हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 134 – देश-परदेश – अधीरता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 134 ☆ देश-परदेश – अधीरता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

बचपन से ही धैर्य रखने का पाठ पढ़ाया जाता है। पहले हम विचार करते थे, कि बस, ट्रेन आदि में ग्रामीण क्षेत्र के लोग यात्रा करते है, वो कम पढ़ें लिखे होते थे, इसलिए गंतव्य स्टेशन आने के समय वो जल्दी जल्दी उतरने को व्याकुल रहते थे। उपरोक्त फोटो तो एक वायुयान के अंदर का हैं। वायुयान को थोड़ा समय लगता है, हवाई पट्टी पर धीमी गति से चलते हुए वो निर्धारित स्थान पर पहुंचता हैं।

वायुयान में तो अधिकतर पढ़े लिखे, बड़े बड़े पदों पर कार्यरत लोग ही यात्रा कर पाते हैं। वहां ऐसी अधीरता क्यों ? सबको जानकारी है, गेट खुलेगा, और बेल्ट पर सामान तो सबका एक साथ ही आयेगा, फिर बाहर जाने में उतावलापन किस लिए ? धिक्कार है, ऐसी शिक्षा और संस्कारों को जो मनुष्य को धैर्यवान जैसा गुण ना दे सके।

“भय बिन होत ना प्रीत” अधीरता दिखा कर नियम तोड़ने वालों को अब आर्थिक दंड भुगतना होगा। वायुयान में कैमरे आपकी गलती पकड़ कर जुर्माना लगा देंगे।

यात्रा आरंभ के समय भी “सबसे पहले हम” मानने वाले प्राणी बहुतायत में हैं। सीट नंबर भी तय है, फिर भी अधीरता क्यों ?

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ दस्तावेज़ # 30 – मारिशस से ~ गद्य – क्षणिका : मेरे लेखन का एक सबल पक्ष ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी के चुनिन्दा साहित्य को हम अपने प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करते रहते हैं। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं।

(ई-अभिव्यक्ति में “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से अमूल्य और ऐतिहासिक तथ्यों को सहेजने का प्रयास है। दस्तावेज़ में ऐसे ऐतिहासिक दस्तावेजों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है मारिशस से आदरणीय श्री रामदेव धुरंधर जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ गद्य – क्षणिका : मेरे लेखन का एक सबल पक्ष ।) 

☆ दस्तावेज़ # 30 – मारिशस से ~ गद्य – क्षणिका : मेरे लेखन का एक सबल पक्ष ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆ 

गद्य क्षणिका के जनक श्री रामदेव धुरंधर जी का यह आलेख हिन्दी साहित्य के इतिहास का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है, जिसमें उन्होने गद्य क्षणिका के इतिहास की विवेचना की है। 1970 के आसपास राष्ट्रकवि स्व. रामधारी सिंह दिनकर जी की पद्य क्षणिका ने उनके मानस पर अमिट छाप छोड़ी थी। 40 वर्ष तक पद्य क्षणिका के वे शब्द उन्हें कुछ नया करने के लिए प्रेरित करते रहे। चालीस वर्षों के उस मानसिक द्वंद्व ने 2010 के आसपास उन्होने गद्य क्षणिका की सृष्टि की। गद्य क्षणिका को 80 से कम शब्दों में सीमित कर इस अप्रतिम प्रयोग को सफल बनाया। हम लोग इस इतिहास के सृजन के साक्षी हैं। डॉ नूतन पाण्डेय जी के शब्दों में “किसी नव्य साहित्यिक रूप को विधा के रूप में मान्यता और स्थापना दिलाना सहज नहीं होता, आलोचकों और पाठकों की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए उसके सृष्टिकर्ता को अनेकों चुनौतियों और संघर्ष का सामना करना पड़ता है।” मेरे विचार से श्री रामदेव धुरंधर जी द्वारा इन 15 वर्षों में 3000 से अधिक गद्य क्षणिका की रचना करने के पश्चात उनके असंख्य गद्य – क्षणिका के पाठकों का स्नेह और गद्य – क्षणिका के लेखकों जिनमें डॉ महथाराम कृष्णमूर्ति जी, श्री संजय पवार जी तथा अज्ञात लेखकों द्वारा इस विधा के योगदान को हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान तो मिलना ही चाहिए साथ ही इस विधा में अब तक किए गए कार्य पर शोध की भी उतनी ही आवश्यकता है। निकट भविष्य में विश्व के किसी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा इस विधा पर अवश्य विचार किया जाएगा।  मुझे पूर्ण विश्वास है यह अमूल्य दस्तावेज़ आपको गद्य क्षणिका के विभिन्न पहलुओं से अवगत कराने में सफल होगा । इस ऐतिहासिक आलेख की रचना के मेरे आग्रह को स्वीकारने के लिए श्री रामदेव धुरंधर जी का हृदय से आभार। साथ ही इस विधा की सृष्टि के लिए ई-अभिव्यक्ति एवं साहित्यकार मित्रों की ओर से हार्दिक बधाई।

– हेमन्त बावनकर, संपादक ई-अभिव्यक्ति

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मेरी मातृभूमि मॉरिशस में ‘अंग्रेजी’ राज भाषा है, लेकिन यहाँ फ्रेंच का अधिकाधिक आधिपत्य बना रहता है। फ्रांसीसी इस देश में पहले आए थे। उन्होंने जमीन का पूरा लाभ उठाया और फ्रेंच उनकी भाषा होने से यह भाषा यहाँ मजबूती से जम गई। अंग्रेजों ने समुद्री सैन्य बल से सन् 1810 में इस देश में आक्रमण किया था और उनकी जय हुई थी। अंग्रेज आए तो जाहिर है उनके साथ उनकी भाषा अंग्रेजी भी आई। पर अंग्रेजी ने फ्रेंच को पार करने में कभी सफलता अर्जित नहीं की।

सन् 1834 में प्रथम भारतीय यहाँ मजदूर के रूप में आए तो बस उनके साथ धार्मिकता थी और वे जो बोल रहे थे वही उनकी भाषा थी। दूसरे शब्दों में अंग्रेजी और फ्रेंच ने ही उन पर शासन किया और उनकी हिन्दी, भोजपुरी, मराठी, तमिल, तेलुगु सब के सब धार्मिक भाषा के रूप में कायम रहीं। पर जो धर्म था वह बलिष्ठ ही था जो रह गया और आज हम अपने पूर्वजों की थाती के रूप में यहाँ अडिग और अपराजित के तेवर से अपना जीवन यापन कर रहे हैं।

यह तो मॉरिशस के इतिहास से ले कर वर्तमान तक की एक झाँकी हुई। यहाँ मुझे विशेष कर अपनी गद्य — क्षणिकाओं की बात करनी है। मित्र हेमंत बावंकर जी ने इसी के लिए मुझसे कहा है अतः उनकी मांग के अनुसार मैं गद्य – क्षणिकाओं की अपनी बात सामने रखने का प्रयास कर रहा हूँ।

मैंने गद्य – क्षणिका के संदर्भ में पहले जो लिखा है वही यहाँ भी लिख रहा हूँ। गद्य – क्षणिका का मेरा प्रेरणा स्रोत वहाँ से है सन् 1970 के आसपास मैंने धर्मयुग में पढ़ा था — 

गवाक्ष* तब भी था जब खोला नहीं गया था

सत्य तब भी था जब बोला नहीं गया था

शब्दकार — डाक्टर रामधारी सिंह दिनकर

गवाक्ष* — खिड़की 

उसे ‘पद्य – क्षणिका’ नाम से प्रकाशित किया गया था। वह पद्य — क्षणिका दो पँक्तियों में ही थी। मैंने पढ़ने पर उसे शायद बार – बार गुनगुनाया हो और मुझे वह जुबानी याद रह गया हो।

मेरा सौभाग्य रहा सन् 1973 में मेरी पहली कहानी मुम्बई से प्रकाशित होने वाली धर्मयुग पत्रिका में प्रकाशित हुई थी और कालांतर में मेरी और भी कहानियाँ धर्मयुग में प्रकाशित होती गईं। मेरी पहली कहानी जो धर्मयुग में छपी थी उसका शीर्षक था ‘प्रतिफल।’ महाराष्ट्र की एक पत्रिका में वह मराठी में अनुदित छपी थी। मराठी की वह प्रति हवाई डाक से मुझे भेजी गई थी। दुर्भाग्यवश, वह प्रति अब मेरे पास रही नहीं। शायद ‘स्त्री’ नाम से वह पत्रिका थी।

