हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 35☆ व्यंग्य – मुहल्ले का डॉक्टर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता  और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  का  व्यंग्य  ‘मुहल्ले का डॉक्टर’ वास्तव में हमें  इस सामाजिक सत्य से रूबरू कराता है। साथ ही यह भी कि मोहल्ले के डॉक्टर से मुफ्त समय, दवाइयां और फीस  की अपेक्षा कैसे की जाती है।  आखिर किसी  के व्यवसाय को  ससम्मान व्यावसायिक दृष्टिकोण से क्यों नहीं देखा जाता ?  ऐसी  सार्थक रचना के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 35 ☆

☆ व्यंग्य – मुहल्ले का डॉक्टर ☆

जनार्दन ने एम.बी.बी.एस. करने के बाद मुहल्ले में क्लिनिक खोलने का निर्णय लिया। मुहल्ला पढ़े-लिखे, खाते-पीते परिवारों का था, इसलिए प्रैक्टिस चल पड़ने की काफी गुंजाइश थी।

उन्होंने एक दिन मुहल्ले के परिवारों को क्लिनिक के उद्घाटन का आमंत्रण भेजा। क्लिनिक के सामने शामियाना लगवाया, कॉफी बिस्कुट का इंतज़ाम किया। शाम को मुहल्ले के लोग परिवारों के साथ इकट्ठे हो गये।

बुज़ुर्गों की तरफ से सुझाव आने लगे– ‘किसी को ब्लड-प्रेशर नापने के लिए बैठा देते’ या ‘ब्लड-शुगर की जाँच के लिए किसी को बैठा देते, तब सही मायने में क्लिनिक का उद्घाटन होता।’ डॉक्टर साहब सबके सुझाव सुन रहे थे। हर सुझाव का जवाब था—–‘कल से सब शुरू होगा। आज तो आप सब का आशीर्वाद चाहिए।’

मुहल्ले के बुज़ुर्ग लाल साहब डॉक्टर साहब के पीछे पीछे घूम रहे थे। बीच बीच में कह रहे थे, ‘एक बार मेरी जाँच कर लेते तो अच्छा होता। तबियत हमेशा घबराती रहती है। किसी काम में मन नहीं लगता। भूख भी आधी हो गयी है।’

डॉक्टर साहब ने ऐसे ही पूछ लिया, ‘यह परेशानी कब से है?’

लाल साहब बोले, ‘सर्विस में एक बार डिपार्टमेंटल इनक्वायरी बैठ गयी थी। उसमें तो छूट गया, लेकिन तब से डर बैठ गया। रात को कई बार पसीना आ जाता है और नींद खुल जाती है।’

डॉक्टर साहब ने पीछा छुड़ाया, बोले, ‘कल आइए, देख लेंगे।’

लाल साहब निराश होकर चुप हो गये।

डॉक्टर साहब का उद्घाटन कार्यक्रम हो गया। सब उन्हें शुभकामना और आशीर्वाद देकर चले गये।

दूसरे दिन लाल साहब सबेरे साढ़े सात बजे ही डॉक्टर साहब के दरवाज़े पर हाज़िर होकर आवाज़ देने लगे। डॉक्टर साहब भीतर से ब्रश करते हुए निकले तो लाल साहब बोले, ‘मैं पार्क में घूमने के लिए निकला था। सोचा, लगे हाथ आपको दिखाता चलूँ। दुबारा कौन आएगा।’

डॉक्टर साहब विनम्रता से बोले, ‘साढ़े दस बजे आयें अंकल। उससे पहले नहीं हो पाएगा।’

लाल साहब ने ‘अरे’ कह कर मुँह बनाया और विदा हुए। फिर दोपहर को हाज़िर हुए। डॉक्टर साहब ने जाँच-पड़ताल करके कहा, ‘कुछ खास तो दिखाई नहीं पड़ता। ब्लड-शुगर की जाँच कराके रिपोर्ट दिखा दीजिए।’

लाल साहब निकलते निकलते दरवाज़े पर मुड़ कर बोले, ‘मुहल्ले वालों से फीस लेंगे क्या?’

