हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 77 ☆ गजल ☆ ।। खुद का चेहरा भी देखना जरूरी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ गजल ☆ ।। खुद का चेहरा भी देखना जरूरी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

आईना पहले देखो फिर दिखाया करो।

झूठ को हमेशा   झूठ ही  बताया करो।।

[2]

खुद का   चेहरा भी   देखना  जरूरी है।

तब कोई इल्जाम किसी पे लगाया करो।।

[3]

उपर वाले की वह  लाठी  दिखती नहीं है।

हमेशा यह सोचके किसीको सताया करो।।

[4]

जो काम हाथ में लो पूरा करना है जरूरी।

यह समझ कर ही जिम्मेदारी उठाया करो।।

[5]

हर  आदमी का मोल और कीमत समझो।

यूं ही   किसी गरीब को  मत नचाया करो।।

[6]

गलत तरीके से मत करो बचाव किसी का।

सामने सच के झूठ को  मत बचाया करो।।

[7]

हंस फूस में चिंगारी तरह सचआता बाहर।

सात पर्दों में यूं सच   को मत छुपाया करो।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 142 ☆ बाल गीतिका से – “माँ, मुझको शाला जाने दो…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित बाल साहित्य ‘बाल गीतिका ‘से एक बाल गीत  – “माँ, मुझको शाला जाने दो…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

 ☆ बाल गीतिका से – “माँ, मुझको शाला जाने दो…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

माँ मुझको शाला जाने दो।

पढ़-लिखकर कुछ बन जाने दो ॥

घंटी मुझको बुला रही है।

याद साथियों की आ रही है

मुझे वहाँ अच्छा लगता है।

मन में एक सपना जगता हैं ॥

पढ़ते-लिखते गाते गाना।

खेल-खेल मिल खाते खाना॥ 

दीदी मुझे प्यार करती है।

सबकी देखभाल करती है ॥

नई कहानी कह रोजाना।

सिखलाती हैं चित्र बनाना ॥

फूल भरी सुन्दर फुलवारी ।

आँखों को लगती है प्यारी

सजा साफ सुथरा आहाता ।

सदा मेरे मन को है भाता ॥

तस्वीरों से सजी दिवालें ।

कहती सब संसार सजा लें॥ 

सारा वातावरण सुहाना ।

वहाँ ज्ञान का भरा खजाना॥ 

मैं पढ़-लिख होशियार बनूँगा ।

अनुभव ले सरदार बनूँगा ।

भारत माँ को सुखी बनाने ॥

घर-घर तक खुशियाँ पहुँचाने ॥

मेहनत सोच विचार करूँगा।

जग में सबसे प्यार करूँगा ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #192 ☆ कारगिल विजय दिवस… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं वीर सैनिकों को समर्पित कविता  “कारगिल विजय दिवस।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 192 – साहित्य निकुंज ☆

☆ कारगिल विजय दिवस ☆

कारगिल पर विजय दिला,

    दिया अपना बलिदान।

वीरों के शौर्य पराक्रम पर

 मिला तिरंगे को सम्मान।

 

सोचा था इन वीरों ने

झुकने इसे न हम देंगे,

मातृभूमि की खातिर,

जान अपनी जरूर देंगे।

 

छक्के सबके छुड़ा दिए,

 खड़े वे सीना तान।

फर्ज निभाया वीरों ने,

    हो गए वे कुर्बान।

 

लक्ष्य विजय का यही था

   थे सच्चे वीर जवान।

विजय दिला कर चले गए,

  रखा देश का मान।

 

अर्पण हुए है राष्ट्र हित में,

    माताओं के लाल।

नमन उन्हें हम कर रहे,

    चमके मां का भाल।

 

गर्व हमेशा हमें रहेगा।

   हम भारत की संतान,

अंत समय तक यही कहा,

   विजयी हिंदुस्तान।

 

इतिहास के पन्नों पर,

   अमर हुआ है नाम।

  युगों युगों तक याद रहेगा,

    कारगिल संग्राम कारगिल संग्राम।।

 

जय हिंद भारत माता की जय

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कौड़ी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – कौड़ी ??