लगभग चालीस साल बाद सन् 2010 के आस पास अचानक मेरे मन में आया हो रामधारी सिंह जी की पद्य – क्षणिका को मैं अपने लिए गद्य – क्षणिका में परिवर्तित कर दूँ। विशालकाय उपन्यास को छोटा करें तो वह कहानी हो जाये। कहानी को छोटा करें तो वह लघुकथा हो जाये। इसके नीचे मेरी गद्य — क्षणिका की बारी आती है। बारी आयी तो मैंने उसे बहुत कस कर थामा है। मैंने गद्य – क्षणिका पहले कहीं न सुन कर स्वयं बना लिया और लोगों ने माना भी यह मेरी अपनी पहल है। डॉ. महथाराम कृष्णमूर्ति जी ने मुझे बताया था वे मुझसे प्रेरित हो कर गद्य क्षणिका लिख रहे हैं। उन्होंने गद्य क्षणिका की अपनी पहली प्रकाशित कृति मुझे समर्पित की है। मराठी भाषा के श्री संजय पवार जी जो महाराष्ट्र में ही वास करते हैं उन्होंने भी मुझे बताया था गद्य क्षणिका में उनका हाथ ठीक ही चल रहा है। उन्होंने अपनी क्षणिका – कृति की भूमिका मुझसे लिखवायी है।

गद्य क्षणिका के बारे में मेरी बात इस तरह से है अस्सी से कम शब्दों की मेरी हर गद्य – क्षणिका स्वयं में एक पूरी कहानी है। मुझे छोटी सी क्षणिका में उतरना हो तो मेरे मन में ऐसा मलाल पैदा होता नहीं है कि लंबी कहानी की संभावना को मैं सीमित कर रहा हूँ। वास्तव में गद्य – क्षणिका के प्रतिमान से इसे छोटा ही रहना पड़ता है। इसके पीछे मेरी मंशा यह होती है अस्सी से कम शब्दों में मैं जो बोलने की कोशिश कर रहा हूँ वह पूरा बोल सकूँ और पढ़ने वालों को लगे उन्होंने एक पूरी कहानी पढ़ी।

डाक्टर नूतन पाण्डेय जी ने 1200 के मेरे गद्य — क्षणिका संग्रह ‘तारों का जमघट’ की भूमिका लिखी है। उनके शब्द इस तरह से हैं :

रामदेव रामदेव धुरंधर जी ने साहित्यिक जगत के समक्ष अपनी अभिनव दृष्टि द्वारा गद्य क्षणिका के रूप में साहित्य प्रेमियों के समक्ष एक नया गवाक्ष खोला है, नवीन चिंतन दृष्टि प्रदान की है और नवीन मार्ग का उन्मेष किया है | पर किसी नव्य साहित्यिक रूप को विधा के रूप में मान्यता और स्थापना दिलाना सहज नहीं होता, आलोचकों और पाठकों की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए उसके सृष्टिकर्ता को अनेकों चुनौतियों और संघर्ष का सामना करना पड़ता है | इसके लिए रचनाकार और उसकी कृति में इतनी सामर्थ्य होनी चाहिए कि वह एक विशाल पाठक वर्ग तैयार कर सके ,साथ ही उसका एक ऐसा विशिष्ट अनुगामी वर्ग भी हो, जो साहित्यिक रूप से सक्रिय होकर इस नवीन विधा में खुद लिखने की रुचि ले। इन सबके साथ ही शायद साहित्यिक लेखन के किसी रूप को विधा के रूप में पहचान दिलाने में बहुत बड़ी भूमिका उन साहित्यालोचकों की भी होती है जो इस विधा में रुचि लें, साहित्यिक जगत में उसकी यथोचित चर्चा करें, उसके गुण –दोषों का सूक्ष्म और निरपेक्ष ढंग से परख-विवेचन करें, तत्पश्चात उसके मानदंड विकसित करके उसे विधा के रूप में मान्यता दिलाएँ और उसे साहित्यिक सहयोग देकर अपने पुनीत साहित्यिक कर्तव्य को संपन्न करें |

अब अपेक्षा यह है कि अन्य साहित्यकार भी इस दिशा में आगे आएँ और इस विधा में लिखकर रामदेव धुरंधर जी के इस महत प्रयास को अपनी सकारात्मक ऊर्जा और सामूहिक प्रयत्नों से इसमें गतिशीलता प्रस्फुरित करें | साहित्यकारों का कर्तव्य है कि वे अपने साहित्यिक अनुभवों और नूतन प्रयोगों द्वारा इसे और भी अधिक आकर्षक रूप में साहित्य जगत के समक्ष  प्रस्तुत करें और लोकप्रिय साहित्यिक विधा के रूप में इसकी स्थिति सुनिश्चित करें ।

डॉक्टर नूतन पाण्डेय

दिल्ली

सन् 2023

***

मैं अपनी गद्य क्षणिकाओं पर प्राप्त कुछ प्रतिक्रियाएँ यहाँ संलग्न कर रहा हूँ। मैंने ये टिप्पणियाँ फेसबुक से एकत्रित की हैं।

सुशील मिश्रा  –-

मान्यवर, मानस को झकझोर देने वाली ये सूक्ष्म कथाएँ आपका ही प्रयोग हैं। सचमुच ये गद्य क्षणिकाएँ गागर में सागर हैं। पाठकों के लिए संग्रहणीय सृजन। आपकी रचनाएँ बरबस खलील जिब्रान की याद दिला जाती हैं। फर्क बस इतना ही है वे संदर्भ को विस्तार दे देते हैं और आप पूरी कहानी को क्षणिका में समेट लेते हैं। जीवन – दर्शन हर हालत में निहित होता है। नमन लेखनी को। 

श्रीवल्लभ विजयवर्गीय –-

आपकी क्षणिकाएँ सहेज कर रखने वाली निधियाँ हैं रामदेव साहब। आपकी अनेक क्षणिकाएँ मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने में सफल निश्चित ही हो कर रहेंगी।

कुमार शैलेद्र  —

अभिनन्दन भाषा साहित्य सृजन समर्पण। आप हिन्दी हिन्दुस्तान के मात्र विलक्षण प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व ही नहीं, अपितु एक महा धुरंधर, महान धरोहर, ऊर्जा स्रोत प्रेरणा पुरुष हैं जो हमारे लिए गौरव की बात है। आपका हार्दिक अभिनन्दन। आभार आदरणीय।

दिनेश द्विवेदी  —

आपकी क्षणिका का इंगित इसी हृदयहीनता, निष्ठुरता और क्रूर नृशंसता की ओर है। आपकी लक्षणा और व्यंजना शक्ति को मानना पड़ेगा।

डाक्टर धनंजयसिंह  —

बहुत मार्मिक, पर सच को सामने रखती क्षणिका …आपकी लेखनी को नमन बंधु।

अखिलेश सिंह —

आपके सार्थक एवं अथक प्रयासों को हिन्दी साहित्य का इतिहास अवश्य याद रखेगा। आपकी क्षणिकाओं में सामाजिक यथार्थ होता है और वह भी इतनी सहजता से प्रकट होता है कि पाठक ने कब उसे स्वीकार कर लिया, यह स्वयं पाठक को पता नहीं चलता। धीमे – धीमे आपकी क्षणिकाएँ एक मुहिम बन रही हैं और वह दिन दूर नहीं जब fb को आपकी क्षणिकाओं के लिए भी जाना जायेगा। 

अशोक भाटिया —

रचनाधर्मियों का मनोविज्ञान बखूबी समझा है आपने। आपका लिखा लगता है कि अरे, यह घटना तो हाल में ही कहीं आस पास में घटी है, हमारे ही इर्द गिर्द। शब्द कम, लेकिन गहरी बात।

कवि डी. एम.मिश्रा  —

बहुत खूब। प्रेरक कथाओं के आप जादूगर हैं। मैंने आपकी बहुत सारी क्षणिकाएँ पढ़ने का सुख प्राप्त किया है। आपकी क्षणिकाएँ पाठक के हृदय पर सीधा असर करती हैं। जीवन के तमाम गूढ़ रहस्य आप छोटी सी कहानी में बड़ी आसानी से व्यक्त कर देते हैं। एक सधे हुए कुशल रचनाकार की यही विशेषता होनी चाहिए। आपका सम्मान पूरे हिन्दी जगत का सम्मान है। आप इसके हकदार हैं। साधुवाद। 

अश्विनी तिवारी  —

बहुत सुन्दर मित्रवर रामदेव जी। आपकी क्षणिकाएँ मुझे बार – बार उकसा रही हैं एक प्रयास मैं भी करूँ… बहुत – बहुत प्रभावी।

