(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 121 ☆ अहम् और अहंकार ☆
प्रबोधन और व्याख्यान के लिए विभिन्न समुदायों के बीच जाना होता रहता है। प्रायः हर मंच से कहा जाता है कि फलां समुदाय या वर्ग की एकता देखो, पर हम ऐसी केकड़ा प्रवृत्ति के हैं कि हमारा वर्ग कभी एक नहीं हो सकता। जबकि सत्य यह है कि कोई भी समुदाय इसका अपवाद नहीं है। अलबत्ता अहंकार की अधिकता व्यक्ति विशेष को सर्वग्राही, सर्वमान्य बनने से रोकती है।
सिक्के का दूसरा पहलू है कि अहम् के भाव के बिना कोई प्रगति कर भी नहीं सकता। यहाँ ‘अहम्’ का संदर्भ अपने अस्तित्व के प्रति सचेत रहने, अपने पर विश्वास रखने से है। तथापि ‘अति सर्वत्र वर्ज्येत’, यहाँ भी लागू होता है। इस अहम् को विस्तार न दें, आकार न दें। यह ऐसा ही है जैसे थोड़ी सी आग से हाथ सेंककर ठंड दूर कर ली जाए या भोजन बना लिया जाए, पर आग यदि बढ़ जाए, अलाव दावानल में बदल जाए तो उसमें व्यक्ति स्वयं ही भस्मीभूत हो जाएगा। अहम् को आकार देना ही अहंकार है, इससे बचें।
फिर अहंकार भी किसलिए ! नीति कहती है कि हर मूल का मूल पहले से ही मौजूद है। सृष्टि में मौलिक कुछ भी नहीं है। जो बात हमने आज जानी, वह हम से पहले लाखों जानते थे, हमारे बाद करोड़ों जानेंगे। अपने ज्ञान की तुलना यदि हम अपने अज्ञान से करें तो कथित ज्ञान स्वयं ही लज्जित हो जाएगा, उसका आकार बहुत छोटा हो जाएगा, अतः आवश्यक है-अहंकार का निर्मूलन।
कबीर लिखते हैं-
जब मैं था तब हरि नाहिं, अब हरि हैं मैं नाहिं, प्रेम गली अति सांकरी, जामें दो न समाहिं।
अहंकार होगा तो हरि कैसे मिलेंगे, यदि हरि नहीं मिलेंगे तो अज्ञान का तम कौन हरेगा? मनुष्य के हाथ में कर्म तो है पर फल की निष्पत्ति उसके बस में नहीं।
समय के कुप्रबंधन के शिकार प्रायः कहते हैं, ‘आज इतना व्यस्त रहा कि भोजन के लिए समय ही नहीं रहा।’ अर्थात् सारी भाग-दौड़ के बाद भी उस दिन भोजन पाना या ना पाना उसके हाथ में नहीं है। ‘मैं’ की अति व्यक्ति को दृष्टिहीन-सा कर देती है। वह कर्म का नियंता और उपभोक्ता भी खुद को ही समझने लगता है।
किसी नगर में एक साधु आए। नगरसेठ ने मुनीम के हाथ उस दिन के भोजन का निमंत्रण भेजा। नगरसेठ के यहाँ काम करते-करते मुनीम की ज़बान पर अहंकार चढ़ गया था। जाकर साधु से कहा,”आपको आजका भोजन हमारे सेठ खिलायेंगेे।” साधु फक्कड़ था, कहा,”अपने सेठ से कहना आज तो तू खिला रहा है, कल कौन खिलायेगा?” मुनीम ने सारा किस्सा जाकर सेठ को सुनाया। सेठ बुद्धिमान और विनम्र था। सारी बात समझ गया। स्वयं साधु के पास पहुँचा और हाथ जोड़कर बोला,” महाराज कल जिसने खिलाया था, आज भी वही खिला रहा है और आनेवाले कल भी वही खिलायेगा। मुझे तो उसने आज के लिए निमित्त भर बनाया है।”
मनुष्य के लिए अपनी इस नैमित्तिक स्थिति को समझना ज़रूरी है। पथिक यदि यह मान ले कि वह नहीं चलेगा तो पगडंडी कहीं जाएगी ही नहीं, वहीं पड़ी रहेगी, तो इससे बड़ी नादानी कोई नहीं।
धन, प्रसिद्धि, रूप आदि का संचय व्यक्ति को बौरा देता है। लोग बटोरकर बड़ा होना चाहते हैं। विनम्रता से कहना चाहता हूँ, “बाँटकर देखो, जितना बाँटोगे, अहंकार घटेगा। जितना अहंकार घटेगा, उतना तुम्हारा कद बढ़ेगा।”… विश्वास न हो तो प्रयोग करके देख लो।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
आज की इस रफ्तार दुनिया मे हम सभी इतने खो से गए है कि हमे खुद का ख्याल तक नही। बस भाग ही भाग रहे है उस दिशा में जिसे हम ठीक से जानते तक नही। आखिर क्यों?
क्योंकि सभी भाग रहे है तो हम भी भाग रहे है कि कहीं हम पीछे ना रह जाएं,कहीं हमसे कुछ पीछे ना छूट जाए।
अरे!उसका क्या जो वास्तव में हमसे बहुत पीछे छूट गया जैसे हमारी यादें, जीवन के कीमत पल, संघर्ष, सुख-दुख के भाव और ना जाने ऐसे कितने लोग, जो कभी इस दुनिया मे लौट कर नही आएंगे।
उदासी सी छा जाती है, मन भावुक सा हो उठता है जब भी उन यादों ,उन पलों,उन व्यक्तियों के बारे में सोचती हूँ।कभी मन फूट -फूट कर रोने को करता है तो कभी मुस्कराने लग जाती हूँ।जब भी उन पलों को याद करती हूँ ,तो अहसास करती हूँ जैसे ज़िंदगी मे बहुत कुछ खो दिया है।
एक दिन अलमारी साफ करते वक्त मुझे पुरानी तस्वीरें, एक नोटबुक के अंदर चिपकी हुई मिली।क्योंकि उस वक्त ना मोबाइल और ना ही सेल्फी ।
लेकिन आज के समय मे हम प्रतिदिन स्वयं को बदलने की चेष्टा में रहते हैं।रोज़ स्टेटस बदलते है तो रोज़ सेल्फी के पात्र बदलते है।
मेरे मन मे बार बार यही ख्याल आता है कि क्या हमारी यादें समय के साथ बदल सकती है? नही ना,
नई यादें तो पुरानी यादों के साथ जुड़ जाती है लेकिन पुरानी यादें कभी समय मे घुलकर कभी खत्म नही होती।
ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरों का ये अदभुत एलबम रिश्तों को संजोकर रखता है।जब भी उन एलबम को खोलती हूँ तो यादों की ढेर सारी तितलियां मेरे आस- पास उड़ने लगती है।
आज का युग डिजिटल और रंगीन हो गया है।जब मर्ज़ी आयी एलबम से किसी को भी उड़ा दिया जाता है और किसी को भी जोड़ दिया जाता है।रिश्ते एवं अहसासों में यूँ मानो कि कृत्रिमता आ गयी है।
ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरों में नेचुरल / प्राकृतिक मुस्कराहट दिखाई देती थी ,लेकिन आज ज़माना रंगीन जरूर हो गया है,लेकिन चेहरे पर सिर्फ खोखली मुस्कराहट की छवि ही नज़र आती है।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख वक्त और उलझनें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 115 ☆
☆ वक्त और उलझनें ☆
‘वक्त भी कैसी पहेली दे गया/ उलझनें सौ और ज़िंदगी अकेली दे गया।’ रास्ते तो हर ओर होते हैं, परंतु यह आप पर निर्भर करता है कि आपको रास्ता पार करना है या इंतज़ार करना है, क्योंकि यह आपकी सोच पर निर्भर करता है। वैसे आजकल लोग समझते कम, समझाते अधिक हैं, तभी तो मामले सुलझते कम और उलझते अधिक हैं। जी हां! यही सत्य है ज़िंदगी का… ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ अर्थात् जीवन में सीख देने वाले, मार्गदर्शन करने वाले बहुत मिल जाएंगे, भले ही वे ख़ुद उन रास्तों से अनजान हों और उनके परिणामों से बेखबर हों। वैसे बावरा मन ख़ुद को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझता है और हताशा-निराशा की स्थिति में उन पर विश्वास कर लेता है; जो स्वयं अज्ञानी हैं और अधर में लटके हैं।