समय समय पर

वे उछालते रहे,

सत्ता और संपदा

के चलनी सिक्के,

सृजन की कौड़ी

मुट्ठी में बांधे,

मैं डटा रहा

समय के अंत तक…!

© संजय भारद्वाज 

प्रात: 9:58 बजे, 31.7.21

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #178 ☆ “अहम पर कुछ दोहे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी “अहम पर कुछ दोहे…. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 178 ☆

☆ “अहम पर कुछ दोहे…”  ☆ श्री संतोष नेमा ☆

अहम करे किस बात का, हे मूरख इंसान

क्यों जमीर को मारता, पाल पोष अभिमान

धन, दौलत, वैभव सभी, कभी न देते साथ

अंत समय सब छोड़कर, जाना खाली हाथ

छोटा हो या हो बड़ा, हो कोई इंसान

अहम पालता जो सदा, उसका गिरता मान

रखें बड़प्पन चित्त में, मन में उच्च विचार।

सबके प्रति सद्भावना,  प्रियता का व्यवहार।।

खुद की महिमा का कभी, खुद मत करें बखान

बड़बोलापन छोड़िये, गिरता उससे मान

अहम पाप का मूल है,  रहें अहम से दूर।

सहज सरल होकर करें, परहित कार्य जरूर।।

पाकर पद अधिकार जब,  बिगड़े चाल चरित्र।

काम, क्रोध, मद, लोभ तब, बनते कपटी मित्र।।

अहम सदा ले डूबता,  करता मति विध्वंस।

बचे न कोई देखलो, रावण, कौरव, कंस

जीवन में यदि चाहिए, शांति परम संतोष

छोड़ें कभी न नम्रता, नाहक  करें न रोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ “बूंदें…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ कविता ☆ “बूंदें…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

○○○

बूंदें बनकर बड़े प्यार से

प्यासी  धरती    छुएं   ।

समेट लें आँचल में अपने

सौंधी सौंधी    खुशबुएं ।। 

○○○

वर्षा रूके तो गुल बूटों की

नोंकों    पर     लटकें  ।

सर्द हवा के झोंकों   से

सिहरें  काँपें और  चुएं ।।

           ○○○

बूंदों की सुइयों में कमसिन

सपने  पिरो   पिरोकर  ।

ऐसे मौसम के लिए दो घड़ी

रूमानी कपड़े     सिएं ।।

○○○

शीशमहल हीरे कभी कंचे

कभी पानी के मणिदीप ।

धरकर नाना रूप सनम

बन जाएं     बहुरूपिए ।।

○○○

बिखेर दें सीलापन इतना

जीवन के पन्नों     पर ।

जलते सूखे जज़्बातों को

मिल जाएं      हाशिए  ।।

♡♡♡♡♡

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जादू ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – जादू ??

अनुभूति वयस्क तो हुई

पर कथन से सकुचाती रही,

आत्मसात तो किया

किंतु बाँचे जाने से

कागज़  मुकरता रहा,

मुझसे छूटते गए

पन्ने  कोरे के कोरे,

पढ़ने वालों की

आँख का जादू

मेरे नाम से

जाने क्या-क्या पढ़ता रहा..!

9:19 बजे, प्रात:,  25.7.18

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #8 ☆ कविता – “कलाकार…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 8 ☆

 ☆ कविता ☆ “कलाकार…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

हाँ  मै एक कलाकार हूँ 

एक बगीचे की तरह हूँ 

जिसमे फूल भी हैं और कांटे भी हैं

तुम्हें जो चुभे वो चुनके देता हूँ 

 

हाँ मै एक कलाकार हूं..