हरेराम पांडेय  —

वाह महोदय, आपके लेखन से परिचित हो कर एक ताजगी का एहसास होता है। आपकी क्षणिकाएँ बड़ी तीक्ष्णता से मानवीय संवेदनाओं को उकेरती हैं। नमन है आपके साहित्यिक अवबोध को।

इन्द्रकुमार दीक्षित  —

गद्य क्षणिका बनाने में आपका सानी नहीं। बधाई।  

जगदीश प्रसाद जेंद —

रामदेव धुरंधर ने गागर में सागर भर कर परोस दी है गद्य क्षणिकाओं में। उत्कृष्ट सृजन के लिए बहुत बहुत बधाई।

जयप्रकाश कर्दम —

आप तो शब्द — सम्राट हैं धुरंधर जी। भारत में बहुत लोग आपको चाहते हैं तथा आपको प्यार और सम्मान करते हैं। बहुत – बहुत बधाई और हार्दिक मंगल कामनाएँ। आप हिन्दी साहित्य के गौरव हैं। मुझे व्यक्तिगत रूप से आप पर गर्व है।

किशोर अग्रवाल  —

परदेश में अपना देश बसा कर अपनी भाषा व भावों में आज भी वहाँ सुगंध बचा कर रखी है आपने। यहाँ तो सब छिज बिज गया। काश आपकी तरह हम भी किसी और आईलेंड पर ले जा कर बचा पाते। अभिनन्दन भाषा साहित्य सृजन समर्पण।

मेघसिंह मेघ  —

आपके लेखन में मॉरिशस के दर्द के पन्ने खुलते हैं तो उसमें भारत का भी दर्द उजागर होता है। मैं आजकल आपका उपन्यास ‘पथरीला सोना’ पढ़ रहा हूँ। आप्रवासी भारतीयों की दर्द भरी दास्तान से साक्षात्कार बहुत ही मार्मिक व दर्दिला सिद्ध हो रहा है। आपकी लेखनी से प्रवाहित दर्द को कोटि – कोटि प्रणाम। आप माँ हिन्दी के सच्चे वरद सपूत हैं। आपने हिन्दी जगत के लिए इतने वृहद पैमाने पर जो सर्जन किया है, वह अपने आप में हिन्दी जगत के लिए अमर योगदान है। इस महान उपन्यास ‘पथरीला सोना’ [पूरे छह खंड ]  के सृजन में आपने जो सृजन प्रसव पीड़ा उठायी होगी उसके लिए हम हिन्दी जगत के सभी साहित्य प्रेमी सदैव आपके एवं आपके लेखन कर्म के ऋणी रहेंगे।

मोहन पाठक  —

हार्दिक बधाई और शुभ कामना, आदरणीय। युगों — युगों तक हिन्दी का परचम आपकी रचनाओं से लहराता रहेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

अनिल कुमार नामदेव  —

छोटी रचना में बड़ी बात कह पाना कोई रामदेव जी से सीखे। शायद साहित्य का सृजन ऐसे ही होता है।

परशुराम पाण्डेय  —

कथा प्रवाह के साथ बंध कर रह गया। बड़े भाई, क्या  लेखन शैली है आपकी। आपकी रचना पढ़ कर मन अघा जाता है। बड़े भाई धुरंधर जी, आपकी क्षणिका हमारे लिए प्रज्वलित दीप है जो हमें ज्ञान – प्रकाश से प्रकाशित करती आ रही है। आगे भी यही अपेक्षा है।   

प्रणीता मुखर्जी  —

रामदेव जी, नमस्कार। आपकी क्षणिका पढ़ कर मन को बहुत संतोष हुआ। कम से कम विदेश में रह कर मॉरिशस की खुशबू तो मिली।

राजनाथ तिवारी  —

आप अनेक अर्थ वाली रचना में दक्ष हैं। कल्पनाशील व्यक्ति ही जीवन में बड़ा सामाजिक कार्य कर सकता है। आपके दृष्टिबोध को मैं प्रणाम करता हूँ। आप सामान्य लेखन नहीं, विशेष लेखन करते हैं। आपके लेखन में जीवन व दर्शन दोनों मुखर हो उठता है। इसलिए आप मेरे लिए आदरणीय हैं।

राजेश्वर वशिष्ठ  —

आप भावनाओं के अंतिम छोर को पकड़ कर जीवंत रचना बुनते हैं। आप क्षणिकाओं के माध्यम से मनोविज्ञान का बेहद सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं। यह लेखन पूरी दुनिया में हिन्दी का गौरव बढ़ा रहा है। प्रणाम।

राकेश के आर.पाण्डेय  —

हिन्दी जगत आपकी साधना को नहीं भूलेगा। अग्रज रामदेव जी, आपके अभिव्यक्ति कौशल को देख कर मन मोहित है। बाहरी ढंग से प्रस्तुत करना आपकी विशिष्टता है। आपके अपनेपन से सने शब्दों को नियमित पढ़ता हूँ। विषय वस्तु के मूल को अभिव्यक्त करना आपसे सीखता हूँ। सादर चरण स्पर्श। आपके लेखन को शत शत नमन।

राम नंदन प्रसाद  —

हम भारतीयों को तो आपके सम्मान के बारे में सोचना चाहिए। बधाई आपको, श्रीमान। अजस्र ऊर्जा के साथ आप चालीस साल से हिन्दी की सेवा में लगे हैं। यह किसी की भी असाधारण उपलब्धि होगी।

रवि के. आ.. भटनागर  —

बहुत सुन्दर। कवि के कविता बनने की प्रक्रिया पर पूरी व्याख्या एक क्षणिका में। सर, धन्य है आपकी लेखनी।

भारती वर्मा बुड़ाई  —

आपकी ये गद्य – क्षणिकाएँ गागर में सागर के समान हैं।

शैलेन्द्र सिंह  —

सर, ‘गद्य – क्षणिका’ का प्रयोग बहुत ही रुचिकर दिख रहा है। अभिनन्दन भाषा साहित्य सृजन समर्पण। कम शब्दों में गहन संवेदनशील अभिव्यक्ति का शानदार प्रयोग।

सोमनाथ पिपलानी  —

श्री रामदेव धुरंधर साहब, वास्तव में आप एक वरिष्ठ साहित्यकार हैं। आपकी हर क्षणिका अंतर्मन को उद्वेलित करने योग्य है। आपकी क्षणिकाओं में विविधता, गहरी संवेदना, गूढ़ अर्थ होती है जो मन मस्तिष्क पर गहरी अमिट चाप छोड़ती है। प्रतिदिन आपकी पोस्ट का इन्तजार रहता है। बहुत गूढ़, रहस्यपपूर्ण क्षणिका आप जैसे विद्वान की कलम से ही रचित हो सकती है। बहुत बधाई आदरणीय। आपकी लेखनी को शत – शत नमन।

उदयवीर सिंह  —

आपकी क्षणिकाएँ अपने आप में एक मुकम्मल दस्तावेज सी होती हैं। प्रखरता और विद्वता की पराकाष्ठा हैं। बहुत कम लोग इस तरह साहस कर के लिख पाते हैं बेमिसाल। धुरंधर जी अग्रदूत हैं संस्कृति, परंपरा व मूल्य व प्रतिमानों के…. ईश्वर आपको गतिमान स्वस्थ व प्रखरता नवाजे, मेरी अरदास है।

 कुलदीप गुलाटी  -–

मेरी तुच्छ बुद्धि आपके विस्तृत ज्ञान के आगे नत्मस्तक हो जाती है। बस लाईक और वंदन तक ही रह जाता हूँ। आपकी अद्भुत कला और ज्ञान के कण मात्र भी प्राप्त कर सका तो स्वयं को भाग्यशाली समझूँगा।

ज्योति शेखर —

आदरणीय, बहुत बड़े फलक की पड़ताल कर डाली चंद पँक्तियों की क्षणिका में। अति सुन्दर, प्रणाम आपको।

राजेश सिंह श्रेयस —

सर अद्भुत। गंभीर लेखन। अद्वितीय कल्पनाशीलता एवं विशाल अनुभव के दम पर उतारी गयी यह क्षणिका एक नवीन आयाम के साथ महाकवि कालिदास जी के महाज्ञानी होने वाले पक्ष को बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करती है। आपकी सोच की परिधि के भीतर असंख्य बेशकीमती क्षणिकाएँ भरी पड़ी हैं।

हरेराम पाठक —

बूँद और समुद्र’ की सार्थकता को आलोकित करती इस वैचारिक क्षणिका के लिए आपको हार्दिक बधाई।

तारा सिंह —

आपकी क्षणिकाएँ बहुत कुछ सोचने के लिए प्रेरित करती हैं। थोड़े से शब्दों में यथार्थ को कहने की कला आप में है।

