हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 681 ⇒ सज्जन/सम्भ्रांत पुरुष ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सज्जन/सम्भ्रांत पुरुष।)

?अभी अभी # 681 ⇒ सज्जन/सम्भ्रांत पुरुष ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

(Thorough gentleman)

एक सज्जन पुरुष की क्या परिभाषा है, वह भला भी होता है, सभ्य भी होता है और चरित्रवान भी होता है। शिक्षित, विनम्र, सरल, और संस्कारी व्यक्ति को आप संभ्रांत भी कह सकते हैं।

जिस व्यक्ति में सभी पुरुषोचित गुण होते हैं, उसे अंग्रेजी में thorough gentleman कहा जाता है।

एक बड़ा प्यारा बंगाली शब्द है मोशाय जिसे हमारे यहां महाशय कहते हैं। यूं तो सभी अच्छाइयां एक व्यक्ति में होना संभव नहीं है, फिर भी हमारे सभ्य समाज की मान्यताओं पर जो व्यक्ति खरा उतरता है, उसे हमें सज्जन अथवा संभ्रांत मानने में कोई संकोच नहीं होता। ।

अंग्रेजी शब्द thorough का मतलब ही होता है, पूर्ण रूप से, अथवा अच्छी तरह से। मनोयोग से अध्ययन को thorough study कहा जाता है। बीमारियों की गहन जांच को भी thorough check up ही कहा जाता है। जेंटलमैन तो कोई भी हो सकता है, लेकिन thorough gentleman हर व्यक्ति नहीं होता।

भला आदमी, सीधा सरल इंसान, जिसमें शराफत कूट कूटकर भरी हो, उसे भी हम सज्जन ही तो कहते हैं। कहीं कहीं तो पसीने की तरह, ऐसे व्यक्ति के चेहरे से शराफत टपक रही होती है। डर है, कहीं इतनी शराफत ना टपक जाए, कि कुछ बचे ही नहीं। ।

अंग्रेजी में एक कहावत है, He is every inch a gentleman. यानी उस आदमी की शराफत इंच टेप से नापी जाती होगी।

हमारे समाज में भी तो कुछ लोग रहते हैं, जिनका कद ऊंचा होता है। कुछ समाज के मापदंड हैं, जो व्यक्ति की ऊंच नीच निर्धारित करते हैं। शायद इसीलिए हर आदमी ऊपर उठना चाहता है, इंच इंच, सेंटीमीटर के लिए मिलीमीटर से प्रयास करना पड़ता है।

बंगाल में एक लाहिड़ी महाशय हुए हैं, उनकी आध्यात्मिक ऊंचाई नापना इतना आसान नहीं था।

इनकी केवल एक तस्वीर ही उपलब्ध है, जिसके बारे में भी यह मान्यता है कि वह तस्वीर भी उनकी सहमति से ही कैमरे में कैद हो पाई, अन्यथा कोई फोटोग्राफर कभी उनकी तस्वीर कैद नहीं कर पाया।।

इतना ऊंचा कौन उठना चाहता है भाई। बस मानवीय गुण, नैतिकता, शराफत, ईमानदारी, विनम्रता, प्रेम और करुणा का समावेश हो हम सबमें। सबका उत्थान हो, लेडीज हों या जेंटलमैन, सभी thorough gentleman हों, सौम्य, भद्र, पुरुष हों, सौम्य, सुशील महिला हों।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ आपके भीतर क्या चल रहा है? ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  आपके भीतर क्या चल रहा है? ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

एक आत्मीय संवाद – अपने अंगों से

प्रस्तावना: शरीर के संकेतों को समझिए, इससे पहले कि स्थिति बिगड़ जाए

हममें से अधिकतर लोग तब तक अपनी सेहत पर ध्यान नहीं देते जब तक कोई परेशानी सामने न आए। लेकिन सोचिए, अगर हम अपने शरीर की आवाज़ को हर रोज़ थोड़ा-थोड़ा सुनें, उससे प्यार से बात करें, तो क्या हम बीमार होने से पहले ही बेहतर नहीं हो सकते?

हमारा शरीर कई अंगों का एक संगठित समूह है—हर अंग दिन-रात मेहनत करता है ताकि हम जीवन को पूरी ऊर्जा और संतुलन के साथ जी सकें। इस लेख में हम एक आत्मीय यात्रा करेंगे अपने भीतर, और जानेंगे दस अहम अंगों व प्रणालियों की सेहत कैसी होनी चाहिए, उसे और बेहतर कैसे बनाएं, और कब किसी चिकित्सक की सलाह लें।

यह लेख डराने या बोझिल ज्ञान देने के लिए नहीं है। यह एक स्नेहभरा आमंत्रण है—अपने आप से दोस्ती करने का, अपने शरीर को समझने का।

  1. हृदय: शरीर का न थकने वाला पंपिंग स्टेशन

स्वस्थ लक्षण व देखभाल:

अगर सीढ़ियाँ चढ़ने पर आपकी सांस जल्दी नहीं फूलती, आपकी त्वचा में गुलाबी आभा है और मन प्रसन्न रहता है, तो समझिए आपका हृदय खुश है। नियमित व्यायाम, पौष्टिक आहार, शांत निद्रा और तनाव का प्रबंधन– जैसे योग, ध्यान या हास्ययोग– हृदय की रक्षा करते हैं।

डॉक्टर से कब मिलें:

अचानक थकावट, सांस फूलना, पैरों में सूजन, या सीने में भारीपन—ये संकेत हैं कि दिल को आराम नहीं मिल रहा। ऐसे में डॉक्टर से सलाह लेना ज़रूरी है।

  1. जिगर (लिवर): मौन साधक

स्वस्थ लक्षण व देखभाल:

अगर पाचन ठीक है, थकान नहीं होती, और त्वचा साफ है, तो समझिए आपका जिगर अच्छा काम कर रहा है। इसे हल्का भोजन, शराब से परहेज, हल्दी, आंवला और हरी सब्जियों से मज़बूत बनाएं।

डॉक्टर से कब मिलें:

त्वचा या आंखों में पीलापन, गहरे रंग का मूत्र, पेट में भारीपन या थकावट—ये लिवर की परेशानी के संकेत हो सकते हैं।

  1. गुर्दे (किडनी): शरीर की प्राकृतिक छन्नी

स्वस्थ लक्षण व देखभाल:

पानी जैसा साफ़ मूत्र, आंखों में ताजगी और पैरों में सूजन का न होना, यह दर्शाता है कि गुर्दे ठीक हैं। पर्याप्त पानी पीना, नमक का सीमित सेवन और ब्लड प्रेशर व शुगर को नियंत्रित रखना आवश्यक है।

डॉक्टर से कब मिलें:

झागदार मूत्र, बार-बार पेशाब आना, खासकर रात में, या टखनों में सूजन—ये चेतावनी के संकेत हैं।

  1. फेफड़े: सांसों के प्रहरी

स्वस्थ लक्षण व देखभाल:

गहरी सांस ले पाना, दौड़ने-भागने के बाद जल्दी थकावट न होना, यह बताता है कि फेफड़े स्वस्थ हैं। ताज़ी हवा, प्राणायाम और धूम्रपान से दूरी फेफड़ों को ताकत देते हैं।

डॉक्टर से कब मिलें:

लगातार खांसी, सांस लेने में कठिनाई या सीने में जकड़न—ये फेफड़ों से जुड़ी दिक्कत के संकेत हो सकते हैं।

  1. थायरॉयड: मौन नियंत्रक

स्वस्थ लक्षण व देखभाल:

अगर वजन स्थिर है, ऊर्जा बनी रहती है, और मन में संतुलन है, तो थायरॉयड अच्छा काम कर रहा है। सीफ़ूड, मेवे और तनाव-मुक्त जीवन इसे स्वस्थ रखते हैं।

डॉक्टर से कब मिलें:

वजन का अचानक बढ़ना या घटना, बाल झड़ना, थकावट या मूड में उतार-चढ़ाव—ये थायरॉयड असंतुलन का संकेत हो सकते हैं।

  1. अग्न्याशय (पैंक्रियास): रक्त में मिठास का प्रहरी

स्वस्थ लक्षण व देखभाल:

दिनभर स्थिर ऊर्जा, मीठे की तीव्र craving न होना, और पेट भरा-भरा महसूस होना—ये स्वस्थ पैंक्रियास की निशानी हैं। कम चीनी, फाइबर युक्त आहार और नियमित भोजन मदद करते हैं।

डॉक्टर से कब मिलें:

बार-बार प्यास लगना, बार-बार पेशाब आना, धुंधली दृष्टि या वजन घटाना—ये डायबिटीज़ के शुरुआती संकेत हो सकते हैं।

  1. पेट और आंतें: शरीर का दूसरा मस्तिष्क

स्वस्थ लक्षण व देखभाल:

अगर खाना पचता है, पेट हल्का रहता है और मल नियमित है, तो पाचन अच्छा है। धीरे-धीरे खाना, खमीरयुक्त भोजन और दही जैसी चीज़ें आंतों को मजबूत बनाती हैं।

डॉक्टर से कब मिलें:

लगातार गैस, कब्ज़, पेट में भारीपन या जलन—ये आपके पाचनतंत्र की शिकायत हो सकती हैं।

  1. मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र: नियंत्रण का केंद्र

स्वस्थ लक्षण व देखभाल:

अगर मन साफ सोचता है, याददाश्त ठीक है और नींद गहरी आती है, तो तंत्रिका तंत्र संतुलित है। किताबें पढ़ना, ध्यान, समय पर सोना, और संवाद से मस्तिष्क सक्रिय रहता है।

डॉक्टर से कब मिलें:

सिरदर्द, भूलने की आदत, मन में घबराहट या नींद की परेशानी—ये संकेत हैं कि आपको मानसिक रूप से विश्राम और मार्गदर्शन की ज़रूरत है।

  1. रक्त और परिसंचरण तंत्र: जीवन की धारा

स्वस्थ लक्षण व देखभाल:

ऊर्जावान शरीर, त्वचा में चमक और चोटों का जल्दी भरना रक्त की गुणवत्ता को दर्शाता है। आयरन से भरपूर भोजन, व्यायाम और जल सेवन इसमें मदद करते हैं।

डॉक्टर से कब मिलें:

लगातार थकान, चक्कर आना, हाथ-पांव ठंडे रहना—ये रक्त की कमी या अन्य समस्या की ओर इशारा कर सकते हैं।

  1. हड्डियाँ और जोड़: मजबूती की नींव

स्वस्थ लक्षण व देखभाल:

अगर आप आसानी से चल-फिर सकते हैं, जोड़ों में दर्द नहीं होता और शरीर सीधा रहता है, तो हड्डियाँ स्वस्थ हैं। कैल्शियम, विटामिन डी, धूप, और हल्का वजन उठाना हड्डियों के लिए लाभदायक है।

डॉक्टर से कब मिलें:

जोड़ों में अकड़न, पीठ दर्द या लंबाई घटती प्रतीत हो तो हड्डियों की जांच आवश्यक है।

निष्कर्ष: एक आत्मीय यात्रा

स्वास्थ्य कोई मंज़िल नहीं—यह अपने शरीर से एक प्रेमपूर्ण रिश्ता है।

जब हम अपने भीतर की हलचलों को सुनना शुरू करते हैं, तो हम स्वयं के प्रति अधिक सजग और दयालु बनते हैं। इस लेख के माध्यम से आपका शरीर आपको कह रहा है—“मुझे पहचानो, मुझसे प्यार करो।”

खुशी से खाइए, मन से चलिए, चैन से सोइए, और ज़रूरत हो तो चिकित्सक को सलाहकार बनाइए—डर के नहीं, भरोसे के साथ!

अस्वीकरण:

यह लेख सामान्य स्वास्थ्य जागरूकता के उद्देश्य से लिखा गया है। कृपया किसी भी दवा, जांच या उपचार से पहले योग्य चिकित्सक की सलाह अवश्य लें।

© जगत सिंह बिष्ट

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 131 – देश-परदेश – जिस लाहौर नही देख्या ओ जम्याइ नई ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 131 ☆ देश-परदेश – जिस लाहौर नही देख्या ओ जम्याइ नई ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमने इस नाम से खेले जा रहे लाहौर में जन्में प्रसिद्ध नाटककार असगर वजाहत के प्रसिद्ध नाटक “जिस लाहौर नही देख्या ओ जम्याइ नई” के बारे में बहुत कुछ सुना हैं। ये नाटक जिन लाहौर नहीं वेख्या… शीर्षक से वर्षों से विभिन्न शहरों के रंगमंचों की शोभा बढ़ाता है। पंजाबी भाषा में लाहौर शहर की प्रसिद्धि की गहराई बताने के लिए कहावत का रूप ले चुका है। “जिन लाहौर नहीं वेख्या…वो जन्मया ही नहीं” अर्थात “जिसने लाहौर नहीं देखा, उसका जन्म ही नहीं हुआ”

देश के विभाजन से पूर्व लाहौर शहर को पूर्व का पेरिस कहा जाता था। फैशन की दुनिया में लाहौर की प्रसिद्धि अभी भी कायम है।

पवित्र शहर अमृतसर से करीब तीस मील की दूरी पर स्थित लाहौर आज भी उन लोगों के लिए अभिमान का प्रतीक है, जो विभाजन की वेदना में अपना सब कुछ छोड़ कर भारत में आ गए थे।