स्वर्ग-नरक की सीमाएं निर्धारित नहीं है। परंतु हमारे विचार व कार्य-व्यवहार ही स्वर्ग-नरक का निर्माण करते हैं। यह कथन कोटिश: सत्य है कि जैसी हमारी सोच होती है; वैसे हमारे विचार और कर्म होते हैं, जो हमारी सोच हमारे व्यवहार से परिलक्षित होते हैं; जिस पर निर्भर होती है हमारी ज़िंदगी; जिसका ताना-बाना भी हम स्वयं बुनते हैं। परंतु मनचाहा न होने पर दोषारोपण दूसरों पर करते हैं। यह मानव का स्वभाव है, क्योंकि वह सदैव यह सोचता है कि वह कभी ग़लती कर ही नहीं सकता, भले ही मानव को ग़लतियों का पुतला कहा गया है। इसलिए मानव को यह सीख दी जाती है कि यदि जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन और कुछ नहीं, हमारी सोच का ही साकार रूप है। इसके साथ ही महात्मा बुद्ध की यह सीख भी विचारणीय है कि आवश्यकता से अधिक सोचना अप्रसन्नता व दु:ख का कारण है। इसलिए मानव को व्यर्थ चिंतन व अनर्गल प्रलाप से बचना चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियां हानिकारक हैं; जो मानव को पतन की ओर ले जाती हैं। इसलिए आवश्यकता है आत्मविश्वास की, क्योंकि असंभव इस दुनिया में कुछ है ही नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और जो हमने आज तक सोचा ही नहीं। इसलिए लक्ष्य निर्धारित कीजिए; अपनी सोच ऊंची रखिए और आप सब कुछ कर गुज़रेंगे, जो कल्पनातीत था। जीवन में कोई रास्ता इतना लम्बा नहीं होता, जब आपकी संगति अच्छी हो अर्थात् हम गलियों से होकर ही सही रास्ते पर आते हैं। सो! मानव को कभी निराश नहीं होना चाहिए। ‘नर हो, न निराश करो मन को’ का संबंध है निरंतर गतिशीलता से है; थक-हार कर बीच राह से लौटने व पराजय स्वीकारने से नहीं, क्योंकि लौटने में जितना समय लगता है, उससे कम समय में आप अपनी मंज़िल तक पहुंच सकते हैं। सही रास्ते पर पहुंचने के लिए हमें असंख्य बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो संघर्ष द्वारा संभव है।
संघर्ष प्रकृति का आमंत्रण है; जो स्वीकारता है, आगे बढ़ता है। संघर्ष जीवन-प्रदाता है अर्थात् द्वन्द्व अथवा दो वस्तुओं के संघर्ष से तीसरी वस्तु का जन्म होता है; यही डार्विन का विकासवाद है। संसार में ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात् जीवन में वही सफलता प्राप्त कर सकता है, जो अपने हृदय में शंका अथवा पराजय के भाव को नहीं आने देता। इसलिए मन में कभी पराजय भाव को मत आने दो… यही प्रकृति का नियम है। रात के पश्चात् भोर होने पर सूर्य अपने तेज को कम नहीं होने देता; पूर्ण ऊर्जा से सृष्टि को रोशन करता है। इसलिए मानव को भी निराशा के पलों में अपने साहस व उत्साह को कम नहीं होने देना चाहिए, बल्कि धैर्य का दामन थामे पुन: प्रयास करना चाहिए, जब तक आप निश्चित् लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते। मानव में असंख्य संभावनाएं निहित हैं। आवश्यकता है, अपने अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचानने व संचित करने की। सो! निष्काम कर्म करते रहिए, मंज़िल बढ़कर आपका स्वागत-अभिवादन अवश्य करेगी।
वक्त पर ही छोड़ देने चाहिए, कुछ उलझनों के हल/ बेशक जवाब देर से मिलेंगे/ मगर लाजवाब मिलेंगे। वक्त सबसे बड़ा वैद्य है। समय के साथ गहरे से गहरे घाव भी भर जाते हैं। इसलिए मानव को संकट की घड़ी में हैरान-परेशान न होकर, समाधान हेतु सब कुछ सृष्टि-नियंंता पर छोड़ देना चाहिए, क्योंकि परमात्मा के घर देर है, अंधेर नहीं। उसकी अदालत में निर्णय देरी से तो हो सकते हैं, परंतु उलझनों के हल लाजवाब मिलते हैं, परमात्मा वही करता है, जिसमें हमारा हित होता है। ‘ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय/ कभी यह हंसाए, कभी यह रुलाए।’ इसे न तो कोई समझा है, न ही जान पाया है। इसलिए यह समझना आवश्यक हैरान कि इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। आप इस प्रकार जिएं कि आपको मर जाना है और इस प्रकार की सीखें कि आपको सदा जीवित रहना है। यही मर्म है जीवन का…मानव जीवन पानी के बुलबुले की भांति क्षण-भंगुर है।जो ‘देखत ही छिप जाएगा, ज्यों तारा प्रभात।’ सो! आप ऐसे मरें कि लोग आपको मरने के पश्चात् भी याद रखें। वैसे ‘Actions speak louder than words.’कर्म शब्दों से ऊंची आवाज़ में अपना परिचय देते हैं। सो!आप श्रेष्ठ कर्म करें कि लोग आपके मुरीद हो जाएं तथा आपका अनुकरण- अनुसरण करें।
श्रेठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। आप अपने संस्कारों से जाने जाते हैं और व्यवहार से श्रेष्ठ माने जाते हैं। अपनी सोच अच्छी व सकारात्मक रखें, क्योंकि नज़र का इलाज तो संभव है; नज़रिए का नहीं। सो! मानव का दृष्टिकोण व नज़रिया बदलना संभव नहीं है। शायद! इसलिए कहा जाता है कि मानव की आदतें जीते जी नहीं बदलती, चिता की अग्नि में जलने के पश्चात् ही बदल सकती हैं। इसलिए उम्मीद सदैव अपने से कीजिए; दूसरों से नहीं, क्योंकि इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो दूसरों से की जाती हैं। इसलिए मुसीबत के समय इधर-उधर नहीं झांकें; आत्मविश्वास प्यार व धैर्य बनाए रखें; मंज़िल आपका बाहें फैलाकर अभिनंदन करेगी। जीवन में लोगों की संगति कीजिए, जो बिना स्वार्थ व उम्मीद के आपके लिए मंगल कामना करते हैं। वास्तव में उन्हें क्षआपकी परवाह होती है और वे आपका हृदय से सम्मान करते हैं।