रिंकु चटर्जी  —

आपकी क्षणिका मन को स्पर्श कर जाती हैं।

चंद्रप्रकाश पाण्डेय —

प्रतिभा के सूर्य को अंधेरे की कालिमा में बांधा नहीं जा सकता। वह तमस के सघन अवरोधों को विदीर्ण कर प्रकाशित हो जाता है। भाई रामदेव जी ने गद्य क्षणिका की साधना और तपस्या की है। कथावृत्त / मिथक और काल्पनिकता की त्रिवेणी हैं उनकी सुन्दर क्षणिकाएँ। सुन्दर भाव विधान से रचित आपकी गद्य क्षणिकाएँ मिथक का सा आनन्द देती हैं। प्रशंसनीय है मान्यवर रामदेव जी।

नंद किशोर वर्मा  —

आपकी गद्य क्षणिकाएँ दिमाग में गहरा असर बनाती हैं। अति उत्तम आदरणीय। गागर में सागर भरने का कमाल हम आपसे सीख रहे हैं।

कृष्णलता सिंह  —

क्षणिका के द्वारा वर्तमान स्थिति का सही आकलन करने के लिए साधुवाद, धुरंधर जी।

कमलेश कुमार वर्मा  —

आप मन प्राण से हिन्दी के समर्पित, साधक, विचारक रचनाकार हैं। आपकी क्षणिकाएँ सीधे मन में उतर जाती हैं। हार्दिक शुभ कामनाएँ।

विजय प्रकाश भारद्वाज कवि —

आपका यह ग्रंथ साहित्य यात्रा में एक मील का पत्थर साबित होगा। भागदौड़ भरी जिंदगी के इस नये कालखंड में जहाँ लघुकथाओं तक पढ़ने का समय निकाल नहीं पा रहे ऐसे समय में केवल अस्सी से कम शब्दों में कहा गया सूत्र ज्ञान ऐसे लोगों के लिए उनकी संस्कृति के परिचय का एक अच्छा माध्यम भी बन सकेगा।

ओंकार प्रसाद सिंह —

कोई शब्द नहीं टिप्पणी करने को। बहुत सुन्दर क्षणिका। प्रणाम आदरणीय।

शिवजी श्रीवास्तव जी —

किसी भी कला की उपादेयता है कि वह हृदय में सोयी हुई सद्प्रवृत्तियों को जाग्रत कर सके। सुन्दर क्षणिका। प्रणाम।

***

डाक्टर रामबहादुर मिसिर

आप गद्य क्षणिका के प्रवर्तक हैं। पौराणिक और मिथकीय संदर्भों के जरिए सामाजिक विसंगतियों और सुसंगतियों पर बहुत ही प्रभावशाली ढंग से “गागर में सागर” उक्ति को चरितार्थ कर रहे हैं।

एक बात और ये क्षणिकाएं कथ्य और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ हैं।

***

मैं अपनी ओर से न भी बोलूँ तो मित्रों की ये प्रतिक्रियाएँ गवाह हैं अस्सी से कम शब्दों की मेरी गद्य – क्षणिकाओं का स्वरूप कैसा होता है। मैंने सन् 30 जून 2025 तक फेसबुक में 1000 तक गद्य क्षणिकाएँ पोस्ट कर दी हैं। मैंने ऊपर में लिखा और उसी बात से अंत कर रहा हूँ गद्य – क्षणिका के संदर्भ में मेरी साहित्यिक साधना इस तरह से हो गई है एक विशाल बात मेरे मन में आए जिसे मैं बस छोटा ही करता जाऊँ और अस्सी शब्दों में आ कर वह ठहर जाए।  

लोगों ने लिखा है गागर में सागर का मैं एक सफल लेखक हुआ करता हूँ। मैं अपने प्रति इस उक्ति के प्रति वंदन की भावना रखता हूँ।

मेरे चार गद्य – क्षणिका संग्रह प्रकाशित हुए हैं –

1 — गद्य – क्षणिका : एक प्रयोग — 520 गद्य क्षणिकाएँ

2 — तारों का जमघट — 1200 गद्य क्षणिकाएँ

3 — छोटे – छोटे समंदर –- 660 गद्य क्षणिकाएँ

4 – गागर में सागर — 640 गद्य क्षणिकाएँ

सर्वजोड़ प्रकाशित 3000 गद्य – क्षणिकाओं से अधिक ही।

***

© श्री रामदेव धुरंधर

दिनांक

01 – 06 – 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : rdhoorundhur@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 697 ⇒ मस्ती की पाठशाला ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मस्ती की पाठशाला।)

?अभी अभी # 697 ⇒ मस्ती की पाठशाला ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बचपन एक ऐसी पाठशाला है, जहां मस्ती सिखाई नहीं जाती, लेकिन पाई जाती है। आप यह भी कह सकते हैं, मस्ती, बचपन का दूसरा नाम है। मस्ती हर भाषा में होती है, हर उम्र में होती है, लेकिन मस्ती शब्द, किसी शब्द कोश में नहीं, इस शब्द का कोई पर्याय नहीं, इस शब्द का कोई अनुवाद नहीं, तर्जुमा नहीं।

बच्चा मस्ती नहीं करता। बच्चा अपने आप में, मस्त रहता है। मैं अगर कहूं, मस्ती डिवाइन (divine) होती है, तो यह गलत है, क्योंकि डिवाइन तो बच्चा होता है। हां, हम यह जरूर कह सकते हैं, मस्ती का दूसरा नाम बचपना है। ।

बच्चों के लिए खेल ही मस्ती है। जब कि हमारे लिए मस्ती एक खेल है।

दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। जो अंतर डिवाइन और वाइन में है, वही अंतर एक बच्चे की मस्ती और संसारी मस्ती में है।

एक बच्चा अपने खेल में मस्त रहता है। मुझे जब मस्ती करनी होती है, मैं एक बच्चे के साथ बच्चा बन जाता हूं, बच्चा खुश हो जाता है, एकदम चहक उठता है, आओ अपन मस्ती करें। उसका आशय उस खेल से होता है, जो आपको एक दूसरी ही दुनिया में ले जाता है। इस संसार में एक संसार बच्चों का भी होता है, जिसमें बड़ों का प्रवेश वर्जित होता है।

अपनी उम्र घटाइए, कभी बच्चा तो कभी घोड़ा और ऊंट बन जाइए, और आसानी से प्रवेश पा जाइए। ।

मस्ती एक शारीरिक, सांसारिक नहीं, भौतिक और बाहरी नहीं, आंतरिक अवस्था है।

मस्ती कोई बच्चों का खेल नहीं, क्योंकि बच्चों का खेल तो खेलना हम जानते ही नहीं। बच्चों की दुनिया में राग द्वेष, भूख प्यास, अमीरी गरीबी, धर्म और मजहब तथा अपना पराया होता ही नहीं। हां, पढ़ लिखकर, अपने पांव पर खड़े होकर, वह भी जान जाता है, जिंदगी क्या है, दुनियादारी क्या है और बाहरी मस्ती क्या है।

कबीर साहब कह गए हैं ;

मन मस्त हुआ तब क्यों बोले !

हीरा पाया गांठ गठियायो,

बार बार बाको क्यों खोले।

हलकी थी तब चढ़ी तराजू

पूरी भई, तब क्यों तौले। ।

हंसा पाये मानसरोवर

ताल तलैया क्यों डोले।

तेरा साहिब घर माहीं

बाहर नैना क्यों खोले। ।

कहै कबीर सुनो भाई साधो

साहब मिल गए तिल ओले। ।

सत् चित् और आनंद ही तो वह मस्ती है, जिसे बचपन में पीछे छोड़ हम, तू चीज बड़ी है मस्त, मस्त में उलझे हैं। अब पुनः बालक बनने से तो रहे, तो क्यों न फिर कबीर की बात ही मान ली जाए।

तेरा साहिब घर माहीं

साहब मिल गए तिल ओले

जी हां वही ओले ओले ! सदगुरु कुछ नहीं करता, एक डॉक्टर की तरह आंख का भ्रम और माया रूपी तिल निकाल देता है, और आपको वह सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिसे मस्ती कहते हैं। मस्ती की पाठशाला में आपका स्वागत है। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 291 – धन्यो गृहस्थाश्रम: ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 290 धन्यो गृहस्थाश्रम: ?

