(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का विभिन्न लेखकों के द्वारा दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु तो अवश्य ही खोल देंगे। तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।
वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………
तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न और उसके अनेक उत्तर। प्रस्तुत है आठवाँ जवाब अबू धाबी से ख्यातिलब्ध व्यंग्यकारा सुश्री समीक्षा तेलंगजी एवं सवाई माधोपुर से श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी की ओर से –
सवाल : आज के संदर्भ में, क्या लेखक समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?
अबु धाबी से सुश्री समीक्षा तेलंग जी का जबाब ___
यदि आप समाज को घोड़ा मानते हैं तो आप खुद को उसकी आंख या लगाम भी मान सकते हैं। पर मैं, लेखक को स्वयं अश्व मानती हूं। आपने हॉर्सपावर सुना होगा…। किसी भी मशीन की क्षमता इसी इकाई से मापी जाती है। घोड़े की बुद्धि और ताकत का कोई सानी नहीं। वो चाहे तो दुनिया को हांक सकता है। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि हवा के वेग से भी ज़्यादा होती है। और मनुष्य से अधिक संवेदनशील भी घोड़ा ही होता है। मैं लेखक को भी उतना ही संवेदशील मानती हूँ। तभी वो सृजन भी करता है।
लेकिन एक बात जो लेखकों को ही अपने आप में बाँटती है वो ये कि लेखक अपनी मानसिकता के हिसाब से लिखता है। कुछ लोगों के लिए वह दिशाविहीन लेखन होता है। कोई उसे सृजनात्मक मानता है। तो कोई उस लेखन को किसी दस्तावेज़ से कम नहीं मानता। एक का ही लिखा पढ़ने वाले की मानसिकता और लेखक की अपनी मानसिकता पर निर्भर करता है।
यदि लेखक घोड़ा है तो समाज उस ताँगे की तरह है, जिसके विचारों को लेखक और सुदृढ़ बनाता है। बशर्ते वह लेखन समाज को ध्यान में रखकर लिखा गया हो। हम भूल जाते हैं कि ताँगे के घोड़े की आँख पर ऐनक चढ़ा होता है। तभी वो अपने ताँगे को सही दिशा में हाँक पाता है, ख़ाली लगाम से नहीं। लगाम उसके वेग को कम ज़्यादा कर सकती है लेकिन दिशा नहीं दिखा सकती।
बग़ैर ऐनक वह आजू बाजू आगे और कुछ हद तक पीछे भी देख सकता है। क्या हो यदि उसे ऐनक न चढ़ाया जाए? वह मात्र भटका हुआ प्राणी हो जाता है। यही स्थिति लेखक की भी है।
मनुष्य भले ही अपनी गर्दन ३६० डिग्री पर नहीं घुमा सकता लेकिन ख़ुद घूमकर सही ग़लत का जायज़ा लेकर समाज में पनप रही विकृतियों को ज़रूर उजागर कर सकता है।
पहले के युद्धों में हरेक राजा का एक प्रिय घोड़ा ज़रूर होता था। किन्हीं स्थितियों तक वह उस राजा की जीत का भागीदार होता था। क्योंकि वह दुश्मन की आहट को बख़ूबी भाँप लेता था। और अपने प्रिय घुड़सवार को उन परिस्थितियों से बचा लेता था।
लेखक की भूमिका समाज के प्रति भी ऐसी ही होनी चाहिए। पीत पत्रकारिता जिस प्रकार समाज को विषैला प्रदूषित कर रही है। उसी प्रकार लेखक के एक एक शब्द का प्रभाव समाज पर भी पड़ता है। इसलिए लेखक, घोड़े की आँख या लगाम बनने से बचें और ख़ुद अश्व बनकर दुनिया की असलियत उजागर करने का दंभ रखें।
– समीक्षा तैलंग, अबु धाबी (यू.ए.ई.)
≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡
सवाई माधोपुर से श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी का जबाब ___
वर्तमान समाज, बेलगाम घोड़ा है। इसकी लगाम छीन कर कहीं गहरे दफन कर दी गई है। लाख ढूंढो तो भी नहीं मिलेगी। फिर सवाल घोड़े की आंख का है। पहले वे आंखें सीधे ही लक्ष्य पर केन्द्रित होती थीं। भटकने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। अब, आंखों का वह दिशा नियंत्रक भी नदारद है और यह बेशर्म घोड़ा अब खूब नैन मटक्का करता है। लेखक भी समाज का अंग है। अत:, आज के सन्दर्भ में लेखक घोड़े की आंख है।
(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर ही नहीं ,अपितु राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध साहित्यकार -कवि श्री मनीष तिवारी जी की यह कविता जो आईना दिखाती है उन समस्त तथाकथित साहित्यकारों को जो साहित्यिक सम्मान की सनक से पीड़ित हैं । यह उन साहित्यिकारों पर कटाक्ष है जो सम्मान की सनक में किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। संपर्क, खेमें, पैसे और अन्य कई तरीकों से प्राप्त सम्मान को कदापि सम्मान की श्रेणी में रखा ही नहीं जा सकता।
साथ ही मुझे डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के पत्र की निम्न पंक्तियाँ याद आती हैं जो उन्होने मुझे आज से 37 वर्ष पूर्व लिखा था –
“एक बात और – आलोचना प्रत्यालोचना के लिए न तो ठहरो, न उसकी परवाह करो। जो करना है करो, मूल्य है, मूल्यांकन होगा। हमें परमहंस भी नहीं होना चाहिए कि हमें यश से क्या सरोकार। हाँ उसके पीछे भागना नहीं है, बस।”)
सच कह रहा हूँ भाईजान
मेरी उम्र को मत देखिए
न ही बेनूर शक्ल की हंसी उड़ाइए
आईये
मैं आपको बतलाऊँ
मेरी साहित्यिक सनक को देखिए
सम्मान के कीर्तिमान गढ़ रही है,
जिसे साहित्य समझ में नहीं आता
मेरे साहित्य को पढ़ रही है।
सनक एकदम नयी नयी है
नया नया लेखन है
नया नया जोश है,
मैं क्या लिख रहा हूँ
इसका मुझे पूरा पूरा होश है।
सब माई की कृपा है
कलम घिसते बनने लगी
कितनी घिसना है
कहाँ घिसना है
कैसी घिसना है
ये तो मुझे नहीं मालूम
पर घिसना है तो घिस रहे हैं।
हमने कहा- भाईजान जरूर घिसिये
पर इतना ध्यान रखिये
आपके घिसने से कई
समझदार साहित्यकार पिस रहे हैं।
वे अकड़कर बोले,
मेरा हाथ पकड़कर बोले-
आप बड़े कवि हैं
हम पर व्यंग्य कर रहे हैं
अत्याचार कर रहे हैं
आपको नहीं मालूम
पूरी दुनिया के पाठक
मेरी साहित्यिक सनक की
जय जयकार कर रहे हैं।
मेरा अभिनंदन कर रहे हैं
मैं उन्हें बाकायदा धनराशि देता हूँ
पर वे लेने से डर रहे हैं।
जबकि मैं जानता हूँ
मेरे जैसे लोगो का
अभिनन्दन करने वाले
अपना घर भर रहे हैं।
हमारी रचनाएं अनेक देशों में
साहित्यिक रक्त पिपासुओं द्वारा
भरपूर सराही जा रही हैं।
घनघोर वाहवाही पा रही हैं।
हमने कहा- भाईसाब
मेरा ये ख्याल है
इसी सनकी प्रतिभा का तो हमें मलाल है।
जो कविता हमें और
हमारे साहित्यिक कुनबे को
समझ में नहीं आ रही है
आपकी सर्जना को
सिरफिरी दुनिया सिर पर उठा रही है।
आखिर आप क्यों?