डॉक्टर साहब संकोच से बोले, ‘जैसा आप ठीक समझें।’

लाल साहब ‘अगली बार देखता हूँ’ कह कर निकल गये।

डॉक्टर साहब ने शाम की पारी में नौ बजे तक बैठने का नियम बनाया था। दो तीन दिन बाद मुहल्ले के एक और बुज़ुर्ग सक्सेना जी रात के दस बजे आवाज़ देने लगे। डॉक्टर साहब निकले तो बोले, ‘अरे, सत्संग में चला गया था। वहाँ टाइम का ध्यान ही नहीं रहा। घर में बच्चे को ‘लूज़ मोशन’ लग रहे हैं। कुछ दे देते। आपके पास तो सैंपल वगैरह होंगे।’

डॉक्टर साहब ने असमर्थता जतायी तो सक्सेना साहब नाराज़ हो गये। बोले, ‘जब मुहल्ले वालों का कुछ खयाल ही नहीं है तो मुहल्ले में क्लिनिक खुलने से क्या फायदा?’

वे भकुर कर चले गये।

फिर एक दिन एक बुज़ुर्ग खन्ना साहब आ गये। उन्होंने बताया कि उनके डॉक्टर साहब के मरहूम दादाजी से बड़े गहरे रसूख थे और उनकी उनसे अक्सर मुलाकात होती रहती थी। वे बार बार कहते रहे कि डॉक्टर साहब उनके लिए पोते जैसे हैं। आखिर में वे यह कह कर चले गये कि वे फीस की बात करके डॉक्टर साहब को धर्मसंकट में नहीं डालना चाहते। चलते चलते वे डॉक्टर साहब को ढेरों आशीर्वाद दे गये।

फिर दो चार दिन बाद रात को एक बजे डॉक्टर साहब का फोन बजा। उधर मुहल्ले के एक और बुज़ुर्ग चौधरी जी थे।बोले, ‘भैया, पेट में बड़ी गैस बन रही है। एसिडिटी बढ़ी है। नींद नहीं आ रही है। कुछ दे सको तो किसी को भेजूँ।’

डॉक्टर साहब ने फोन ‘स्विच ऑफ’ कर दिया।

अब कभी कभी डॉक्टर साहब सोचने लगते हैं कि मुहल्ले में दवाखाना खोलकर अक्लमंदी का काम किया या बेअक्ली का?

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 3 ☆ चिड़चिड़ी खिचड़ी* ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “चिड़चिड़ी खिचड़ी*। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 3☆

☆ चिड़चिड़ी खिचड़ी

 

सुबह – सुबह  से खिचड़ी खाने  को  मिल  जाए तो  दिमाग़ ख़राब हो जाता है । ऐसी बीमारी लगी  है जिसका कोई इलाज ही नहीं ।  शक लाइलाज  बीमारी  होती  है सुना  था  पर आजकल तो रोग और रोगी दोनों ही बदल गए हैं तकनीकी का युग है सो बीमारी भी  चार कदम आगे बढ़ गयी  ।

बातों ही बातों में स्वीटी से पूछा  कि बेटा कोई नयी खबर तो नहीं आयी,  आजकल सबसे पहले  युवा पीढ़ी ही  खबर सुनाती है । अब तो सारे विद्वान  विश्लेषक बन अपनी राय ट्विटर व , फेसबुक पर ही पोस्ट करते हैं । सभी अपने – अपने कारनामे इसी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से प्रदर्शित कर लाइक , कमेंट और शेयर की अनोखी चाह रखते हैं ।

अरे दादा कल सारा दिन मोबाइल डब्बा था न खुल  रहा था न ही बन्द हो रहा था शाम को कलाकारी करके सुधार डाला बड़ी मुश्किल से सुधरा,   जैसे  ही खुला लग रहा था क्या पढ़ूँ और क्या छोड़ दूँ ??  कुछ दिमाग काम ही नहीं कर रहा था, इतने मैसेज आ चुके थे । बड़ी मुश्किल से कुछ पढ़ा कुछ हटाया तब कहीं जाकर मोबाइल सही हुआ  फिर रात में नींद ही न आये तो मैनें सोचा कुछ काम ही कर लिया जाए  वैसे भी बड़े बूढ़े कहते हैं काल से सो आज कर ।

स्वीटी को छेड़ते हुई भाभी  ने  कहा *ननद रानी इसमें इंफेक्शन हो जाता है, जब ऐसा हो  तो इसको स्प्रिट में डुबोकर रखा करो और साथ ही ओ आर एस  घोल  भी पिला दिया करो……*

मुस्कुराते हुए  स्वीटी ने कहा स्प्रिट की जरूरत नहीं उसे थोड़ा सुकून से  रहने की जरूरत पड़ती है ।

बुजुर्ग हो गया  है क्या छोटे भाई ने छेड़ते हुए कहा ?