दिल्ली शहर हो या राजस्थान, एम पी, यू पी जैसे प्रदेश जहां शरणार्थी बन कर पंजाबी परिवार अपने बल बूते/ पुरुषार्थ से वापिस अपने मुकाम हासिल कर चुके है। बहुत सारे  कपड़े, श्रृंगार, ड्राई फ्रूट आदि की दुकानों के नाम के साथ लाहौर नाम जुड़ा हुआ मिलता है। इसी प्रकार से हैराबाद की प्रसिद्ध “कराची बेकरी” का नाम भी पूरे देश में प्रसिद्ध है।

इन दुकानदारों को अभी भी लोग “लाहौरी शाह (सेठ)” के नाम से जानते हैं। पाकिस्तान का फिल्मी उद्योग भी लाहौर शहर में स्थित है, इसलिए इसको “लॉलीवुड” भी कहा जाता है।

65 के युद्ध में भारतीय सेना ने लाहौर से भी पाकिस्तान में प्रवेश किया था, लेकिन करीब दस मील घुसने के बाद मानव निर्मित “इच्छोगिल नहर” बाधा बन गई थी।

अमृतसर के कुछ लोग 65 के सीज़ फायर के समय भारतीय सैनिकों के खाने के लिए खीर बना कर ले गए थे। सैनिकों ने भी स्वादिष्ट खीर का सेवन कर खुश होकर भारतीय नागरिकों को लाहौर में पाकिस्तानी नागरिकों की भैंसे, गाय आदि घरेलू पशुओं को ले जाने के किए कहा, ताकि उनको चारा पानी मिलता रहे। हमारे देश के नागरिक भी मुफ्त में मिले हुए जानवरों को अपने घर ले आए थे।

पुरानी कहावत है, “कर भला हो भला” ये ही सब हमारे देशवासियों के साथ हुआ था। आप भी चाहे तो हमारे इस लेख पर ताली बजा कर अपना भी भला करवा सकते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 680 ⇒ बाल की खाल ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बाल की खाल।)

?अभी अभी # 680 ⇒ बाल की खाल ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बाल हो या नाखून, हमारे शरीर की ऐसी फसल है, जो जितना काटो, उतनी बढ़ती है। नख शिख वर्णन में कभी इनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। ये रेशमी जुल्फें, ये शरबती आंखें। न जाने क्यूं, नाखून पर किसी शायर की कलम नहीं चली। बालपन से ही इनका हमारा साथ खून का रिश्ता रहता है। खटमल की तरह ये हमारा खून तो नहीं चूसते, लेकिन हमारे शरीर का अभिन्न हिस्सा होने के बावजूद, जब इन पर मनमाने तरीके से चर्बी चढ़ जाती है, अर्थात् ये गाजर घास की तरह बढ़ना शुरू कर देते हैं, तो कैंची से इनके पर कतरना पड़ता है। जिस तरह एक पक्षी के पर कतरने पर दर्द नहीं होता, उसी तरह केश कर्तन भी पीड़ा रहित ही होता है। नाखून के बारे में तो एक पहेली का अक्सर जिक्र होता है, जिसका हल मुश्किल ना होते हुए भी, कुछ लोग, हल खोजते हुए, नाखून से अपना सर खुजाते, देखे जा सकते हैं ;

बीसों का सर काट लिया

ना मारा, ना खून किया ….

बेचारे बाल, हमारी खाल पर ही तो जिंदा हैं। ये खुद किसी को दर्द नहीं देते, परेशान नहीं करते। लेकिन जब इन्हें अनावश्यक तरीके से खींचा जाता है, तो खाल अर्थात् त्वचा को दर्द होता है। बालों को हम बड़े प्यार से सजाते संवारते हैं। एक शायर ने क्या खूब कहा है ;

जुल्फें संवारने से बनेगी ना कोई बात !

उठिये, किसी गरीब की किस्मत संवारिये ..

वह गरीब बेचारा क्या जाने, जुल्फें यूं ही नहीं संवारी जाती, लोमा हेयर ऑयल, केशवर्धक तेल और आलमंड ऑयल से भी जब काम नहीं बनता तो ब्यूटी पार्लर ही एकमात्र विकल्प बचता है। कुछ अभागे गरीब तो हमने ऐसे भी देखे हैं, जिनके चार -चार बाल बच्चे हो गए, सर में बाल बचे नहीं, फिर भी उनके पैंट की हिप पॉकेट में छोटा सा कंघा जरूर मिलेगा।

जब भी कोई लड़की देखे

मेरा दिल दिवाना बोले

ओले ओले ओले ओले।

शायद इसे ही कहते हैं, सर मुंडवाते ही ओले ओले। ।

जो छिद्रान्वेशी होते हैं, बात बात में मीन मेख निकालते हैं, उनकी यह हरकत बाल की खाल निकालने जैसी ही होती है। उन्हें यह समझना चाहिए, सिर्फ सिर के एक बाल को खींचने से खाल को कितना दर्द होता है। दु:शासन जब भरी सभा में पांचाली के केश खींचकर लाया होगा, तो उसे कितना दर्द हुआ होगा। पांचों पांडवों का मन तो किया होगा, इस दु:शासन की खाल खींच लें। तब कहां महात्मा गांधी थे। फिर भी वे मजबूर थे। क्योंकि तब वहां राम राज नहीं धर्म का राज था। और धर्मराज स्वयं जूए में द्रौपदी को हार बैठे थे।

बड़े बड़े बाल रखना, और उनकी देखभाल करना, बच्चों की देखभाल से कम कठिन परिश्रम का काम नहीं होता। आप किसी से उलझो ना उलझो, जुल्फें आपस में ही उलझ जाती हैं। कितने बालमा ऐसे हैं, जिन्होंने किसी की उलझी लट सुलझाई है। उनके आपस के झगड़े तो उनसे सुलझते नहीं, चले हैं किसी की लट सुलझाने। ।

आप बाल की चाहे जितनी खाल निकालें, बाल को कुछ नहीं होगा, लेकिन अगर आपने किसी के बाल को खींचा, तो हो सकता है कोई अपना आपा खो बैठे और काई ऐसी हरकत कर बैठे, जिससे आपकी त्वचा को भारी नुकसान पहुंचे। आगे क्या लिखूं, आप खुद समझदार हो। अपने बालों और नाखूनों का खयाल रखें। कोरोना काल में कुछ लोगों की तो घर में ही हजामत हो गई थी और कुछ बाबा रामदेव बन बैठे थे। नाखून नेल कटर से ही काटें, दांतों से नहीं …!!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 679 ⇒ च्युंइगम ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “च्युंइगम।)

?अभी अभी # 679 ⇒ च्युंइगम ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

[CENTER FRESH]

आप खुशी खुशी कुछ भी चबा सकते हो, लेकिन क्या आपने कभी गम को चबाया है ! हमारे साहित्य के वात्स्यायन, सच्चिदानंद ‘अज्ञेय ‘ फरमाते हैं ;

हम सब काल के दांतों तले

चबते चले जाते हैं

च्युइंगम की तरह

कच, कच कच

बड़ा कठोर सच …

और उधर सभी पीड़ाओं का संगीत से उपचार करने वालों का मानना है कि ;

जब दिल को सताये गम

तू छेड़ सखि सरगम

सा रे ग म पा …

हमारे जगजीत सिंह बड़े भोले हैं। वे नहीं जानते आज की पीढ़ी को। जब भी किसी खूबसूरत युवा चेहरे को मुस्कुराता देख लेते हैं, बेचारे बड़ी मासूमियत से पूछ लेते हैं ;

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो

क्या गम है, जिसको चबा रहे हो !