हिंदी साहित्य में स्वाइन फ्लू फैला रहे हैं,
और अफसोस
उस बीमारी को समझकर भी
लोग तालियां बजा रहे हैं।
आप क्या समझते हैं
आपके तथाकथित सृजन और पठन से
श्रोता जाग रहे हैं,
आपको पता ही नहीं आपका नाम सुनते ही
श्रोता दहशत में हैं और भाग रहे हैं।
आयोजकों के पीछे डंडा लेकर पड़े हैं,
हाल खाली है और दरवाजे पर ताले जड़े हैं।
लगता है विदेशियों ने
साहित्यिक षड्यंत्र रचा दिया है
जैसे पूरी दुनिया ने
भारतीय बाजार पर कब्ज़ा कर
कोहराम मचा दिया है।
ये लाईलाज बीमारी है
आपके अनर्गल प्रलाप को सम्मानित कर भारत के
गीत, ग़ज़ल, व्यंग्य, कथा, कहानी और
नाटक को कुचलने की तैयारी है।
आप अपने सम्मान पर गर्वित हैं, ऐंठे हैं
आपको पता नहीं
आप एक बारूद के ढेर पर बैठे हैं।
आपको पता नहीं चल रहा कि
आपकी दशा है या दुर्दशा है
आपको सम्मान का अफीमची नशा है।
आपको पता ही नहीं कि
आपके सम्मान के रंग में
कितनी मिली भंग है,
सच कहूं आपकी सृजनशीलता
पूरी तरह से नंग धड़ंग है।
मर्यादा का कलेवर आपके
तथाकथित अभिमान को ढक नहीं सकता
और, मेरे मना करने पर भी
आपका इस तरह लेखन रूक नहीं सकता।
आप अपनी वैचारिक विकलांगता
साहित्यिक विकलांगों के बीच में ही रहने दो
आप अपनी कीर्ती के कमल
गंदगी के कीच में ही रहने दो।
आपने हिंदी साहित्य का गला घोंटने
अपना जीवन अर्पित कर दिया,
परिणामस्वरूप स्वम्भू साहित्यकारों ने
आपको सम्मानित किया और चर्चित कर दिया।
आपके सम्मान से साहित्य के सम्रद्धि कलश भर नहीं सकते
(प्रस्तुत है श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी का सटीक एवं सार्थक व्यंग्य। हमारी और हमारी वरिष्ठ पीढ़ी ने पत्र ,टेलीग्राम और टेलीफ़ोन से कैसे दिन गुजारे होंगे इसका एहसास, कष्ट और मजा नई पीढ़ी को क्या मालूम। उन्होने तो ऑर्कुट या इससे मिले जुले डिजिटल सोशल मीडिया मंच से लेकर व्हाट्सएप तक की ही यात्रा तय की है। अभी भी हमारी वरिष्ठ पीढ़ी इन डिजिटल सोशल मीडिया मंचों से सहज नहीं है। जिन्होने स्वयं को अपडेट नहीं किया है इसका कष्ट वे ही जानते हैं।)
स्टेटस सिंबल के चक्कर में लांच के साथ ही लेटेस्ट माडेल महंगी कीमत पर स्मार्ट फोन खरीदा गया है. पत्नी से मोबाईल खरीदी का बजट स्वीकृत करवाने में उनका तर्क बहुत वजनदार था, “महिलाओ के पास तो ज्वेलरी, कभी जभी ही पहने जाने वाली साड़ियां, इंटरनेशनल ब्रांड के बैग और परफ्यूम, लाइटवेट ब्रांडेड फुटवियर और तो और किसी और को न दिखने वाले इनर वियर हर कुछ कीमती होता है” जबकि बेचारे पुरुष के पास स्टेटस सिंबल के नाम पर एक मोबाईल ही तो होता है. श्रीमती जी ने तर्क दिया कि कहने को तो आप १० पैसे मिनट टाक वैल्यू का प्लान रिचार्ज करते हैं पर आपकी बातें १० रु मिनट से कम की नही पड़ती. उन्होने चौंकते हुये पूछा आखिर कैसे ? प्लान तो दस पैसे मिनिट वाला ही है. पत्नी ने जबाब दिया, आप किसी से भी मेरी तरह लम्बी बातें नहीं करते इसलिये आपकी मोबाईल का टोटल यूज टाइम बहुत कम है, मुश्किल से साल भर में या तो मोबाईल गुमा देते हैं या मोबाईल टूट जाता है या फिर माडल बदल लेते हैं, तो मोबाईल की मंहगी कीमत में जितनी देर बातें हुई उससे तुलना करें तो आप की प्रति मिनिट बातचीत दस रु मिनिट से ज्यादा ही पड़ेगी. पत्नी के जबाब में दम था . फिर भी पत्नी ने थोड़ा तरस खाते और थोड़ा प्यार जताते हुये, मंहगा लेटेस्ट एप्पल लांच के साथ ही दिलवा ही दिया था. भले ही वे वन एप्पल ए डे न खाते हो पर अपना न्यू लेटेस्ट माडेल का एप्पल मोबाईल सदैव हाथो में गर्व से थामे रहते हैं, सारे दिन दो पांच मिनिट के अंतर से उस पर दृष्टि बनाये रखते हैं, प्ले स्टोर से डाउनलोडेड अनेकानेक एप्स पर निरंतर सर्फिंग करते रहते हैं.
युग व्हाट्सअप का है. वे सोकर उठते ही वे पाखाना जाने से पहले व्हाट्सअप मैसेजेज चैक करते हैं. हाजमा ठीक रहा और हाजत तेज हुई तो मोबाईल सहित स्वच्छ कमोट पर भीतरी तन से फिजकली आउटगोईंग और मस्तिष्क में व्हाट्सएप से वर्चुएल वैचारिक इनकमिंग साथ साथ जारी रहती है. आखिर इतने मंहगे मोबाईल और घोटाला मुक्त सस्ती दरो पर सुलभ फोर जी स्पीड का क्या फायदा यदि समय पर दूर बैठे आत्मीय जनो को सचलितचित्र गुड मार्निग ही नही की . ये और बात है कि छै बाई छै के सुकोमल बैड पर बाजू में ही पसरी सात जनमो की साथिन की ओर मुस्कान भरी निगाहें तक डालने का ध्यान इस व्हाट्सअप अपडेट के चक्कर में नही जाता. वैसे भी अब कौन सी नई नवेली शादी है. एप्पल का मोबाईल जरूर बीबी से बहुत नया है.
