हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य – # 24 ☆ व्यंग्य – हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और ”.  इस व्यंग्य को पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 24 ☆ 

☆ हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और ☆

आज जब मैं अखबार पढ़ रहा था तो मुझे लगा कि जीव विज्ञान के शाश्वत सिद्धान्त के आधार पर बनी भाषा विज्ञान की यह कहावत कि हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और समय के साथ संशोधन योग्य है ! आजकल दाँत केवल खाने और दिखाने मात्र के ही नहीं होते ! हमारे राजनेताओ के विरोधियों को काटने वाले दाँत दिखते तो नहीं पर सदा सक्रिय रहते हैं ! इन नेताओं की बडे ओहदो पर सुप्रतिष्ठित प्रतिष्ठित अधिकारियों के खींसे निपोरकर चाटुकारिता करने वाले दाँत भी आपने जरूर देखे ही होंगे ! मुस्कराकर बडी से बडी बात टाल जाने वाले पालिश्ड दाँतों की आज बडी डिमाँड है ! विज्ञापन प्रिया के खिलखिलाते दाँत हर पत्र पत्रिका की शोभा होते हैं जिस में उलझकर आम उपभोक्ता पता नही क्या क्या खरीद डालता है ! हमारे नेता दिखाने के सिर्फ दो और खाने के बत्तीस पर जाने कितने ही दाँत अपने पेट मे संग्रह कर छिपाये घूम रहे हैं ! जिनकी खोज में विरोधी दल इनकम टैक्स डिपार्टमेंट सी बी आई वगैरह लगे ही रहते हैं ! बेचारे हाथी के तो दो दो दाँतों के व्यापार में ही वीरप्पन ने जंगलों मे अपनी जिंदगी गुजार दी सरकारें हिल गई वीरप्पन के दाँत खट्टे करने के प्रयासों में ! दाँत पीस पीस कर रह गईं पर उसे जिंदा पकड नही पाई !

माँ बताती थीं कि जिसके पुरे बत्तीस दाँत होते हैं उसका कहा सदा सच होता है मुझे आज किसी का कहा सच होते नहीं दिखता इससे मेरा अनुमान है कि भले ही लोगों के दिखने वाले दाँत बत्तीस ही हों पर कुछ न कुछ दांत वे अवश्य ही छिपाये रहते होंगे ! कुथ कहना कुछअलग सोचना और उस सबसे अलग कुछ और ही करना कुशल राजनीतिज्ञ की पहली पहचान है !

सांप का तो केवल एक ही दाँत विषग्रंथि लिये हुये होता है पर मुझे तो अपने प्रत्येक दाँत में एक नये ही तरह का जहर दीखता है ! आप की आप जाने !

चूहा अपने पैने दाँतों के लिये प्रसिद्ध है ! वह कुतरने के लिये निपुण माना जाता है ! पर थोडा सा अपने चारों तरफ नजर भर कर देखिये तो सही आप पायेंगे कि हर कोई व्यवस्था को कुतरने में ही लगा हुआ है ! बेचारी ग्रहणियां महीने के आखीर में कुतरी हुई चिंधियों को जोड कर ग्रहस्थी की गाडी चलाये जा रहीं हैं !

शाइनिंग टीथ के लिये विभिन्न तरह के टुथपेस्ट इस वैश्विक बाजार ने सुलभ करा दिये हैं ! माँ बाप बच्चों को सोने से पहले और जागने के साथ ही आर्कषक टुथ ब्रश पर तरोताजा रखने वाला तुथ पेस्ट लगाकर मुँह साफ करने की नैतिक एवं स्वास्थ्य शिक्षा देते हैं पर पीलापन बढ़ता ही जाता है ! नये नये डेंटल कालेज खुल रहे हैं जिनमें वैद्य अवैद्य तरीकों से एद्मीशन पाने को बच्चे लालायित हैं !

एक चीनी संत ने अपने आखिरी समय में शिष्यों को बुलाकर अपना मुँह दिखा कर पूछा कि क्यों जीभ बाकी है पर दाँत गिर गये हैं जबकि दाँत बाद में आये थे जीभ तो आजन्म थी और मृत्युपर्यंत रहती है ! शिष्य निरुत्तर रह गये ! तब संत ने शिक्षा दी कि दाँत अपनी कठोरता के चलते गिर जाते हैं पर जीभ मृदुता के कारण बनी रहती है ! मुझे लगता है कि यह शाश्वत शिक्षा जितनी प्रासंगिक तब थी आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण है ! आइये अपने दाँतों का पैना पन कुछ कम करें और दंतदंश उतना ही करें जितना प्रेमी युगल परस्पर करता है !

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 25 – व्यंग्य – प्रमोशन ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका एक व्यंग्य “प्रमोशन। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 25 ☆

☆ व्यंग्य – प्रमोशन  

प्रशासनिक अधिकारियों को दिए जाते हैं टारगेट …….।  टारगेट पूर्ति करा देती है प्रमोशन।

सरकार ऊपर से योजनाएँ अच्छी बनाकर भेजती है पर टारगेट के चक्कर में मरते हैं बैंक वाले या गरीब या किसान………….

शासकीय योजनाओं में एक योजना आई थी आई आर डी पी ( Integrated Rural Development Programme (‘IRDP)। गरीबी रेखा से ऊपर उठाने के लिए योजना अच्छी थी पर जिला स्तर पर, और ब्लाक स्तर पर अधिकारियों, कर्मचारियों और बैंक वालों का सात्विक और आत्मिक को-आर्डिनेशन नहीं बनने से यह योजना असफल सी हो गयी। ज्यादातर लोन डूब गए तो बाद में लोग ‘IRDP‘ को कहने लगे “इतना रुपया तो डुबाना ही पड़ेगा” 

योजना असफल होने में एक छुपी हुई बात ये भी थी कि इस योजना में जो भी आई ए एस अपना एनकेन प्रकारेण टारगेट पूरा कर लेता था उनकी सी आर उच्चकोटि की बनती थी और उनका प्रमोशन पक्का हो जाता था और इधर बैंक वालों के लिए लोन देना आफत बन जाता था। हरित-क्रांति और सफेद-क्रांति का पलीता लगने के ये भी कारण रहे होंगे,शायद।

एक बार शासकीय योजनाओं में जबरदस्ती लोन दे देने का फैसला लेने वाली  आए ए एस मेडम का किस्सा याद आता है। मेडम ने अपना टारगेट पूरा करने का ऐसा प्रेशर बनाया कि जिले के सब बैंक वाले परेशान हो गए।  जिला मुख्यालय में एक होटल में मींटिग बुलाई गई। सब बैंकर रास्ता देखते रहे। वे दो घन्टे मींटिग में लेट आईं।  सबने देखा मेडम की ओर देखा। आजू बाजू बैठे लोगों ने फुसफुसाते हुए कहा लगता है पांव भारी हैं। यहाँ तक तो ठीक था और सब बैंकर्स मीटिंग में होने वाली देरी से चिंतित भी लगे कि शाखा में सब तकलीफ में होंगे।  स्टाफ कम है, बिजली नहीं रहती, जेनरेटर खराब रहा आता है। खैर,  मीटिंग चालू हुई तो सब बैंकरों पर मेडम इतनी जमके बरसीं कि कुछ लोग बेहोश होते-होते बचे। जबकि बैंकर्स की कोई गलती नहीं थी। मेडम हाथ धोकर बैंकर्स के पीछे पड़ गईं बोली – “मुझे मेरे टारगेट से मतलब है। ऐरा गैरा नथ्थू  खैरा, किसी को भी लोन बांट दो, चाहे पैसा वापस आए, चाहे न आए।  हमारा टारगेट पूरा होना चाहिए।“ नहीं तो फलां-फलां किसी भी एक्ट में फंसाकर अंदर किये जाने का डर मेडम ने सबको प्रेम से समझा दिया। मेडम बैंकर्स के ऊपर बेवजह इतनी गरजी बरसीं कि मीटिंग की ऐसी तैसी हो गई।