ज्यादा बुजुर्ग तो नहीं है लेकिन इसकी तबियत ठीक नहीं रहती  है ।

बिन माँगी सलाह देने में होशियार अम्मा जी ने कहा  योगशाला  में भेजो, नियमित प्राणायाम व आसन से चमत्कारिक लाभ होगा ।

वाह, अब सही हो गया,  काम-वाम मत बताया करो इन्हें , कौन बोला ??

इतनी फिक्र करके वही काम करता है जो घर को अपना समझता है , बहना  को घर  प्रमुख होना चाहिए बड़े भाई ने कहा ।

जी दादा सही कहा आपने ।

नमन है इनकी कर्मठता और लगनशीलता को छोटे भाई ने कहा ।

झूठ बोलने की आदत नहीं गयी बचपन से, सच बोलना कब सीखोगी । किसी ने सिखाया नहीं क्या ? बड़े भाई ने मुस्कुराते हुए बहना  से कहा ।

मैनें ये कब कहा कि नहीं  सिखाया गठबन्धन की सरकार ऐसे ही चलती है । आपने सत्य बोलना कहाँ से सीखा  स्वीटी ने पूछा ।

असल में मैंने खिचड़ी की तरह सीखा। मिक्चर होकर, कई जगह ,कई लोगों से और अभी भी खिचड़ी ही चल रही है।

मुझे भी लगता है खिचड़ी की तरह ही सत्य सीखना पड़ेगा । पर मुझे ये कैसे पता चलेगा का कि कहाँ- कहाँ सत्य के पकवान व खिचड़ी पकी ताकि मैं भी वहीं जा कर सीख सकूँ ।

खिचड़ी  ज्यादा दिनों तक लोग पसंद नहीं करते कोई विशिष्ट व्यंज्जन बनना ही श्रेयस्कर होता है आप तो मालपुआ बनाना सीखें ।  *माल संग पुआ* वाह क्या बात है ?  छोटे भाई ने कहा ।

तुम्हे  खिचड़ी पकानी भी है और खानी भी है,

कहीं जाने की जरूरत नहीं बस चुपचाप पेट भरती  रहो दादा ने  कहा ।

मुझे खिचड़ी पकाना नहीं आता,

सही कहा…. कुछ अच्छा सा आइटम बताइए ।

पसंद अपनी अपनी, मेरी कभी खाने में कोई चीज पसंद की रही ही नहीं जो मिल गया सो खा लिया,  इस घर में आने के बाद पसंद क्या होती है ये मैंने जाना भाभी ने कहा ।

मतलब बहुत जल्द ही हम भी पसंद की चीजें खाने लगेंगे ।

केवल सर्वोत्तम ही पसंद आयेगा । भाभी ने हँसते हुए कहा ।

काहे मेहनत कर रही हो बिटिया जिसके यहां भी अच्छा बने खा आओ । कोई भी तुम्हे मना  नहीं करेगा ,अम्मा जी ने कहा ।

गलत राय मत दो अम्मा जी , जिसने भी खिचड़ी पकाई उसमें से आधे से ज्यादा को तो दादा ने  परेशान किया बाकी को  आपने भाभी ने गम्भीर होते हुए कहा ।

बिल्कुल अम्मा जी कभी- कभी तो मैं ऐसा ही करती हूँ, बगल में आंटी रहती हैं जब कुछ अच्छा बना होता है जाकर खा आते हैं । मतलब मुझे खिचड़ी नहीं पकानी है ।

आपने सच बोलना नहीं सिखाया बस । बाकी तो सब आपने ही सिखाया ,फिर झूठ  मेरे नहीं तुम्हारे बड़के भैया के शब्दों में ,मानना पडे़गा, भाभी ने कहा ।