व्हाट्सएप उन्हें मोबाईल मय बनाये रखने में सर्वाधिक मदद करता है. हर थोड़े अंतराल पर व्हाट्स अप नोटिफिकेशन उनके वैश्विक संबंधो की पुष्टि करता है. कहीं गलती से कुछ घंटे वे मोबाईल न देख पायें तो विभिन्न ग्रुप्स से प्राप्त पेंडिग मैसेजेज की गिनती हजारो में पहुंच जाती है. वो तो भला हो मैसेजेज का कि वे वर्चुएल होते हैं, वरना होली, दीवाली, ईद, न्यूईयर जैसे मौको पर तो व्हाट्सएप मैसेजेज से मोबाईल ऐसा भर जाता है कि यदि ये मैसेज वर्चुएल न होते तो शायद उन्हें संभालना मुश्किल हो जाता. दरअसल ये मैसेज अनेकता में एकता के राष्ट्रीय चरित्र के परिचायक होते हैं. गणतंत्र दिवस और स्वाधीनता दिवस का अंतर भले ही पता न हो पर इन राष्ट्रीय त्यौहारो पर भी बड़े प्रेम से हर मोबाईल धारक अपनी डी पी बदलने से लेकर हर कांटेक्ट को मैसेज करना नही भूलता. स्कूल के, कालेज के, साहित्य के, कार्यालय के, शहर के स्वजातीय बंधुओ के ग्रुप्स ने कनेक्टिविटी ऐसी बढ़ा दी है कि पास के लोग दूर और दूर के लोग पास हो गये हैं. ससुराल के ग्रुप, परिवार के ग्रुप और बच्चों के ग्रुप की नोटीफिकेशन टोन ही उन्होने बिल्कुल अलग रख ली है, जिससे वे सदैव सबके निकट बने रहें.
यदि व्हाट्सअप को मालूम हो जावे कि उनका कार्यालय ही व्हाट्सअप पर चल रहा है तो निश्चित ही इसके एवज में व्हाट्सअप कुछ रायल्टी क्लेम कर सकता है. आजकल आफिस में मीटिंग की सूचना से लेकर फोटो सहित कम्पलाइंस रिपोर्ट व्हाट्सअप पर ही ली दी जा रही हैं. इधर मैसेज में दो नीली टिक हुई नहीं कि दूसरे छोर से अपेक्षा की जाती है कि साइट से फोटो सहित रिपोर्ट आ जावे. ग्रुप में परिपत्र डालकर यह मान लिया जाता है कि सभी को सूचना मिल चुकी है. वे जमाने यादें बनकर रह गये हैं, जब डाकिया लिफाफा लाता था, रिसीप्ट क्लर्क शाम को सारी डाक खोलकर तरीके से सील ठप्पे लगाकर डाक पैड में बांधकर करीने से टेबिल के कोने में रखा करता था, फिर हम इत्मिनान से एक एक पत्र पढ़ते और उसके मार्जिन में सबार्डिनेट्स को इंस्ट्रक्शन्स लिखा करते थे.
पहले लोग सामूहिक ठहाके लगाते थे, एक जोक सुनाता था सब हंसते थे, अब जमाना व्हाट्सअप युगीन है, मैसेज पढ़कर मैं मंद मंद मुस्करा रहा था, मित्र ने देखा तो कहा मुझे भी फारवर्ड कर दे मैं भी हंसू. तो व्हाट्सअप युग के साक्षी बने रहिये जब तक कोई और इसे धक्का मारने न आ जावे, मौलिकता छोड़िये, फारवर्ड करिये, डाउनलोड करिये अपलोड करिये बस दिल पर लोड मत लीजिये.
गॉव के चौपाल में चुनाव की चर्चा जोरों पर है। बैल जोड़ी का एक जमाना था, चुनाव बैलजोड़ी के लिए होता था, तब सबके घरों में कम से कम एक बैलजोड़ी तो होती ही थी। बैलजोड़ी का एक बैल इमानदार चुस्त दुरुस्त तो था, पर दूसरा बैल बात – बात में चिंतन-मनन करने लगता था फिलासफर जैसा व्यवहार करने लगता, प्रेम – वेम के चक्कर में पड़ गया था और निकम्मा हो गया था। ऐसे में कैसे चलती बैलजोड़ी और कैसे चलती बैलगाड़ी……… निकम्मा इसलिए हो गया था कि एक गाय पर उसका दिल दरिया की तरह बह गया था, गाय से चुपके-चुपके मिलता-जुलता था।
ऐसे तो निकम्मा हर कोई होता है और चुनाव के समय निकम्मेपन पर खूब बहसें होती हैं। कुछ जन्मजात निकम्मे होते हैं और कई लोग “निकम्मा ” शब्द का राजनैतिक इस्तेमाल करने लगते हैं, जब राजनीति में इसका प्रयोग बढ़ जाता है तो शब्द नये अर्थ ग्रहण कर लेता है।जैसे अच्छे दिन बाजार में अच्छे अच्छे नामों से खूब चला, ज्यादा चलने से नये-नये शब्दों का अविष्कार हुआ। इन दिनों चौकीदार और चोर शब्दों के दिन फिरे हैं सबको समझ आ रहा है कि सब के सब चौकीदार भी हैं और चोर भी…….. यहां बैल के निकम्मे हो जाने की बात इसलिए चली कि बैलजोड़ी टूट गई, तब पहला बैल अपनी
वफादारी और इमानदारी पर धार धार रोया और रेडियो में गाना बजा……
“दो हंसों का जोड़ा
बिछड़ गयो रे,
गजब भयो रामा जुलम
भयो रे,”
गाने की आवाज पर दूसरा बैल आकर पहले बैल से लिपटकर रोया और बोला –
“इश्क ने हमको निकम्मा कर दिया,
वरना हम भी बैल थे
काम के,”
खैर… जो हुआ तो हुआ, गाय बैल के इश्क में बैल जोड़ी टूट गई। कुछ दिन बाद गाय का बछड़ा हुआ, बछड़ा भी निकम्मा निकला, वह अपने निकम्मेपन को दूसरों पर देखने लगा। कुछ लोग अपने आप निकम्मे हो जाते हैं कुछ बन जाते हैं कुछ बना दिये जाते हैं कई के स्वाभाव में निकम्मापन आ जाता है।
“अजगर करे न चाकरी…. दास मलूका कह गए सबके दाता राम”
ऐसे लोगों पर लोग दया करने लगते हैं दया से कई काम बन जाते हैं चुनाव में वोट भी पड़ जाते हैं, और गरीबी हटाओ के नारे भी लगने लगते हैं। बछड़ा निकम्मा जरुर था पर निकम्मेपन को अपनी उपलब्धि मानता था एक दिन अचानक बछड़ा गायब हो गया। गाय अपना दुखड़ा प्रगट करने संतों के पास दौड़ती रही बड़े संत ने हाथ उठाकर आशीर्वाद दे दिया, हाथ सपने में आया और “हाथ “बन गया। दीपक टिमटिमाता फिर बुझने का नाटक करता, अंधेरे में आधी रात के बाद महत्वपूर्ण निर्णय होते हाहाकार मचने लगा, उन्हीं दिनों कन्याएं फिल्मी स्टार कमल हसन की फिल्में खूब देखने लगीं थीं कन्याओं और महिलाओं का कमल के के प्रति पसंद बढ़ गई थी, अचानक राजनीति में कमल की मांग बहुत बढ़ गई थी।
