कई बार अनायास ही कुछ संयोग बन जाते हैं। हम प्रयास अवश्य करते हैं किन्तु, ईश्वर हमें संयोग प्रदान करते हैं और हम मात्र माध्यम हो जाते हैं। अब इस अंक को ही लीजिये। कुछ रचनाएँ ऐसी आईं जिन्होने इस अंक को लगभग बाल साहित्य विशेषांक का स्वरूप दे दिया। कहते हैं कि – बाल साहित्य का सृजन अत्यंत दुष्कर कार्य है। इसके लिए हमें अपने बचपन में जाना होता है। शायद इसीलिए विश्व में बाल साहित्य का अपना एक अलग स्थान है। फिर एक पालक और दादा/दादी/नाना/नानी के तौर पर हम कई बाल सुलभ प्रश्नों के उत्तर नहीं दे पाते जिनके उत्तर बाल साहित्य में छुपे रहते हैं।
आज के अंक में दैनिक स्तम्भ श्रीमद भगवत गीता के पद्यानुवाद केअतिरिक्त पढ़िये निम्न विशिष्ट रचनाएँ –
लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्समें अंकित प्रथम माता-पुत्री द्वयसुश्री नीलम सक्सेना चन्द्र एवं सुश्री सिमरन चंद्रा जी द्वारा रचित अङ्ग्रेज़ी काव्य संग्रह “Winter shall fade”की कविता ☆ Dreams ☆
बाल-साहित्य के प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी की बाल कथा लू की आत्मकथा
प्रसिद्ध मराठी साहित्यकार श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी का मराठी आलेख चिमणीचा दात
प्रसिद्ध हास्य योग प्रशिक्षक, ब्लॉगर, एवं प्रेरक वक्ता श्री जगत सिंह बिष्ट जी की रचना-प्रयोग ☆ Laughter Yoga Among School Girls in India ☆
आप इसे संयोग कह सकते हैं किन्तु, कई बार हमारे कुछ प्रयोग संयोग बन जाते हैं। विगत में हमने ऐसे ही कुछ विशिष्ट विषयों पर विशेषांक प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। हम साहित्य में ऐसे और प्रयोग करने हेतु कटिबद्ध हैं।
यह संभवतः पहली वेबसाइट है जो आपको हिन्दी, मराठी एवं अङ्ग्रेज़ी में प्रतिदिन लगभग 4 से 6 सकारात्मक रचनाएँ प्रस्तुत करती है। आपके अपने मंच e-abhivyakti को औसतन 250 से 300+ लेखक/पाठक प्रतिदिन पढ़ते हैं और अब तक 19000 से अधिक विजिटर्स पढ़ चुके हैं। आपके सुझाव और रचनाएँ e-abhivyakti को सतत नए आयाम प्रदान करते हैं जिसके लिए हम आपके आभारी हैं।
हम प्रयासरत हैं कि आपको तकनीकी रूप से आगामी अंकों को नए संवर्धित स्वरूप में प्रस्तुत किया जा सके।
इस यात्रा में मुझे अक्सर मजरूह सुल्तानपुरी जी की निम्न पंक्तियाँ याद आती हैं:
हमारे ई-अभिव्यक्ति संवाद में मैं आपको ई-अभिव्यक्ति परिवार से जुड़े कई सम्मानित साहित्यकार सदस्यों की विगत कुछ समय पूर्व प्राप्त उपलब्धियों के बारे में अवगत कराना चाहूँगा। जब हमारे परिवार के सदस्य गौरवान्वित होते हैं तो हमें भी गर्व भी का अनुभव होता।
नीलम सक्सेना चंद्रा –
नीलम सक्सेना चन्द्र जी को 1 मार्च 2019 को महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा सोहनलाल द्विवेदी सम्मान से नवाजा गया। यह उनकी किशोर/किशोरियों की कहानी की पुस्तक “दहलीज़” हेतु मिला। यह सम्मान माननीय विनोद तावड़े जी, केबिनेट मंत्री महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रदान किया गया।
56वीं पुस्तक Authorpress India द्वारा प्रकाशित काव्य एक कदम रौशनी की ओर नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित बच्चों की चित्रकथा “कसम मटमैले मशरूम की । इस चित्रकथा की 20,000 प्रतियाँ प्रकाशित
डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ –
प्रसिद्ध साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था कादंबरी, जबलपुर द्वारा “स्व. शिवनारायण पाठक सम्मान”। इसके अतिरिक्त आपको नई दुनिया के ‘जबलपुर साहित्य रत्न’ सहित अनेक स्थानीय, प्रादेशिक एवं राज्यस्तरीय सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त। आपका काव्य संग्रह किसलय के काव्य सुमन एवं दोहा संग्रह किसलय मन अनुराग काफी चर्चित रहे हैं।
सुश्री मीनाक्षी भालेराव, पृथा फ़ाउंडेशन, पुणे –
सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी को ‘इंस्पायर: बियॉन्ड मदरहुड’ अवार्ड 2019 से प्रसिद्ध सिने अभिनेत्री मानसी जोशी-राय द्वारा सम्मानित किया गया।
पृथा फाउंडेशन महाराष्ट्र में जरूरतमंद अनाथ लड़कियों की शिक्षा के लिए ग्रामीण गरीबों और साहित्यिक योगदान की मदद के लिए काम कर रहा है। यह कार्यक्रम इंस्पायर इंस्टीट्यूट की निरुपमा और प्रेरणा सिन्हा द्वारा आयोजित किया गया था।
रोटरी क्लब सिंघगढ़ शाखा द्वारा “द अंटोल्ड स्टोरी ऑफ जोंटी रोड्स” में “सोशल इंपेक्ट” पर आयोजित कार्यक्रम में श्री टीकम शेखावत जी द्वारा प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी जोंटी रोड्स के साक्षात्कार के कार्यक्रम में सामाजिक कार्यों के लिए का सम्मान।
सुश्री श्वेता सक्सेना जी द्वारा वुमेन्स टी वी की ओर से सामाजिक कार्यों के लिए सम्मान
कविराज विजय यशवंत सातपुते –
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध मशाल न्यूज़ नेटवर्क/चैनल, पालघर द्वारा आयोजित राज्यस्तरीय “एकपात्री स्पर्धा – 2019 – द्वितीय स्थान
सुश्री रंजना मधुकरराव लसणे –
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध मशाल न्यूज़ नेटवर्क/चैनल, पालघर द्वारा आयोजित राज्यस्तरीय “कविता स्पर्धा – 2019 – द्वितीय स्थान
सुश्री आरुशी दाते –
सुश्री आरुशी दाते जी को हाल ही में साहित्य संपदा द्वारा आयोजित राज्यस्तरीय काव्यलेखन स्पर्धा में उनकी कविता “वसंत” को द्वितीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
e-abhivyakti परिवार की ओर से आप सभी सम्माननीय साहित्यकारों को नमन करता है एवं कामना करता है कि आप और उन्नति के शिखर पर पहुंचे। स्वस्थ एवं सकारात्मक साहित्य का सृजन करें। पुनः बधाई एवं शुभकामनायें।
मैंने उपरोक्त जानकारी आपके लिए संकलित करने की चेष्टा की है। संभव है कि इन्हें इसके अतिरिक्त भी सम्मान/अलंकरण प्राप्त हुए हों जिनसे मैं अनभिज्ञ हूँ। यदि आप मुझसे ऐसे सम्मान/अलंकरण की जानकारी साझा करेंगे तो मुझे पाठकों से जानकारी साझा करने में प्रसन्नता होगी।
और हाँ एक बात तो आपसे बताना ही भूल गया आज इन पंक्तियाँ लिखे जाते तक आपके स्नेह से आपकी वेबसाइट के विजिटर्स की संख्या 17000+ हो गई है। इस स्नेह के लिए आभार।
आज के अंक में दो कवितायें प्रकाशित हुई हैं । सुश्री सुषमा सिंह जी, नई दिल्ली की “कविता” एवं श्री मनीष तिवारी जी, जबलपुर की “साहित्यिक सम्मान की सनक”। आश्चर्य और संयोग है की दोनों ही कवितायें सच को आईना दिखाती हैं। सुश्री सुषमा सिंह जी की “कविता” शीर्षक से लिखी गई कविता वास्तव में परिभाषित करती है कि कविता क्या है? यह सच है कि संवेदना के बिना कविता कविता ही नहीं है। मात्र तुकबंदी के लिए शब्दसागर से शब्द ढूंढ कर पिरोने से कविता की माला में वह शब्दरूपी पुष्प अलग ही दृष्टिगोचर होता है और माला बदरंग हो जाती है। इससे तो बेहतर है अपनी भावनाओं को गद्य का रूप दे दें।