मेडम के मातहत और अन्य विभागों के लोग भी शर्मिंदगी से धार धार हो गए। उनके विभाग वालों ने भी फील किया कि बैंक वालों की कोई गलती नहीं है। विभागों से प्रकरण बनकर बैंक में जमा भी नहीं हुए और मेडम प्रमोशन के चक्कर में बेचारे बैंक वालों को उटपटांग भाषा में डांट रहीं हैं और धमकी दे रही है।

उनको देख देखकर सबको दया भी आ रही थी पर किया क्या जा सकता था। सातवाँ या आंठवा महीना चल रहा था……….. बाद में पता चला मेडम लम्बी छुट्टी पर जाने वाली हैं इसलिए छुट्टी में जाने के पहले सौ परसेंट टारगेट पूरा करना चाह रहीं हैं। क्यूंकी अभी उनका प्रमोशन भी डयू है।

हालांकि दो साल बाद पता चला कि उनका प्रमोशन हो गया था। पर पूरे जिले के नब्बे परसेंट गरीब और किसान डिफ़ॉल्टर लिस्ट पे चढ़ गए थे। ऐसे में किसान आत्महत्या नहीं करेगा तो क्या करेगा।

बैकों की दुर्गति और बैंकर्स के हाल!

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 28 – व्यंग्य – टेलीफोन के कुछ खास फायदे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं।  कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है.  आज का व्यंग्य  है  टेलीफोन के कुछ खास फायदे।  टेलीफोन के कुछ ख़ास फायदे तो आपको भी मालूम हैं किन्तु, डॉ परिहार जी की भेदी दृष्टी ने जो कुछ देखा और शोध किया है उससे आपको निश्चित ही ऐसा ज्ञान प्राप्त होगा जिसकी कल्पना मात्र से आपके होश उड़ जायेंगे । ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 28 ☆

☆ व्यंग्य – टेलीफोन के कुछ खास फायदे ☆

इस बात से भला कौन इनकार करेगा कि टेलीफोन आज के ज़माने की नेमत है। आदमी दुनिया में कहीं भी बैठा हो,तत्काल बात हो जाती है। यह आज के युग का चमत्कार है।

लेकिन टेलीफोन के जो फायदे अमूमन सबको दिखाई पड़ते हैं उनके अलावा भी कुछ फायदे हैं जिनको मेरी भेदी दृष्टि ने पकड़ा है।

टेलीफोन आज इसलिए वरदान है क्योंकि आज आदमी आदमी का मुँह नहीं देखना चाहता। अब आपसे सटा हुआ पड़ोसी भी आपसे टेलीफोन पर बात करता है। शहरों में यह हाल है कि पड़ोसी पड़ोसी को न पहचानता है, न पहचानना चाहता है। बाहर कहीं पार्टी वार्टी में मिल जाएं तभी परिचय होता है। पड़ोसी को कोई पीटे या लूटे तो संभ्रान्त जन खिड़की नहीं खोलते। ऐसे में जब पड़ोसी की सूरत देखना गवारा न हो तो मजबूरन बात करने के लिए टेलीफोन से बेहतर क्या हो सकता है?बात भी हो जाए और मनहूस सूरत भी न देखना पड़े।

पहले आदमी की तबियत ऐसी थी कि आसपास आदमियों को देखे बिना कल नहीं पड़ती थी। किसी के भी घर कभी भी पहुँच गये—‘मियाँ, क्या हो रहा है?’ मेरे एक मित्र के पिताजी के दोस्त उनके घर पंद्रह बीस साल तक लगातार  नाश्ता करने आते रहे और किसी को कभी कुछ अटपटा नहीं लगा। नाश्ता करने के बाद वे इत्मीनान से अखबार पढ़कर विदा होते थे। ऐसे लोगों को टेलीफोन की दरकार नहीं थी। अब हालत यह है कि घर में कोई दो दिन रुक जाए तो घर की चूलें हिलने लगती हैं। इसलिए संबंध रखने के लिए टेलीफोन ही भला।

टेलीफोन से दूसरा फायदा यह है कि अब दूसरे के घर पहुँचने पर होने वाली अड़चनों से बचा जा सकता है। किसी के घर पहुँच जाओ तो उसे लोकलाज के लिए चाय वाय के लिए पूछना पड़ता है। अ  जैसे जैसे रिश्ते दुबले हो रहे हैं, चाय पिलाना फालतू काम बन रहा है।चाय पिलाने के भी तरह तरह के नमूने देखने को मिलते हैं, जैसे एक जगह सुनने को मिला, ‘हमने अभी अभी चाय पी है, आप पियें तो बनवा दें।’ दूसरी जगह सुना, ‘हम तो चाय पीते नहीं, आप कहें तो आपके लिए बनवा दें।’ एक जगह ऐसा हुआ कि एक घंटे तक कोरे पानी पर वार्तालाप चलने के बाद जब उठने लगे तब गृहस्वामी ने फरमाया, ‘अरे आपको चाय वाय के लिए तो पूछा ही नहीं, थोड़ा और बैठिए न।’ ऐसे रिश्तों के लिए टेलीफोन बढ़िया संकटमोचन है।

टेलीफोन का एक बड़ा फायदा यह है कि वह हमें मेज़बान के कुत्तों से बचाता है, जो मेहमानों के स्वागत के लिए हमेशा आतुर रहते हैं। कई घरों में घंटी बजाने पर आदमी से पहले कुत्ता जवाब देता है।गेट खुला हो तो कुत्ते का मधुर स्वर दिल की धड़कनें बढ़ा देता है।भीतर बैठिए तो वह पूरे समय सूँघता हुआ आसपास घूमता रहेगा और मेहमान का पूरा वक्त टाँगें सिकोड़ते और पहलू बदलते ही जाता है। इसीलिए बहुत से लोग किसी घर में घुसने से पहले भयभीत स्वर में आसपास के लोगों से पूछते देखे जाते हैं—–‘घर में कुत्ता तो नहीं है?’

अब गाँव में भी टेलीफोन पहुँच गया। गाँव में टेलीफोन सस्ता पड़ता है, इसलिए सब खाते-पीते घरों में टेलीफोन मिल जाएगा। इससे नुकसान यह हुआ कि गाँव में जो मिलना जुलना होता रहता था वह कम हो गया।वहाँ टेलीफोन का उपयोग ऐसे कामों के लिए होता है जैसे, ‘आम का अचार हो तो थोड़ा सा भेज देना’ या ‘तीन चार टमाटर पड़े हों तो भेज देना, शाम को खेत से मँगवा लेंगे।’

टेलीफोन और दृष्टियों से भी उपयोगी है।आज हैसियत वाले घरों में कार खरीदने की होड़ मची है, भले ही वह महीने में एक ही बार चले। कार खरीदने के बाद उसकी सुरक्षा में नींद हराम होती है। कार खरीदने के बाद याद आता है कि उसे रखने के लिए घर में माकूल जगह नहीं है। ऐसे में आधी रात को थाने में फोन बजता है, ‘पुलिस स्टेशन से बोल रहे हैं?’