 

वैसे तो एक आम इंसान हूँ 

वो ही रोटी खाता हूँ 

वही कपड़ा पहेंता हूँ 

रोटी खाकर भी भूखा हूँ 

कपड़ा पहनकर भी निर्वस्त्र हूँ 

 

हाँ मै एक कलाकार हूँ …

 

मेरा अपना कोई रंग नहीं

मेरा अपना कोई ग़म नहीं

तुम्हारे गम में रोता हूँ 

रंग में तुम्हारे रंगता हूँ 

दिल में तुम्हारे ख़ुशी चाहता हूँ 

तुम्हारी आंखों में ख़ुशी पाता हूँ 

 

हाँ मै एक कलाकार हूँ ..

 

भीतर मेरे भी एक दुनिया है

जो हमेशा बर्बाद है

मगर आबाद तुम्हारी दुनिया चाहता हूँ 

खुद एक घायल हूँ 

दर्द तुम्हारे समझता हूँ 

 

हाँ मै एक कलाकार हूँ …

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 170 ☆ बाल कविता – बत्तख और मछलियां ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 169 ☆

☆ बाल कविता – बत्तख और मछलियाँ ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

चोंच है पीली, पंख विशाल।

    बत्तख रानी बड़ी कमाल।।

दाना खाती बड़े चाव से।

     मछली देखें बड़े भाव से।।

 

मछली बोलीं अरे! ओ बत्तख

     हमें भी दाना खिलवाओ।

भूख लगी है बड़े जोर की

     हमसे नहीं तुम शरमाओ।।

 

बत्तख बोली अरे मछलियो

    दाना  तुम्हें खिलाती हूँ।

सैर करूँगी मैं भी जल की

     तुमको सखा बनाती हूँ।।

 

सभी मछलियों को बत्तख ने

    दाना प्रेम से खिलवाया।

पेट भरे पर नाचे – कूदे

    सबने ही आनन्द मनाया।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #192 – कविता – मौन मन का मीत… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  मौन मन का मीत)

☆ तन्मय साहित्य  #192 ☆

☆ मौन मन का मीत…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

ओशो को पढ़ते हुए मौन पर एक छंद सृजित हुआ, प्रतिक्रियार्थ प्रस्तुत है…

बिना कहे, जो सब कह जाए वही मौन है

निर्विचार, चिंतक हो जाए वही मौन है

अन्तर शुन्याकाश, व्याप्त चेतनानुभूति

निष्प्रह मन, खुशियाँ पहुँचाये वही मौन है।

 – तन्मय

उपरोक्त मुक्तक के संदर्भ में एक रचना “मौन मन का मीत…” जो पूर्व में विपश्यना के 10 दिवसीय मौन साधना शिविर करने के बाद लिखी थी, मन हो रहा है आपसे साझा करने का, प्रतिक्रियार्थ प्रस्तुत है –

☆ मौन मन का मीत…. ☆

मौन मन का मीत

मौन परम सखा है

स्वाद, मधुरस मौन का

हमने चखा है।

 

अब अकेले ही मगन हैं

शून्यता, जैसे गगन है

मुस्कुराती है, उदासी

चाहतों के, शुष्क वन है

जो मिले एकांत क्षण

उसमें स्वयं को ही जपा है, मौन…

 

कौन है, किसकी प्रतीक्षा

कर रहे, खुद की समीक्षा

हर घड़ी, हर पल निरंतर

चल रही, अपनी परीक्षा

पढ़ रहे हैं, स्वयं को

अंतःकरण में जो छपा है, मौन…

 

हैं, वही सब चाँद तारे

हैं, वही प्रियजन हमारे

और हम भी तो वही हैं

आवरण, कैसे उतारें

बाँटने को व्यग्र हम

जो, गाँठ में बाँधे रखा है, मौन…

 

मौन, सरगम गुनगुनाये

मौन, प्रज्ञा को जगाये

मौन, प्रकृति से मुखर हो

प्रणव मय गुंजन सुनाये

मौन की तेजस्विता से

मुदित हो तन मन तपा है।

स्वाद मधुरस मौन का

हमने चखा है।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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