इसी परिपेक्ष्य में मैंने अपनी कविता “मैं मंच का नहीं मन का कवि हूँ” में कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं जो मुझे याद आ रही हैं।
जब अन्तर्मन में कुछ शब्द बिखरते हैं
जब हृदय में कुछ उद्गार बिलखते हैं
तब जैसे
शान्त जल-सतह को
कंकड़ तरंगित करते हैं।
तब वैसे
शब्द अन्तर्मन को स्पंदित करते हैं।
बस
कोई घटना ही काफी है।
बच्चे का जन्म
बच्चे की किलकारी
फूलों की फुलवारी
राष्ट्रीय संवाद
व्यर्थ का विवाद
यौवन का उन्माद
गूढ़ चिंतन सा अपवाद।
इन सबके उपरान्त
किसी अपने का
किसी वृद्ध का देहान्त
हो सकता है एक कारण
कुछ भी हो सकता है कारण
तब हो जाता है कठिन
रोक पाना मन उद्विग्न।
तब जैसे
मन से बहने लगते हैं शब्द
व्याकुल होती हैं उँगलियाँ
ढूँढने लगती हैं कलम
और फिर
बहने लगती है शब्द सरिता
रचने लगती है रचना
कथा, कहानी या कविता।
शायद इसीलिए
कभी भी नहीं रच पाता हूँ
मन के विपरीत
शायरी, गजल या गीत।
नहीं बांध पाता हूँ शब्दों को
काफिये मिलाने से
मात्राओं के बंधों से
दोहे चौपाइयों और छंदों से।
शायद वो प्रतिभा भी
जन्मजात होती होगी।
जिसकी लिखी प्रत्येक पंक्तियाँ
कालजयी होती होंगी
आत्मसात होती होंगी।
मैं तो बस
निर्बंध लिखता हूँ
स्वछंद लिखता हूँ
मन का पर्याय लिखता हूँ
स्वांतः सुखाय लिखता हूँ।
दूसरी कविता जिसका उल्लेख मैं ऊपर कर रहा था वह ख्यातिलब्ध कवि पंडित मनीष तिवारी जी की कविता “साहित्यिक सम्मान की सनक”। यह कविता सुश्री सुषमा सिंह जी की “कविता” के विपरीत उन साहित्यिकारों पर कटाक्ष है जो सम्मान की सनक में किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। संपर्क, खेमें, पैसे और अन्य कई तरीकों से प्राप्त सम्मान को कदापि सम्मान की श्रेणी में रखा ही नहीं जा सकता। श्री मनीष तिवारी जी की सार्थक, सटीक एवं बेबाक व्यंग्य आईना दिखाती है उन समस्त तथाकथित साहित्यकारों को जो साहित्यिक सम्मान की सनक से पीड़ित हैं ।
साथ ही मुझे डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के पत्र की निम्न पंक्तियाँ याद आती हैं जो उन्होने मुझे आज से 37 वर्ष पूर्व लिखा था –
“एक बात और – आलोचना प्रत्यालोचना के लिए न तो ठहरो, न उसकी परवाह करो। जो करना है करो, मूल्य है, मूल्यांकन होगा। हमें परमहंस भी नहीं होना चाहिए कि हमें यश से क्या सरोकार। हाँ उसके पीछे भागना नहीं है, बस।”
इसके अतिरिक्त आज आप पढ़ेंगे सुश्री विजया देव जी की मराठी कविता “व्रुत्त अनलज्वाला” एवं श्री जगत सिंह बिष्ट जी के हास्य योग की यात्रा में उनके हास्य योग के न्यूजीलेंड से पधारे मित्र केरोलिन एवं डेस की स्मृतियाँ ।
कई बार विलंब एवं अत्यधिक थकान के कारण आपसे संवाद नहीं कर पाता। कई बार प्रतिक्रियाएं भी नहीं दे पाता और कभी कभी जब मन नहीं मानता तो अगले संवाद में आपसे जुड़ने का प्रयास करता हूँ।
अब कल की ही बात देखिये । मुझे आपसे कई बातें करनी थी फिर कतिपय कारणों से आपसे संवाद नहीं कर सका। तो विचार किया कि – चलो आज ही संवाद कर लेते हैं।
प्रोफेसर चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी केंद्रीय विद्यालय, जबलपुर में मेरे प्रथम प्राचार्य थे। उनका आशीष अब भी बना हुआ है। ईश्वर ने मुझे उनके द्वारा रचित श्रीमद् भगवत गीता पद्यानुवाद की शृंखला प्रकाशित करने का सौभाग्य प्रदान किया। ईश्वर की कृपा से वे आज भी स्वस्थ हैं एवं साहित्य सेवा में लीन हैं। यदि मेरी वय 62 वर्ष है तो उनकी वय क्या होगी आप कल्पना कर सकते हैं?