उधर से अलसायी आवाज़ आती है, ‘हाँ जी, फरमाइए।’

जवाब मिलता है, ‘देखिए जी, हमारे घर की चारदीवारी फाँदकर तीन चार लोग अन्दर आकर कार के पहिये खोल रहे हैं। फौरन आ जाइए। हम खिड़की से उन पर नज़र रखे हैं।’

दस मिनट बाद फिर फोन बजता है, ‘भाई साब, उन्होंने दो पहिये खोल लिये। आप कब आओगे?’

जवाब मिलता है, ‘आपने पता तो बताया नहीं। कहाँ पहुँचें?’

फोन करनेवाला पता बताता है।पुलिसवाले सलाह देते हैं, ‘आप फोन पर हमसे जोर जोर से बोलिए।वे सुनकर भाग जाएंगे।’

जवाब मिलता है, ‘हम तो जोर से ही बोल रहे हैं, लेकिन वे तो अपने काम में लगे हैं।उन पर कोई असर नहीं हो रहा है।’

थोड़ी देर में थाने में फिर फोन बजता है, ‘भाई साहब, आप आये नहीं?वे चारों पहिये लेकर भाग गये।’

जवाब मिलता है, ‘अब भाग ही गये तो हम आधी रात को भटक कर क्या करेंगे?सबेरे आकर रिपोर्ट लिखा देना।’

इस तरह  बदलते समय में टेलीफोन के नये नये फायदे उजागर हो रहे हैं।इस सिलसिले में और इजाफा होने की पूरी संभावना है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य – # 24 ☆ व्यंग्य – वाटर स्पोर्ट्स ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “वाटर स्पोर्ट्स”.  श्री विवेक रंजन जी का यह  व्यंग्यआत्मावलोकनात्मक व्यंग्य के बहाने पाठक को भी वाटरस्पोर्ट्स में भाग लेने के लिए मजबूर कर  देता है।  अब किसकी आँखों का पानी बचा है सभी दूसरों की आँखों के पानी से वाटर स्पोर्ट्स में भाग लेने का मौका ढूंढते रहते हैं। इस व्यंग्य को पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 24 ☆ 

☆ वाटर स्पोर्टस ☆

 

विवेक रंजन जी कालेज से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर, इंजीनियर बन चुके थे. उन्हें इंजीनियर का सहायक बनने के लिये मतलब, “सहायक इंजीनियर” की नौकरी के लिये इंटरव्यू देना पड़ा.  इंटरव्यू का पैनल एक्सपर्ट्स का था, उसने इंजीनियरिंग से संबंधित कोई सवाल ही नही किया, जरूर उन्हें कालेज से मिली मार्कशीट से भरोसा हो गया होगा कि विवेक रंजन मेधावी इंजीनियर हैं. अलबत्ता एक एक्सपर्ट ने पूछा आपने कभी कोई वाटर स्पोर्टस किया है ? विवेक जी को यह बिल्कुल समझ नही आया कि वाटर स्पोर्टस में योग्यता का इंजीनियरिंग की नौकरी में भला क्या काम ? पर उनका विवेक जागा, उन्होनें बताया कि नन्हें विवेक बाथ टब में ही पानी छप छप किया करते थे, शायद इसीलिये वे बचपन से ही लगातार अखबारो में छपा करते हैं. जैसे ही कुछ बड़े हुये अपनी बहनो के साथ “गोल गोल रानी इत्ता इत्ता पानी ” का प्रतीकात्मक वाटर स्पोर्टस भी उन्होने खेला है, उसके बाद अपनी स्लेट को गीले स्पंज से पोंछने के बाद ” नदी का पानी नदी में जा, कुंए का पानी कुंए में जा, मेरी स्लेट सूख जा ” वाला सुरमयी गान भी उन्होने गाया है, यद्यपि इसे वाटर स्पोर्ट्स माना जावे या नही यह पैनल पर निर्भर करता है. रही तैराकी, नौकायन की बात तो बंदा मण्डला में नर्मदा तट पर  पैदा हुआ है, ब्रेस्ट स्ट्रोक से लेकर बटरफ्लाई और फ्रीस्टाईल तक हर कुछ जानता है. इंटरव्यू बोर्ड हंस पड़ा. हंसा सो फंसा, विवेक रंजन जी सहायक इंजीनियर की नौकरी पर रख लिये गये. तब से अब तक बस रखे ही रखे हैं. असली काम की जगहो पर पोस्टिंग कभी नही हुई, शायद उसके लिये पानी पी पी कर मख्खन लगा सकने वाले स्पोर्ट्स में वे कमजोर हैं. यानी सहायक इंजीनियर से चीफ इंजीनियर बनने के इस बेदाग सफर में महाशय  सब कुछ हुये पर “इंजीनियर” कभी न हो पाये.

बात वाटर स्पोर्ट्स की हो रही है, तो याद आया  हमारे नये एम डी साहब को स्वीमिंग में रुचि थी, उनका कहना था कि तैराकी सबसे अच्छा व्यायाम है, जिससे सारे बदन की वर्जिश हो जाती है. तन मन में स्फूर्ति बनी रहती है, सारे दिन आदमी तरोताजा और चैतन्य रहा आता है. एम डी साहब की अभिरुचि के अनुरूप स्वाभाविक था कि अचानक सारे डिपार्टमेंट में स्वीमिंग के प्रति सोया हुआ अनुराग पुनर्जागृत हो गया. हर अधिकारी पूल में वही स्लाट लेने को लालायित रहने लगा जिसमें एम डी साहब सपरिवार पूल जाते थे. नई नई स्वीमिंग कास्ट्यूम खरीद कर लोग तैरने के लिये जुटने लगे. जिन्हें तैराकी नही आती थी वे गूगल पर स्विंमिंग सर्च कर उसकी बारीकियां और रिकार्ड्स पढ़ने लगे, जिससे चाय पर चुस्कियो के साथ वार्तालाप के लिये कुछ मसाला मिल सके. एन्युअल इंटर रीजन स्विंमिंग कम्पटीशन आयोजित किया गया. फ्री स्टाईल रेस में खुद एम डी साहब का बेटा हिस्सेदारी कर रहा था,रेफरी से लेकर दर्शको तक सबकी विशेष अभिरुचि इस  इवेंट में  जाग गई थी.  पता नही यह रेफरी की स्टाप वाच की गलती थी या रेफरी ने अज्ञानता वश यह कारनामा कर दिखाया था, दरअसल जब परिणाम घोषित किया गया तो एम डी साहब के बेटे की टाइमिंग नेशनल रिकार्ड से भी कम थी, मैं मन ही मन मुस्कराकर चुप रह गया. एम डी साहब का होनहार तैराक बेटा फर्स्ट प्राइज की शील्ड लेकर प्रसन्नता पूर्वक फोटो के लिये पोज दे रहा था, हम तालियां पीटकर खुशियां बांट रहे थे.