सो! जिसके साथ बात करने से खुशी दोगुनी व दु:ख आधा हो जाए, वही अपना है। ऐसे लोगों को जीवन में स्थान दीजिए, इससे आपका मान-सम्मान बढ़ेगा और दु:खों के भंवर से मुक्ति पाने में भी आप समर्थ होंगे। यदि सपने सच नहीं हो रहे हैं, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं; जड़ें नहीं। सो! अपना निश्चय दृढ़ रखो और अन्य विकल्प की ओर ध्यान दो। यदि मित्र आपको पथ-विचलित कर रहे हैं, तो उन्हें त्याग दीजिए, अन्यथा वे दीमक की भांति आप की जड़ों को खोखला कर देंगे और आपका जीवन तहस-नहस हो जाएगा। सो! ऐसे लोगों से मित्रता बनाए रखें, जो दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखने का हुनर जानते हैं। वे न कभी दु:खी होते हैं; न ही दूसरे को संकट में डाल कर सुक़ून पाते हैं। निर्णय लेने से पहले शांत मन से चिंतन-मनन कीजिए, क्योंकि आपकी आत्मा जानती है कि आपके लिए क्या उचित व श्रेयस्कर है। सो! उसकी बात मानिए तथा स्वयं को ज़रूरत से ज़्यादा व्यस्त रखिए। आप मानसिक तनाव से मुक्त रहेंगे। व्यर्थ का कचरा अपने मनोमस्तिष्क में मत भरिए, क्योंकि वह अवसाद का कारण होता है।
दुनिया का सबसे कठिन कार्य होता है–स्वयं को पढ़ना, परंतु प्रयास कीजिए। अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें समझना सुगम नहीं, अत्यंत दुष्कर होता है। इसके लिए आपको एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है ‘बुरी संगति से अकेला भला।’ दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि पुस्तकें इंसान की सबसे अच्छे मित्र होती हैं; कभी ग़लत राह नहीं दर्शाती। ख्याल रखने वालों को ढूंढना पड़ता है; इस्तेमाल करने वाले तो ख़ुद ही आपको ढूंढ लेते हैं।
दुनिया एक रंगमंच है, जहां सभी अपना-अपना क़िरदार अदा कर चले जाते हैं। शेक्सपीयर की यह उक्ति ध्यातव्य है कि इस संसार में हर व्यक्ति विश्वास योग्य नहीं होता। इसलिए उन्हें ढूंढिए, जो मुखौटाधारी नहीं हैं, क्योंकि समयानुसार दूसरों का शोषण करने वाले, लाभ उठाने वाले अथवा इस्तेमाल करने वाले तो आपको तलाश ही लेंगे… उनसे दूरी बनाए रखें; उनसे सावधान रहें तथा ऐसे दोस्त तलाशें…धोखा देना जिनकी फ़ितरत न हो।
अकेलापन संसार में सबसे बड़ी सज़ा है और एकांत सबसे बड़ा वरदान। एकांत की प्राप्ति तो मानव को सौभाग्य से प्राप्त होती है, क्योंकि लोग अकेलेपन को जीवन का श्राप समझते हैं, जबकि यह तो एक वरदान है। अकेलेपन में मानव की स्थिति विकृत होती है। वह तो चिन्ता व मानसिक तनाव में रहता है। परंतु एकांत में मानव अलौकिक आनंद में विचरण करता रहता है। इस स्थिति को प्राप्त करने के निमित्त वर्षों की साधना अपेक्षित है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो मानव को सबसे अलग-अलग कर देता है और वह तनाव की स्थिति में पहुंच जाता है। इसके लिए दोषी वह स्वयं होता है, क्योंकि वह ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ ही नहीं, सर्वोत्तम समझता है और दूसरों के अस्तित्व को नकारना उसका स्वभाव बन जाता है। ‘ घमंड मत कर दोस्त/ सुना ही होगा/ अंगारे भी राख बढ़ाते हैं।’ मानव मिट्टी से जन्मा है और मिट्टी में ही उसे मिल जाना है। अहं दहकते अंगारों की भांति है, जो मानव को उसके व्यवहार के कारण अर्श से फ़र्श पर ले आता है, क्योंकि अंत में उसे भी राख ही हो जाना है। सृष्टि के हर जीव व उपादान का मूल मिट्टी है और अंत भी वही है अर्थात् जो मिला है, उसे यहीं पर छोड़ जाना है। इसलिए ज़िंदगी को सुहाना सफ़र जान कर हरपल को जीएं; उत्सव-सम मनाएं। इसे दु:खों का सागर मत स्वीकारें, क्योंकि वक्त निरंतर परिवर्तनशील है अर्थात् कल क्या हो, किसने जाना। सो कल की चिन्ता में आज को खराब मत करें। कल कभी आयेगा नहीं और आज कभी जायेगा नहीं अर्थात् भविष्य की ख़ातिर वर्तमान को नष्ट मत करें। सो! आज का सम्मान करें; उसे सुखद बनाएं…शांत भाव से समस्याओं का समाधान करें। समय, विश्वास व सम्मान वे पक्षी हैं, जो उड़ जाएं, तो लौट कर नहीं आते। सो! वर्तमान का अभिनंदन-अभिवादन कीजिए, ताकि ज़िंदगी भरपूर खुशी व आनंद से गुज़र सके।
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय एवं सार्थक आलेख “योग-विज्ञान की जीवन में उपादेयता”।)
☆ किसलय की कलम से # 66 ☆
☆ योग-विज्ञान की जीवन में उपादेयता ☆
ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव जी सर्वप्रथम योग का ज्ञान देकर आदि गुरु बने थे। इसी योग को धारण कर भगवान श्री कृष्ण महायोगेश्वर कहलाए। हमारे ऋषि-मुनियों व पूर्वजों ने निश्चित रूप से योग को व्यापक बनाया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार योग मन के नकारात्मक अतिरेक को कम करने का विशिष्ट विज्ञान है। योग के व्यापक गुणों की मीमांसा तथा व्याख्या से इन्होंने ही हमें अवगत कराया। कालांतर में योग-विज्ञान पर विविध ग्रंथ भी लिखे गए। वैदिक काल में योग-विज्ञान की एक प्रमुख क्रिया को सूर्य-उपासक आर्यों ने सूर्य नमस्कार का नाम दिया। शनैः-शनैः योग-विज्ञान का प्रचार-प्रसार आर्यावर्त की सीमाओं को पार कर गया। जब योग विज्ञान अपने जनक-देश भारत से पूरे विश्व का भ्रमण करते हुए पुनः भारत में ‘योगा’ बनकर लौटा, तब हमें आभास हुआ कि योग का क्या महत्त्व है।
वर्तमान में भारत के विख्यात योगगुरु बाबा रामदेव ने इस अद्भुत एवं चमत्कारिक योग-विज्ञान को देश के जन-जन तक पहुँचाया। आज विश्वव्यापी होने के कारण ही ‘अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’ प्रतिवर्ष दिनांक 21 जून को संपूर्ण विश्व में मनाया जाने लगा है। मुख्यतः हमारे द्वारा शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्रियाओं व अभ्यासों को योग के रूप में मान्यता प्राप्त है। ‘युज’ शब्द जिसका अर्थ ‘योग’ अथवा जोड़ होता है। शरीर और अंतस के जुड़ाव की व्यापक धारणा को ध्यान में रखकर ही इस योग को महत्ता प्राप्त हुई है। योग धर्म, संप्रदाय, लिंग, आयु आदि से ऊपर उठकर ‘सर्वजन हिताय’ है। मानव को पथच्युत होने से बचाने वाला योग, जीवन को श्रेष्ठता प्रदान करने की एक विधि है। जीवन में आए तनाव तथा मनोविकारों को दूर करने में योग क्रियाएँ आश्चर्यजनक तथा चमत्कारिक परिणाम देती हैं।