सबको खुश रखती हैं भाभी। सकारात्मकता कहेंगे इसे छोटा भाई कहने लगा ।

बहुत से वाक्य व्यंग्य के उल्कापात की तरह गिर रहे हैं । इऩके चक्कर में मत पड़ो । कहीं की नहीं रहोगी । उड़ीसा में खिचड़ी प्रसाद होता है । कहीं जाने की जरूरत नहीं पड़ती खिचड़ी वाले खुद प्रसाद/ज्ञान बाँटते घूमते हैं दादा ने कहा ।

तभी पिताजी ने  बात को  समाप्त  करने के उद्देश्य से कहा खिचड़ी हमारा राष्ट्रीय व्यंजन है स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक… तुम खाने से मतलब रखो ।

दादा लोग हैं न ,मुझे पकानी नहीं आती मैं तो प्रचारक हूँ ।

बहुत हो  गयी चर्चा ,अब करो खर्चा ।

हींग का देय बघार, कम  डाल  मिर्चा ।।

सब खिलखिला कर हँस पड़े ।

 

छाया सक्सेना ‘ प्रभु ‘

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 31 ☆ व्यंग्य – पुस्तक मेले की याद ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका एक बेहतरीन व्यंग्य  “पुस्तक मेले की याद” उनके ही फेसबुक वाल से साभार । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) \

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 31

☆ व्यंग्य – पुस्तक मेले की याद  

 

हेड आफिस के बड़े साहेब के दौरे की खबर से आफिस में हड़बड़ी मच गई। बड़ी मंहगी सरकारी कार से बड़े साहब उतरे तो आफिस के बॉस ने पूंछ हिलाते हुए गुलदस्ता पकड़ा दिया। आते ही बडे़ साहब ने आफिस के बॉस पर फायरिंग चालू की तो बॉस ने रोते हुए गंगा प्रसाद उर्फ गंगू को निशाना बना दिया,   सर…. सर  हमारे आफिस में गंगू नाम का स्टाफ है काम धाम कुछ करता नहीं, अपने को कभी साहित्यकार तो कभी व्यंग्यकार कहता है। दिन भर आफिस में फेसबुक वाटस्अप के चक्कर में और बाकी समय ऊटपटांग लिख लिखकर आफिस की स्टेशनरी बर्बाद करता है। आपके दौरे की भी परवाह नहीं कर रहा था दो दिनों पहले दिल्ली भाग रहा था.. बिना हेडक्वार्टर लीव लिए। दादागिरी दिखाते हुए कह रहा था कि दिल्ली के प्रगति मैदान में उसकी व्यंग्य की पुस्तक का विमोचन और व्यंग्य का कोई बड़ा पुरस्कार – सम्मान मिलेगा साथ में 21 हजार या 51 हजार रुपये भी मिलने की बात कर रहा था।

सर… र… बिल्कुल भी नहीं सुनता बहुत तंग किए है और दूसरे काम करने वालों को भी भड़काता है लाल झंडा दिखाने की धमकी देता है…. हम बहुत परेशान हैं। सर.. र… आफिस का माहौल उसके कारण बहुत खराब है हमारा भी काम में मन नहीं लगता, इसलिए आपके पास इतनी शिकायतें और गड़बड़ियों की लिस्ट पहुंच रही है। बाहरी आदमी तक कह रहा है कि आपके आफिस का गंगाधर (गंगू) अखबार और पत्रिकाओं के साथ सोशल मीडिया में आफिस के कामकाज का मजाक उड़ा रहा है व्यंग्य लिखता है। सरकार की नीतियों के खिलाफ व्यंग्य लिखकर खूब ऊपरी पैसे कमाता है और आफिस में धेले भर काम नहीं करता।

सर….. र… आप विश्वास नहीं करोगे पिछले दिनों मेरे और मेरी स्टेनो के ऊपर ऐसा व्यंग्य लिखा कि मैं मुंह दिखाने लायक नहीं रह गया….. झांक झांक कर सब देख लेता है तिरछी नजर से सब बातें पकड़ लेता है, कुछ करने के लिए आगे बढ़ो तो दरवाजा खटखटा देता है। न कुछ करता है न करने  देता है..

स.. र.. र  आप बताइए हम क्या करें ?