एक नेता ने चुनाव की सभा में कमल की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए बताया कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 में लड़ा गया था, क्रांति हुई थी क्रांति के आयोजक अपना संदेश ‘रोटी और कमल’ का संदेश घुमाकर सुना देते थे, हिन्दू धर्म के अलावा बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म के लोगों ने उस समय कमल को महत्व दिया था। क्या करोगे कमल सुंदर होता है कोमल होता है। सुंदरी के मुखमण्डल का विकास खिले कमल जैसा होता है।
कुछ लोग कीचड़ में घुसकर कमल तोड़ लाए और चुनाव आयोग की सुंदरी को भेंट कर दिया,
“फूल लाये हैं कमल के
पसारें आप आंचल,”
कमल काम का हो गया। धीरे-धीरे फैलने लगा कमल के अच्छे दिन आ गए मांग बढ़ गई शहरों के पोखर तालाबों में जहां कमल खिलते थे वहां कमल प्रेमियों ने कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए थे।
नकली कमल खिलाने के ठेके दिये गये नकली रासायनिक कमल की सुगंध डालकर नकली कमल बाजार में छा गया बैनरों में, झण्डों में, होर्डिंग में। ऐसे में चुनाव के समय लोग कीचड़ में खिले कमल को याद करने लगे। चुनाव और उपचुनाव में सबके हाथ कमल में दबने लगे फिर कमल वाले अहंकार में चूर होकर मूर्तियां तोड़ने लगे, झटकेबाजी करने लगे, और दोनों हाथों से धन लुटा कर विदेश भगाने लगे। अटल कृष्ण ने आम लगाए थे फल नीरव मोदी जैसे लोगों ने खाए। पता नहीं क्या हो गया ये नयी पीढ़ी को चुनाव में भरोसा नहीं रहा फेसबुक से डाटा चुराकर अब चुनाव जीते जा रहे हैं, आजकल के भाई-बहन कमल शब्द से अचानक चिढ़ने लगे हैं हर बात पर अगले चुनाव में देख लेने की बात करते हैं।
(प्रस्तुत है श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी का सटीक एवं सार्थक व्यंग्य। बतौर सिविल इंजीनियर कोपभवन के आर्किटेक्ट की परिकल्पना उनका तकनीकी अधिकार है किन्तु एक सधे हुए व्यंग्यकार के तौर पर उन्होने वर्तमान राजनीति में कोपभवन की आवश्यकता का सटीक विश्लेषण किया है। निश्चित ही श्री विवेक जी ने ऐसे रेसोर्ट्स की भी परिकल्पना की होगी जो कोपभवन के रास्ते में पड़ते हैं । एक बेहतरीन व्यंग्य के लिए श्री विवेक जी को बधाई।)
भगवान श्री राम के युग की स्थापत्य कला का अध्ययन करने में एक विशेष तथ्य उद्घाटित होता है, कि तब भवन में रूठने के लिये एक अलग स्थान होता था। इसे कोप भवन कहते थे। गुस्सा आने पर मन ही मन घुनने के बजाय कोप भवन में जाकर अपनी भावनाओं का इजहार करने की परम्परा थी। कैकेयी को श्री राम का राज्याभिषेक पसंद नहीं आया वे कोप भवन में चली गई। राजा दशरथ उन्हें मनाने कोप भवन पहुंचे- राम का वन गमन हुआ। मेरा अनुमान है कि अवश्य ही इस कोप भवन की साज-सज्जा, वहां का संगीत, वातावरण, रंग रोगन, फर्नीचर, इंटीरियर ऐसा रहता रहा होगा, जिससे मनुष्य की क्रोधित भावना शांत हो सके, उसे सुकून मिल सके। यह निश्चित ही हम सिविल इंजीनियर्स के लिये शोध का विषय है। बल्कि मेरा कहना तो यह है कि पुरातत्व शास्त्रि़यों को श्री राम जन्म भूमि प्रकरण सुलझाने के लिये अयोध्या की खुदाई में कोप भवन की विशिष्टता का ध्यान रखना चाहिए।
अटल जी की सरकार, जार्ज साहब के समय पुन: कोप भवन प्रासंगिक हो गया था । खिचड़ी सरकारों के युग में यह सर्वविदित सत्य है कि खिचड़ी में दाल-चावल से ज्यादा महत्व घी, अचार, पापड़, बिजौरा, सलाद, नमक और मसालों तथा दही, प्याज का होता है। सुस्वादु खिचड़ी के लिये इन सब की अपनी-अपनी अहमियत होती है, भले ही ये सभी कम मात्रा में हो, पर प्रत्येक का महत्व निर्विवाद है।
प्री पोल एक्जिट पोल के चक्कर में हो, या कई चरणों के मतदान के चक्कर में, पर हमारे वोटर ने जो `राम भरोसे´ है कई बार ऐसा मेन्डेट दिया कि सरकार ही `राम भरोसे´ बन कर रह गई . राम भक्तों के द्वारा, राम भरोसे के लिये, राम भरोसे चलने वाली सरकार। आम आदमी इसे खिचड़ी सरकार कहता है। खास लोग इसे `एलायन्स´ वगैरह के उम्दा नामों से पुकारते हैं।
इन सरकारों के नामकरण संस्कार, सरकारों के मकसद वगैरह को लेकर मीटिंगों पर मीटिंगें होती हैं, नेता वगैरह रूठते ही हैं, जैसे बचपन में मै रूठा करता था, कभी टॉफी के लिये, कभी खिलौनों के लिये, या आजकल मेरी पत्नी रूठती है, कभी गहनों के लिये, कभी साड़ी के लिये, या मेरे बच्चे रूठते हैं, कभी बड़े टी वी के लिये या कभी मूवी के लिये .देश-काल, परिस्थिति व हैसियत के अनुसार रूठने के मुद्दे बदल जाते हैं, पर रूठना एक `कामन´ प्रोग्राम है।
रूठने की इसी प्रक्रिया को देखते हुये `कोप भवन´ की जरूरत प्रासंगिक है। कोप भवन के अभाव में बडी समस्या होती रही है। ममता रूठ कर सीधे कोलकाता चली जाती थी, तो जय ललिता रूठकर चेन्नई। बेचारे जार्ज साहब कभी इसे मनाने यहां, तो कभी उसे मनाने वहां जाते रहते थे। खैर अब उस युग का पटाक्षेप हो गया है. जार्ज साहब को विनम्र श्रद्धांजली, उनका रूठो को मनाने में एक्सपर्टाईज था. भगवान उन्हें कम से कम अब चिर विश्राम दे , वरना उस युग में उनके जैसा संयोजक ही था जो सरकार को संयोजित रख सका. पर आज भी केवल किरदार ही तो बदले हैं। कभी अचार की बाटल छिप जाती है, कभी घी की डिब्बी, कभी पापड़ कड़कड़ कर उठता है, तो कभी सलाद के प्याज-टमाटर-ककड़ी बिखरने लगते हैं- खिचड़ी का मजा किरकिरा होने का डर बना रहता है।जार्ज साहब ने रूठो को मनाने की, संयोजन की अपनी कला का चार्ज किसी को नही दिया .