श्री जगत सिंह बिष्ट जी भारतीय स्टेट बैंक में भूतपूर्व वरिष्ठ अधिकारी रहे हैं। योग साधना, ध्यान एवं हास्य योग में उन्होने महारत हासिल की है। इसके अतिरिक्त वे एक प्रेरक वक्ता के तौर पर भी जाने जाते हैं। हास्य योग पर आधारित उनकी हास्य योग यात्रा की शृंखला अत्यंत रोचक बन पड़ी है।
श्री रमेश चंद्र तिवारी जी की “न्यायालय के आदेश के परिपालन में लिखी गई किताब – भारत में जल की समस्या एवं समाधान” पुस्तक पर श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी की टिप्पणी काफी ज्ञानवर्धक एवं रोचक है। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी ने स्वयं इसी परिपेक्ष्य में काफी शोध के पश्चात “जल, जंगल और जमीन” पुस्तक लिखी है।
सुश्री ऋतु गुप्ता जी की लघुकथा “वृद्धाश्रम” एवं आज डॉ मुक्ता जी की कविता “कुम्भ की त्रासदी” वृद्ध जीवन के विभिन्न पक्षों से हमें रूबरू कराती है। किन्तु इसके विपरीत कभी कभी मुझे क्यों लगता है कि वृद्ध जीवन की त्रासदी के लिए हम बच्चों को ही क्यों दोष देते हैं? क्या कभी हमने अपने जीवन में झांक कर देखा कि हममे से कितने लोगों ने अपने माता पिता की सेवा की है जो अपने बच्चों से अपेक्षा करें। फिर निम्न मध्य वर्ग के परिवार के पालक गण के तौर पर हम ही तो बचपन से उन्हें विदेश में पढ़ने बढ़ने के लिए स्वप्न देखते और स्वप्न दिखाते हैं। यह पक्ष भी विचारणीय है।
श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का व्यंग्य “वो दिन हवा हुए” हमें अपने जमाने के चुनावों, चुनाव चिन्हों और माहौल से रूबरू कराती है।
अंत में सुश्री सुजाता काले जी कविता “खारा प्रश्न”, खारा ही नहीं बल्कि “खरा प्रश्न” जान पड़ता है। इस संदर्भ में मुझे मेरी कविता “दिल, आँखें और आँसू” की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं जिसमें मैंने पुरुष की आँखों केहै। खारे पानी की कल्पना की है।
आज मई दिवस है, आप छुट्टियाँ माना रहे होंगे। वैसे तो मई दिवस मनाने के कई कारण हैं । विश्व के विभिन्न भागों में कई लोग इसलिए भी मई दिवस मनाते हैं क्योंकि वे इस वसंत ऋतु की शुरुआत मानते हैं । किन्तु , मैंने जब से होश संभाला और जाना तब से मुझे पता चला कि मई दिवस को मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाता है। जब मैंने इसके तह में जाने की कोशिश की तो पता चला कि कई परेडों और हड़ताल के बात फ़ैडरेशन ऑफ ओर्गेनाइज्ड ट्रेड एंड लेबर यूनियनों नें अनौपचारिक रूप से अक्तूबर 1886 में तय किया कि काम का समय प्रतिदिन आठ घंटे निर्धारित किया जाए ताकि मजदूर पूरे दिन के कार्य में अत्यधिक श्रम और तनाव से स्वयम को बचा सके।
अभी अभी प्राप्त श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी की कविता आपसे साझा करना चाहूँगा।
“मजदूर दिवस ”
यदि पेट पीठ से मिला
यदि बंडी में छेद मिला
चिलचिलाती धूप में मिला
भूख में हड़बड़या वो मिला
उधारी से वो सरोबार मिला
दवाई को तड़फता मिला
पसीने की गंध लिए मिला
ठेकेदार से मार खाता मिला
उधर नूनरोटी लिए मिला
दर्द को गले लगाता मिला
वोट डालते हुए डरते मिला
जहाँ भी मिला मैं ही मैं मिला
– जय प्रकाश पांडेय
आज के इस ऐतिहासिक दिवस पर आपका अपार स्नेह और मेरा थोड़ा सा श्रम रंग लाया। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक जब मैं e-abhivyakti के डेश बोर्ड का अवलोकन कर रहा था तो पाया कि हमने अब तक अनवरत 198 दिनों में 755 रचनाएँ प्रकाशित की एवं उनपर 610 कमेंट्स पाये हैं साथ ही विजिटर्स की संख्या 15,000 पार कर गई है। आप सभी का आभार। इसके अतिरिक्त और कई ऊंचाइयों को स्पर्श किया है जिन्हें मैं आपसे अलग से शेयर करूंगा।