सानन्दं सदनं सुताश्च सुधियः कान्ताप्रियभाषिणी

सन्मित्रं सधनं स्वयोषिति रतिः चाज्ञापराः सेवकाः।

आतिथ्यं शिवपूजनं प्रतिदिनं मिष्टान्नपानं गृहे

साधोः सङ्गमुपासते हि सततं धन्यो गृहस्थाश्रमः।।

शार्दूलविक्रीडित छन्द में रची उपरोक्त पंक्तियों का अर्थ है कि घर में आनंद हो, संतान बुद्धिमान हो, पत्नी मधुरभाषिणी हो, मित्र सच्चे हों, घर में धन हो, पत्नी के प्रति पति निष्ठावान हो, सेवक आज्ञापालक हो, घर में अतिथियों का सत्कार होता हो,  शिव का पूजन होता हो, प्रति दिन उत्तम भोजन बनता हो और सज्जनों का संग होता हो तो ऐसा गृहस्थाश्रम धन्य है ।

इस रचना में गृहस्थ आश्रम की श्रेष्ठता प्रतिपादित की गई है। विशेष बात यह कि प्राचीन समय में तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के अनुसार रचे गए इस पथदर्शक काव्य में अधिकांश मूलभूत मूल्य उद्घोषित हुए हैं जिनमें कालानुसार किंचित परिवर्तन ही आया है।

भारतीय दर्शन ने जीवन को चार आश्रमों में विभक्त किया है। ये हैं – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। प्रत्येक कालखंड की अवधि 25 वर्ष रखी गई है। ब्रह्मचर्य जीवन के पहले 25 वर्ष का कालखंड है। यह औपचारिक शिक्षा एवं व्यवहार जगत की दीक्षा हेतु है। 25 से 50 वर्ष की आयु गृहस्थाश्रम है। यह सांसारिक दायित्वों की पूर्ति का समय है। इसमें विवाह, संतान को जन्म देना, उनका लालन-पालन करना, उनकी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था करना, परिवार को केंद्र में रखना आदि सम्मिलित हैं। वानप्रस्थाश्रम, पारिवारिक दायित्वों से शनै:-शनै: मुक्त होने का कालखंड है। दायित्वों से मुक्ति अंतस की यात्रा के लिए प्रेरित करती है। फलत: वानप्रस्थाश्रम में निरंतर आध्यात्मिक विकास होता है। इस  शृंखला में अंतिम आश्रम संन्यास कहलाता है। यह संसार से विरक्त होकर ईश्वर में अनुरक्त होने की कालावधि है। चौथे पुरुषार्थ मोक्ष की ओर ले जाने का साधन है संन्यास।

चारों आश्रमों में गृहस्थ आश्रम को महत्वपूर्ण माना गया है। यह सृष्टि के सातत्य की अटूट शृंखला बनाए रखने का साधन भर नहीं है। मनुष्य की मनुष्यता के विकास में गृहस्थ आश्रम ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। परिवार का उद्भव, एक दूसरे की कमियों-अच्छाइयों अर्थात शक्ति बिंदुओं और निर्बलताओं के साथ चलना, परस्पर मान-सम्मान देना, विभिन्न विषयों पर सामूहिक चर्चा करना, सामूहिक निर्णय लेना, उदारता, सहनशीलता, सुख-दुख में साथ रहना आदि बहुत कुछ सिखाता है गृहस्थ आश्रम।

अब ‘मैं और मेरा’ तक सीमित मूल्यधर्मिता का समय है। शिक्षा से लेकर खानपान व पहनावे से लेकर सामाजिक औपचारिकता तक में आयातित संस्कृतियों का अनुकरण कर हमने अपने अस्तित्व पर स्वयं ही प्रश्नचिन्ह लगा लिया है। इसके दुष्परिणाम गृहस्थ आश्रम पर  दृष्टिगोचर हो रहे हैं। 18 से 20 वर्ष की आयु में होने वाला परिणय, शिक्षा के चलते 25 वर्ष तक पहुँचा। यह तर्कसम्मत था। तत्पश्चात करियर के चलते 25 से बढ़कर 30 तक पहुँच गया। अब 35 वर्ष की औसत आयु तक आ चुका है। इस आयु तक आते-आते युवक-युवती बौद्धिक रूप से परिपक्व हो चुके होते हैं। तथापि यह भी ध्यान रखना चाहिए कि युवावस्था का शिखर काल भी ढलान पर होता है। 

इस अवस्था में व्यवहार बुद्धि अधिक सक्रिय हो उठती है। प्रेम के स्थान पर व्यवहार प्रधान हो जाता है। मस्तिष्क पड़ताल करने में जुटा रहता है पर मन गौण होने लगता है। अपने ही बनाए घेरों में घिरे इन युवाओं को पता ही नहीं होता कि जीवन दो और दो मिलकर कर चार होने का गणित नहीं होता। यदि ऐसा ही होता तो मन की अनुभूतियाँ होती ही नहीं।

आजकल युवक-युवती दोनों आर्थिक रूप से सक्षम होते हैं, यह सुखद है। दुखद यह है कि अधिकांश के शब्दकोश में लचीलेपन का अर्थ समझौता लिखा होता है। लचक और समझौते में अंतर न कर पाने के कारण समय बीतता रहता है।

वर्तमान असंगत स्थिति के कारणों की मीमांसा करते हुए इस सत्य को भी स्वीकारना होगा कि लड़कियों ने सतत कठोर परिश्रम से समाज में अपना स्थान बनाया है। व्यक्ति से व्यक्तित्व की यात्रा कर उन्होंने अपनी योग्यता प्रमाणित की है। विडंबना है कि पुरुष का अहंकार, ‘मेल ईगो’ नारी की इस सफलता को स्वीकार करने के लिए अभी भी तैयार नहीं है। आज भी ऐसे परिवार मिल जाएँगे जो बहू को घर की चौखट तक सीमित रखना चाहते हैं। जिनके लिए चूल्हे-चौके से परे  स्त्री जीवन का दूसरा कोई अर्थ नहीं है। इसके चलते उच्च शिक्षित युवतियों की विवाह से विमुखता भी बढ़ रही है।

सनद रहे कि सात जन्मों का साथ चाहने वाली विवाह संस्था का स्थान डगमगा रहा है। विवाह होना कठिन हो चला है और होने के बाद उसे निभाना और अधिक कठिन। विवाह योग्य युवक-युवतियों को याद रखना चाहिए कि ‘नो वन इज़ परफेक्ट।’ अगर, मगर, किंतु-परंतु विवाह की डगर को संकरा करते जा रहे हैं।

विवाह के बाद सामंजस्य के अभाव में संबंध विच्छेद सैकड़ों प्रतिशत की दर से बढ़े हैं। संबंध विच्छेद से बच्चों पर जो बीतती है, उस पर किसी का विचार होता दिखता नहीं। बच्चे को माँ और पिता, दोनों की आवश्यकता होती है। एक से दूर रहने के कारण उनकी मनोदशा पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

यक्ष प्रश्न है कि कहाँ जा रहे हैं हम?

‘ईट, ड्रिंक एंड बी मेरी’ के मद में डूबा समाज क्या शेष संभावनाओं के मुरझाने की प्रतीक्षा में है? स्मरण रहे, विवाह, गृहस्थ आश्रम का प्रवेश द्वार है। गृहस्थाश्रम इहलौकिक और पारलौकिक संभावनाओं का अशेष जगत है। इसे बाहर खड़े रहकर नहीं समझा जा सकता। आदि शंकराचार्य  जैसे मूर्धन्य को भी देवी भारती के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए एक राजा की देह में प्रवेश कर गृहस्थाश्रम को जीना पड़ा था।

अशेष के ‘अ’ की रक्षा के लिए कमर कसने की आवश्यकता है। व्यक्तिगत और समष्टिगत प्रयासों की आवश्यकता है। मैं तो अभियान पर निकल चला हूँ। क्या आपने चलना आरम्भ किया?….इति।

© संजय भारद्वाज 

प्रातः 6:50 बजे, 31 मई 2025

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 श्री महावीर साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र दी जावेगी। आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही💥  

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 695 ⇒ पानी पतरा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पानी पतरा।)

?अभी अभी # 695 ⇒ पानी पतरा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जहां आज भी कच्चे मकान हैं, वहां छत पर लोहे की नालीदार शीट लगी होती है, और उन मकानों को पतरों वाला मकान कहते हैं। अक्सर इन छतों पर कवेलू भी बिछाए जाते हैं। बारिश के शुरू होते ही, पतरे टप टप आवाज करने लगते हैं। आज के मकानों की तो पूछिए ही मत ! पूरे वाटर प्रूफ होते हैं। केवल टीवी और मोबाइल से ही बारिश का पता चलता है। घर में सूखा, और बाहर निकलते ही सड़कों पर ही नदी नाले का नजारा।

पानी पतरा एक कम सुना हुआ शब्द है। वह जमाना वर्ली मटके का था। रतन खत्री कभी मटका किंग था। सट्टा बाजार एक फिल्म भी आई थी। कभी शायद किसकी लॉटरी भी लगी हो ! क्योंकि आजकल तो लॉटरी पर भी प्रतिबंध है। सट्टा लगाया जाता है, और जुआ खेला जाता है। दोनों ही कानूनन अपराध हैं।।

अक्सर पुरानी फिल्मों में एक रईस लालाजी होते थे, जिनकी एक खूबसूरत लड़की होती थी। अच्छा भला लाखों -करोड़ों का कारोबार होता था। अचानक कहीं से फोन की घंटी बजती। उधर से आवाज आती, लालाजी, आपने जिस घोड़े पर पैसा लगाया था, वह हार गया। आप बर्बाद हो गए। और लालाजी को दिल का दौरा पड़ जाता था।

मुंबई का वह एरिया आज भी महालक्ष्मी कहलाता है, जहां घुड़दौड़ होती है और लाखों के वारे न्यारे होते हैं। आज का शेयर मार्केट लोगों को बनाता भी है और बर्बाद भी कर देता है। यह पूरी तरह वैध है, No risk no gain.