एक और तरह के वाटर स्पोर्ट्स से भी मैं परिचित हूं. जिस वाटर स्पोर्टस् में भारतीय बेटियां बहुत निपुण होती हैं. अपने हर दर्द को आंसू में बहा देने की कला, और उन आंसुंओ को बेवजह मुंह धोकर अपना दुख छिपा जाने,  मुस्कराने की योग्यता, अंयत्र दुर्लभ है. वाटर स्पोर्टस् के लिये सबसे जरूरी होता है पानी,  रहीम बहुत पहले लिख गये हैं, “रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून ” सो इल्तिजा यही है कि आंखो का पानी कभी भी सूखने न दीजीयेगा.

 

लेखक पुरस्कृत व्यंग्यकार हैं, व्यंग्य की ५ पुस्तकें प्रकाशित हैं. संप्रति मुख्य अभियंता म. प्र विद्युत मण्डल जबलपुर

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 27 – व्यंग्य – दुआरे पर गऊमाता ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन+ सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं।  कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है.  आज की  व्यंग्य  दुआरे पर गऊमाता । यह  सामयिक व्यंग्य  हमारे सामाजिक ताने बाने की सीधी साधी तस्वीर उकेरती है।  एक सीधा सादा व्यक्ति एवं परिवार आसपास की घटनाओं  जीवन जीने के लिए क्या कुछ नहीं  करता है? ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 27 ☆

☆ व्यंग्य – दुआरे पर गऊमाता ☆

 

दरवाज़े से झाँककर गिन्नी ने माँ को आवाज़ लगायी, ‘माँ! दुआरे पर गऊमाता खड़ी हैं।’

माँ बोली, ‘मेरे हाथ फंसे हैं। डिब्बे में से निकालकर दो रोटियाँ खिला दे।’

दो मिनट बाद गिन्नी हाथ में रोटियाँ लिये वापस आ गयी, बोली, ‘नहीं खा रही है।सूँघ कर मुँह फेर लिया।’

माँ बोली, ‘आजकल गायें भी नखरे करने लगी हैं। सामने डाल दे। थोड़ी देर में खा लेगी।’

आधे घंटे बाद माँ ने जाकर देखा तो रोटियाँ वैसे ही पड़ी थीं और गाय आँखें मूँदे खड़ी थी।लौट कर बोली, ‘लगता है इसकी तबियत ठीक नहीं है ।कमज़ोर भी कितनी दिख रही है।’

थोड़ी देर में गिन्नी ने फिर रिपोर्ट दी, ‘माँ,वह बैठ गयी है। बीमार लग रही है।’

सुनकर पिता फूलचन्द के कान खड़े हुए। बाहर निकल कर गाय का मुआयना किया।गाय ने गर्दन एक तरफ लटका दी थी।आँखें बन्द थीं।

फूलचन्द चिन्तित हुए। कहीं गाय ज़्यादा बीमार हो गयी तो! पत्नी से चिन्तित स्वर में बोले, ‘ये तो यहीं बैठ गयी है। कहीं कुछ हो न जाए।’

पत्नी बोली, ‘हो जाएगा तो नगर निगम वालों को  बता देना। आकर उठा ले जाएंगे।’

फूलचन्द बोले, ‘तुम समझती नहीं हो। आजकल समय दूसरा चल रहा है। गाय ने दरवाजे पर प्रान छोड़ दिये तो फौरन गऊ-सेवक डंडा पटकते आ जाएंगे। हमारी मरम्मत करेंगे और पुलिस को भी सौंप देंगे। फोटोग्राफर  फोटो उतारकर अखबार में छापेंगे। शायद टीवी वाले भी आ जाएंगे। पुलिसवाले आजकल पिटने वालों पर पहले मुकदमा कायम करते हैं, पीटने वालों की तफ्तीश चलती रहती है। ‘ऊपर’ से जैसा इशारा मिलता है वैसी कार्रवाई होती है। पिटने वाले की कोई नहीं सुनता।’

पूरा घर चिन्ता में डूब गया। आधे आधे घंटे में गाय की तबियत का मुआयना होने लगा। गाय की तबियत में कोई सुधार नज़र नहीं आता था। उसकी गर्दन और ज़्यादा ढलकती जा रही थी। आँखें भी वैसे ही बन्द थीं।

फूलचन्द ने दो तीन बार उसे उठाने का यत्न किया। हाथ से पीठ पर थपकी दी, टिटकारा, लेकिन कोई असर नहीं हुआ। इससे ज़्यादा कुछ करने की उनकी हिम्मत नहीं हुई।

शाम होते होते फूलचन्द की हिम्मत जवाब दे गयी। पत्नी से बोले, ‘तुम बच्चों को लेकर भाई के घर चली जाओ। यहाँ मैं देखता हूँ। पता नहीं भाग्य में क्या लिखा है।’

पत्नी बच्चों को समेट कर चली गयी। फूलचन्द के लिए खाना-सोना मुश्किल हो गया। हर आधे घंटे में दरवाज़े से झाँकते रहे। गाय वैसे ही पड़ी थी। थोड़ी थोड़ी देर में पत्नी और साले साहब फोन करके कैफ़ियत लेते रहे।

गाय की ड्यूटी करते करते सुबह करीब चार बजे फूलचन्द को झपकी लग गयी। करीब सात बजे आँख खुली तो धड़कते दिल से सीधे दरवाज़े की तरफ भागे। झाँका तो गाय अपनी जगह से ग़ायब थी। दरवाज़ा खोलकर बाहर खड़े हुए तो गाय चार घर आगे वर्मा जी के दरवाज़े पर खड़ी दिखी।

फूलचन्द ने दौड़कर पत्नी को फोन लगाया। हुलस कर बोले, ‘आ जाओ। गऊमाता उठ गयीं। अभी वर्मा जी के घर के सामने खड़ी हैं। भगवान को और गऊमाता को लाख लाख धन्यवाद।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य – # 23 ☆ व्यंग्य – मिस्सड़ के मजे ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “मिस्सड़ के मजे”.  श्री विवेक रंजन जी का यह  सामयिक व्यंग्य  बेशक असामयिक लग रहा होगा किन्तु, मैं इसे सामयिक के दर्जे में ही रखता हूँ। ब्रेकिंग न्यूज़ तो कभी भी रिपीट होती रहती है।  तो मिस्सड के मजे तो कभी भी लिए जा सकते हैं।यह तो सिद्ध हो  ही  गया  कि  श्री विवेक जी  पुरे देश की राजनीति को किचन से जोड़ने में भी माहिर हैं। किससे किसकी और किसको उपमा  देना तो कोई  श्री विवेक जी से सीखे। इस व्यंग्य को पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 23 ☆ 

☆ मिस्सड़ के मजे ☆

 

मैं और मेरी पत्नी एक समारोह से दोपहर में घर लौटे थे,खाना बनाने वाली घर बंद देखकर लौट चुकी थी  मैने पत्नी से कहा डायटीशियन की दाल दलिया, उबली सब्जी, सूप, अंडे का भी केवल एग व्हाईट, खाते खाते मैं बोर हो चुका हूं , पत्नी की मिन्नत करते हुये मैंने प्यार से फरमाईश की कि बरसों हो गये हलवा नही खाया, क्यो न आज हलवा बनाया खाया जावे. हलवा ऐसा व्यंजन है जो किसी होटल में भी सहजता से नही मिलता, वह माँ, बहन या पत्नी के एकाधिकार में घर की रसोई में ही सुरक्षित है.

