता है कल्यान।। 24

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” दैवीय और आसुरी स्वभाव ब्रह्मयोग ” सोलहवाँ अध्याय समाप्त।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 4 (26-30)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #4 (26-30) ॥ ☆

 

सुरक्षित आवास थे कोई न जिसके श्शत्रु थे

विजय यात्रा में बढ़ा रघु षडाड्गी सेवा लिये ॥ 26॥

 

कर्तियों ने श्री रध्य – अभिषेक विष्णु का किया

नगर वनिताओं ने त्यों ही खील से रघु का किया ॥ 27॥

 

वायु से उड़ती ध्वजा से शत्रुओं को वर्जते

इंद्र से रघु पूर्व के प्रति बढ़े घन से गर्जते ॥ 28॥

 

धूलि कण से भूमि का आकाश को करते हुये

हाथियों के मेघ से भूलोक को भरते हुए ॥ 29॥

 

चला भव्य प्रताप आगे पीछे रव फिर धूलि कण

तब कहीं रथ और पीछें सैन्य का हर वीर जन ॥ 30॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #100 – आदमी सूरजमुखी सा…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण कविता  “आदमी सूरजमुखी सा….”। )

☆  तन्मय साहित्य  #100 ☆

☆ आदमी सूरजमुखी सा…. ☆

हवाओं के साथ, रुख बदला नया है

आदमी, सूरजमुखी  सा  हो  गया है।

 

दोष देने में लगे हैं,  खेत को ही

घुन खाए बीज, कोई  बो  गया है।

 

सोचना, नीति – अनीति व्यर्थ अब

संस्कृति संस्कार घर में खो गया है।

 

संयमित  हो कर, घरों  में  ही  रहें

खिड़कियों के काँच मौसम धो गया है।

 

सियासत के  चक्रव्यूह  की कैद से

फिर कभी छूटे नहीं, जो भी गया है।

 

फेन, फ्रिज, कूलर, सभी  चालु तो है

कौन सा भय फिर कमीज भिगो गया है।

 

अब  बचा  नहीं  पाएंगे, मन्तर  उसे

रात उसकी छत पे उल्लू रो गया है।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 4 (21-25)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #4 (21-25) ॥ ☆

 

लख उदित नभ में अगस्त औं स्वच्छ जल हर ठाँव में

रघु विजय यात्रा की श्शंका उठी सबके भाव में ॥ 21॥

 

रघु के से विक्रम का करते खेल में ज्यों अनुकरण

मत्त ऊँचे वृषभ धरते सरित तट का उत्खनन ॥ 22॥

 

हो के आहत हाथियों ने सपृपर्ण की गंध से

छोड़ा मदजल वैसा ही कर होड़ अपने अंग से ॥ 23॥

 

नदियो को उथला बनाती मार्गो को कदर्म रहित

शरद आई शक्ति को दे प्रेरणा यात्राओं हित ॥ 24॥

 

वाजनीरा जन – हुताग्नि उठ मुड़ी दक्षिण दिशा

विजय का संकेत मानो स्वतः ही उसको दिया ॥ 25॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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