आइए, पानी पतरे के लिए सराफे चलें। माफ कीजिए आज वहां आपको सोना चांदी तो मिल जाएगा, रात में सभी पकवान, मिठाई, चाट और पानी पूरी भी मिल जाएगी, लेकिन कहीं भी पानी पतरे के दर्शन नहीं होंगे। आखिर क्या है यह पानी पतरा।।

आज से वर्षों पूर्व जब इसी सराफे में पतरे वाले पुराने मकान थे, तब पानी पतरा खेला जाता था। जी हां, यह एक तरह का सट्टा ही था। लोग दुकानों में बैठे हैं। सबकी निगाह आसमान में बादलों पर है। और बैठे बैठे ही सौदे हो रहे हैं। इधर पतरे भीगे और उधर लाखों के वारे न्यारे।

बड़ा ही विचित्र नजारा होता था पानी पतरे का।

इशारों ही इशारों में हार जीत हो जाती थी। बादलों पर कालिदास ने मेघदूतम् जैसा दूत काव्य रच दिया।

और वही बादल यहां लक्ष्मी पुत्रों पर धन की वर्षा कर रहे हैं।।

समय का खेल निराला है। खेल वही खेलें जो युक्तिपूर्ण हो और पूरी तरह कानूनी हो। सट्टा छोड़ें, सत्ता से नाता जोड़ें। एक और परिश्रम है और एक ओर अनुमान। यह युग सट्टे का नहीं निवेश अर्थात् इन्वेस्टमेंट का है।

मोहरे भले ही बदल जाएं, चालें तो वही होती हैं।

वार त्योहार का मौसम है आइए पानी पतरे को मारें गोली, पूजा पत्री की बात करें। इंद्रदेव तो मेहरबान हैं ही, गणेशोत्सव की तैयारी करें।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #278 ☆ घर की तलाश… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख घर की तलाश। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 278 ☆

☆ घर की तलाश… ☆

एक लम्बे अंतराल से उसे तलाश थी एक घर की, जहां स्नेह, सौहार्द, समर्पण व एक-दूसरे के लिए मर-मिटने का भाव हो। परंतु पत्रकार को सदैव निराशा ही हाथ लगी।

आप हर रोज़ आते हैं और अब तक न जाने कितने घर देख चुके हैं। क्या आपको कोई घर पसंद नहीं आया?

तुम्हारा प्रश्न वाज़िब है। मैंने बड़ी-बड़ी कोठियां देखी हैं–आलीशान बंगले देखे हैं–कंगूरे वाली ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं व हवेलियां देखी हैं, जहां के बाशिंदे अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं और वहां व्याप्त रहता है अंतहीन मौन। यदि मैं उसे मरघट-सी ख़ामोशी कहूं व चहूंओर पसरा सन्नाटा कहूं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

परंतु तुमने द्वार पर खड़ी चमचमाती कारें, द्वारपाल व जी-हज़ूरी करते गुलामों की भीड़ नहीं देखी, जो कठपुतली की भांति हर आदेश की अनुपालना करते हैं। परंतु मुझे तो वहां इंसान नहीं; चलते-फिरते पुतले नज़र आते हैं, जिनका संबंध-सरोकारों से दूर तक का कोई नाता नहीं होता। वहां सब जीते हैं अपनी स्वतंत्र ज़िंदगी, जिसे वे सिगरेट के क़श व शराब के नशे में धुत्त होकर ढो रहे हैं।

आखिर तुम्हें कैसे घर की तलाश है?

क्या तुम ईंट-पत्थर के मकान को घर की संज्ञा दे सकते हो, जहां शून्यता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता। एक छत के नीचे रहते हुए भी अजनबी-सम…कब, कौन, कहां, क्यों से दूर– समाधिस्थ।

अरे विश्व तो ग्लोबल विलेज बन गया है;इंसानों के स्थान पर रोबोट अहर्निश कार्यरत हैं;मोबाइल ने सबको अपने शिकंजे में इस क़दर जकड़ रखा है, जिससे मुक्ति पाना संभव नहीं है। आजकल सब रिश्ते-नातों पर ग्रहण लग गया है। हर घर के अहाते में दुर्योधन व दु:शासन घात लगाए बैठे हैं। सो!दो माह की बच्ची से लेकर नब्बे वर्ष की वृद्धा की अस्मिता भी सुरक्षित नहीं।

चलो छोड़ो!तुम्हारी तलाश कभी पूरी नहीं होगी, क्योंकि आजकल घरों का निर्माण बंद हो गया है। हम अपनी संस्कृति को नकार पाश्चात्य की जूठन ग्रहण कर गौरवान्वित अनुभव करते हैं और बच्चों को सुसंस्कारित नहीं करते, क्योंकि हमारी भटकन अभी समाप्त नहीं हुई।

आओ!हम सब मिलकर आगामी पीढ़ी को घर- परिवार की परिभाषा से अवगत कराएं और दोस्ती व अपनत्व की महत्ता समझाएं, ताकि समाज में समन्वय, सामंजस्य व समरसता स्थापित हो सके। हम अपने स्वर्णिम अतीत में लौटकर सुक़ून भरी ज़िंदगी जिएं, जहां स्व-पर व राग-द्वेष का लेशमात्र भी स्थान न हो। हमें संपूर्ण विश्व में अपनत्व का भाव दृष्टिगोचर हो और हम सब दिव्य, पावन निर्झरिणी में अवगाहन करें, जहां केवल तेरा ही तेरा का बसेरा हो। हम अहं त्याग कर मैं से हम बन जाएं, जहां कुछ भी तेरा न मेरा हो।

●●●●

© डा. मुक्ता

30.3.22

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पुरस्कार, प्रशस्ति-पत्र और प्रशस्ति… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  पुरस्कार, प्रशस्ति-पत्र और प्रशस्ति…)

☆ पुरस्कार, प्रशस्ति-पत्र और प्रशस्ति… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