……. अच्छा ऐसा है तो तुम तंग आ गये हो…. तुमको इस आफिस का बाॅस बनाकर इसलिए बैठाया गया है कि एक सड़े से कर्मचारी पर तुम्हारा कन्ट्रोल नहीं है।स्टोनो सुंदर होने पर सबका मन भटकता है स्वाभाविक है कि स्टेनो के साथ बिजी रहते होगे तभी आफिस का माहौल अनकन्ट्रोल हो गया है।

….. नहीं स.. र.. र  इसने ही अपने व्यंग्य लेख से इतने सारे किस्से बना लिए हैं वास्तविकता कुछ नहीं है सर जी   प्लीज।

…… अच्छा ये बताओ कि बदमाश तुम हो कि तुम्हारी स्टेनो ? किस्से तो काफी फैल गये हैं और तुम्हारी काम नहीं करने की भी बड़ी शिकायतें हेड आफिस पहुंच रहीं हैं।

…… नहीं सर, ये गंगा प्रसाद ‘गंगू’ के कारण ही ये सब हो रहा है।

……. तो बुलाओ उस हरामजादे गंगाधर को… अभी देखता हूं साले को, बहुत बड़ा साहित्यकार कम व्यंग्यकार बन रहा है…… ।

बॉस ने घंटी बजायी  चपरासी से कहा कि गंगू को बताओ कि बड़े साहब मिलना चाहते हैं। जब चपरासी ने गंगा प्रसाद को खबर दी तो गंगू फूला नहीं समाया… उसे लगा चलो दिल्ली नहीं जा पाए तो दिल्ली के हेड आफिस से सबसे बड़े साहब हमारा सम्मान करने पहुंच गए, जरूर किसी बड़े लेखक ने बड़े साहब को ऊपर से दम दिलाई होगी तभी ये आज भागे भागे आये हैं चलो चलते हैं देखते हैं कि………

…….. मे आई कमइन सर.. कहते हुए गंगा प्रसाद केबिन में घुसे तो बड़े साहब ने व्यंग्य भरी नजरों से ऊपर से नीचे तक देखा।

……. आइये आइये… वेलकम… तो आप हैं 1008 व्यंग्य श्री आचार्य गंगा प्रसाद गंगू…..

……. जी….. स… र.. र आपके आने की खबर के कारण हमने अपना दिल्ली जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया सर…. वहां विश्व पुस्तक मेले में हमारा सम्मान और हमारी पुस्तक का विमोचन….

……. अच्छा !  सुना है आप सरकार के खिलाफ और आफिस की कमियों पर व्यंग्य लिखकर पैसे कमाते हैं बड़े भारी व्यंग्यकार बनते हो। आफिस के कामकाज और विसंगतियों और बाॅस पर व्यंग्य से प्रहार करते हो। आफिस का काम करने कहो तो लाल झंडा दिखाने की धमकी देते हो….. व्यंग्य के विषय में जानते हो कि व्यंग्य क्या होता है ? नौकरी करना है कि व्यंग्य लिखना है आपको मालूम नहीं कि असली व्यंग्यकार सबसे पहले अपने आप पर व्यंग्य लिखता है अपने अंदर की गंदगी विसंगतियों की पड़ताल कर आत्मसुधार करता है। आफिस और सरकार के खिलाफ लिख कर नाम कमाने से आत्ममुग्धता आती है। आफिस के बाॅस और स्टेनो के संबंधों पर लिख कर उनका काम बिगाड़ दिया तुमने…. दाल भात में मूसरचंद बन गए।  तुम भी तो लंबे समय से आफिस में लफड़ेबाजी कर रहे हो कभी तिल का ताड़ कभी राई का पहाड़ बनाते रहते हो और सीधी सी बात है कि तुमने व्यंग्य लिखने के लिए