आज के अंक में आप पाएंगे प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी का भगवतगीता के पद्यानुवाद में द्वितीय अध्याय का 60 वें श्लोक का पद्यानुवाद, हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी में भावार्थ। श्री जगत सिंह बिष्ट जी की हास्य योग (Laughter Yoga) की यात्रा के दो पड़ाव भारतीय स्टेट बैंक सिटीजन कार्यक्रम एवं भारतीय स्टेट बैंक के प्रशिक्षण केन्द्रों में उनका हास्य योग का प्रवेश। डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी का देश को प्रगतिपथ पर ले जाने का काव्यात्मक आह्वान। श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की मातृभाषा एवं देशप्रेम से ओतप्रोत मराठी कविता “भुपाळी” । श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी का चुनाव चिन्हों एवं पुराने दिनों के चुनावों पर आधारित राजनीतिक व्यंग्य “वो दिन हवा हुए” । सुश्री निशा नंदिनी जी की रोलर कोस्टर “यूरोप यात्रा” जो आपको निश्चित ही यूरोप की सजीव यात्रा कराने में सक्षम है।
जिस स्तर के डिजिटल साहित्यिक मंच की परिकल्पना की थी, उस मार्ग पर आप सब के स्नेह से प्रगति पथ पर e-abhivyakti अग्रसर है।
गुरुवर साहित्य मनीषियों का आशीर्वाद, सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर एवं सुधि पाठक ही मेरी पूंजी है। विजिटर्स की बढ़ती संख्या 14,500 से अधिक मन में उल्लास भर देती है और सदैव नवीन प्रयोग करते रहने के लिए प्रेरित करती है। 15 अक्तूबर 2018 से प्रारम्भ यात्रा अब तक अनवरत जारी है।
आज e-abhivyakti के जन्म से सतत स्थायी स्तम्भ का स्वरूप लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी की योग-साधना/LifeSkills को कुछ समय के लिए विराम देते हैं जो कुछ अंतराल के पश्चात पुनः नए स्वरूप में आपसे रूबरू होंगे।
इसी बीच आध्यात्म/Spiritual स्तम्भ के अंतर्गत आप प्रतिदिन प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी का श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद आत्मसात कर रहे हैं।
श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का व्यंग्य विधा पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ – सवाल जवाब प्रति रविवार प्रकाशित हो रहा है।
आज से प्रति रविवार सुश्री आरुशी दाते जी का मराठी आलेख का साप्ताहिक स्तम्भ “मी_माझी” प्रारम्भ कर रहे हैं।
आज का अंक कई माय में विशेषांक के स्वरूप में परिणित हो गया है।
आज के अंक में आप उपरोक्त साप्ताहिक स्तंभों के अतिरिक्त पढ़ सकेंगे सुश्री सुषमा सिंह जी की एक बेहद भावुक एवं हृदयस्पर्शी कविता “छल”। यह आपको तय करना है कि किसने किसको छल। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी का व्यंग्य “रोमांच पैदा करते दर्रे”। भोपाल के न्यू मार्केट की गली में दोनों ओर से सड़क की ओर बढ़ती दुकानों के बीच व्यंग्यकार के राह चलते विभिन्न पात्रों की यात्रा निश्चय ही आपको रोमांच से भर देगी। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी की कविता “My Dreams” आपके स्वप्नों को साकार करने हेतु एक सकारात्मक संदेश देती है। इसे आप अपनी जीवन यात्रा से कैसे जोड़ते हैं यह आप पर निर्भर करता है। श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश” जी की कविता “जवाबदार कौन….?” आपको सोचने पर मजबूर कर देगी कि लोकतन्त्र के इस पर्व पर आखिर जवाबदार कौन है?
तो फिर देर किस बात की पढ़िये आज का विशेषांक एवं अपनी बेबाक राय दीजिये ताकि भविष्य में e-abhivyakti को और अधिक पठनीय बनाया जा सके।
यह जीवन चक्र है जिसमें हम जीते हैं। कभी मैंने लिखा था :
The Life after death
is definite
and
the journey
between life and death
is
definition of Life
हम जन्म से मृत्यु तक पाते हैं कि हर समय हमारे सिर पर किसी न किसी का हाथ होता है। वह हाथ माता पिता, गुरु, वरिष्ठ …… या वह वरिष्ठ पीढ़ी जिसने सदैव हमें मार्गदर्शन दिया है।
अभी 17 अप्रैल 2019 के अखबार में भारत सरकार का एक विज्ञापन देखा। मैं नहीं जनता कि कितने लोगों नें उस पर ध्यान दिया है और कितने व्योश्रेष्ठ इस सम्मान के लिए अपना आवेदन देंगे। इस व्योश्रेष्ठ सम्मान का विज्ञापन निम्नानुसार है।
विस्तृत जानकारी के लिए देखें www.socialjustice.nic.in
अब यह हमारा दायित्व बनता है कि हम ढूंढ ढूंढ कर ऐसी पीढ़ी के मनीषियों के लिए उनकी ओर से आवेदन भरने में मदद करें।
यह कहावत एकदम सच है कि – आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है।