योग कोई धर्म नहीं है। अनेक प्रबुद्ध जन इसे योग कला भी कहते हैं। योग एक ऐसा विज्ञान है जो हमें सदैव स्वस्थ जीवन प्रदान करता है। मानसिक शांति दिलाने तथा विभिन्न बीमारियों को दूर करता है। योग में श्वास का विशेष महत्त्व होता है, जिसे हर उम्र का व्यक्ति कर सकता है। योग प्रमुखतः चार अंगों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम ‘कर्म-योग’ है, जो वस्तुतः अच्छे और बुरे कर्म पर आधारित है, क्योंकि अच्छे विचार हमें मानवोचित संस्कारों की ओर ले जाते हैं तथा बुरे विचार सदैव दुख पहुँचाते हैं। यही दुख मानव जीवन को कठिनाई में डालते हैं। कर्म-योग अच्छे कर्म के माध्यम से अंतस में अच्छे विचारों का बीजारोपण करते हैं। द्वितीय क्रम में ‘ज्ञान-योग’ आता है जो हमारे मन एवं हमारी भावनाओं को सकारात्मक दिशा में ले जाने हेतु सक्षम होता है। ज्ञान-योग हमें जीवन की वास्तविकता के निकट ले जाता है। मानवता का पाठ पढ़ाता है। सद्भावना, त्याग एवं समर्पण के भाव में बढ़ोतरी करता है। तीसरे क्रम में ‘भक्ति-योग’ है, जिसमें मानव अपने इष्ट की स्तुति, प्रार्थना, जप आदि के माध्यम से हृदय की वैचारिक विकृतियों को दूर करता है। चतुर्थ क्रम में ‘क्रिया-योग’ है, जिसमें आसनों व श्वासोच्छ्वास से शरीर के आंतरिक अंगों को स्वस्थ बनाए जाने के साथ-साथ ऑक्सीजन की ग्राह्यता भी बढ़ाई जाती है।
आज आधुनिक विज्ञान द्वारा भी योग विज्ञान को मान्यता प्राप्त है। देखा गया है कि नियमित योग-विज्ञान की क्रियाओं व मुद्राओं से चिंता, शारीरिक सूजन, हृदय की अस्वस्थता, लचीलापन, पाचन शक्ति, शारीरिक ऊर्जा, निद्रा, शारीरिक दर्द आदि से मुक्ति तो मिलती ही है, साथ ही खुशहाल जीवन भी जिया जा सकता है। योग मन को एकाग्र करने की एक विधि भी कही जा सकती है। साँसों के व्यायाम व ध्यान से तन और मन की शुद्धि तो होती है, इसे नियमित करते रहने से मानव दवाईयाँ सेवन करने से भी बचता है, क्योंकि दवाईयाँ तो किसी न किसी रूप में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती ही हैं। योग हमारे मन में सकारात्मकता लाता है। शरीर में पाए जाने वाले हानिकारक अपशिष्टों को बाहर करता है। अवांछित वजन भी योग से कम किया जा सकता है। शरीर की नसों तथा सभी अंगों तक रक्त संचार बढ़ता है, जिससे त्वचा की कांति में वृद्धि होती है। वायु-विकार एवं मधुमेह भी नियंत्रित रहता है। अवसाद से उबरने में भी योग-विज्ञान सहायक होता है। सिर दर्द, गर्दन दर्द, पीठ दर्द व अनेक बीमारियों की चिकित्सा के रूप में भी योग प्रभावी प्रभावी है।
आज के भागमभाग जीवन में योग-विज्ञान की उपादेयता अत्यंत बढ़ गई है। प्रतिदिन लगभग आधा घंटे के योग से आपका जीवन हमेशा स्वस्थ बना रह सकता है। यही कारण है कि योग के चमत्कारिक परिणामों को देखते हुए व्यक्तिगत, सामाजिक एवं शासकीय स्तर पर भी योग विज्ञान के प्रचार-प्रसार के साथ ही योग-मुद्राओं, आसनों व योग क्रियाओं को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। आइए, हम आज से ही योग-विज्ञान को नियमित रूप से प्रयोग करने का संकल्प लें और ‘सर्वे संतु निरामया’ सूत्र को चरितार्थ करें।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा लिखित एक विचारणीय आलेख ‘पानी व सम्प्रेषण की नाट्य कला’। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
प्रसंगवश, ई- अभिव्यक्ति में प्रकाशित महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, मुंबई के आयोजन नुक्कड़ नाटक “जल है तो कल है” का उल्लेख करना चाहूंगा। इस नाटक के लेखक श्री संजय भारद्वाज, अध्यक्ष, हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे हैं। आप इसे निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं >>
पानी भविष्य की एक बड़ी वैश्विक चुनौती है. पिछली शताब्दि में विश्व की जनसंख्या तीन गुनी हो गई है, जबकि पानी की खपत सात गुणित बढ़ चुकी है. जलवायु परिवर्तन और जनसांख्यकीय वृद्धि के कारण जलस्त्रोतो पर जल दोहन का असाधारण दबाव बना है.
बारम्बार बादलो के फटने और अति वर्षा से जल निकासी के मार्ग तटबंध तोड़कर बहते हैं, बाढ़ के हालात बनते हैं. समुद्र के जल स्तर में वृद्धि से आवासीय भूमि कम होती जा रही है और इसके विपरीत पेय जल की कमी से वैश्विक रुप से लोगो के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है.विश्व की बड़ी आबादी के लिये पीने के स्वच्छ पानी तक की कमी है.
वैज्ञानिक तकनीकी समाधानो के लिये अनुसंधान कर रहे हैं. विशेषज्ञ बताते हैं कि जल आपदा से बचने हेतु हमें अपने आचरण बदलने चाहिये, जल उपयोग में मितव्ययता बरतनी चाहिये.
किन्तु वास्तव में हम किस दिशा की ओर अग्रसर हैं?
थियेटर ही वह समुचित मीडिया है जो दर्शको को भावनात्मक और मानसिक रूप से एक समग्र अनुभव देते हुये, मानव जाति और उसके पूर्वजो की अनुष्ठानिक पृष्ठभूमि और सांकेतिकता के साथ उनकी विविधता किन्तु पानी के साथ एक सार्वभौमिक सम्बंध का सही परिचय करवा सकता है. इस तरह हमारी विविध सांस्कृतिक समानताओ को ध्यान में रखते हुये दुनिया को देखने और बेहतर समझने का बड़ा दायरा इस प्रदर्शन का सांस्कृतिक तत्व होगा.
(ई- अभिव्यक्ति में श्री राकेश कुमार जी का स्वागत है। भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”
आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से अतीत और वर्तमान को जोड़ता हुआ एक आलेख – “बूट पालिश”.)
☆ आलेख ☆ बूट पालिश ☆ श्री राकेश कुमार ☆
पच्चास के दशक में फिल्मी दुनिया के सबसे बड़े शोमैन राजकपूर साहब ने इसी नाम से फिल्म का निर्माण किया था। गरीब परिवार के लड़के इस सेवा से धनोपार्जन कर जीवनयापन करते हैं, ऐसा हमारी फिल्मों में दिखाया जाता है। आज कल तो गायन या नृत्य के अनेक टीवी प्रतियोगी भी बूट पालिश के बैक ग्राउंड से आते हैं। ऐसा बताने से जनता की सहानभूति भी वोटों में परिवर्तित हो जाती है। सदी के महानायक ने भी एक फिल्म यही कार्य करते हुए जमीन पर फेंके हुए पैसे उठाने से मना कर दिया था, वो डायलॉग आज भी लोगों की जुबां पर रहता है।
ऐसा कहा जाता है कि किसी भी व्यक्ति का सबसे पहला प्रभाव उसके जूतों से ही पड़ता है। साठ के दशक में “बिल्ली” नाम की शू पालिश चला करती थी। ब्लैक और ब्राउन दो रंग होते थे। हमारे देश में अंग्रेज अपने साथ इसे लाए थे। बाद में क्रीम पालिश भी आ गई थी। हमारे जैसे जिन्होंने शीत ऋतु में भी चेहरे पर सरसों के तेल लगा कर जीवन काट लिया हो, वो क्या जाने जूते वाली क्रीम के बारे में ?