विभागीय अनुमति नहीं ली है  अभी दस तरह के मामलों में फंस जाओगे नौकरी चली जाएगी, बाल-बच्चे बीबी भूखी मरने लगेंगी। तुम्हें नहीं मालूम कि समाज में तुम्हारी इज्जत इस विभाग के कारण है। नहीं तो आजकल कोई पूछता नहीं है समझे। जितना पैसा व्यंग्य लिख कर कमा रहे हो उसका हिसाब आफिस में दिया क्या ? जितना पैसा कमाया वो विभाग में जमा किया क्या ? तो आयकर विभाग को चकमा देने का मामला भी बनता है। गंगू लाल अपने बाल बच्चों के पेट में लात मत मारो भाई। तुम्हें नहीं मालूम कि व्यंग्यकार के पास पैनी वैज्ञानिक दृष्टि होती है वह ईमानदार होता है तुम तो सौ प्रतिशत बेईमान लग रहे रहे हो। इसका मतलब है कि तुम्हारे लिखे कड़े शब्द नपुंसक होते हैं तभी न आफिस का माहौल नपुंसक हो गया। अरे भाई व्यंग्यकार तो लोकशिक्षण करता है। तुम लोग झांकने का काम करते हो किसी का बना बनाया काम बिगाड़ते हो। तुम लोग चुपके चुपके दरबार लगाते हो एक दूसरे की टांगे खींचते हो शरीफ और बुद्धिजीवी होने का नाटक करते हो। साहित्यकारों से समाज यह अपेक्षा करता है कि वे अपने आचरण और लेखन में शालीनता बरतें और बेहतर समाज बनाने में अपना योगदान दें…. पर तुम तो अपने पेट से दगाबाजी करते हो आफिस का काम भी नहीं करते और चले व्यंग्यकार बनने……. तुम साले कुछ नकली व्यंग्यकार पूर्वाग्रही, संकुचित सोच, अहंकारी गुस्सैल और स्वयं को सर्वज्ञानी मानते हो। हर पल चालाकियों की जुगत भिड़ाते हो………… ।।

आज गंगू को समझ में आ गया कि दिल्ली के सम्पादक ने सही कहा था कि “अच्छा लिखने के लिए खूब पढ़ना जरुरी है आजकल हर कोई कुछ भी लिख रहा है फिरी में सोशल मीडिया क्या मिल गया हर कोई बड़ा लेखक होने का भ्रम पाले है इन दिनों कविता कहानी छोड़ हर कोई व्यंग्य में भाग्य अजमा रहा है……..”

गंगू के काटो तो खून नहीं….. सारा लिखना पढ़ना, सम्मान पुरस्कार, पुस्तक मेला मिट्टी में मिल गया। बड़े साहब ने जम के दम देकर बेइज्जती की और नौकरी से निकाल देने की ऐसी धमकी दी कि सीने के अंदर खलबली मच गई, बाल बच्चे और घरवाली की चिंता बढ़ गई हार्ट कुलबुलाके के बाहर आने को है…. बार बार शौचालय जाना पड़ रहा है शौचालय के कमोड में बैठे बैठे जैसे ही गंगू ने फेसबुक खोली त्रिवेदी की वाल में पुस्तक मेले का लाइव कार्यक्रम चल रहा है बार – बार गंगा प्रसाद “गंगू” को पुस्तक विमोचन के लिए और 51 हजार रुपये के सम्मान के लिए पुकारा जा रहा है.. एक से एक सजी बजी सुंदर लेखिकाएं ताली बजा रहीं हैं। पुस्तक मेले में भीड़ ही भीड़ उमड़ पड़ी है। बड़े बड़े व्यंग्यकारों पर त्रिवेदी का कैमरा घूम रहा है, विमोचन होने वाली पुस्तकों का कोई नाम नहीं ले रहा धकाधक विमोचन चल रहे हैं। एक व्यंग्य के मठाधीश बाजू वाले डुकर से कह रहे हैं कि इस महाकुंभ में मुफ्त में आंखें सेंकने मिलती हैं, किताबों में यही तो जादू है वे बुलातीं भी हैं और अज्ञान को भी नष्ट करतीं हैं।………

इधर जब गंगू ने शौचालय के कमोड का नल खोला तो पानी दगा दे गया और  मोबाइल की बैटरी टें बोल गई……….