हमारी फरमाईश पर पत्नी ने भी पूरा पत्नित्व बताते हुये झिड़क कर  कहा बहुत चटोरे हो आप. फिर इस आश्वासन के बाद कि मैं चार किलोमीटर अतिरिक्त वाक पर जाउंगा, वह मेरे लिये कम घी का हलुआ बनाने को राजी हो ही गई. घर में लम्बे अरसे के बाद हलुआ बनना था, मौका महत्वपूर्ण था. रवे की तलाश हुई, डब्बे खोले गये, रवा था तो पर वांछित मात्रा से कम, वैसे ही जैसे महाराष्ट्र में बीजेपी के विधायक.

दलिया छानकर निपुण, गृहकार्य में दक्ष पत्नी ने किंचित मात्रा और जुटा ली, मुझे उसके अमित शाही गुण का अंदाजा हुआ. शक्कर के डब्बे में शक्कर भी तलहटी में ही थी, महीना अपने अंतिम पायदान पर था, और वैसे भी हम दोनो ही बगैर शक्कर की ही चाय पीते हैं. शक्कर तो काम वाली बाई की चाय के लिये ही खरीदी जाती है. मै हलुआ निर्माण की इस फुरसतिया रविवारी दोपहरी की प्रक्रिया में पूरी सहभागिता दे रहा था, पत्नी ने एक प्लेट में डब्बे से शक्कर उलट कर रख दी, तो अनजाने ही मुझे बचपन याद हो आया जब मैं माँ के पास किचन में बैठा बैठा शक्कर फांक जाया करता था, अनजाने ही मेरे हाथ चम्मच भर शक्कर फांकने के लिये बढ़े, पत्नी ने मेरी मंशा भांप ली और तुरंत ही शक्कर की प्लेट मेरी पहुंच से दूर अपने कब्जे में दूसरी ओर रख दी, मुझे लगा जैसे दल बदल के डर से कांग्रेस ने अपने विधायको को किसी रिसोर्ट में भेज दिया हो.

अब घी की खोज की गई तो पता चला कि बैलेंस डाईट के चक्कर में घी केवल भगवान के सामने दिया जलाने के लिये ही आता है, भोजन व ब्रेकफास्ट में हम मख्खन खाते हैं. याने सीधे तौर पर हलवा खाने की योजना पर पानी फिर गया. चटोरे मूड में हम अन्य विकल्प तलाशने लगे.

पत्नी ने प्रस्ताव रखा कि नमकीन उपमा बनाया जावे, पर मीठी नीम और धनिया पत्ती नही थी सो विचार के बाद भी उपमा बनने की बात बनी नही. जैसे महाराष्ट्र में सरकार गठन के अलग अलग विकल्प दिल्ली में की जा रही चर्चाओ में तलाशे जा रहे थे, वैसे ही हम किचिन से उठकर टी वी के सामने ड्राइग रूम में आ बैठे थे और मंत्रणा चल रही थी कि आखिर क्या खाया जावे, क्या और कैसे बनाया जावे, जो मुझे भी पसंद हो और पत्नी को भी. अस्तु काफी विचार विमर्श, चिंतन मनन, सोच विचार के बाद  पत्नी ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय कर डाला.

इसके आधार पर  नमकीन या मीठे के विरोधाभासी होने  की परवाह किये बगैर  उपलब्ध बिस्किट, खटमिट्ठा नमकीन और मीठे खुरमें के तीन डब्बो में  जो भी थोड़ा थोड़ा चूरा सहित जो भी कुछ बचा हुआ  उसे मिला वह सब  एक प्लेट में निकाल लाई, और बिना शक्कर की चाय के साथ हम भूखे पेट इस मिस्सड़ का आनंद लेने में मशगूल हो गये.

टी वी पर ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी चल रही थी महाराष्ट्र में कांग्रेस, शिवसेना और पवार कांग्रेस की मिली जुली सरकार बनने वाली है. सोते सोते तक यही स्थिति थी, सोकर उठे तो दूसरे ही शपथ ले चुके थे, शाम होते होते उनके बहुमत पर कुशंका के बादल मंडरा रहे थे, सचमुच हम रॉकेट युग मे पहुंच चुके हैं ।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 26 – व्यंग्य – पुरुष बली नहिं होत है ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है.  आज की  व्यंग्य  पुरुष बली नहिं होत है ।  यह  व्यंग्य पढ़ने के बाद कई  विवाहित पुरुषों की भ्रांतियां दूर हो जानी चाहिए और जो  ऊपरी मन से स्वीकार न करते  हों वे मन ही मन तो स्वीकार कर ही लेंगे। ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 26 ☆

☆ व्यंग्य – पुरुष बली नहिं होत है ☆

 

हमारे समाज में पुरुषों ने यह भ्रम फैला रखा है कि समाज पुरुष-प्रधान है और मर्दों की मर्जी के बिना यहाँ पत्ता भी नहीं खड़कता। लेकिन थोड़ा सा खुरचने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह कोरी बकवास और ख़ामख़याली है। कड़वी सच्चाई यह है कि आदिकाल से पुरुष स्त्री का इस्तेमाल करके अपना काम निकालता रहा है, और इसके बावजूद अपनी श्रेष्ठता का दम भरता रहा है। इसलिए इस मुग़ालते के छिलके उतारकर हक़ीक़त से रूबरू होना ज़रूरी है।

करीब दस दिन पहले मेरे पड़ोसी खरे साहब ने अपने नौकर को दारूखोरी के जुर्म में निकाल दिया था। उस समझदार ने दूसरे दिन अपनी पत्नी को खरे साहब के घर भेज दिया।पति के इशारे पर मोहतरमा ने खरे साहब के दरवाज़े पर बैठकर ऐसी अविरल अश्रुधारा बहायी कि सीधे-सादे खरे साहब पानी-पानी हो गये। नौकर को तो उन्होंने बहाल कर ही दिया, उसकी पत्नी को विदाई के पचास रुपये और दिये। चतुर पति ने लक्ष्यवेध के लिए भार्या के कंधे का सहारा लिया।

बहुत से लेखक, जो अपने माता-पिता के दिये हुए नाम से पत्रिकाओं में नहीं छप पाते, कई बार स्त्री-नाम का सहारा लेते हैं। कहते हैं नाम परिवर्तन से वे अक्सर छप भी जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि स्त्री-नामों के लिए संपादकों के दिल में एक ‘मुलायम कोना’ होता है।

आजकल बस और ट्रेन के टिकटों के लिए लंबी लाइन लगती है। लेकिन महिलाओं की लाइन अलग होती है और स्वाभाविक रूप से वह छोटी होती है।बुद्धिमान पति अपनी पत्नी को लाइन में लगा देता है और खुद मुन्ना को गोद में लेकर सन्देह के दायरे से दूर खड़ा होकर तिरछी नज़रों से देखता रहता है। पत्नी जब टिकट लेकर लौटती है तब पतिदेव अपने सिकुड़े हुए सीने को चौड़ा करते हैं और पुनः ‘पुरुष बली’ बनकर पत्नी के आगे आगे चल देते हैं।