अब जब हमें खिचड़ी संस्कृति को ही प्रश्रय देना है, तो मेरा सुझाव है, प्रत्येक राज्य की राजधानी में जैसे विधान सभा भवन और दिल्ली में संसद भवन है, उसी तरह एक एक कोप भवन भी बनवा दिया जावे। इससे सबसे बड़ा लाभ मोर्चा के संयोजको को होगा। विभागो के बंटवारे को लेकर, किसी पैकेज के न मिलने पर, अपनी गलत सही मांग न माने जाने पर जैसे ही किसी का दिल टूटेगा, वह कोप भवन में चला जाएगा। रेड अलर्ट का सायरन बजेगा। संयोजक दौड़ेगा। सरकार प्रमुख अपना दौरा छोड़कर कोप भवन पहुंच, रूठे को मना लेगा- फुसला लेगा। लोकतंत्र पर छाया खतरा टल जायेगा।
जनता राहत की सांस लेगी। न्यूज वाले चैनलों की रेटिंग बढ़ जायेगी। वे कोप भवन से लाइव टेलीकास्ट दिखायेंगे। रूठना-मनाना सार्वजनिक पारदर्शिता के सिद्धांत के अनुरूप, सैद्धांतिक वाग्जाल के तहत पब्लिक हो जायेगा। आने वाली पीढ़ी जब `घर-घर´ खेलेगी तो गुडिया का कोपभवन भी बनाया करेगी बल्कि, मैं तो कल्पना करता हूँ कि कहीं कोई मल्टीनेशनल कंपनी `कोप-भवन´ के मेरे इस 24 कैरेट विचार का पेटेन्ट न करवा ले, इसलिये मैं जनता जनार्दन के सम्मुख इस परिकल्पना को प्रस्तुत कर रहा हूँ . स्वर्गीय जार्ज साहब को नमन करते हुये .
मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि कुण्ठित रहने से बेहतर है, कुण्ठा को उजागर कर बिन्दास ढंग से जीना। अब हम अपने राजनेताओं में त्याग, समर्पण, परहित के भाव पैदा नहीं कर पा रहे हैं, तो उनके स्वार्थ, वैयक्तिक उपलब्धियों की महत्वकांक्षाओं के चलते, खिचड़ी सरकारों में उनका कुपित होना जारी रहेगा, और कोप भवन की आवश्यकता, अनिवार्यता में बदल जायेगी।
अगर आप जोजिल्ला दर्रा पार करने का रोमांच अनुभव करना चाहते हैं और इस समय वहाँ जा पाने की सुविधा नहीं है तो एक आसान सा विकल्प और भी है. आप भोपाल के न्यू मार्केट तक आ जाईये और उस दर्रे को पार करिए जो हनुमान मंदिर से शुरू होता है और स्टेट बैंक की ओर निकलता है. इसे पार करना एक चैलेंज भी है और जोखिम भरा साहस भी.
आईये इसे पार करते हैं. अगर आपकी हाईट साढ़े तीन फीट से ज्यादा है तो आपको कोहनी के बल ‘क्रॉल’ करते हुए निकलना पड़ेगा. बेहतर है आप टिटनस टॉक्साईड का इंजेक्शन पहले से लगवाकर आयें और बिटाडीन का छोटा ट्यूब कॉटन के साथ जेब में धरकर चलें. जरा चूके तो डिस्प्ले में लटकी किसी बाल्टी, अटैची या मनेक्वीन हॉफ पुतली से सिर टकराना तय है. छतरियों के नुकीले सिरों, साड़ियों, कुर्तियों, नाईटियों से बचते हुए आप घुटने-घुटने या करीब करीब रेंगते हुए चलें. एक सावधानी और रखें, स्पोर्ट्स शूज पहनकर दर्रा पार करें अन्यथा पूरी संभावना है कि पहाड़ के किसी काउंटर की ठोकर से आपके पैर के अंगूठे का नाखून उखड़ जाये.
दर्रा क्या है साहब प्रेम की गली है, अति साँकरी. मनचलों की मुराद पूरी करती हुई. इसे पार करते समय थोड़ा दिल बड़ा रखियेगा. कोई शोहदा जितनी शिद्दत से आंटीजी के कंधे से अपना कंधा टकराता है उससे ज्यादा फूर्ती से “सॉरी” बोल देता है. इस ‘बेखुदी’ पर कौन न मर जाये या खुदा! हाथ में कैरीबेग उठाये पीछे पीछे चल रहे विवश अंकलजी और कर ही क्या सकते हैं सिवाय ‘इट्स ओके’ बोलने के. इक आग का दर्रा है और बच के पार करना है.
जोजिल्ला के दर्रे में कचोरी नहीं मिलती साहब, यहाँ मिलती है. तपती भट्टी की मुंडेर से सटकर खड़ी हैप्पी फॅमिली कचोरी सेंव के साथ सलटा रही है. कृपया थोड़ा तिरछा होकर निकलें, आपके शर्ट की कोहनी में लाल चटनी लग सकती है. वैरी गुड. चलिए थोड़ा आगे निकलिए. दर्रों में गार्डन नहीं हुआ करते, यहाँ भी नहीं है. मगर, गार्डन चेयर्स हैं. जूसवाले संजूभाई ने खास तौर पर लगवाई हैं. बैठिये श्रीमान, हॉफ-हॉफ पाइनेपल हो जाए, ऐसी मेजबानी जोजिल्ला में तो मिलेगी नहीं.