उन्हें कौन बतलाए। आज की पीढ़ी इतनी खुश है, इतनी खुश है, कि कभी खुशी, कभी च्युंइगम। वह मस्ती में झूमते हुए सिर्फ किशोर के ही मस्ती भरे नगमे गाना चाहती है। गम छोड़ के मनाओ रंगरेली।

जिस तरह हाथी के दांत खाने के, और दिखाने के अलग होते हैं, ठीक उसी तरह गम भी दो तरह का होता है, खाने का और चिपकाने का। ठंड में अन्य सूखे मेवों के साथ गोंद के लड्डू बड़े स्वास्थ्य वर्धक होते हैं। नवजात शिशुओं की माता को भी कई औषधीय गुणों से युक्त, शक्तिवर्धक जापे के लड्डू खिलाए जाते हैं। बचपन में हमने भी चखे हैं। हमें तो च्युइंगम से बेहतर लगे। पसंद अपनी अपनी।।

जुगाली के भी सबके अपने अपने तरीके होते हैं। वैसे तो मुंह चलने और जबान चलने में अंतर है, लेकिन कुछ लोग इस भ्रम में रहते हैं कि च्युइंगम से मुंह तो चलता रहता है, लेकिन जबान पर ताला लग जाता है। कुछ सयाने लोग इसे जबड़ों के व्यायाम की संज्ञा भी देते हैं। चोर, चोरी से जाए, लेकिन हेराफेरी से ना जाए। पान आप उसे खाने नहीं दो, यहां वहां थूकने नहीं दो। गुटखा हमारे स्वास्थ्य के लिए तो हानिकारक है ही, जो इनका विज्ञापन कर रहे हैं, हमारी नजर में, वे भी कम खतरनाक नहीं। खुद तो पैसा कमाओ और हमारी आदत बिगाड़ो, यह नहीं चलेगा। हम भले ही अपनी आदत नहीं सुधार पाएं, लेकिन ठीकरा तो आपके माथे पर ही फोड़ेंगे। बॉयकॉट पद्मश्री की त्रिमूर्ति।

च्युंइगम को देख, हमें अपना बचपन याद आ गया। सुबह जब टहलने जाते थे, तो किसी भी नीम के पेड़ की नाजुक टहनियों को तोड़, उसकी दातून बना लेते थे और फिर, बस, उसे दांतों से चबाया करते थे। मसूड़ों और दांतों का व्यायाम होता था और नीम का कसैलापन शरीर में प्रवेश कर जाता था। करैला नीम चढ़े ना चढ़े, तब तो नीम ही हमारा हकीम भी था।।

मुखशुद्धि से मन की भी शुद्धि होती है। तन और मन अगर स्वस्थ रहे सौंफ, इलायची और लौंग का सेवन बुरा नहीं। लेकिन सिर्फ खुशी के खातिर, ऐसा भी क्या किसी गम को चबाना, जो बाद में तकलीफदेह साबित हो।

आप ही आपके चिकित्सक भी हो और निःशुल्क परामर्शदाता भी। गम को चबाना, अथवा गम को गलत करना, दोनों ही गलत है। हमारे होठों पर तो आज सिर्फ तलत है। हमारे सारे गम दूर करती सरगम। हमारी प्यारी कानों के जरिए आत्मा में प्रवेश करती असली च्युंइगम।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 288 – अपना समुद्र, अपना मंथन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 288 ☆ अपना समुद्र, अपना मंथन… ?

महासागर अपने आप में अथाह जगत है। जाने कबसे  अनुसंधान हो रहे हैं, तब भी महासागर की पूरी थाह नहीं मिलती।

भीतर भी एक महासागर है। इसकी लहरें निरंतर किनारे से टकराती हैं। लहरों के थपेड़े अविराम उथल-पुथल मचाए रखते हैं। भीतर ही भीतर जाने कितने ही तूफान हैं, कितनी ही सुनामियाँ हैं।

भीतर का यह महासागर, इसकी लहरें, लहरों के थपेड़े सोने नहीं देते। अक्षय व्यग्रता, बार-बार आँख खुलना, हर बार-हर क्षण भीतर से स्वर सुनाई देना-क्या शेष जीवन भी केवल साँसे लेने भर में बिताना है?

योगेश्वर ने अर्जुन से कहा था, ‘प्रयत्नाणि सिद्धंति परमेश्वर:’ प्रयत्नों से, कठोर परिश्रम से लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है, ईश्वर को भी सिद्ध किया जा सकता है। तो क्या हम कभी मथ सकेंगे भीतर का महासागर? 

मंथन इतना सरल भी तो नहीं है। देवताओं और असुरों को महाकाय पर्वत मंदराचल की नेति एवं नागराज वासुकि की मथानी करनी पड़ी थी।

समुद्र मंथन में कुल चौदह रत्न प्राप्त हुए थे। संहारक कालकूट के बाद पयस्विनी कामधेनु, मन की गति से दौड़ सकनेवाला उच्चैश्रवा अश्व, विवेक का स्वामी ऐरावत हाथी, विकारहर्ता कौस्तुभ मणि, सर्व फलदायी कल्पवृक्ष, अप्सरा रंभा, ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी, मदिरा की जननी वारुणी, शीतल प्रभा का स्वामी चंद्रमा, श्रांत को विश्रांति देनेवाला पारिजात, अनहद नाद का पांचजन्य शंख, आधि-व्याधि के चिकित्सक भगवान धन्वंतरि और उनके हाथों में अमृत कलश।

क्या हम कभी पा सकेंगे उन चौदह रत्नों को जो छिपे हैं हमारे ही भीतर?