ट्रेन में घुसने के लिए भी पति महोदय वही स्टंट काम में लाते हैं। भीड़ भरे डिब्बे में भीतरवाले दरवाज़ा नहीं खोलते। ऐसी स्थिति में पति महोदय एक खिड़की पर पहुँचते हैं और खिड़की के पास आसीन लोग जब तक स्थिति को समझें तब तक पत्नी को बंडल बनाकर अन्दर दाखिल कर देते हैं। पति महोदय जानते हैं कि पत्नी को कोई हाथ नहीं लगाएगा। इसके बाद वे चिरौरी करते हैं, ‘भाई साहब, जनानी सवारी अन्दर है, अकेली छूट जाएगी। आ जाने दो साब, गाड़ी छूट जाएगी।’ और यात्रियों के थोड़ा ढीला पड़ते ही वे अपनी टाँगों को एडवांस भेजकर डिब्बे में अवतरित हो जाते हैं।

फिर पति महोदय सीट पर बैठे किसी यात्री से अपील करते हैं, ‘भाई साहब,  थोड़ा खिसक जाइए, जनानी सवारी बैठ जाए। ‘ हिन्दुस्तानी आदमी भला महिला हेतु किये गये आवेदन का कैसे विरोध करेगा?भाई साहब खिसक जाते हैं और जनानी सवारी बैठ जाती है। फिर पति-पत्नी में नैन-सैन होते हैं, पत्नी खिसक खिसककर थोड़ी सी ‘टेरिटरी’ और ‘कैप्चर’ करती है और पतिदेव को इशारा करती है। जब तक सीट वाले संभलें तब तक प्रियतम भी बड़ी विनम्रता से प्रिया के पार्श्व में ‘फिट’ हो जाते हैं। अब भला राम मिलाई जोड़ी को कौन अलग करे?

राशन की लाइनों में भी यही होता है। महिलाओं की लाइन अलग होती है। पत्नी को लाइन में लगाकर पुरुष चुपचाप दूर बैठ जाता है। पत्नी जब राशन लेकर निकलती है तो पुरुष महोदय तुरन्त अंधेरे कोने से निकलकर बड़े प्रेम से  उसके हाथ का थैला थाम लेते हैं और लाइन में लगे पुरुषों पर दयापूर्ण दृष्टि डालते हुए घर को गमन करते हैं।

इसलिए कुँवारों से मेरा निवेदन है कि यदि आप बसों और ट्रेनों के टिकटों के लंबे ‘क्यू’ से परेशान हों,ट्रेनों में जगह न पाते हों या डेढ़ टाँग पर खड़े होकर यात्रा करते हों, राशन की लाइन के धक्कमधक्का से त्रस्त हों,तो देर न करें। कुंडली मिले न मिले, तुरंत शादी को प्राप्त हों और इन अतिरिक्त सुविधाओं का लाभ उठाएं। पत्नी थोड़ी स्वस्थ हो ताकि भीड़भाड़ में मुरझाए नहीं और साथ ही थोड़ी कृशगात भी हो ताकि आप बिना शर्मिन्दा हुए उसे अपनी बाहुओं में उठाकर ट्रेन की खिड़की में प्रविष्ट करा सकें।आपके सुखी भविष्य का आकांक्षी हूँ।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य – # 22 ☆ व्यंग्य – हार्स ट्रेडिंग जिंदाबाद ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “हार्स ट्रेडिंग जिंदाबाद”.  श्री विवेक रंजन जी का यह  सामयिक व्यंग्य  लोकतंत्र तो क्या घोड़ों को भी  शर्मसार करता हुआ लगता है। खैर, जिसने भी ये शब्द हॉर्स ट्रेडिंग इज़ाद किया हो  या तो वो लोकतंत्र का बिका हुआ घोडा रहा होगा या फिर बिकने को तैयार। बड़ा ही अजीब व्यापार है भाई साहब। वैसे यदि गलत नहीं हूँ तो हॉर्स ट्रेडिंग घोड़ों द्वारा घोड़ों का व्यापार  लगता है। बाकी आप श्री विवेक जी के हॉर्स ट्रेडिंग सम्बन्धी इस  व्यंग्य को पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेबाक  व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 22 ☆ 

☆ हार्स ट्रेडिंग जिंदाबाद ☆

 

अचानक 2000 रुपयो की गड्डियां बाजार से गायब होने की खबर आई, मैं अपनी दिव्य दृष्टि से देख रहा हूं कि 2000 के गुलाबी नोट धीरे धीरे  काले हो रहे हैं.   अखबार में पढ़ा था, गुजरात के माननीय 10 ढ़ोकलों  में बिके. सुनते हैं महाराष्ट्र में पेटी और खोको में बिकते हैं.  बिहार वालों का रेट अभी पत्रकारो को मालूम नहीं हो पाया है, वहां सबकी हमेशा से सोती हुई अंतर आत्मायें एक साथ जाग गईं थी और चिल्ला चिल्लाकर माननीयो को सोने नही दे रहीं. माननीयो ने दिलों का चैनल बदल लिया है, किसी स्टेशन से खरखराहट भरी आवाजें आ रही हैं तो  किसी एफ एम  से दिल को सुकून देने वाला मधुर संगीत बज रहा है, सारे जन प्रतिनिधियो ने वही मधुर स्टेशन ट्यून कर लिया. लगता है कि क्षेत्रीय दल, राष्ट्रीय दल से बड़े होते हैं, सरकारो के लोकतांत्रिक तख्ता पलट, नित नये दल बदल, इस्तीफे,के किस्से अखबारो की सुर्खियां बन रहे हैं.

रेस कोर्स के पास अस्तबल में घोड़ों की बड़े गुस्से, रोष और तैश में बातें हो रहीं थी. चर्चा का मुद्दा था हार्स ट्रेडिंग ! घोड़ो का कहना था कि कथित माननीयो की क्रय विक्रय प्रक्रिया को हार्स ट्रेडिंग  कहना घोड़ो का  सरासर अपमान है. घोड़ो का अपना एक गौरव शाली इतिहास है. चेतक ने महाराणा प्रताप के लिये अपनी जान दे दी,टीपू सुल्तान, महारानी लक्ष्मीबाई  की घोड़े के साथ  प्रतिमाये हमेशा प्रेरणा देती है. अर्जुन के रथ पर सारथी बने कृष्ण के इशारो पर हवा से बातें करते घोड़े,  बादल, राजा,पवन, सारंगी, जाने कितने ही घोड़े इतिहास में अपने स्वर्णिम पृष्ठ संजोये हुये हैं. धर्मवीर भारती ने तो अपनी किताब का नाम ही सूरज का सातवां घोड़ा रखा. अश्व शक्ति ही आज भी मशीनी मोटरो की ताकत नापने की इकाई है.राष्ट्रपति भवन हो या गणतंत्र दिवस की परेड तरह तरह की गाड़ियो के इस युग में भी, जब राष्ट्रीय आयोजनो में अश्वारोही दल शान से निकलता है तो दर्शको की तालियां थमती नही हैं.बारात में सही पर जीवन में कम से कम एक बार हर व्यक्ति घोड़े की सवारी जरूर करता है. यही नही आज भी हर रेस कोर्स में करोड़ो की बाजियां घोड़ो की ही दौड़ पर लगी होती हैं. फिल्मो में तो अंतिम दृश्यो में घोड़ो की दौड़ जैसे विलेन की हार के लिये जरूरी ही होती है, फिर चाहे वह हालीवुड की फिल्म हो या बालीवुड की. शोले की धन्नो और बसंती के संवाद तो जैसे अमर ही हो गये हैं. एक स्वर में सभी घोड़े हिनहिनाते हुये बोले  ये माननीय जो भी हों घोड़े तो बिल्कुल नहीं हैं. घोड़े अपने मालिक के प्रति  सदैव पूरे वफादार होते हैं जबकि प्रायः नेता जी की वफादारी उस आम आदमी के लिये तक नही दिखती जो उसे चुनकर नेता बना देता है.