नेशनल जियोग्राफिक चैनलवाले परेशान हैं साहब. डाक्यूमेंट्री नहीं बना पा रहे. क्योंकि, दर्रा-इन-मेकिंग किसी भौगोलिक घटना का परिणाम तो है नहीं. पॉपुलर स्टोरी कुछ यूं है कि जब इसके दोनों ओर खड़े दुकानों के पहाड़ अपने शटर की सीमाओं के अन्दर थे तब एक दिन तत्कालीन दरोगाजी की एक्चुअल वाईफ़ आदरणीया देवकलीबाई ने एक-दो नई नाईटीज की फरमाईश कर दी. पहाड़ी समझदार था, उसने एक के साथ छह नाईटीज फ्री पैक कर दिए और अपना पहाड़ छह इंच आगे की ओर सरका लिया. फिर तो ये इन्सिडेन्स ट्रेंड करने लगा. इन दिनों दोनों छोर पर खड़े दुकानों के पहाड़ इतने आगे सरक आये हैं कि इससे कृत्रिम दर्रों को वैश्विक अजूबों में प्रथम स्थान मिलने को है.
आड़े-टेढ़े, घुमावदार, संकरे, ऊँचे-नीचे, सर्पीले इन दर्रों में जोजिल्ला की वीरानी नहीं है, रोमांच के साथ जीवन के रंग हैं. चिढ़ है, खीज है, परेशानियां हैं, तो खरीदारी का आनंद है, दुकानदारों से अपनापा है, मोलभाव का सुख है, दर्रे की चौड़ाई से भी छोटे सपने हैं. कुछ साकार होते कुछ टूटते सपने. कितने भी सिकुड़ जाएँ दर्रे, इनकी रवानियत को बचायेंगी इनके मुहाने पर बैठ शहनाज़ को चैलेन्ज करती मेहंदी लगानेवालियां और फ्लिप्कार्ट, अमेज़न के बंसलों-जेफ़ बोजेसों को मुँह चिढ़ाता सूती नाड़े की गुच्छी बेचता आठ साल का राजू.
तो श्रीमान, आईये एक बार जरूर पार कीजिये दर्रे, न्यू मार्केट भोपाल के.
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का विभिन्न लेखकों के द्वारा दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु तो अवश्य ही खोल देंगे। तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।
वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………
तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न और उसके अनेक उत्तर। प्रस्तुत है सातवाँ जवाब लखनऊ शहर की ख्यातिलब्ध व्यंग्यकारा सुश्री इन्द्रजीत कौर जी (हाल ही में आपका व्यंग्य संकलन “पंचरतंत्र की कहानियां” प्रकाशित हुआ है) की ओर से –
सवाल : आज के संदर्भ में, क्या लेखक समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?
साहित्य समाज का दर्पण होने के साथ ही सुधारक भी होता है । दूसरे शब्दों में वह समाज की आंख के साथ लगाम भी होता है।
लेखक आंख बनकर समाज की तस्वीर लोगों के सामने रखता है। अनदेखे व अनछुए पहलुओं को उजागर करवा कर आमजन में जागरूकता फैलाता है । इसके लिए जरूरी है कि लेखक आखों को हमेशा और पूरी खुली रखें। ऐसा न हो कि कुछ घटनाओं पर वह आंखें बंद कर ले और कुछं पर आंखे इतनी ज्यादा चौड़ी कर ले कि समाज के लिए खतरा ही बन जाए। किसी भी घटना के अनेक कोण होते हैं लेखक की सजगता इस बात में है कि वह हर कोण से देखकर कार्य ,कारण और परिणाम में संबंध स्पष्ट करें।
हां ,वह लगाम भी है ।सिर्फ आँखं बनकर नहीं रहा जा सकता कि समाज की तस्वीर देखी और पेश कर दी । दंगा ,फसाद , भ्रष्टाचार, छेड़खानी , दबंगई आदि देखकर उसनेे हूबहू कागज पर उतार दिया। इससे तो हम महाभारत के संजय ही बन पाएंगे कृष्ण नहीं। उचित /अनुचित की राह दिखाना भी जरूरी है । विनाश की राह से विकास की तरफ लगाम खींचना आवश्यक है ।
इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि सदा चाबुक मारते जाए । लेखक को इस परिवर्तनशील समाज में अपनी मानसिकता भी बदलनी होगी। वह अगर इस बात का रोना रोए कि अब महिलाओं के सिर पर घूंघट नहीं है। सांस्कृतिक पतन हो रहा है तो इसे लगाम नहीं कहेंगे ।
बढ़ते दायरे में लगाम को ढीला करना ही पड़ेगा ताकि घोड़े की दृष्टि और पहुंच व्यापक हो सके। कोई भी चीज सदियों से चली आ रही है इसका मतलब यह नहीं कि वह सही है । जींस पर बहुत कलमें चलीं। इस भागदौड़ वाली अति व्यस्त जिंदगी में लड़कियों के लिए जींस एक सुविधा की तरह है । इस पर बहुत लगाम खींचे गये। क्या यह समझने की कोशिश की गई कि समाज में वह आगे बढ़ने की जद्दोजहद करें या मर्द को देखकर पल्लू ही संभालती रह जाए । ऐसा भी तो लिखा जा सकता था कि पुरुष अपना दृष्टिकोण सही करें। अगर सही अर्थों में लेखक को समाज की आंख और लगाम बनना है तो कुए के मेंढक बनने से परहेज करते हुए उसे कलम चलानी होगी।
इतना ध्यान रखना होगा कि ज्यादा लगाम खींचने से लगाम टूट भी सकती है और अति ढीला करने से घोड़ा छूट सकता है। सन्तुलन आवश्यक है।
– सुश्री इंद्रजीत कौर
(अगली कड़ियों में हम आपको विभिन्न साहित्यकारों के इसी सवाल के विभिन्न जवाबों से अवगत कराएंगे।)
संस्थाएं – व्यंग्यम (व्यंग्य विधा पर आधारित व्यंग्य पत्रिका/संस्था), जबलपुर
विगत दिवस साहित्यिक संस्था व्यंग्यम द्वारा आयोजित 23वीं व्यंग्य पाठ गोष्ठी में सभी ने परम्परानुसार अपनी नई रचनाओं का पाठ किया. इस संस्था की प्रारम्भ से ही यह परिपाटी रही है कि प्रत्येक गोष्ठी में व्यंग्यकर सदस्य को अपनी नवीनतम व्यंग्य रचना का पाठ करना पड़ता है । इसी संदर्भ में इस व्यंग्य पाठ गोष्ठी में सर्वप्रथम जय प्रकाश पांडे जी ने ‘सांप कौन मारेगा, यशवर्धन पाठक ने ‘दादाजी के स्मृति चिन्ह’, बसंत कुमार शर्मा जी ने ‘अंधे हो क्या’, राकेश सोहम जी ने ‘खा खाकर सोने की अदा’, अनामिका तिवारीजी ने ‘हम आह भी भरते हैं’, रमाकांत ताम्रकार जी ने ‘मनभावन राजनीति बनाम बिजनेस’, ओ पी सैनी ने ‘प्रजातंत्र का स्वरूप’, विवेक रंजन श्रीवास्तव ने ‘अविश्वासं फलमं दायकमं’, अभिमन्यु जैन जी ने ‘आशीर्वाद’, सुरेश विचित्रजी ने ‘शहर का कुत्ता’, रमेश सैनी जी ने ‘जीडीपी और दद्दू’, डा. कुंदनसिंह परिहार जी ने ‘साहित्यिक लेखक की पीड़ा’ व्यंग्य रचनाओं का पाठ किया.