स्वेदकणों से कमल खिला सकें तो इस पर विराजमान माता लक्ष्मी की अनुकम्पा प्राप्त होगी। धन्वंतरि का प्रादुर्भाव, हममें ही अंतर्निहित है, अर्थात  हमारा स्वास्थ्य हमारे हाथ में है। इस मंथन में कालकूट भी है और अमृत भी। जीवन में दोनों आएँगे। कालकूट को पचाने की क्षमता रखनी होगी। निजी और सार्वजनिक जीवन में अस्तित्व को समाप्त करने के प्रयास होंगे पर हमें नीलकंठ बनना होगा।

न गले से उतरा, न गले में ठहरा,

विष न जाने कहाँ जा छिपा,

जीवन के साथ मृत्यु का आभास,

मैं न नीलकंठ बन सका, न सुकरात..!

अमृतपान कल्पना नहीं है। सत्कर्मों से मनुष्य की कीर्ति अमर हो सकती है। अनेक पीढ़ियाँ उसके ज्ञान, उसके योगदान से लाभान्वित होकर उसे याद रखती हैं, मरने नहीं देतीं, यही अमृत-पान है। नेह का निर्झर किसी के होने को सतत प्रवहमान  रखता है, सूखने नहीं देता। सदा हरित रहना ही अमृत-पान है।

भूख, प्यास, रोग, भोग,

ईर्ष्या, मत्सर, पाखंड, षड्यंत्र,

मैं…मेरा, तू… तेरा के

सारे सूखे के बीच,

नेह का कोई निर्झर होता है,

जीवन को हरा किए होता है,

नेह जीवन का सोना खरा है,

वरना, मर जाने के लिए

पैदा होने में  क्या धरा है..!

अमृत-पान करना है तो महासागर की शरण में जाना ही होगा। यह महासागर हरेक के भीतर है। हरेक के भीतर चौदह रत्न हैं।… और विशेष बात यह कि हरेक को अपना समुद्र स्वयं ही मथना होता है।

मंथन आरंभ करो, संभावनाओं का पूरा महासागर प्रतीक्षा में है।

© संजय भारद्वाज 

अक्षय तृतीया, प्रातः 6:35 बजे, 30 अप्रैल 2025

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 678 ⇒ सामूहिक इच्छा शक्ति ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सामूहिक इच्छा शक्ति।)

?अभी अभी # 678 ⇒ सामूहिक इच्छा शक्ति ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

[ COLLECTIVE WILL ]

अगर इंसान में प्रबल इच्छा शक्ति हो तो वह अपनी इच्छाओं को दबा भी सकता है, और अगर वह अपनी इच्छाओं का गुलाम बनता चला गया, तो उसकी शक्तियां भी क्षीण होती चली जाती है। जहां चाह है, वहां राह है, यहां चाह से मतलब किसी की पसंद, रुचि अथवा wish से नहीं है, यह वही दृढ़ इच्छा शक्ति है जिसे अंग्रेजी में will कहा गया है। Where there is a will, there is a way. लोग भी कम नहीं, वे वसीयत में भी रास्ते ढूंढ निकालते हैं।।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह चाहता है, उसका एक घर हो, उसका एक परिवार हो। केवल घर परिवार से ही उसका काम नहीं चलता, उसे अच्छा पास पड़ोस भी चाहिए और आसपास का वातावरण भी शुद्ध चाहिए। वह चाहता है, वह चार लोगों के बीच उठे बैठे, हंसे बोले। बस यहीं से उसे अपने साथ, अपने परिवार के साथ अपने पास पड़ोस, मोहल्ले वाले, कुनबे वाले और पूरे देश के रहने वालों के प्रति मन में रुचि और रुझान पैदा हो जाता है। किसी भी अच्छी खबर से वह प्रसन्न होता है और बुरी खबर से उसका मन खिन्न हो जाता हैं। समय के साथ रिश्ते मजबूत होते हैं और एक दूसरे के लिए अपनेपन की भावना जागृत हो जाती है।।

इंसान में अगर भावना है तो संवेदना भी है। वह अच्छी और बुरी दोनों आदतों का पुतला है। परिवार ही उसकी प्रेम की पाठशाला भी है और अच्छी और बुरी संगति का उस पर समान असर पड़ता है। एक तरफ वह परस्पर सहयोग का पाठ सीखता है तो दूसरी ओर स्वार्थ और मतलब उसमें राग द्वेष और प्रतिस्पर्धा के बीज बो देते हैं। इन्हीं गुण अवगुणों के बीच ही तो एक समाज और देश का निर्माण होता है।

एकता में बल है ! बच्चों के सामने यह उदाहरण अक्सर एक कहानी के रूप में इस तरह पेश किया जाता है ;

एक बहेलिया था, जो पक्षियों को शिकार करने के लिए जाल बिछाया करता था। किसी जगह अन्न के दाने डालकर पहले वह उन पक्षियों को ललचाता था, और फिर उन पर जाल डालकर उन्हें पकड़ लेता था। लेकिन एक बार उसकी युक्ति काम नहीं आई। पक्षी जाल में फंस तो गए, लेकिन एक समझदार पक्षी ने बुद्धिमानी से काम लिया। उसने सभी पक्षियों को जोर लगाकर जाल सहित उड़ने की सलाह दी। सभी पक्षियों ने जोर लगाया और जाल सहित आसमान में उड़ पड़े। बाद में किसी सुरक्षित स्थान पर जाकर अपनी चोंच से जाल काटकर अपने आपको मुक्त कर लिया।

गुलामी की जंजीर भी एक ऐसा ही मायाजाल है, जिसके बंधन से मुक्त होना किसी एक व्यक्ति का करिश्मा नहीं हो सकता। किसी का विचार, किसी की राय, किसी का त्याग, किसी का शुभ संकल्प, कब एक सामूहिक संकल्प बन जाता है, एक आव्हान होता है और सामूहिक संकल्प और इच्छा शक्ति से गुलामी की बेड़ियां हमेशा के लिए टूट जाती हैं। कितने पक्षियों ने बहेलिये के जाल में फंसकर अपने प्राण गवाएं होंगे। पक्षियों की क्रांति का कोई इतिहास नहीं होता। लेकिन एक पक्षी आपको प्रेरणा तो दे ही सकता है। उसकी आहुति आपके मन में उत्साह और उमंग की आग तो पैदा कर ही सकती है। हमने भी अगर अपनी सामूहिक इच्छा शक्ति को पहचाना तो हम क्या नहीं कर सकते।।

कहने को आज हम आजाद हैं लेकिन अगर हमारी इच्छाएं और इरादे नेक नहीं हुए और उन्हें पूरा करने के लिए हम एकजुट नहीं हुए तो हमारी इच्छा सदिच्छा नहीं बन पाएंगी। आपसी मनमुटाव, असहमति और राजनीतिक उठापटक के जंजाल से हमें कौन मुक्ति दिलाएगा।