रेलवे स्टेशन और प्रमुख बाजारों में पालिश करने वाले क्रमबद्ध बैठ कर पालिश पालिश पुकार कर ग्राहकों को आकर्षित करते थे। शादी के कार्यक्रम में भी इनकी सेवाएं ली जाती थी। दक्षिण मुम्बई के चर्चगेट लोकल स्टेशन पर आज भी पालिश वाले अपने बक्से पर ब्रश स ठक-ठक कि आवाज़ से जनमानस को अपनी और आकर्षित करने में सक्षम हैं। विगत कुछ वर्षों से बूट पालिश में चेरी ब्लॉसम नामक ब्रांड ही चल रहा है।
परिवर्तन के दौर से बूट पालिश भी अछूता नहीं है। विगत तीन दशकों से कपड़े (स्पोर्ट्स) और रबर के जूते प्रचलन में आ जाने से इसके उपयोग में भी कमी आ गई है। लेकिन वर्दीधारी सेवा में इसका उपयोग यथावत जारी है। कुछ समय पूर्व तरल पालिश को भी अजमाया गया था, जिसका उपयोग सरल है। लेकिन ये भी उपभोक्ता पर पकड़ नहीं बना सकी। कुछ बड़े होटलों, अतिथि ग्रहों में बूट पालिश की मशीन लग जाने से इस रोज़गार में कार्यरत लोगों के लिए कठिनाइयां हो गई है।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 120 ☆ भोर भई ☆
मैं फुटपाथ पर चल रहा हूँ। बायीं ओर फुटपाथ के साथ-साथ महाविद्यालय की दीवार चल रही है तो दाहिनी ओर सड़क सरपट दौड़ रही है। महाविद्यालय की सीमा में लम्बे-बड़े वृक्ष हैं। कुछ वृक्षों का एक हिस्सा दीवार फांदकर फुटपाथ के ऊपर भी आ रहा है। परहित का विचार करनेवाले यों भी सीमाओं में बंधकर कब अपना काम करते हैं!
अपने विचारों में खोया चला जा रहा हूँ। अकस्मात देखता हूँ कि आँख से लगभग दस फीट आगे, सिर पर छाया करते किसी वृक्ष का एक पत्ता झर रहा है। सड़क पर धूप है जबकि फुटपाथ पर छाया। झरता हुआ पत्ता किसी दक्ष नृत्यांगना के पदलालित्य-सा थिरकता हुआ नीचे आ रहा है। आश्चर्य! वह अकेला नहीं है। उसकी छाया भी उसके साथ निरंतर नृत्य करती उतर रही है। एक लय, एक ताल, एक यति के साथ दो की गति। जीवन में पहली बार प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों सामने हैं। गंतव्य तो निश्चित है पर पल-पल बदलता मार्ग अनिश्चितता उत्पन्न रहा है। संत कबीर ने लिखा है, ‘जैसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला। न जानूँ किधर गिरेगा,लग्या पवन का रेला।’
इहलोक के रेले में आत्मा और देह का सम्बंध भी प्रत्यक्ष और परोक्ष जैसा ही है। विज्ञान कहता है, जो दिख रहा है, वही घट रहा है। ज्ञान कहता है, दृष्टि सम्यक हो तो जो घटता है, वही दिखता है। देखता हूँ कि पत्ते से पहले उसकी छाया ओझल हो गई है। पत्ता अब धूल में पड़ा, धूल हो रहा है।
अगले 365 दिन यदि इहलोक में निवास बना रहा एवं देह और आत्मा के परस्पर संबंध पर मंथन हो सका तो ग्रेगोरियन कैलेंडर का कल से आरम्भ हुआ यह वर्ष शायद कुछ उपयोगी सिद्ध हो सके।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख आज ज़िंदगी : कल उम्मीद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 114 ☆
☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद ☆
‘ज़िंदगी वही है, जो हम आज जी लें। कल जो जीएंगे, वह उम्मीद होगी’ में निहित है… जीने का अंदाज़ अर्थात् ‘वर्तमान में जीने का सार्थक संदेश’ …क्योंकि आज सत्य है, हक़ीकत है और कल उम्मीद है, कल्पना है, स्वप्न है; जो संभावना-युक्त है। इसीलिए कहा गया है कि ‘आज का काम कल पर मत छोड़ो,’ क्योंकि ‘आज कभी जायेगा नहीं, कल कभी आयेगा नहीं।’ सो! वर्तमान श्रेष्ठ है; आज में जीना सीख लीजिए अर्थात् कल अथवा भविष्य के स्वप्न संजोने का कोई महत्व व प्रयोजन नहीं तथा वह कारग़र व उपयोगी भी नहीं है। इसलिए ‘जो भी है, बस यही एक पल है, कर ले पूरी आरज़ू’ अर्थात् भविष्य अनिश्चित है। कल क्या होगा… कोई नहीं जानता। कल की उम्मीद में अपना आज अर्थात् वर्तमान नष्ट मत कीजिए। उम्मीद पूरी न होने पर मानव केवल हैरान-परेशान ही नहीं; हताश भी हो जाता है, जिसका परिणाम सदैव निराशाजनक होता है।
हां! यदि हम इसके दूसरे पहलू पर प्रकाश डालें, तो मानव को आशा का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यह वह जुनून है, जिसके बल पर वह कठिन से कठिन अर्थात् असंभव कार्य भी कर गुज़रता है। उम्मीद भविष्य में फलित होने वाली कामना है, आकांक्षा है, स्वप्न है; जिसे साकार करने के लिए मानव को निरंतर अनथक परिश्रम करना चाहिए। परिश्रम सफलता की कुंजी है तथा निराशा मानव की सफलता की राह में अवरोध उत्पन्न करती है। सो! मानव को निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए और उसका जीवन में प्रवेश निषिद्ध होना चाहिए। इच्छा, आशा, आकांक्षा…उल्लास है, उमंग है, जीने की तरंग है– एक सिलसिला है ज़िंदगी का; जो हमारा पथ-प्रदर्शन करता है, हमारे जीवन को ऊर्जस्वित करता है…राह को कंटक-विहीन बनाता है…वह सार्थक है, सकारात्मक है और हर परिस्थिति में अनुकरणीय है।
‘जीवन में जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं। सो! हम वह करते हैं, जो हम चाहते हैं। परंतु होता वही है, जो परमात्मा चाहता है अथवा मंज़ूरे-ख़ुदा होता है।’ फिर भी मानव सदैव जीवन में अपना इच्छित फल पाने के लिए प्रयासरत रहता है। यदि वह प्रभु में आस्था व विश्वास नहीं रखता, तो तनाव की स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यदि वह आत्म-संतुष्ट व भविष्य के प्रति आश्वस्त रहता है, तो उसे कभी भी निराशा रूपी सागर में अवग़ाहन नहीं करना पड़ता। परंतु यदि वह भीषण, विपरीत व विषम परिस्थितियों में भी उसके अप्रत्याशित परिणामों से समझौता नहीं करता, तो वह अवसाद की स्थिति को प्राप्त हो जाता है… जहां उसे सब अजनबी-सम अर्थात् बेग़ाने ही नहीं, शत्रु नज़र आते हैं। इसके विपरीत जब वह उस परिणाम को प्रभु-प्रसाद समझ, मस्तक पर धारण कर हृदय से लगा लेता है; तो चिंता, तनाव, दु:ख आदि उसके निकट भी नहीं आ सकते। वह निश्चिंत व उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर करता है और सदैव अलौकिक आनंद की स्थिति में रहता है…अर्थात् अपेक्षा के भाव से मुक्त, आत्मलीन व आत्म-मुग्ध।
हां! ऐसा व्यक्ति किसी के प्रति उपेक्षा भाव नहीं रखता … सदैव प्रसन्न व आत्म-संतुष्ट रहता है, उसे जीवन में कोई भी अभाव नहीं खलता और उस संतोषी जीव का सानिध्य हर व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है। उसकी ‘औरा’ दूसरों को खूब प्रभावित व प्रेरित करती है। इसलिए व्यक्ति को सदैव निष्काम कर्म करने चाहिए, क्योंकि फल तो हमारे हाथ में है नहीं। ‘जब परिणाम प्रभु के हाथ में है, तो कल व फल की चिंता क्यों?