2019 की बात है। किताबों की अलमारी की सफ़ाई करते हुए कहीं से एक प्रशस्ति-पत्र निकल आया। उसमें लिखा था- लघुकथा की विकास-यात्रा में आपके योगदान को कोटिशः नमन। मुझे याद आया कि मैंने एक लघुकथा-सम्मेलन में लघुकथा भेजी थी, ख़ुद नहीं जा पाया था। मेरे शहर के एक लेखक के ज़रिये मुझ तक यह प्रशस्ति-पत्र तथा सम्मेलन में पढ़ी गई सभी लघुकथाओं का पुस्तकाकार संग्रह भेजा गया था और उस संग्रह के लिए मुझे शायद दो सौ रुपये चुकाने पड़े थे। मैंने पुस्तक और प्रशस्ति-पत्र यूँ ही कहीं रख दिए थे। सफ़ाई के दौरान मैंने प्रशस्ति-पत्र को पढ़ा और मुझे हँसी आ गई। क़ायदे से तो मुझे गर्व और आभार से भर जाना चाहिए था, लेकिन मैं गहरी सोच में पड़ गया कि मैंने कब लघुकथा के विकास में योगदान दिया था। बता दूँ कि तब तक मेरा एक भी लघुकथा संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ था। दस- बीस लघुकथाएँ लिख लेने भर से मेरा ऐसा प्रचंड योगदान कि मैं ‘कोटिशः नमन’ का पात्र हो गया। जिस किसी ने भी वहाँ लघुकथा पढ़ी होगी, उसे ठीक ऐसा ही प्रशस्ति-पत्र दिया गया होगा। एक साथ साठ-सत्तर लोग कोटिशः नमन के पात्र हो गए होंगे। इस तरह के सम्मान से वितृष्णा नहीं होती? आज इस तरह के प्रशस्ति-पत्रों से लोगों के घरों की दीवारें भरी पड़ी हैं। उन्हें देखकर मुझे कभी नहीं लगा कि फलाँ बड़ा लेखक है। प्रशस्तियों के आदान-प्रदान का धंधा आज चरम पर है। लोग जुगाड़ लगाकर पुरस्कार झटक रहे हैं। यहाँ तक कि एंट्री फ़ीस भरकर पुरस्कार ले रहे हैं। त्रासदी यह भी है कि प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, पंत, महादेवी, नीरज जैसे साहित्यकारों के नाम पर राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किए जा रहे हैं, जिनकी पुरस्कार राशि महज़ पाँच सौ रुपये भी हो सकती है। संभव है कि इससे ज़्यादा एंट्री फ़ीस ही हो। लेखक प्रशस्ति-पत्र को दीवार पर टाँगकर मेहमानों पर अपने अंतरराष्ट्रीय लेखक होने का रौब ग़ालिब कर देते हैं, जबकि वे जानते हैं कि वे कितने पानी में हैं। आजकल यह भी सिलसिला चल निकला है कि आप एक संस्था बनाकर किसी शहर के दस-बीस लेखकों को बुलाकर थोक के भाव राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से ‘सम्मानित’ कर दें और कुछ दिनों बाद उस शहर के लेखक आपके शहर के दस-बीस लेखकों को उसी तरह से सम्मानित कर दें। प्यार भी बना रहेगा, दीवारें भी सजती रहेंगी। पुरस्कार के लिए नाम कैसे भी रखे जा सकते हैं। बड़े-बड़े लेखक तो हैं ही (आपकी ओछी हरकत से महान लेखक अपमानित होता है तो आपकी बला से), इनके अलावा साहित्य के साथ भूषण, विभूषण, रत्न, मनीषी जैसे शब्द जोड़ कर पुरस्कार का नाम रखा जा सकता है। हज़ारों विशेषण उपलब्ध हैं। मेरा एक प्रश्न है- आपकी तुलना कोई ताॅलस्ताॅय, गोर्की, मोपासां, चेखव, शेक्सपियर, बालज़ाक वगैरह से करे तो आप यक़ीन कर लेंगे? नहीं न! आप समझ जाएँगे कि सामने वाला बन्दा आपका उल्लू खींच रहा है। ऐसे ही आपके अति साधारण लेखन के लिए (कभी-कभी दो कौड़ी के लेखन के लिए) विलक्षण, अलौकिक प्रशंसात्मक शब्दों का प्रयोग सचमुच गाली देने जैसा ही है। लेखक सोचता है कि चलो, महान होने के अहंकार और धोखे में ही जी लिया जाए। लेखक का सम्मान उसका लेखन ही है, प्रशस्ति पत्र नहीं ।

ख़ैर, उस प्रशस्ति पत्र को मैंने कूड़ेदान के हवाले कर दिया और यक़ीन मानिये, ऐसा करते हुए मुझे कोई अफ़सोस नहीं हुआ, बल्कि मैंने राहत ही महसूस की कि मैं एक पाखण्ड भरे झूठ से मुक्त हो गया।

मैं डंके की चोट पर कहता हूँ कि सैंकड़ों पुस्तकें लिख देने से कोई लेखक महान नहीं होता और न सैंकड़ों पुरस्कार प्राप्त कर लेने से कोई लेखक महान होता है। लेखक के अच्छे या बुरे होने की एक ही कसौटी है – उसका लेखन। महत्वपूर्ण यह है कि उसने क्या लिखा, क्यों लिखा और कैसा लिखा? महत्वपूर्ण यह नहीं है कि उसने कितना लिखा और उसने कितने पुरस्कार प्राप्त करने में सफलता हासिल की।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ || मातृत्व छांव || ☆ श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव ☆

श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव 

गोरखपुर, उत्तरप्रदेश से श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव जी एक प्रेरणादायक महिला हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से समाज में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्हें 2024 में अंतरराष्ट्रीय महिला सम्मान से नवाजा गया। उनके द्वारा संवाद टीवी पर फाग प्रसारण प्रस्तुत किया गया और विभिन्न राज्यों के प्रमुख अखबारों व पत्रिकाओं में उनकी कविता, कहानी और आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी लेखनी में समाज के प्रति संवेदनशीलता और सृजनात्मकता का सुंदर संगम देखने को मिलता है।

☆ आलेख ☆ || मातृत्व छांव || ☆ श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव ☆

ममा या मम्मी नहीं  गाँव में अम्मा होती है… 

वह साड़ी में पिन नहीं लगातीं बल्कि  आंचल स्वतंत्र खुला रखतीं हैं…

उसके साड़ी के पल्लू में बंधे हुए होते हैं सिक्के या कुछ रुपये जो बच्चों के हाथों में आसानी से आ जाते हैं…

अम्मा को सब कुछ पता होता है जैसे कब भुखे होगें बच्चे और कब नहीं… 

अम्मा के रसोई में हमेशा खाना उपलब्ध होता है…

 मैगी नूडल्स खाकर बड़ी नहीं हुई पहले की पीढ़ी बल्कि, रोटी, चीनी या रोटी, अचार बहुत प्रेम से खाते थे…

 

अम्मा मेला या हाट कम जाती थी… 

तीज त्योहार में अक्सर बाबूजी ही कपड़ा लाते  केवल अम्मा के लिए ही नहीं बल्कि, बुआ के लिए भी…

 

बुआ का तीजा दादाजी के देहांत के उपरांत भी जाता रहा, जब तक बुआ और बाबूजी जीवित रहे, यह क्रम चलता रहा ना जाने कौन सा प्रेम का अटूट नाभि बंधन था पहले के लोगों में 👥 उस जमाने में ✍️

फर्क़ ही नहीं पड़ता था  बच्चा किसके पास है?

अम्मा डांटती तो बड़की माई (बड़ी मां) आंचल में समेट लेती और अम्मा से कहतीं

“खबरदार जो मेरे सामने बच्चों को डांटा”

जेठानी की बाते सुन लेतीं

 कुछ नहीं कहतीं बल्कि दोनों जेठानी- देवरानी शब्दहीन अतंस से बातचीत कर लेतीं

घर के सारे पुरुष -समाज खाना खा लेते, तो ना जाने कौन -कौन सी चटनी के साथ अम्मा बिना सब्जी के ही चावल खा लेतीं…

उनके थाली में कभी सब्जी होता और कभी नहीं भी,  फिर भी वह खा लेतीं…

अम्मा को खुद पता नहीं…

कौन सी सब्जी पंसदीदा थी उनकी ?

बाबूजी भी नहीं जानते थे…

बाबूजी जब तक जीवित रहे उन्होंने रसोई के अंदर प्रवेश  नहीं किया और अम्मा -बाबूजी की  आवश्यकता सदा अद्भुत कौशल गृहणी बन करतीं रही…

 

अम्मा को ना कभी ज्वार हुआ ना ही कभी उन्होंने कहा कि मुझे भी तारीफ़ के दो शब्द सुनने है…

अम्मा तो एक गंभीर सांचे में ढली देहांती बहू  जो सीधा पल्लू पहनी देहरी तक सीमित रहतीं…

 

उम्र के साथ साथ जैसे जैसे बडी़ हुई  मालूम चला अम्मा तो  शहर से हैं!

यह बात ना जाने कब से कील बन चुभती मन के कोने में पड़ी रही…

अम्मा को बस निहारती रही…

 

कभी अल्हड़ उन्मुक्त उंमगो की जीवंतता अम्मा मे भी होगा…

परिवर्तन कैसे हो गया??

 

आखिर कब कैसे उड़ान भरने वालीं अम्मा ने कोशिश करना छोड़ दिया…

प्रश्न अधूरा सा रहा और वक़्त चलता रहा…

अम्मा की उड़ान भरने वालीं लाडो, खुद अम्मा बन चुकी है…

 हर प्रश्न का जवाब मिल चुका है आज…!

 

जिम्मेवारी के पतीले में ना जाने  कहाँ छूट जातें हैं मध्यवर्गीय सपने और बच्चों के पालन पोषण में जायका का स्वाद कहाँ गुम हो जाता है?

 

मिर्ची -निबू का नज़र कवच घर में टांगते- टांगते  बस देहरी में सिमट जाता है अल्हड़पना…

ना जाने कब कैसे एक बच्चे के जन्म के साथ ही एक अल्हड़ उन्मुक्त उंमगो वाली बेटी दम तोड़ देती है और एक परिपक्व माँ का जन्म हो जाता है?