जब तक हमारी शक्ति और युक्ति बंटी हुई है, तब तक हम अपनी ही इच्छाओं के जाल में उलझे हुए हैं। कौन बहेलिया हमें बहला रहा है, फुसला रहा है, हमें पता ही नहीं है। हम आने वाले खतरे से अनजान, चुपचाप आराम से अपना दाना चुग रहे हैं। आपकी सामूहिक इच्छा शक्ति बार बार आपका आव्हान कर रही है;

कौन किसी को बांध सका

सय्याद तो एक दीवाना है।

तोड़ के पिंजरा,

एक न एक दिन

पंछी को उड़ जाना है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 677 ⇒ विचार और अभिव्यक्ति ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विचार और अभिव्यक्ति।)

?अभी अभी # 677 ⇒ विचार और अभिव्यक्ति ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

(Thought & expression)

क्या आपने thought of ocean (थॉट ऑफ़ ओशन) यानी विचारों के समुद्र के बारे में सुना है।

विचार हम उसे मानते हैं, जो प्रकट हो। यानी हम व्यक्त को ही विचार मानते हैं। फिर उस विचार का क्या, जो हमारे मन में पैदा तो होता है, लेकिन वह व्यक्त नहीं हो पाता। हमारी अभिव्यक्ति की विधा आज भी बोलने, लिखने और रिकॉर्ड करने तक ही सीमित है। वैसे दिव्यांग मूक बधिरों तक के लिए बिना बोले भी सांकेतिक भाषा विकसित हो चुकी है, दृष्टिबाधित के लिए ब्रेल और द्रुत गति से लिखने के लिए पिटमैन की शॉर्ट हैंड लिपि भी मौजूद है। आप लिखें और आप ही बांचे।

मन और बुद्धि जब मिल बैठते हैं, तो विचारों का जन्म होता है। श्रुति, स्मृति और संचित संस्कार हमारे अंदर एक थिंक टैंक का निर्माण करते हैं। लेकिन असल में शून्य के महासागर में कई विचार मछली की तरह तैरते रहते हैं। करिए, कितना शिकार करना है विचारों का। ।

मन का काम संकल्प विकल्प करना है। जो भी दृश्य आंखों के सामने आता है, वह मन में विचारों को जन्म देता है। विचार, विचार होते हैं, अच्छे बुरे नहीं होते। अगर बुरा विचार आपने मन में रख लिया, तो कोई हर्ज नहीं।

अच्छे विचार ही तो आपको एक अच्छा इंसान बनाते हैं। कौन आपके मन में झांकने बैठा है।

दुनिया में पूरा खेल व्यक्त विचारों का ही तो है। अगर बुरे विचार तो बुरा आदमी, और अच्छे विचार तो अच्छा आदमी। इसीलिए दास कबीर भी कह गए हैं ;

ऐसी वाणी बोलिए

मन का आपा खोए,

औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए.

यानी बात मन, वचन और कर्म पर आ गई। अब अगर हमारे अंदर काम, क्रोध, लोभ और मोह के संस्कार हैं तो हम क्या करें, अपने मुंह पर ताला लगा लें। बस छान छानकर अच्छे विचारों को बाहर निकालो और बुरे विचारों को डस्टबिन में डाल दो।

आजकल तो कचरा भी री – साइकल हो रहा है, घूरे से सोना बनाया जा रहा है, लेकिन बेचारे बुरे विचार यहां से वहां तक रोते फिर रहे हैं, कोई घास नहीं डाल रहा। सबको अच्छे विचारों की तलाश है। ट्रक के ट्रक भरकर अच्छे विचार लाए जा रहे हैं और उनसे मोटिवेशनल स्पीच तैयार हो रही है। कितनी डिमांड है आजकल अच्छे विचारों की।।

एक गंदी मछली की तरह ही एक बुरा विचार पूरे समाज में गंदगी फैलाता है। अच्छे विचारों की खेती के लिए ही तो हम कीचड़ में कमल खिलाते हैं। जब बुद्धि, ज्ञान और विवेक काम नहीं करते, तो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का सहारा लेते हैं। स्वच्छ भारत का संकल्प जितना आसान है उतना ही मुश्किल है, अच्छे विचारों के भारत का संकल्प।

काश हमारे मन में ऐसा कोई प्युरिफायर होता जो हमारे विचारों को फिल्टर कर देता, अच्छे विचार थिंक टैंक में, बुरे विचार नाली में। हो सकता है, संतों के पास कोई ऐसी फिटकरी हो, जिसके डालते ही, विचारों की गंदगी नीचे बैठ जाती हो, और चित्त पूरा साफ हो जाता है। जहां मन में मैल नहीं, वहां तो बस पूरा तालमेल ही है। हमारे आपके विचार आपस में कितने मिलते हैं।।

हैं न..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #275 ☆ शब्द-शब्द साधना… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख शब्द-शब्द साधना। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 275 ☆

☆ शब्द-शब्द साधना… ☆

‘शब्द शब्द में ब्रह्म है/ शब्द शब्द में सार। शब्द सदा ऐसे कहो/ जिन से उपजे प्यार।’ वास्तव में शब्द ही ब्रह्म है और शब्द में ही निहित है जीवन का संदेश…इसलिए सदा ऐसे शब्दों का प्रयोग कीजिए, जिससे प्रेम भाव प्रकट हो। कबीरदास जी का यह दोहा ‘ऐसी बानी बोलिए/ मनवा शीतल होय। औरहुं को शीतल करे/ ख़ुद भी शीतल होय’ …उपरोक्त भाव की पुष्टि करता है। हमारे कटु वचन दिलों की दूरियों को इतना बढ़ा देते हैं; जिसे पाटना कठिन हो जाता है। इसलिए सदैव मधुर शब्दों का प्रयोग कीजिए, क्योंकि ‘शब्द से खुशी/ शब्द से ग़म। शब्द से पीड़ा/ शब्द ही मरहम’ शब्द में निहित हैं ख़ुशी व ग़म के भाव– परंतु उनका चुनाव आपकी सोच पर निर्भर करता है।

वास्तव में शब्दों में इतना सामर्थ्य है कि जहाँ वे मानव को असीम आनंद व अलौकिक प्रसन्नता प्रदान कर सकते हैं; वहीं ग़मों के सागर में डुबो भी सकते हैं। दूसरे शब्दों में शब्द पीड़ा है और शब्द ही मरहम है। शब्द मानव के रिसते ज़ख्मों पर कारग़र दवा का काम भी करते हैं। यह आप पर निर्भर करता है कि आप किस मन:स्थिति में किन शब्दों का प्रयोग किस अंदाज़ से करते हैं।