वह सृष्टि-नियंता तो हमारे भूत-भविष्य, हित- अहित, खुशी-ग़म व लाभ-हानि के बारे में हमसे बेहतर जानता है। चिंता चिता समान है तथा चिंता व कायरता में विशेष अंतर नहीं अर्थात् कायरता का दूसरा नाम ही चिंता है। यह वह मार्ग है, जो मानव को मृत्यु के मार्ग तक सुविधा-पूर्वक ले जाता है। ऐसा व्यक्ति सदैव उधेड़बुन में मग्न रहता है…विभिन्न प्रकार की संभावनाओं व कल्पनाओं में खोया, सपनों के महल बनाता-तोड़ता रहता है और वह चिंता रूपी दलदल से लाख चाहने पर भी निज़ात नहीं पा सकता। दूसरे शब्दों में वह स्थिति चक्रव्यूह के समान है; जिसे भेदना मानव के वश की बात नहीं। इसलिए कहा गया है कि ‘आप अपने नेत्रों का प्रयोग संभावनाएं तलाशने के लिए करें; समस्याओं का चिंतन-मनन करने के लिए नहीं, क्योंकि समस्याएं तो बिन बुलाए मेहमान की भांति किसी पल भी दस्तक दे सकती हैं।’ सो! उन्हें दूर से सलाम कीजिए, अन्यथा वे ऊन के उलझे धागों की भांति आपको भी उलझा कर अथवा भंवर में फंसा कर रख देंगी और आप उन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए छटपटाते व संभावनाओं को तलाशते रह जायेंगे।
सो! समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए संभावनाओं की दरक़ार है। हर समस्या के समाधान के केवल दो विकल्प ही नहीं होते… अन्य विकल्पों पर दृष्टिपात करने व अपनाने से समाधान अवश्य निकल आता है और आप चिंता-मुक्त हो जाते हैं। चिंता को कायरता का पर्यायवाची कहना भी उचित है, क्योंकि कायर व्यक्ति केवल चिंता करता है, जिससे उसके सोचने-समझने की शक्ति कुंठित हो जाती है तथा उसकी बुद्धि पर ज़ंग लग जाता है। इस मनोदशा में वह उचित निर्णय लेने की स्थिति में न होने के कारण ग़लत निर्णय ले बैठता है। सो! वह दूसरे की सलाह मानने को भी तत्पर नहीं होता, क्योंकि सब उसे शत्रु-सम भासते हैं। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है तथा किसी अन्य पर विश्वास नहीं करता। ऐसा व्यक्ति पूरे परिवार व समाज के लिए मुसीबत बन जाता है और गुस्सा हर पल उसकी नाक पर धरा रहता है। उस पर किसी की बातों का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वह सदैव अपनी बात को उचित स्वीकार कारग़र सिद्ध करने में प्रयासरत रहता है।
‘दुनिया की सबसे अच्छी किताब हम स्वयं हैं… ख़ुद को समझ लीजिए; सब समस्याओं का अंत स्वत: हो जाएगा।’ ऐसा व्यक्ति दूसरे की बातों व नसीहतों को अनुपयोगी व अनर्गल प्रलाप तथा अपने निर्णय को सर्वदा उचित उपयोगी व श्रेष्ठ ठहराता है। वह इस तथ्य को स्वीकारने को कभी भी तत्पर नहीं होता कि दुनिया में सबसे अच्छा है–आत्मावलोकन करना; अपने अंतर्मन में झांक कर आत्मदोष-दर्शन व उनसे मुक्ति पाने के प्रयास करना तथा इन्हें जीवन में धारण करने से मानव का आत्म-साक्षात्कार हो जाता है और तदुपरांत दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: शमन हो जाता है; हृदय सात्विक हो जाता है और उसे पूरे विश्व में चहुं और अच्छा ही अच्छा दिखाई पड़ने लगता है… ईर्ष्या-द्वेष आदि भाव उससे कोसों दूर जाकर पनाह पाते हैं। उस स्थिति में हम सबके तथा सब हमारे नज़र आने लगते हैं।
इस संदर्भ में हमें इस तथ्य को समझना व इस संदेश को आत्मसात् करना होगा कि ‘छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान को … जिसके लिए सुनना व सीखना अत्यंत आवश्यक है।’ यदि आपने सहना सीख लिया, तो रहना भी सीख जाओगे। जीवन में सब्र व सच्चाई ऐसी सवारी हैं, जो अपने शह सवार को कभी भी गिरने नहीं देती… न किसी की नज़रों में, न ही किसी के कदमों में। सो! मौन रहने का अभ्यास कीजिए तथा तुरंत प्रतिक्रिया देने की बुरी आदत को त्याग दीजिए। इसलिए सहनशील बनिए; सब्र स्वत: प्रकट हो जाएगा तथा सहनशीलता के जीवन में पदार्पण होते ही आपके कदम सत्य की राह की ओर बढ़ने लगेंगे। सत्य की राह सदैव कल्याणकारी होती है तथा उससे सबका मंगल ही मंगल होता है। सत्यवादी व्यक्ति सदैव आत्म-विश्वासी तथा दृढ़-प्रतिज्ञ होता है और उसे कभी भी, किसी के सम्मुख झुकना नहीं पड़ता। वह कर्त्तव्यनिष्ठ और आत्मनिर्भर होता है और प्रत्येक कार्य को श्रेष्ठता से अंजाम देकर सदैव सफलता ही अर्जित करता है।
‘कोहरे से ढकी भोर में, जब कोई रास्ता दिखाई न दे रहा हो, तो बहुत दूर देखने की कोशिश करना व्यर्थ है।’ धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाते चलो; रास्ता खुलता चला जाएगा’ अर्थात् जब जीवन में अंधकार के घने काले बादल छा जाएं और मानव निराशा के कुहासे से घिर जाए; उस स्थिति में एक-एक कदम बढ़ाना कारग़र है। उस विकट परिस्थिति में आपके कदम लड़खड़ा अथवा डगमगा तो सकते हैं; परंतु आप गिर नहीं सकते। सो! निरंतर आगे बढ़ते रहिए…एक दिन मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपका स्वागत अवश्य करेगी। हां! एक शर्त है कि आपको थक-हार कर बैठना नहीं है। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वामी विवेकानंद जी की पंक्तियां…’उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक तुम्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।’ यह पंक्तियां पूर्णत: सार्थक व अनुकरणीय हैं। यहां मैं उनके एक अन्य प्रेरक प्रसंग पर प्रकाश डालना चाहूंगी – ‘एक विचार लें। उसे अपने जीवन में धारण करें; उसके बारे में सोचें, सपना देखें तथा उस विचार पर ही नज़र रखें। मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों व आपके शरीर के हर हिस्से को उस विचार से भरे रखें और अन्य हर विचार को छोड़ दें… सफलता प्राप्ति का यही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।’ सो! उनका एक-एक शब्द प्रेरणास्पद होता है, जो मानव को ऊर्जस्वित करता है और जो भी इस राह का अनुसरण करता है; उसका सफल होना नि:संदेह नि:शंक है; निश्चित है; अवश्यंभावी है।