कल आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व एवं कृतित्व आलेख लिखा साथ ही उनकी एक व्यंग्य कविता – घोषणा पत्र का कविता पाठ एक सामयिक विडियो भी तौर पर अपलोड किया।
कुछ पाठक मित्रों ने फोन पर बताया कि- वे यह विडियो देख नहीं पा रहे हैं। मुझे लगा कि मेरा परिश्रम व्यर्थ जा रहा है। ब्लॉग साइट एवं वेबसाइट की स्पेस संबन्धित कुछ सीमाएं होती हैं। तुरन्त फेसबुक पर लोड किया। किन्तु, फिर भी मन नहीं माना। वास्तव में फेसबुक विडियो के लिए है ही नहीं। अन्त में निर्णय लिया कि क्यों न e-abhivyakti का यूट्यूब चैनल ही तैयार कर लिया जाए जो ऐसी समस्याओं का हल होना चाहिए।
इन पंक्तियों के लिखे जाते तक यूट्यूब चैनल e-abhivyakti Pune नाम से तैयार हो चुका है और आप निम्न लिंक पर वह विडियो देख सकते हैं।
अब आप उपरोक्त विडियो हमारे यूट्यूब चैनल e-abhivyakti Pune पर भी देख सकते हैं। इसके लिए कृपया निम्न लिंक पर क्लिक करें।)
आचार्य भगवत दुबे जी एक महाकवि ही नहीं हमारी वरिष्ठ पीढ़ी के साहित्य मनीषी हैं जिन्होने एक सम्पूर्ण साहित्यिक युग को आत्मसात किया है। हम लोग भाग्यशाली हैं जिन्हें उनका एवं उनकी पीढ़ी के वरिष्ठ साहित्यकारों जैसे डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी का सानिध्य एवं आशीर्वाद प्राप्त है।
यदि आपके पास हमारी वयोवृद्ध पीढ़ी के साहित्य मनीषियों की जानकारी उपलब्ध है तो आप सहर्ष भेज सकते हैं। हम ऐसी जानकारी प्रकाशित कर गौरवान्वित अनुभव करते हैं।
(कल आपने डॉ मुक्ता जी के मनोभावों को ई-अभिव्यक्ति: संवाद-25 में अतिथि संपादक के रूप में आत्मसात किया। इसी कड़ी में मैं डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी का हृदय से आभारी हूँ। उन्होने मेरा आग्रह स्वीकार कर आज के अंक के लिए अतिथि संपादक के रूप में अपने उद्गार प्रकट किए।डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी ने ई-अभिव्यक्ति: संवाद–22 के संदर्भ में अपनी बेबाक राय रखी। यह सत्य है कि साहित्यकार को सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। साहित्यकार भौतिक जीवन के अतिरिक्त अपने रचना संसार में भी जीता है। अपने आसपास के चरित्रों या काल्पनिक चरित्रों के साथ सम्पूर्ण संवेदनशीलता के साथ। डॉ प्रेम कृष्ण जी का हार्दिक आभार।)
साहित्यकार को सीमाओं में मत बांधे
इसमें कोई संदेह नहीं कि साहित्यकार के पीछे उसका अपना भी कोई इतिहास, घटना/दुर्घटना अथवा ऐसा कोई तथ्य रहता है जो साहित्यकार में भावुकता एवं संवेदनाएं ही नहीं उत्पन्न करता है, बल्कि उसे नेपथ्य में प्रोत्साहित अथवा उद्वेलित भी करता है, जिसके परिणाम स्वरूप वह रचना को कलमबद्ध कर पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास करता है। इसीलिए कहा गया है “वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान”। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि उसकी सभी रचनाएँ उसकी आत्मबीती घटनाओं से ही प्रेरित हों।
कवि की कविता सिर्फ उसकी आप बीती और उसकी आत्माभिव्यक्ति ही नहीं होती बल्कि उसके आसपास के अन्य व्यक्तियों के साथ जो कुछ घट रहा होता है, वह उसे भी अपनी संवेदना से महसूस ही नहीं करता है बल्कि अभिव्यक्त करने का प्रयास भी करता है। प्रणयबद्ध पक्षी युगल के प्रातः काल नदी किनारे आखेटक द्वारा तीरबद्ध करने पर उन पक्षियों की पीड़ा के रूप में आदिकवि वाल्मीकि के मुंह से जो अनुभूतियाँ एवं उद्गार सर्व प्रथम साहित्य के असीम अनंत संसार को प्राप्त हुए वह कविता ही तो थी।
जब तक साहित्यकार, चाहे किसी भी विधा में क्यों न हो, अपने हृदय में दबे हुए उद्गार कलमबद्ध कर के पाठकों तक नहीं पहुंचा देता, वह छटपटाता रहता है । गर्भ में पल रहे बच्चे की मनोभावनाओं की कल्पना इतनी सहज एवं आसान नहीं है पर असंभव भी नहीं। स्त्री कवियित्रि ही उन मनोभावों को किसी पुरुष कवि की परिकल्पना से अधिक सहज स्वरूप दे सकती है क्योंकि वह गर्भ में नौ महीने शिशु को पालती है। ऐसा भी नहीं है क्योंकि पुरूष भी शिशु को नौ महीने पिता के रूप में अपने मन मस्तिष्क में पालता है और अनुभूतियाँ एवं संवेदनाएं शरीर से पहले और शरीर से अधिक मन और मस्तिष्क में उपजती हैं । तभी तो नर और नारी में कामकेलि के पूर्व हृदय में प्रेम उत्पन्न होना आवश्यक है। प्रेम विहीन कामक्रिया तो एक शारीरिक भूख है जो मनुष्य को पशुओं के समकक्ष लाकर खड़ा कर देती है जो हमारे मनुष्य होने पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करती है।