‘हीरा परखै जौहरी/ शब्द ही परखै साध। कबीर परखै साध को/ ताको मतो अगाध’ हर व्यक्ति अपनी आवश्यकता व उपयोगिता के अनुसार इनका प्रयोग करता है। जौहरी हीरे को परख कर संतोष पाता है, तो साधु शब्दों व सत्य वचनों अर्थात् सत्संग को ही महत्व प्रदान करता है और आनंद प्राप्त करता है। वह उनके संदेशों को जीवन में धारण कर सुख व संतोष प्राप्त करता है; स्वयं को भाग्यशाली समझता है। परंतु कबीरदास जी उस साधु को परखते हैं कि उसके भावों व विचारों में कितनी गहनता व सार्थकता है; उसकी सोच कैसी है और वह जिस राह पर लोगों को चलने का संदेश देता है; वह उचित है या नहीं? वास्तव में संत वह है; जिसकी इच्छाओं का अंत हो गया है और उसकी श्रद्धा को आप विभक्त नहीं कर सकते; उसे सत्मार्ग पर चलने से नहीं रोक सकते–वही श्रद्धेय है, पूजनीय है। वास्तव में साधना करने व ब्रह्मचर्य को पालन करने वाला ही साधु है, जो सीधे व सपाट मार्ग का अनुसरण करता है। इसके लिए आवश्यकता है कि जब हम अकेले हों, तो अपनी भावनाओं पर अंकुश लगाएं अर्थात् कुत्सित भावनाओं व विचारों को अपने मनोमस्तिष्क में दस्तक न देने दें। अहं व क्रोध पर नियंत्रण रखें, क्योंकि ये दोनों मानव के अजात शत्रु हैं, जिसके लिए अपनी कामनाओं-तृष्णाओं को नियंत्रित करना आवश्यक है।

अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव मानव को सबसे दूर कर देता है, तो क्रोध सामने वाले को तो हानि पहुंचाता ही है; वहीं अपने लिए भी अनिष्टकारी सिद्ध होता है। अहंनिष्ठ व क्रोधी व्यक्ति आवेश में न जाने क्या-क्या कह जाता है; जिसके लिए उसे बाद में प्रायश्चित करना पड़ता है। परंतु ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् समय गुज़र जाने के पश्चात् हाथ मलने अर्थात् पछताने का कोई औचित्य अथवा सार्थकता नहीं रहती। प्रायश्चित करना हमें सुख व संतोष प्रदान करने की सामर्थ्य तो रखता है, ‘परंतु गया वक्त कभी लौटकर नहीं आता।’ शारीरिक घाव तो समय के साथ भर जाते हैं, परंतु शब्दों के ज़ख्म कभी नहीं भरते; वे तो नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। परंतु कटु वचन जहाँ मानव को पीड़ा प्रदान करते हैं; वहीं सहानुभूति व क्षमा-याचना के दो शब्द बोलकर आप उन पर मरहम भी लगा सकते हैं। शायद! इसीलिए कहा गया है गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपनी मधुर वाणी द्वारा दूसरे के दु:खों को दूर करने का सामर्थ्य रखता है। आपका दु:खी व आपदाग्रस्त व्यक्ति को ‘मैं हूं ना’ कह देना ही उसमें आत्मविश्वास जाग्रत करता है और वह स्वयं को अकेला व असहाय अनुभव नहीं करता। उसे ऐसा लगता है कि आप सदैव उसकी ढाल बनकर उसके साथ खड़े हैं।

एकांत में व्यक्ति के लिए अपने दूषित मनोभावों पर नियंत्रण करना आवश्यक है तथा सबके बीच अर्थात् समाज में रहते हुए शब्दों की साधना करना भी अनिवार्य है… सोच- समझकर बोलने की सार्थकता से आप मुख नहीं मोड़ सकते। इसलिए कहा जा सकता है कि यदि आपको दूसरे व्यक्ति को उसकी ग़लती का एहसास दिलाना है, तो उससे एकांत में बात करो, क्योंकि सबके बीच में कही गई बात बवाल खड़ा कर देती है। अक्सर उस स्थिति में दोनों के अहं का टकराव होता है। अहं से संघर्ष का जन्म होता है और उस स्थिति में वह दूसरे के प्राण लेने पर उतारु हो जाता है। गुस्सा चाण्डाल होता है… बड़े-बड़े ऋषि मुनियों के उदाहरण आपके समक्ष हैं। परशुराम का क्रोध में अपनी माता का वध करना व ऋषि गौतम का अहिल्या का श्राप देना आदि हमें संदेश देता है कि व्यक्ति को बोलने से पहले सोचना अर्थात् तोलना चाहिए। उस विषम परिस्थिति में कटु व अनर्गल शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए और दूसरों से वैसा व्यवहार करना चाहिए; जिसे सहन करने की क्षमता आप में है। सो! आवश्यकता है, हृदय की शुद्धता व मन की स्पष्टता की अर्थात् आप अपने मन में किसी के प्रति ईर्ष्या, दुर्भावना व दुष्भावनाएं मत रखिए, बल्कि बोलने से पहले उसके औचित्य-अनौचित्य का चिन्तन-मनन कीजिए। दूसरे शब्दों में किसी के कहने पर उसके प्रति अपनी धारणा मत बनाइए अर्थात् कानों-सुनी बात पर विश्वास मत कीजिए, क्योंकि विवाह के सारे गीत सत्य नहीं होते। कानों-सुनी बात पर विश्वास करने वाले लोग सदैव धोखा खाते हैं और उनका पतन अवश्यंभावी होता है। कोई भी उनके साथ रहना पसंद नहीं करता। बिना सोच-विचार के किए गए कर्म केवल आपको ही हानि नहीं पहुंचाते; परिवार, समाज व देश के लिए भी विध्वंसकारी होते हैं।

सो! दोस्त, रास्ता, किताब व सोच यदि ग़लत हों, तो गुमराह कर देते हैं; यदि ठीक हों, तो जीवन सफल हो जाता है। उपरोक्त उक्ति हमें आग़ाह करती है कि सदैव अच्छे लोगों की संगति करें, क्योंकि सच्चा मित्र आपका सहायक, निदेशक व गुरु होता है; जो आपको कभी पथ-विचलित नहीं होने देता। वह आपको ग़लत मार्ग व ग़लत दिशा की ओर जाने पर सचेत करता है तथा आपकी उन्नति को देख कर प्रसन्न होता है; आप को उत्साहित करता है। पुस्तकें मानव की सबसे अच्छी मित्र होती हैं। इसलिए कहा गया है कि ‘बुरी संगति से इंसान अकेला भला’और एकांत में अच्छे मित्र के साथ न होने की स्थिति में सद्ग्रथों व अच्छी पुस्तकों का सान्निध्य हमारा यथोचित मार्गदर्शन करता है।