वाक्जाल से, उसूलो से उल्लू बनाने की तकनीक नेता जी बखूबी जानते हैं.  अंतर्आत्मा की आवाज  वगैरह वे घिसे पिटे जुमले होते हैं जिनके समय समय पर अपने तरीके से इस्तेमाल करते हुये वे स्वयं के हित में जन प्रतिनिधित्व करते हैं और अपने किये गलत को सही साबित करने के लिये इस्तेमाल करते हैं.  नेताजी बिदा होते हैं तो उनकी धर्म पत्नी या पुत्र कुर्सी पर काबिज हो जाते हैं. पार्टी अदलते बदलते रहते हैं  पर नेताजी टिके रहते हैं. गठबंधन तो उसे कहते हैं जो सात फेरो के समय पत्नी के साथ मेरा, आपका हुआ था. कोई ट्रेडिंग इस गठबंधन को नही  तोड़ पाती.  यही कामना है कि हमारे माननीय भी हार्स ट्रेडिंग के शिकार न हों आखिर घोड़े कहां वो तो “वो” ही  हैं !

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ जिनके लिये सब्जी खरीदना एक कला है ☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक  एवं सटीक  व्यंग्य   “जिनके लिये सब्जी खरीदना एक कला है।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆☆ जिनके लिये सब्जी खरीदना एक कला है ☆☆

 

वे जब बाहर निकले तो उनकी आँखों में चमक, होठों पर स्मित मुस्कान, चेहरा दर्प से दीप्त और चाल में विजेता का बांकपन था. वे खुदरा मंडी में सब्जी बेचनेवालों को परास्त करके बाहर निकल रहे थे. आज पूरे चार रुपए पैंतीस पैसे बचाये. वे मानते हैं कि सब्जी खरीदना एक कला है जिसमें वे निष्णात हैं. हर सुबह उनका सामना एक ऐसे विपक्ष से होता है जो न केवल भाव ज्यादा लगाता है बल्कि तौल में दंडी भी मारता है. एक बार जमीन पर छबड़ी लगाकर बैठी बूढ़ी अम्मा से खरीदी गई ढाई सौ ग्राम भिंडी चेक कराने पर एक तौला कम निकली, तब से अतिरिक्त सावधानी रखते हैं. कुछ प्रेक्टिकल प्रॉब्लेम्स नहीं होते तो वे तराजू बाँट जेब में रखकर चलते.

उनका मानना कि देश में सबसे बड़े बेईमान व्यापारी अगर कहीं पाये जाते हैं तो वे सब्जी मंडी में पाये जाते हैं और उनसे निपटना सिर्फ वे जानते हैं. सो रोजाना, सब्जी खरीदने वे स्वयं आते हैं. उनका एक बेटा है, बड़ी फेक्ट्री में जनरल मैनेजर (परचेस) पोजीशन पर. सब्जी खरीदने के मामले में वे उस पर भी भरोसा नहीं करते. बोले – ‘शांतिबाबू, इन लाटसाब को एकबार भेजा था मंडी. ढाई रूपे की पालक की गड्डी तीन रूपये में उठा लाये. पढ़ लिख लेने से अकल नहीं आ जाती. आदमी बड़ा मनीजर हो जाये और सब्जीवाला ही लूट ले तो बेकार है ऐसी पढ़ाई. तब से सब्जी खरीदने मैं खुद जाता हूँ.’

मंडी में वे ऐसे ग्राहक हैं जिसे अपनी दुकान की ओर आता देखकर विक्रेता को खुशी नहीं होती. कुछेक सब्जीवालियाँ भाव बताने से भी मना कर देती हैं – ‘रेने दो सेठजी – तम खरीदीनी सकोगा, आगे की दुकान पे देखी लो.‘ ऐसे कमेंट्स उनके लिये तमगों की तरह हैं. उन्हें ठीक से याद नहीं कभी धनिया और मिर्च खरीद कर लिया हो. तुल जाने के बाद एक-दो गिल्की-तौरई झोले में यूँ ही डाल लेने का विधान पालते हैं. पचास-सौ ग्राम फाल्से, जामुन तो वे चखने में ही खींच देते हैं. वे उनसे सब्जी नहीं खरीदते जो छांटने नहीं देते. करीने से जमाया गया वो हरा टिंडा जो उन्हें लुभाता है जमावट बिगड़ने के डर से दुकानदार उसे देने से मना कर देता है. वे मन ही मन दुकानदार को गरियाते हुये आगे निकल जाते हैं.

हरदिन वे मंडी के मिनिमम चार राउंड लगाते है, पहले राउंड में कहाँ क्या है. दूसरे में, वे हर सब्जी का हर दुकान से ओरल कोटेशन लेकर कम्पेरेटिव स्टडी करते हैं. तीसरे राउंड में बारगैन और फ़ाइनल में खरीदी करके विजेता की मानिंद बाहर निकलते हैं. आज फिर चार रुपए पैंतीस पैसे बचाकर, चाल में विजेता का बांकपन लिये, वे बाहर निकल रहे हैं.

लेकिन आप रुकिये जनाब, पार्ट-टू बाकी है अभी. कभी-कभी वे वाईफ के इसरार पर मेगा स्टोर तक जाते हैं. यहाँ अदरक नहीं मिलता, ज़िंज़र परचेस करना पड़ता है. ब्रोकोली, ब्रिंजल्स, पोटेटो, टॉमेटो हर पीस अपने उपर चिपके प्राईस स्टीकर पर लेकर, बिलिंग काऊन्टर की ओर  ठेला धकाते हुये वे खुश हैं. फॉर्टी-टू रूपीस एक्स्ट्रा हुये तो क्या परचेसिंग मेगा स्टोर्स से जो की है. चाल में अंकल सैम की अदाओं का बांकपन लिये, वे दोनों बाहर निकल रहे हैं.

 

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल – 462003  (म.प्र.)

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 24 – व्यंग्य – पत्रिका के साझेदार ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. डॉ परिहार जी ने एक ऐसे पडोसी चरित्र के मनोविज्ञान का अध्ययन किया है, जिसकी मानसिकता गांठ के पैसे  से कुछ भी  खरीदने की है ही नहीं। पत्रिका तो मात्र संकेत है। यदि आप ऐसी मानसिक बीमारी के चरित्र को जानना चाहते हैं तो आपको इस  व्यंग्य को अंत तक पढ़ना चाहिए एक जासूस पाठक की तरह। मेरा दवा है आप कुछ नया ही निष्कर्ष निकालेंगे। डॉ परिहार जी के व्यंग्य के चश्में से ऐसे चुनिंदा चरित्र  तो कदाचित बच ही नहीं सकते। ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनका ऐसे ही विषय पर एक व्यंग्य  “पत्रिका के साझेदार”.)
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 24 ☆

☆ व्यंग्य  – पत्रिका के साझेदार   ☆

 

शर्मा जी ने टेबिल पर रखी ‘ज्योति’ पत्रिका उठा ली,बोले, ‘नियमित मंगाते हैं क्या?’