ऐसा भी नहीं है कि पुरुष साहित्यकार नारी की भावनाओं का चित्रण जितना नारी साहित्यकार कर सकती है उतना नहीं कर सकता है और नारी साहित्यकार पुरूषों की भावनाओं का चित्रण उतना बखूबी नहीं कर सकता है जितना कि पुरुष साहित्यकार। प्रेमचंद, शरतचंद, रवीन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र ने अपने साहित्य में नारी भावनाओं का चित्रण पूर्ण संवेदना के साथ बखूबी किया है। इसी प्रकार नारी साहित्यकारों ने भी पुरुषों की भावनाओं का चित्रण भली-भांति किया है। जब साहित्यकार अपने पात्रों का चित्रण करता है तो वह स्वयं को भूल जाता है और अपने द्वारा सर्जित पात्रों की जिंदगी जीता है और उसके पात्र की अनुभूतियाँ एवं संवेदनाएं उसमें पूर्णतया आत्मसात हो जातीं हैं। साहित्यकार की व्यष्टि से समष्टि और समष्टि से इष्ट तक की यात्रा तभी पूर्ण होती है जब वह पुरुष होकर नारी और नारी हो कर पुरूष की भावनाओं एवं संवेदनाओं को महसूस कर अभिव्यक्त कर सकते हैं। इतना ही नहीं प्रेम चंद जैसे साहित्यकारों ने तो पशुओं की भी अनुभूतियों, भावनाओं एवं संवेदनाओं का चित्रण बडी़ ही मार्मिकता से किया है – उनके द्वारा कथ्य दो बैलों की जोड़ी कहानी इस का सटीक उदाहरण है। कृशनचंदर द्वारा सर्जित एक गधे की आत्मकथा भी ऐसा ही एक ज्वलंत उदाहरण है। इसीलिये तो कहा गया है “जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि”। आवश्यकता है तो केवल इस बात की कि साहित्यकार अपने उत्तरदायित्वों को पूरी ईमानदारी से निभाएं क्योंकि साहित्य समाज का सिर्फ दर्पण ही नहीं होता है बल्कि समाज का मार्गदर्शन भी करता है।
(मैं आदरणीया डॉ मुक्ता जी का हृदय से आभारी हूँ। उन्होने आज के अंक के लिए अतिथि संपादक के रूप में अपने उद्गार प्रकट किए।डॉ मुक्ता जी ने ई-अभिव्यक्ति: संवाद–22 के संदर्भ में मेरे आग्रह को स्वीकार कर अपने बहुमूल्य समय में से मेरे लिए अपने हृदय के समुद्र से मोतिस्वरूप शब्दों को पिरोकर जो यह शुभाशीष दिया है, उसके लिए मैं निःशब्द हूँ। यह आशीष मेरे साहित्यिक जीवन की पूंजी है, धरोहर है। इसी अपेक्षा के साथ कि – आपका आशीष सदैव बना रहे। आपका आभार एवं सादर नमन। )
संवेदनाओं का सागर
हृदय में जब सुनामी आता /सब कुछबहाकर ले जाता। गगनचुंबी लहरों में डूबता उतराता मानव। । प्रभु से त्राहिमाम …… त्राहिमाम की गुहार लगाता/लाख चाहने पर भी विवश मानव कुलबुलाता-कुनमुनाता परंतु नियति के सम्मुख कुछ नहीं कर पाता और सुनामी के शांत होने पर चारों ओर पसरी विनाश की विभीषिका और मौत के सन्नाटे की त्रासदी को देख मानव बावरा सा हो जाता है और एक लंबे अंतराल के पश्चात सुकून पाता है ।
इसी प्रकार साहित्यकार जन समाज में व्याप्त विसंगतियों – विशृंखलताओं और विद्रूपताओं को देखता है तो उस्का अन्तर्मन चीत्कार कर उठता है। वह आत्म-नियंत्रण खो बैठता है और जब तक वह अंतरमन की उमड़न-घुमड़न को शब्दों में उकेर नहीं लेता, उसके आहत मन को सुकून नहीं मिलता। वह स्वयं को जिंदगी की ऊहापोह में कैद पाता है और उस चक्रव्युह से बाहर निकलने का भरसक प्रयास करता है। परंतु, उस रचना के साकार रूप ग्रहण करने के पश्चात ही वह उस सृजन रूपी प्रसव-पीड़ा से निजात पा सकता है। वह सामान्य मानव की भांति सृष्टि-संवर्द्धन में सहयोग देकर अपने दायित्व का निर्वहन करता है।
जरा दृष्टिपात कीजिये, हेमन्त बावनकर जी की रचना ‘स्वागत’ पर …. एक पुरुष की परिकल्पना पर जिसने गर्भ में पल रहे बच्चे की मनोभावनाओं को सहज-साकार रूपाकार प्रदान किया है, जो उनकी संवेदनशीलता को दर्शाता है। वे गत तीन दिन तक नीलम सक्सेना चंद्रा जी की अङ्ग्रेज़ी कविताओं ‘Tearful Adieu’ एवं ‘Fear of Future’ और प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की कविता ‘यद्यपि नवदुर्गा का स्वरूप है’ को पढ़कर उद्वेलित रहे। इन कविताओं ने उन्हें उनकी रचना ‘स्वागत’ की याद दिला दी जिसकी रचना उन्होने अपनी पुत्रवधु के लिए की थी जब वह गर्भवती थी।