 

ना जाने कौन से रेस्टोरेंट से अम्मा ने अचार बनाया?

अक्सर वही अचार प्लेट में नज़र आ जाते हैं…

 

अम्मा ने सच ही कहा है 👧

 

सह कर  तेज ज्वार तब प्रफुल्लित होता है माँ के जैसा व्यवहार…

अनसुनी अनकही माँ के जज्बात, जो आंगन की चुप्पी में जाने कहाँ खो गई पीढ़ी दर पीढ़ी…

लिखने की कोशिश कर रही हूँ… अनवरत…

© श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव

गोरखपुर, उत्तरप्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 694 ⇒ साहब का कुत्ता… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – साहब का कुत्ता।)

?अभी अभी # 694 ⇒ साहब का कुत्ता 🐶 श्री प्रदीप शर्मा  ?

दिन भर की दफ्तर, फाइल और मीटिंग की थकान के बाद दूसरे दिन सुबह ही तो थोड़ा सुकून मिलता है जब साहब अपने कुत्ते के साथ ताजी हवा का सेवन करने स्टेडियम निकल जाते हैं।

अंग्रेज अफसरों के लिए रेसिडेंसी एरिया में क्लब और बंगले बना गए और नौकर चाकर भी दे गए।

अगर किसी बंगले में कुत्ता ना हो, तो वह बंगला सिंदूर बिना सुहागन सा नजर आता है।

राजनीति में जिस तरह आजकल नेता भक्त बिना नहीं रह सकता, साहब को एक कुत्ते के अलावा कोई स्वामिभक्त नजर नहीं आता। एक कुत्ता ही तो होता है, जिसके पीछे अफसर भी दौड़ता नजर आता है। समय का फेर देखिए। एक कुत्ते ने साहब और मेम साहब को कितना दौड़ा दिया। गेंद सीधी स्टेडियम से बाहर।।

कितनी पैनी नजर है हमारे मीडिया की और उससे भी अधिक चुस्त और सजग हमारी सरकार, जो नौकरशाही पर मानो किसी ड्रोन से नज़र रख रही हो।

चौतरफा तारीफ, वाहवाही। चट मीडिया में तस्वीर पट न्याय। इसे कहते हैं गुड गवर्नेंस। हम तो इस खुशी में कल नेहरू को भी भूल गए।

इस संदर्भ में अफसरों पर गाज गिरना कोई नई बात नहीं। हमारे मंत्री समझदार हैं, वे अफसरों की तरह कुत्ते नहीं पालते। वे भक्त पालते हैं, जो उनके पहले ही सात समंदर पार, मीडिया सहित पहुंच जाते हैं, दुनिया के किसी भी स्टेडियम में।

जहां भक्त है, वहां सम्मान है, जहां स्वामिभक्त है वहां सैकड़ों मील दूर ट्रांसफर है।।

एक धर्मराज थे जो कुत्ते सहित स्वर्ग पधार गए और एक हमारे साहब हैं, जो कुत्ते को स्टेडियम ले गए तो इनके काम लग गए।

साहबों के भी साहस और दुस्साहस में बड़ा अंतर होता है। एक दुस्साहसी महिला पुलिस अफसर ने दिल्ली में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री की गाड़ी का चालान बनाया तो वह किरण बेदी कहलाई लेकिन जब खिलाड़ियों के स्टेडियम में कोई अफसर कुत्ता घुमाएगा तो अच्छे अच्छों का सर चकराएगा।

जिन्हें भारतीय मीडिया से शिकायत है, उनके लिए यह एक सुखद संकेत है।  वह पत्रकार भी बधाई का पात्र है जिसने हिम्मत दिखाकर इस घटना को सार्वजनिक किया। और सोने में सुहागा सरकार की ताबड़तोड़ त्वरित कार्यवाही। काश कोई कुत्ते की मनोदशा भांप पाता जिसके कारण यह सब घटना घटी। वैसे स्टेडियम में कुत्ते का खेल के बीच आना कोई बड़ी घटना नहीं। वे कई बार पहले भी पिच का निरीक्षण कर गए हैं। खैर है इन बेजुबान प्राणियों पर कोई भारतीय दंड संहिता अथवा आचार संहिता लागू नहीं होती।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 352 ☆ आलेख – “कैसे और क्यों व्यंग्यकार बने परसाई?” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 352 ☆

?  आलेख – कैसे और क्यों व्यंग्यकार बने परसाई? ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

हरिशंकर परसाई का जन्म आजादी से पहले 1924 में एक ब्राह्मण परिवार में मध्यप्रदेश के ग्रामीण परिवेश में हुआ। उन्होंने बड़े होते हुए गाँव की सामाजिक-आर्थिक विषमताएँ, रूढ़िवादिता, और आदमी की पीड़ा और विडंबनाओं को करीब से देखा तथा समझा। उनका व्यक्तित्व संवेदनशील था। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम.ए. किया। पढ़ाई के दौरान उनकी रुचि साहित्य, दर्शन और समाजशास्त्र में विकसित हुई। प्रेमचंद, रवींद्रनाथ टैगोर और चेखव जैसे लेखकों ने उन्हें गहराई से प्रभावित किया। सामयिक घटनाओं पर उनकी नजरें सचेत रहीं। जब वे युवा हुए तब देश आजाद अवश्य हो गया था पर सामाजिक स्थिति आशानुकूल बदली नहीं थी। राजनीतिक उथल-पुथल, नौकरशाही का भ्रष्टाचार और नैतिकता के ढोंग से उनका सामना हुआ। । इस “मोहभंग” ने परसाई को झकझोरा और उन्होंने महसूस किया कि गंभीर लेखन से लोगों पर उतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना व्यंग्य से पड़ सकता है। उन्होंने अपनी वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए बोलचाल की भाषा और हास्य व्यंग्य को अपनाया। वे सतत लिखते गए और व्यंग्य की उनकी मौलिक भाषा शैली विकसित होती गई। उनका लेखन सिर्फ मनोरंजन नहीं,  बल्कि “समाज का आईना” था। जैसे,  ‘वैष्णव की फिसलन’ में उन्होंने धार्मिक पाखंड पर करारा प्रहार किया। उन्होंने “ठिठुरता हुआ गणतंत्र” में लोकतंत्र की विसंगतियों को रोचक चुटीले अंदाज़ में उकेरा। लेखन के लिए वे पात्रों के चयन अपने परिवेश से ही किया करते थे। पात्रों के माध्यम से वे व्यंग्य का नाटकीय प्रस्तुतीकरण करने में सफल हुए। परसाई ने कभी भी सत्ता या समाज के ठेकेदारों से समझौता नहीं किया। उनके व्यंग्य में “सच को सच कहने का साहस” था।

उनकी पत्रिका ‘वसुधा’ के माध्यम से वे सीधे पाठकों से जुड़े और बिना लाग-लपेट के स्पष्ट विचार रखते थे। जनसामान्य की भाषा में रचना तथा मानवीय वृत्तियों पर लेखन के कारण ही उनकी रचनाएँ आज भी प्रासंगिक हैं। उनका मानना था कि व्यंग्य का उद्देश्य सिर्फ हँसाना नहीं,  बल्कि “सोचने पर मजबूर करना” है। ‘भोलाराम का जीव’, इंस्पेक्टर मातादीन जैसी रचनाओं ने उन्हें अमर बना दिया। उनके लेखन से हिंदी साहित्य में व्यंग्य को मुख्यधारा में स्थान मिला।

परसाई के अध्ययन से हम व्यंग्य लेखन के सूत्र समझ सकते हैं।

समाज को गहराई से देखें तो छोटी-छोटी विसंगतियाँ व्यंग्य का विषय बन सकती हैं।

सरल भाषा,  गहरा प्रभाव छोड़ती है। जटिल विचारों को आम बोलचाल के शब्दों में व्यक्त करें।

लेखन में निर्भीकता और ईमानदारी आवश्यक होती है। सच्चाई को छुपाए बिना उसे व्यंग्य, हास्य का रूप दें।

मानवीय स्वभाव को समझ कर व्यक्ति के दोगलेपन और स्वार्थ पर रचनात्मक प्रहार करें।

परसाई ने व्यंग्य को ही अपना हथियार बनाया क्योंकि यह सटीक वार करता है। हास्य के माध्यम से कटु सत्य भी सहज रूप से स्वीकार्य बन जाता है। और जनमानस तक पहुँचना आसान होता है।

परसाई का लेखन सिर्फ साहित्य नहीं,  बल्कि समाज का सांस्कृतिक दस्तावेज़ बन गया है। परसाई का मानना था कि व्यंग्यकार का कर्तव्य है कि अपने लेखन से अंधेरे को उजाले में बदल दें।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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