इस अवसर पर बिलासपुर से पधारे व्यंग्यम पत्रिका के संस्थापक संपादक व्यंंग्यकार महेश शुक्ल जी की उपस्थिति उल्लेखनीय रही. श्री महेश शुक्ल ने अपने अध्यक्षीय उदबोधन में व्यंग्यम पत्रिका के बारे में बताया – उस वक्त पत्रिका प्रकाशन का निर्णय कठिन था और हम सब रमेश चंद्र निशिकर, श्रीराम आयंगर, श्रीराम ठाकुर दादा , डा.कुंदन सिंह परिहार, रमेश सैनी आदि मित्रों के सहयोग से यह पत्रिका व्यंंग्यकारो में कम समय ही चर्चित हो गई थी. उस समय महेश शुक्ल ने अपने से संबंधित परसाई जी के संस्मरण सुनाए. इस अवसर पर बुंदेली के लेखक द्वारका गुप्त गुप्तेश्वर की उपस्थिति उल्लेखनीय रही। गोष्ठी का संचालन रमेश सैनी और आभार प्रदर्शन व्यंंग्यकार एन एल पटेल ने किया.
(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जीका व्यंग्य – “नेताजी लौट कर घर आए”।)
नेताजी वापिस घर आ गए, उनको वापिस आना ही था। यह पहले से तय था, नहीं वे तय कर के गये थे कि वे वापिस आएंगे। नेताजी जाते ही हैं वापिस आने के लिए। उनसे अपना खूंटा छोड़कर जाया नहीं जाता, वे जाते हैं, लाभ के लिए और वापिस आते हैं लाभ के लिए। लाभ उनके जीवन का मर्म है और यह मर्म उन्होंने जल्दी समझ लिया था। अतः नेताजी इस कार्य में कभी गलती नहीं करते हैं। वे जाते हैं, अर्थात् भागते हैं, बाहरी दीन-दुनिया की खबर लेते हैं, अनेक प्रकार के व्यंजनों का रसास्वाद लेते हैं, थोड़ा बहुत ठोकर खाते हैं, भागते-भागते भी अनेक ठौर बदल लेते हैं। वे कभी ध्यानस्थ भी हो जाते हैं। जब वे ध्यान की स्थिति में होते हैं, तब नेताजी के चेला-चपाटी कहते हैं – जीवन के मर्म का संधान करने हेतु भजन कर रहे हैं और भजन के लिए ध्यान जरूरी है। नेताजी ध्यानस्थ मुद्रा में जरूर होते हैं मगर अपनी आँखें खुली रखते हैं। सी.सी.टी.वी. कैमरे की तरह दुनिया पर नज़्ार रखते हैं। जब भी मौसम उनके अनुकूल दिखा वे पल्टी मारकर वापिस आ जाते हैं। पल्टी मारना उनका विषेष गुण है। यह गुण उन्होंने सांप से सीखा है। वे सीखने से परहेज नहीं करते हैं। जो चीज उनके काम की होती है उससे वे सीख लेते हैं। गिरगिटान से रंग बदलना। पहले उनके सिर पर गाढ़े चटक लाल रंग की टोपी होती थी, पर अब भगवा मिक्स पहनते हैं। उन्हें किसी रंग से परहेज नहीं। परहेज प्रतिबंध लगाता है। वे सब चीजें खुली रखते हैं। इससे रंग बदलने में आसानी होती है। वे सिर्फ ऊपरी चोला बदल लेते हैं, पर अंदर सत्ता प्रेम बरकार रहता है और वे प्रेम में कभी धोखा नहीं देते। इससे उनकी सत्ता प्रेम की विश्वसनीयता बनी रहती है। इस प्रेम की खातिर वे कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। प्रेम बरकार रहे अतः उसमें कोई दखलंदाजी नहीं होती। मच्छर की तरह वे काटते हैं जिससे आदमी मरता नहीं है, वरन् बुखार जन्य हो जाता है। उनका कहना है – भागदौड़ करते रहो। शांत बैठ गये तो लोग भूल जाएंगे। इस कारण वे भागते रहते हैं।
वे अभी ताज़ातरीन मात्र चैबीस घंटे के लिए भागे थे। इसके पहले वे अनेक बार भागे और लम्बे समय के लिए भागे। इस बार सदल भागे थे। उनका कहना है – सबका साथ सबका विकास। उन्हें अपनी चिन्ता के साथ सबकी चिन्ता सताती है और जो बूढ़े हो गए उनसे कहते हैं – तुम धीरे-धीरे चलो मैं वापिस यही मिलूंगा। उन्हें पता है, उन्हें वापिस आना है। इस बार जल्दी वे नये अवतार में वापिस आ गए। उनका रंग बदला हुआ था। उनके रंग बदलने से कुछ लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगे, मगर वे इसकी परवाह नहीं करते हैं। वे संस्कृति और साहित्य में भी विष्वास करते हैं, अतः वे भागने को कला कहते हैं और इस कला में वे पारंगत हो गए हैं। लोग अब उन्हें कलाबाज कहने लगे हैं। अतः वे समय-समय पर कलाबाजी दिखाते रहते हैं।
कुछ दिन पहले प्रेमी वापिसी संघ, बिहारी वापिसी संघ, आधुनिक विदेष सेवा वापिसी संघ आदि ने उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर कर दी कि उन्होंने वापिसी की मूल आस्था का अपमान किया है। इससे उन सबके मन में ठेस पहुँची है इसलिए उन्होंने उन पर मानहानि का दावा ठोक दिया है। प्रेमी वापिसी संघ का कहना है – हमारा मूल मंत्र है, ‘प्रेम करो भागो’ और पलटो। प्रेम में कभी-कभी जरूरत के हिसाब से पलटना पड़ता है। एक प्रेमिका ने बताया कि प्रेमी मालदार था। उसने नया मोबाइल दिया, उसे रिचार्ज कराता था। होटल, तफरीह आदि कराता था। नये-नये कपड़े आदि का खर्च वहन करता था। प्रेमिका ने बदले में उसे सिर्फ आष्वासन पर स्थिर रखा। कहीं किसी के साथ भाग न जाए और भागे तो सिर्फ मेरे साथ। उसके नेक विचार देख मैंने सोचा कि इसके साथ भागा जा सकता है। हम भाग गए मुम्बई। भागने के लिए इससे आइडियल शहर इंडिया में कोई नहीं। यह शहर भागने वालों के लिए स्वर्ग है। हम लोग स्वर्ग ही