हां! आवश्यकता है—वर्तमान में जीने की, क्योंकि वर्तमान में किया गया हर प्रयास हमारे भविष्य का निर्माता है। जितनी लगन व निष्ठा के साथ आप अपना कार्य संपन्न करते हैं; पूर्ण तल्लीनता व पुरुषार्थ से प्रवेश कर आकंठ डूब जाते हैं तथा अपने मनोमस्तिष्क में किसी दूसरे विचार के प्रवेश को निषिद्ध रखते हैं; आपका अपनी मंज़िल पर परचम लहराना निश्चित हो जाता है। इस तथ्य से तो आप सब भली-भांति अवगत होंगे कि ‘क़ाबिले तारीफ़’ होने के लिए ‘वाकिफ़-ए-तकलीफ़’ होना पड़ता है। जिस दिन आप निश्चय कर लेते हैं कि आप विषम परिस्थितियों में किसी के सम्मुख पराजय स्वीकार नहीं करेंगे और अंतिम सांस तक प्रयासरत रहेंगे; तो मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपकी प्रतीक्षा करती है, क्योंकि यही है… सफलता प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग। परंतु विपत्ति में अपना सहारा ख़ुद न बनना व दूसरों से सहायता की अपेक्षा करना, करुणा की भीख मांगने के समान है। सो! विपत्ति में अपना सहारा स्वयं बनना श्रेयस्कर है और दूसरों से सहायता व सहयोग की उम्मीद रखना स्वयं को छलना है, क्योंकि वह व्यर्थ की आस बंधाता है। यदि आप दूसरों पर विश्वास करके अपनी राह से भटक जाते हैं और अपनी आंतरिक शक्ति व ऊर्जा पर भरोसा करना छोड़ देते हैं, तो आपको असफलता को स्वीकारना ही पड़ता है। उस स्थिति में आपके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य कोई भी विकल्प शेष रहता ही नहीं।
सो! दूसरों से अपेक्षा करना महान् मूर्खता है, क्योंकि सच्चे मित्र बहुत कम होते हैं। अक्सर लोग विभिन्न सीढ़ियों का उपयोग करते हैं… कोई प्रशंसा रूपी शस्त्र से प्रहार करता है, तो अन्य निंदक बन आपको पथ-विचलित करता है। दोनों स्थितियां कष्टकर हैं और उनमें हानि भी केवल आपकी होती है। सो! स्थितप्रज्ञ बनिए; व्यर्थ के प्रशंसा रूपी प्रलोभनों में मत भटकिए और निंदा से विचलित मत होइए। इसलिये ‘प्रशंसा में अटकिए मत और निंदा से भटकिए मत।’ सो! हर परिस्थिति में सम रहना मानव के लिए श्रेयस्कर है। आत्मविश्वास व दृढ़-संकल्प रूपी बैसाखियों से आपदाओं का सामना करने व अदम्य साहस जुटाने पर ही सफलता आपके सम्मुख सदैव नत-मस्तक रहेगी। सो! ‘आज ज़िंदगी है और कल अर्थात् भविष्य उम्मीद है… जो अनिश्चित है; जिसमें सफलता-असफलता दोनों भाव निहित हैं।’ सो! यह आप पर निर्भर करता है कि आपको किस राह पर अग्रसर होना चाहते हैं।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण ☆ दैनिक ट्रिब्यून के पूर्व संपादक राधेश्याम शर्मा को याद करते हुए ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
मैं नवांशहर में दैनिक ट्रिब्यून का पार्ट टाइम रिपोर्टर था सन् 1978 से । हमारी बेटी रश्मि के स्कूल आदर्श बाल विद्यालय के प्रिंसिपल धर्मप्रकाश दत्ता ने सलाह मांगी कि किसे वार्षिक उत्सव के लिए बुलाएं । मैंने कहा कि हमारे संपादक राधेश्याम शर्मा जी को बुला लीजिए । वे मेरे साथ पंचकूला श्री राधेश्याम शर्मा के घर न्यौता देने गये । वे सहर्ष मान गये । पति पत्नी दोनों आए । समारोह के बाद जब चलने लगे तो मुझे कहने लगे कि -अच्छी रिपोर्ट भेजना लेकिन मेरा उल्लेख नाममात्र ही करना । हमारा उद्देश्य स्वप्रचार नहीं होना चाहिए । यह बहुत बड़ी सीख थी मेरे लिए । आज तक स्मरण है और अपनाई है । जब चंडीगढ़ में दैनिक ट्रिब्यून का पहली मार्च , 1990 को उपसंपादक बना तब पंजाब विश्वविद्यालय के एक समारोह के बाद उन्होंने डाॅ इंदु बाली को बड़े गर्व से कहा था कि कमलेश को हम लेकर आए हैं दैनिक ट्रिब्यून में । मेरा सिर सम्मान से झुक गया था ।
मैं उनके संपादन में मात्र छह माह ही काम कर पाया जब वे भोपाल माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति बन कर चलने लगे तब मुझे अपने कार्यालय में बुला कर मेरे स्थायी होने की चिट्ठी सौंपते कहा कि मैं अपनी जिम्मेवारी से आपको प्रिंसिपल पद छुड़वा कर लाया था । उसी जिम्मेवारी से स्थायी करके जा रहा हूं । आपका प्रोबेशन पीरियड खत्म हुए पांच दिन ही हुए हैं लेकिन बाद में कोई कब करे या आपको परेशान करे, इसलिए मैं अपनी जिम्मेवारी पूरी कर रहा हूं । धन्य । उन्होंने मेरी इंटरव्यू में भी चेयरमैन डाॅ पी एन चुट्टानी को कहा था कि ग्यारह साल से कमलेश हमारे पार्ट टाइम रिपोर्टर हैं और इन सालों में एक भी शिकायत नहीं आई । इससे ज्यादा क्या प्रमाण चाहिए आपको इसकी कवरेज का ?
इनका मंत्र था -कलम रुके नहीं , भटके नहीं , अटके नहीं और बिके नहीं । इस मंत्र को अपनाए ही चला गया और ,,,आज वे नहीं हैं ,,,बहुत बहुत याद आते रहेंगे राधेश्याम जी आप फिर मुझे मौका मिला हरियाणा ग्रंथ अकादमी के उपाध्यक्ष बनने का । उन्हें अकादमी के कार्यक्रमों में शामिल होने के लिए मैं सरकारी गाड़ी लेकर न केवल लेने बल्कि छोड़ने जाता तो उनकी आंखों से जो प्यार बरसता वह मेरे लिए अनमोल होता ।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा लिखित एक विचारणीय आलेख ‘साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका ’। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 136 ☆
आलेख – साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका
वास्तव में साहित्य निरंतर साधना है. नियमित अभ्यास से ही लेखन में परिष्कार परिलक्षित होता है. रचनाकारों के लिये साहित्यिक संस्थायें स्कूल का कार्य करती हैं. अलग अलग परिवेश से आये समान वैचारिक पृष्ठभूमि के लेखक कवि मित्रो से मेल मुलाकात, पठन पाठन की सामग्री के आदान प्रदान, साहित्यिक यात्राओ में साथ की अनुभूतियां वर्तिका जैसी सक्रिय साहित्यिक संस्थाओ की सदस्यता से ही संभव हो पाती हैं. एक दूसरे के लेखन से रचनाकार परस्पर प्रभावित होते हैं. नई रचनाओ का जन्म होता है. नये संबंध विकसते हैं. तार सप्तक से सामूहिक रचना संग्रह उपजते हैं. वरिष्ठ साहित्यकारो के सानिध्य से सहज ही रचनाओ के परिमार्जन की प्रक्रिया पूरी हो जाती है. प्रकाशको, देश की अन्य संस्थाओ से परिचय के सूत्र सघन होते हैं. साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका निर्विवाद है.