उस समय उनके मन का ज्वार-भाटा ‘स्वागत’ कविता के सृजन के पश्चात ही शांत हुआ होगा, ऐसी परिकल्पना है । हेमन्त जी ने नारी मन के उद्वेलन का रूपकार प्रदान किया है – भ्रूण रूप में नव-शिशु के आगमन तक की मनःस्थितियों का प्रतिफलन है। उन दोनों के मध्य संवादों व सवालों का झरोखा है जो बहुत संवेदनशील मार्मिक व हृदयस्पर्शी है।
‘स्वागत’ कविता को पढ़ते हुए मुझे स्मरण हो आया, सूरदास जी की यशोदा मैया का, कृष्ण की बालसुलभ चेष्टाओं व प्रश्नों का, जो गाहे-बगाहे मन में अनायास दस्तक देते हैं और वह उस आलौकिक आनंद में खो जाती है। ‘सूर जैसा वात्सल्य वर्णन विश्व-साहित्य में अनुपलब्ध है….. मानों वे वात्सल्य का कोना-कोना झांक आए हैं? कथन उपयुक्त व सार्थक है। हेमन्त जी ने इस कविता के माध्यम से एक भ्रूण के दस्तक देने से मन में आलोड़ित भावनाओं को बखूबी उड़ेला है व प्रतिपल मन में उठती आशंकाओं को सुंदर रूप प्रदान किया है। भ्रूण रूप में उस मासूम व उसकी माता के मन के अहसासों-जज़्बातों व भावों-अनुभूतियों को सहज व बोधगम्य रूप में प्रस्तुत किया है। भ्रूण का हिलना-डुलना, हलचल देना उसके अस्तित्व का भान कराता है, मानों वह उसे पुकार रहा हो। वह सारी रात उसके भविष्य के स्वप्न सँजोती है। नौ माह तक बच्चे से गुफ्तगू करना, अनगिनत प्रश्न पूछना, मान-मनुहार करना उज्ज्वल भविष्य के स्वप्न संजोना, रात भर माँ का लोरी तथा पिता का कहानी सुनना। दादा-दादी का उसे पूर्वजों की छाया-प्रतीक रूप में स्वीकारना, जहां उनके बुजुर्गों के प्रति श्रद्धाभाव को प्रदर्शित करता है वहीं भारतीय संस्कृति में उनके अगाध-विश्वास को दर्शाता है, वही उससे आकाश की बुलंदियों को छूने के शुभ संस्कार देना, माँ के दायित्व-बोध व अपार स्नेह की पराकाष्ठा है, जिसमें नवीन उद्भावनाओं का दिग्दर्शन होता है।
भ्रूण रूप में उस मासूम के भरण-पोषण की चिंता, गर्मी, सर्दी, शरद, वर्षा ऋतु में उसे सुरक्षा प्रदान करना। सुरम्य बर्फ का आँचल फैलाना उसके आगमन पर हृदय के हर्षोल्लास को व्यक्त करता है। मानव व प्रकृति का संबंध अटूट है, चिरस्थायी है और प्रकृति सृष्टि की जननी है। और दिन-रात, मौसम का ऋतुओं के अनुसार बदलना तथा अमावस के पश्चात पूनम का आगमन समय की निरंतर गतिशीलता व मानव का सुख-दुख में सं रहने का संदेश देता है।
परन्तु, माता को नौ माह का समय नौ युगों की भांति भासता है जो उसके हृदय की व्यग्रता-आकुलता को उजागर करता है। धार्मिक-स्थलों पर जाकर शिशु की सलामती की मन्नतें मानना व माथा रगड़ना जहां उसका प्रभु के प्रति श्रद्धा -विश्वास व आस्था के प्रबल भाव का पोषक है, वहीं उसकी सुरक्षा के लिए गुहार लगाना, अनुनय-विनय करना भी है।
अंत में माँ का अपने शिशु को संसार के मिथ्या व मायाजाल और जीवन में संघर्ष की महत्ता बतलाना, आगामी आपदाओं व विभीषिकाओं का साहस से सामना करने का संदेश देना बहुत सार्थक प्रतीत होता है। परंतु माँ का यह कथन “मैंने भी मन में ठानी है, तुम्हें अच्छा इंसान बनाऊँगी’ उसके दृढ़ निश्चय, अथाह विश्वास व अगाध निष्ठा को उजागर करता है। यह एक संकल्प है माँ का, जो उस सांसारिक आपदाओं में से जूझना ही नहीं सिखलाती, बल्कि स्वयं को महफूज़ रखने व सक्षम बनाने का मार्ग भी दर्शाती है।
हेमन्त जी ने ‘स्वागत’ कविता के माध्यम से मातृ-हृदय के उद्वेलन को ही नहीं दर्शाया, उसके साथ संवादों के माध्यम से हृदय के उद्गारों को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किया है। उनका यह प्रयास श्लाधनीय है, प्रशंसनीय है, कल्पनातीत है। उनकी लेखनी को नमन। उनकी चारित्रिक विशेषता व साहित्यिक लेखन के बारे में मुझे शब्दभाव खलता है और मैं अपनी लेखनी को असमर्थ पाती हूँ। वे साहित्य जगत के जाज्वल्यमान नक्षत्र की भांति पूरी कायनात में सदैव जगमगाते रहें तथा अपने भाव व विचार उनके हृदय को आंदोलित-आलोकित करते रहें। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ —
शुभाशी,
मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।)