भागे थे – वापिस न आने के लिए। भला स्वर्ग से कौन वापिस आता है। दूसरे दिन प्रेमी बाथरूम में था और उसके मोबाइल पर फोन आया। मैंने उठा लिया – अगला पूछने लगा – अबे इतने दिन से तू कहाँ है? तू हमसे बचकर नहीं भाग सकता। हम तुझे पाताल से स्वर्ग तक खोज लेंगे। तू गायब हो गया या किसी को ले भागा। बता मेरा पैसा कब वापिस करेगा? वरना करूं पुलिस में रिपोर्ट। तेरा भण्डाफोड़ कर दूंगा। इस तरह दिन भर तीन चार लोगों के फोन आए। अब उसका भाण्डा फूट चुका था। मैंने सोचा यह तो फोकट, कड़का आदमी है। इसके साथ क्या जीवन बिताना। मेरी कुण्डली जाग्रत हुई और मैं वापिस आ गयी। थोड़ा हल्ला-गुल्ला हुआ और फिर शांत हो गया। हम वापिस आने का रास्ता खुला रखते हैं, अतः वापिस आने का अधिकार हमारा है, पर यह नेताजी को यह शोभ नहीं देता है।
हमारे मुहल्ले का सुन्दर, गौरवर्ण, बलिष्ठ लड़का मुम्बई भाग गया। पता लगा वह हीरो बनने गया है। उसकी माँ चिन्ता से बेहाल हो रही है। तब लड़के के बाप ने कहा – तू चिंता मत कर। थोड़े दिन बाद वापिस आ जाएगा। कुछ दिन किसी ढाबे में बरतन मांजेगा, आखिर वह हमारा बेटा है। उसकी रगों में हमारा ही खून दौड़ रहा है। हम भागे थे, हीरो बनने, फिर वापिस आ गये। यह हमारी खानदानी परम्परा है। तू बिल्कुल चिन्ता मत कर, भागते हैं वापिसी के लिए ही। वापिस आने पर हम उसे खंूटे से बांध देंगे। जैसा हमारे बाप ने किया था। खूंटा आदमी को स्थिर रखता है। सीमा बता देता है कि तू इसके आगे नहीं जा सकता है। खूंटा से बंधा आदमी भाग नहीं सकता, बस उछलकूद कर सकता है। बंदर के समान कुलाटी मार सकता है। कुलाटी मारना भी एक कला है। यह कला भागकर वापिस आने पर आती है।
तकलीफ तब होती है, जब बेटा या बेटी भाग जाती है, वापिस न आने के लिए। माँ दरवाजे पर बाट जोहती है, कि अब आ रहा/रही है। उसकी आँखें पथरा जाती हैं, पर बेटा या बेटी वापिस नहीं आते। वह अपनी पत्नी के साथ चला जाता है दूर, बहुत दूर विदेष। वापिस न आने के लिए और माँ को विष्वास दिला जाता है, वह वापिस आएगा, जरूर आएगा, पर वहाँ से वापिस आना सरल नहीं है। जैसे बचपन में मैदान में भाग जाता था और अंधेरा होने पर वापिस आ जाता था। भागो, खूब भागो, पर समय से वापिस आ जाओ। वापिस आना, साथ निभाना, या अटूट वादा है और वापिस आओ अपना वादा निभाओ।
विश्वास बनाये रखने को कहते हैं. “विश्वासं फलम् दायकम्” ढ़ाढ़स बंधाने के काम आता है. भक्त बाबा जी के वचनो पर मगन झूमता रहता है. सदियो से “विश्वासं फलम् दायकम्” का मंत्र फलीभूत भी होता रहा है . अपना सब कुछ , घरबार छोड़कर नवविवाहिता नितांत नये परिवार में इसी विश्वास की ताकत से ही चली आती है और सफलता पूर्वक नई गृहस्थी बसा कर उसकी स्वामिनी बन जाती है. भरोसे से ही सारा व्यापार चलता है.
पर जब मैं नौकरी के संदर्भ में देखता हूं, योजनाओ की जानकारियो के ढ़ेर सारे फार्मेट देखता हूं और टारगेट्स की प्रोग्रेस रिपोर्ट का एनालिसिस करते अधिकारियो की मीटिंगो में हिस्सेदारी करता हूं तो मुझे लगता है कि इनका आधारभूत सिद्धांत ही अविश्वासं फलम् दायकम् होता है. किसी को किसी के कहे पर कोई भरोसा ही नही होता , स्मार्टफोन के इस जमाने में हर कोई फोटो प्रूफ चाहता है . “इफ और बट” वादो के दो बड़े दुश्मन होते हैं . अधिकारी लिखित सर्टिफिकेट से कम पर कोई भरोसा नहीं करता . अविश्वासं फलम् दायकम् के बल पर वकीलो की चल निकलती है, एफीडेविट, और पंजीकरण के बिना न्यायालयो के काम ही नही चलते. अविश्वास के बूते ही रजिस्ट्रार का आफिस सरकार का कमाऊ पूत होता है.
भरी गर्मी में पसीना बहाते चुनावी रैलियां और भाषण करते नेताओ को देखकर विश्वास करना पड़ता है कि इन सब को वोटर पर और तो और खुद की की गई कथित जनसेवा पर तक तन्निक भी भरोसा नही है . वरना भला जिस नेता ने पांच सालो तक वोटर की हर तरह से खिदमत की हो उसे अपने लिये मुंए वोटर से महज एक वोट मांगने के लिये इस तरह साम दाम दण्ड भेद , मार पीट , लूट पाट , खून खराबा न करवाना पड़ता . बेवफा वोटर को लुभाने के लिये जारी सारे घोषणा पत्र , वचन पत्र और संकल्प पत्र यही प्रमाणित करते हैं कि राजनेता वोटर संबंध अविश्वासं फलम् दायकम् के मंत्र पर ही काम करते हैं . चुनाव जीतने से पहले नेता वोटर पर अविश्वास करता है और चुनाव जीत जाने के बाद खुद पर वोटर के अविश्वास को प्रमाणित करने में जुटा रहता है . अविश्वास का ही फल होता है कि शर्मा हुजूरी कुछ जन कल्याण के काम हो ही जाते हैं , क्योकि बजट खतम करने की एक लास्ट डेट होती है , अविश्वासं फलम् दायकम् के चलते ही काम के लिये पर्सु॓एशन किया जाता है, कुछ काम समय पर हो जाते हैं.आाकड़ो में सजा हुआ विकास दरअसल अविश्वासं फलम् दायकम् का ही सुफल होता है. इसलिये कुछ भरोसे लायक पाना हो तो भरोसा ना करिये.