हाँ! सबसे बड़ी है मानव की सोच अर्थात् जो मानव सोचता है, वही उसके चेहरे के भावों से परिलक्षित होता है और व्यवहार उसके कार्यों में झलकता है। इसलिए अपने हृदय में दैवीय गुणों स्नेह, सौहार्द, त्याग, करुणा, सहानुभूति आदि  को पल्लवित होने दीजिए… ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर की भावना को दूर से सलाम कीजिए, क्योंकि सत्य की राह का अनुसरण करने वाले की राह में अनगिनत बाधाएं आती हैं। परंतु यदि वह उन असामान्य परिस्थितियों में अपना धैर्य नहीं खोता; दु:खी नहीं होता, बल्कि उससे सीख लेता है तो वह अपनी मंज़िल को प्राप्त कर अपने भविष्य को सुखमय बनाता है। वह सदैव शांत भाव में रहता है, क्योंकि ‘सुख- दु:ख तो अतिथि हैं’…’जो आया है, अवश्य जाएगा’ को अपना मूल-मंत्र स्वीकार संतोष से अपना जीवन बसर करता है। सो! आने वाले की खुशी व जाने वाले का ग़म क्यों? इंसान को हर स्थिति में सम रहना चाहिए, ताकि दु:ख आपको विचलित न करें और सुख आपके सत्मार्ग पर चलने में बाधा उपस्थित न करें अर्थात् आपको ग़लत राह का अनुसरण न करने दें। वास्तव में पैसा व पद-प्रतिष्ठा मानव को अहंवादी बना देते हैं और उससे उपजा सर्वश्रेष्ठता का भाव अमानुष। वह निपट स्वार्थी हो जाता है और केवल अपनी सुख-सुविधाओं के बारे में सोचता है। इसलिए ऐसा स्थान यश व लक्ष्मी को रास नहीं आता और वे वहां से रुख़्सत हो जाते हैं।

सो! जहां सत्य है; वहां धर्म है, यश है और वहीं लक्ष्मी निवास करती है। जहां शांति है; सौहार्द व सद्भाव है; मधुर व्यवहार व समर्पण भाव है और वहां कलह, अशांति, ईर्ष्या-द्वेष आदि प्रवेश पाने का साहस नहीं जुटा सकते। इसलिए मानव को कभी भी झूठ का आश्रय नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह सब बुराइयों की जड़ है। मधुर व्यवहार द्वारा आप करोड़ों दिलों पर राज्य कर सकते हैं…सबके प्रिय बन सकते हैं। लोग आपके साथ रहने व आपका अनुसरण करने में स्वयं को गौरवशाली व भाग्यशाली समझते हैं। सो! शब्द ब्रह्म है; उसकी सार्थकता को स्वीकार कर जीवन में धारण करें और सबके प्रिय बनें, क्योंकि हमारी सोच, हमारे बोल व हमारे कर्म ही हमारे भाग्य-निर्माता हैं और हमारी ज़िंदगी के प्रणेता हैं।

●●●●

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 676 ⇒ आप मुझे अच्छे लगने लगे ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आप मुझे अच्छे लगने लगे।)

?अभी अभी # 676 ⇒ आप मुझे अच्छे लगने लगे ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब हम अच्छे होते हैं, हमें अपने आसपास सब कुछ अच्छा अच्छा ही लगता है। हम सब, स्वभावतः होते तो अच्छे ही हैं, लेकिन कभी कभी हमें सब कुछ अच्छा नजर नहीं आता। हमारे मन की अवस्था के अनुसार हमारा स्वभाव बनता, बिगड़ता रहता है।

समय और परिस्थिति भी तो कहां हमेशा एक समान होती है।

जब मन चंगा होता है, तो गंगा नहाने का मन करता है। एकाएक सब कुछ अच्छा नजर आने लगता है। शायद फील गुड फैक्टर को ही अच्छा लगना कहते होंगे। मन की ऐसी उन्मुक्त अवस्था में, कोई व्यक्ति विशेष हमें अधिक पसंद आने लगता है, और हम अनायास ही कह उठते हैं, आप मुझे अच्छे लगने लगे। ।

कभी कभी आत्ममुग्ध अवस्था में हम भी अपने प्रियजनों से प्रश्न कर लिया करते हैं, मैं कैसा/कैसी लग रहा/लग रही हूं। मां बेटे से, बेटी मां से, पत्नी पति से, और एक सहेली दूसरी सहेली से, अक्सर यही तो प्रश्न करती रहती है। अगर वह अच्छा दिखेगा तो किसी को अच्छा लगेगा भी। तारीफ करना और सुनना किसे पसंद नहीं।

अगर आप किसी को अच्छे लग रहे हैं, तो अवश्य आपमें कुछ विशेष आकर्षण होगा। हमें भी यूं ही तो कोई नहीं भा जाता। अगर हम निश्छल और अलौकिक प्रेम की बात करें, तो अच्छा लगना एक ईश्वरीय अनुभूति है। मोहिनी मूरत, सांवली सूरत किसे पसंद नहीं। जहां सलोनापन, सादगी और भोलापन है, वहां शब्दाडंबर नहीं होता, अतिशयोक्ति नहीं होती, कोई अलंकार, रूपक, उपमा नहीं, बस मन से यही उद्गार प्रकट होते हैं, आप मुझे अच्छे लगने लगे। ।

ऐसी अनुभूति के क्षण हम सबके जीवन में आते रहते हैं। अगर हमारे चित्त परस्पर शुद्ध हों, तो शायद यह अनुभूति और अधिक व्यापक रूप से हम सभी के हृदय में जगह बना ले।

आज का हमारा जीवन इतना जटिल हो चुका है कि अच्छे और बुरे का तो भेद ही समाप्त हो गया है।

क्या अच्छे दिन, अच्छे लोगों के साथ ही समाप्त हो गए हैं।

अचानक दरवाजे पर दस्तक होती है, पड़ोस की एक दो वर्ष की कन्या मुझे तलाशती हुई कमरे में प्रवेश करती है। मुझे मानो मेरे प्रश्न का समाधान मिल गया हो। वह बोलती नहीं, लेकिन इशारों इशारों में सब कुछ कह जाती है।

उस बच्ची की आँखें मुझे देख मानो कह रही हैं, आप मुझे अच्छे लगने लगे। और मेरा भी उसको यही जवाब है, आप भी मुझे अच्छे लगने लगे। मैं यह भली भांति जानता हूं, मुझसे अच्छे इस दुनिया में कई लोग होंगे, लेकिन उस प्यारी दो वर्ष की कन्या जैसा अच्छा कोई हो ही नहीं सकता।

तुमसे अच्छा कौन है ?

आप मुझे अच्छे लगने लगे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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