जबलपुर की गिनी चुनी पंजीकृत साहित्यिक संस्थाओ में वर्तिका एक समर्पित साहित्यिक सांस्कृतिक सामाजिक संस्था है जो नियमित आयोजनो से अपनी पहचान बनाये हुये है. प्रति माह के अंतिम रविवार को बिना नागा काव्य गोष्ठी का आयोजन वर्तिका करती आ रही है. यह क्रम बरसों से अनवरत जारी है. पाठकीय त्रासदी से निपटने के लिये वर्तिका ने अनोखा तरीका अपनाया है, जब सामान्य पाठक रचना तक सुगमता से नही पहुंच रहे तो वर्तिका ने हर माह कविता के फ्लैक्स तैयार करवाकर, उसे बड़े पोस्टर के रूप में शहर के मध्य शहीद स्मारक के प्रवेश के पास लगवाने का बीड़ा उठा रखा है. स्वाभाविक है सुबह शाम घूमने जाने वाले लोगों के लिये यह कविता का बैनर उन्हें मिनट दो मिनट रुककर कविता पढ़ने के लिये मजबूर करता है. नीचे लिखे मोबाईल पर मिलते जन सामान्य के फीड बैक से इस प्रयोग की सार्थकता सिद्ध होती दिखती है. समारोह पूर्वक इस काव्य पटल का विमोचन किया जाता है, जिसकी खबर शहर के अखबारो में सचित्र सिटी पेज का आकर्षण होती है. प्रश्न यह उठा कि इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम के लिये कविता का चयन कैसे किया जावे? उत्तर भी हम मित्रो ने स्वयं ही ढ़ूंढ़ निकाला, जिस माह जिन कवियों का जन्मदिन होता है, उस माह उन एक या दो कवि मित्रो की कविताओ को पोस्टर में स्थान दिया जाता है.
सामान्यतः साहित्यिक आयोजनो के व्यय के लिये रचनाकार राज्याश्रयी रहा है. राज दरबारो के समय से वर्तमान सरकारो तक किंबहुना यही स्थिति दिखती है. किन्तु इस दिशा में लेकको में वैचारिक परिवर्तन करने में भी साहित्यिक संस्थाओ की भूमिका बड़ी सकारात्मक दिखती है. वर्तिका की हीबात करें तो मुझे स्मरण नही कि हम लोगो को कभी कोई सरकारी अनुदान मिला है. हर आयोजन के लिये हम लोकतांत्रिक, स्वैच्छिक तरीके से परस्पर चंदा करते हैं. इसी सामूहिक सहयोग से मासिक काव्य गोष्ठियां, वार्षिक सम्मान समारोह, साहित्यिक कार्यशालायें, वैचारिक गोष्ठियां,मासिक काव्य पटल, साहित्यिक पिकनिक, सामाजिक दायित्वो के लिये वृद्धाश्रम, अनाथाश्रमो में योगदान, सांस्कृतिक गितिविधियां, सहयोगी प्रकाशन आदि आदि आयोजन वर्तिका के बैनर से होते आ रहे हैं. आयोजन के अनुरूप, पदाधिकारियो के कौशल व संबंधो से किंचित परिवर्तन धन संग्रह हेतु होता रहता है. उदाहरण के लिये सम्मान समारोह के लिये हम अपने संपर्को में परिचितो से आग्रह करते हैं कि वे अपने प्रियजनो की स्मृति में दान स्वरूप संस्था के नियमो के अनुरूप सम्मान प्रदान करें, और हमने देखा है कि बड़ी संख्या में हर वर्ष सम्मान प्रदाता सामने आते रहे हैं. वर्तिका ने कभी भी उस साहित्यकार से कभी कोई आर्थिक सहयोग नही लिया जिसे हम उसकी साहित्यिक उपलब्धियो के लिये सम्मानित करते हैं, यही कारण है कि वर्तिका के अलंकरण राष्ट्रीय ख्याति अर्जित करते हैं. प्रकाशन हेतु मित्र संस्थानो से विज्ञापन के आधार पर आर्थिक सहयोग मिल जाता है, तो काव्य पटल के लिये जिसका जन्मदिन साहित्यिक स्वरूप से मनाया जाता है, वह प्रसन्नता पूर्वक सहयोग कर देता है, कुल मिलाकर बिना किसी बाहरी मदद के भी संस्था की गतिविधियां सफलता पूर्वक वर्ष भर चलती रहती हैं. और अखबारो में वर्तिका के आयोजन छाये रहते हैं. संरक्षक मनोनीत किये जाते हैं, जो खुशी खुशी संस्था को नियत राशि दान स्वरूप देते हैं, यह राशि संस्था के खाते में बैंक में जमा रखी जाती है.
कोई भी साहित्यिक संस्था केवल संस्था के विधान से नही चलती. वास्तविक जरूरत होती है कि संस्था ऐसे कार्य करे जिनकी पहचान समाज में बन सके. इसके साथ साथ संस्था से जुड़े वरिष्ठ, व युवा साथियो को प्रत्येक के लिये सम्मानजनक तरीके से प्रस्फुटित होने के मौके संस्था के आयोजनो के माध्यम से मिल सकें. यह सब तभी संभव है जब संस्था के पदाधिकारी निर्धारित लक्ष्यो की पूर्ति हेतु, बिना वैमनस्य के, आत्म प्रवंचना को पीछे छोड़कर समवेत भाव से संस्था के लिये हिलमिलकर कार्य करें, प्रतिभावान होने के साथ ही विनम्रता और एकजुटता के साथ संस्था के लिये समर्पित होना भी संस्था चलाने के लिये सदस्यो में होना जरूरी होता हैं.
एक बात जो वर्तिका की सफलता में बहुत महत्वपूर्ण है, वह है हमारे पदाधिकारियों का समर्पण भाव. अपने व्यक्तिगत समय व साधन लगाकर अध्यक्ष, संयोजक, संरक्षक ही नही वर्तिका के सभी सामान्य सदस्य तक एक फोन पर जुट जाते हैं, एक दूसरे की व्यक्तिगत, पारिवारिक, साहित्यिक खुशियो में सहज भाव से शरीक होते हैं, सदैव सकारात्मक बने रहना सरल नही होता पर संस्था की यही विशेषता हमें अन्य संस्थाओ से भिन्न बनाती है. मैं जानबूझकर कोई नामोल्लेख नही कर रहा हूं, किन्तु हम सब जानते हैं कि संस्थापक सदस्यो से लेकर नये जुड़ते, जोड़े जा रहे सदस्य, पूर्व रह चुके अध्यक्ष, सचिव, कोषाध्यक्ष व अन्य पदाधिकारी सब एक दूसरे का सम्मान रखते हैं, एक दूसरे को बताकर, पूछकर, सहमति भाव से निर्णय लेकर संस्थागत कार्य करते हैं, पारदर्शिता रखते हैं, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को संस्था से बड़ा नही बनने देते, ऐसी कार्यप्रणाली ही वर्तिका जैसी सक्रिय साहित्यिक संस्था की सफलता का मंत्र है.