‘हाँ’, मैंने कहा।

‘बहुत बढ़िया’, उन्होंने पन्ने पलटते हुए कहा। थोड़ी देर बाद वे उठ खड़े हुए, बोले, ‘ज़रा इसे ले जा रहा हूँ। पढ़कर लौटा दूँगा।’

वह पत्रिका का नया अंक था। मैंने मुरव्वत के मारे दे दिया। तीन दिन बाद पत्रिका वापस आयी, जवान से बूढ़ी होकर।

फिर हालत यह हुई कि पत्रिका का नया अंक आने के दूसरे दिन शर्मा जी के चिरंजीव दरवाज़े पर उपस्थित होने लगे। ‘बाबूजी ने पत्रिका मंगायी है।’  चिरंजीव पुराना अंक वापस लेकर आते और नये की मांग पेश करते।

धीरे धीरे शर्मा जी ने समय-अन्तराल को छोटा करना शुरू किया और इतनी प्रगति की कि इधर ‘हॉकर’ अंक देकर गया और उधर उनके चिरंजीव उसे मांगने के लिए प्रकट हुए। किसी तरह  टाल-टूल कर दूसरे दिन तक अपने पास रख पाता।

फिर एक बार अंक नहीं आया। मैं इंतज़ार करता रहा। एक दिन ‘हॉकर’ रास्ते में टकराया तो मैंने अंक के बारे में पूछा। वह आश्चर्य से बोला, ‘आपको मिला नहीं क्या? शर्मा जी ने मुझसे रास्ते में ले लिया था। कहा था कि आपको दे देंगे।’

मैंने झल्लाकर उसे आगे के लिए वर्जित किया और शर्मा जी के घर से पत्रिका मंगायी। वह राणा सांगा की काया लिये हुए आयी। शर्मा जी ने खेद का कोई शब्द नहीं भेजा।

अगले अंक के पदार्पण के साथ ही चिरंजीव फिर हाज़िर। मैंने चिढ़कर  कहा, ‘बाबूजी से कहना पहले मैं पढ़ूँगा फिर दूँगा। इतनी जल्दी मत आया करो।’

दूसरे दिन रास्ते में शर्मा जी मिले तो मुँह टेढ़ा करके निकल गये। दुआ-सलाम भी नहीं हुई। करीब पंद्रह दिन तक यही चला। वे मुझे पूर्व की ओर से आते देखते तो पश्चिम दिशा का अवलोकन करने लगते। मैंने भी कमर कस ली। उनका ही रास्ता पकड़ लिया। मैं भी उनको अपना मुख दिखाने के बजाय पीठ दिखाने लगा।

शर्मा जी समझ गये कि तरीका गलत हो गया, इस तरह तो पत्रिका के निःशुल्क पठन से गये। उन्होंने रुख बदला। एक दिन बत्तीसी हमारी तरफ घुमायी, बोले, ‘क्या बात है भाई? आजकल कुछ कुपित हो क्या? बातचीत भी नहीं होती।’

मैंने कहा, ‘आप ही कहाँ बातचीत करते हैं, महाराज। मुझसे क्या कहते हैं?’

वे मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले, ‘अरे नहीं भाई, कुछ घरेलू परेशानियाँ आ गयी थीं। चिन्ताओं में मग्न रहता था। आप तो हमारे बंधु हैं।’

चिरंजीव फिर दरवाज़े पर दस्तक देने लगे, लेकिन थोड़ी सावधानी के साथ।

पत्रिका का एक अंक जो शर्मा जी की सेवा में गया तो कई दिन तक लौट कर नहीं आया। उसे मैं सुरक्षित रखना चाहता था। मैंने एक दिन उसके लिए शर्मा जी के घर के तीन चक्कर लगाये। शर्मा जी तीनों बार नहीं मिले। गाँव से उनके पिताजी पधारे थे, तीनों बार उन्हीं से साक्षात्कार हुआ। सफेद नुकीली मूँछों वाले तेज़-तर्रार आदमी।

पहली बार उन्होंने पूछा, ‘कहिए भइया जी, क्या काम है?’ मैंने कहा, ‘ज़रा एक पत्रिका लेनी थी।’ वे बोले, ‘बबुआ थोड़ी देर में आ जाएगा। तब पधारें।’ बबुआ तो नहीं मिला, तीनों बार बाबूजी ही मिले। तीसरी बार तनिक भृकुटि वक्र करके बोले, ‘आप पत्रिका खरीद क्यों नहीं लिया करते?’  मैंने उन्हें समझाया कि उनके सुपुत्र के पास जो पत्रिका है वह दास की गाढ़ी कमाई से खरीदी हुई है। उन्होंने तुरंत नरम होकर खेद प्रकट किया। पत्रिका का वह अंक अंतर्ध्यान ही रहा। शर्मा जी से पूछने पर उत्तर मिलता, ‘हाँ, ढूँढ़ रहा हूँ।’

फिर एक दिन वह अंक खुद हमारे घर में प्रकट हुआ। उस पर मेरे छोटे सुपुत्र की कुछ कलाकारी थी, इसलिए पहचान गया। मैंने पूछा, ‘यह कहाँ से आयी? यह तो अपनी है।’ मेरा बड़ा पुत्र बोला, ‘लेकिन यह तो मैं खरे साहब के यहाँ से पढ़ने को लाया हूँ।’ मैंने खरे साहब से कहलवाया कि वह पत्रिका मेरी है। खरे साहब भागे भागे आये, बोले, ‘नहीं साहब, आपकी कैसे हो सकती है? यह तो हम जोशी जी के घर से लाये थे।’ मैंने कहा, ‘आप चाहे जोशी जी से लाये हों या जोशीमठ से, यह पत्रिका मेरी है और मैं इस पर पुनः अपना अधिकार स्थापित करना चाहता हूँ।’ वे बहुत घबराये, बोले, ‘ऐसा गज़ब मत करिए। मैं इसे जोशी जी को वापस कर देता हूँ। आप उनसे बखुशी ले लीजिए।’

मैंने जासूस का चोला पहना और पता लगाया कि यह गंगा कौन कौन से घाटों से बहती हुई घूमकर अपने उद्गम पर आयी थी। पता चला कि वह अंक शर्मा जी के घर से चलकर सिंह साहब, दुबे जी, रावत साहब, सिन्हा साहब तथा जोशी जी के यहाँ होता हुआ खरे साहब के घर अवतरित हुआ था। बीच की कोई कड़ी मुझे उस पत्रिका का मालिक मानने को तैयार नहीं हुई, इसलिए मैंने उसे ‘थ्रू प्रापर चैनल’ शर्मा जी के घर की तरफ ढकेलना शुरू किया। लेकिन वह अंक वापस शर्मा जी तक नहीं पहुंचा। लौटते लौटते वह बीच में कहीं तिरोहित हो गया और अब तक गुमशुदा है।

शर्मा जी से जब मैं आखिरी बार शिकायत करने गया तो उन्होंने गहन खेद प्रकट किया,यहाँ तक कि वे खेद प्रकट करते हुए मेरे साथ चलकर मुझे घर तक छोड़ गये। लौटते समय मेरे फाटक पर रुककर उन्होंने सिर खुजाया, फिर अपनी टटोलती आँखों को मेरे चेहरे पर गड़ाकर बोले, ‘नया अंक तो पढ़ चुके होंगे?’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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