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 34☆ व्यंग्य – मोबाइल और उत्सुकता का अन्त☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता  और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  का  व्यंग्य  ‘मोबाइल और उत्सुकता का अन्त‘ हमें  सूचना क्रान्ति  के साथ ही हमारे जीवन में उसके प्रभाव और उनसे सम्बंधित परिवर्तन पर दिव्य दृष्टि डालता है। डॉ परिहार जी ने इस बार मोबाईल  क्रान्ति के सूचना विस्फोट पर गहन शोध किया है। संभवतः डॉ परिहार जी के मस्तिष्क में मोबाईल पर सोशल मीडिया विस्फोट  विषय पर  भी निश्चित ही कुछ न कुछ तो चल ही रहा होगा । डॉ परिहार जी एवं हमारी समवयस्क पीढ़ी ने अब तक की जो सूचना क्रान्ति देखी है उसकी कल्पना भी नवीन और आने वाले पीढ़ियां नहीं कर सकती। ऐसी  सार्थक रचना के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 34 ☆

☆ व्यंग्य – मोबाइल और उत्सुकता का अन्त ☆

यह सूचना-विस्फोट का युग है। जिधर देखिए, धाँय धाँय सूचना के बम फूट रहे हैं। कुछ भी पोशीदा, कुछ भी अज्ञात नहीं रहा। मीडिया के खबरची और कैमरामेन सब तरफ बौराए से दौड़ते रहते हैं—-ड्राइंगरूम से बेडरूम तक, धरती से आकाश तक, गुलशन से सहरा तक। सूचना-तन्तु चौबीस घंटे घनघनाते रहते हैं।

मोबाइल आने के बाद लगता है, आदमी सामान्य नहीं रहा। जो बातें करना कतई ज़रूरी नहीं,वे भी होती रहती हैं क्योंकि मोबाइल को थोड़ी थोड़ी देर में मुँह और कान से चिपकाये बिना चैन नहीं पड़ता। ‘क्यों भैया, उठ गये? नाश्ता हो गया? कल शाम कहाँ थे? और क्या हाल है? आज क्या प्रोग्राम है?’

एक दिन एक सज्जन मेरे घर के सामने सड़क पर इधर से उधर घूमते और अपने आप से ज़ोर ज़ोर से बातें करते दिखे। मैं समझा दिमाग़ से कमज़ोर होंगे। फिर ग़ौर किया तो देखा वे कान से मोबाइल चिपकाये थे। कई लोग दूर से ऐसे दिखते हैं जैसे कान पर हाथ धर कर कोई सुर साध रहे हों, लेकिन पास जाने पर पता चलता है कि मोबाइल पर बात कर रहे हैं।

ऐसे ही एक बार ट्रेन में एक अनुभव हुआ। एक महिला सबेरे उठते ही मोबाइल लेकर ऊँचे स्वर में शुरू हो गयीं। उन्होंने एक एक कर दूर घर में बैठे सब बच्चों की कैफियत ले डाली। पहले चुन्नू को बुलाया, फिर मुन्नू, टुन्नू, पुन्नू और चुन्नी को भी।  ‘नहा लिया?’ ‘नाश्ता कर लिया?’ ‘स्कूल क्यों नहीं गये?’ ‘आपस में लड़ना मत’, ‘ठीक से रहना’—–रिकॉर्ड जो चालू हुआ तो रुकने का नाम नहीं। ट्रेन की खटर पटर उनकी बुलन्द आवाज़ में दब गयी। सुनते सुनते दिमाग काठ हो गया, लेकिन उनकी हिदायतें चालू रहीं।

मोबाइल ने जीवन से उत्सुकता और संशय का अन्त कर दिया। अब सब कुछ उघड़ा उघड़ा, खुला खुला है। अनुमान और कयास लगाने को कुछ नहीं बचा। लेकिन मुश्किल यह है कि ज़िन्दगी श्याम-श्वेत, सुख-दुख, प्रेम-द्वेष, भय-निश्चिंतता, हर्ष-विषाद का मिला-जुला पैकेज होती है। आदमी की ज़िन्दगी में सुख ही सुख हो तो उबासियाँ आने लगती हैं। मेरे एक मित्र के संबंधी ने आत्महत्या कर ली क्योंकि उनकी ज़िन्दगी में सब कुछ उपलब्ध था, करने को कुछ नहीं था। इसीलिए बहुत से लक्ष्मीपुत्र सुकून और सार्थकता की तलाश में इधर उधर भटकते दिखायी पड़ते हैं। अपने देश में चैन नहीं मिलता तो भारत का रुख करते हैं।

पहले बहुत सा वक्त दूर बैठे मित्रों-संबंधियों की चिन्ता में गुज़र जाता था। चिट्ठी चलती थी तो घूमती घामती बहुत दिनों में किनारे लगती थी। टेलीफोन दुर्लभ था। टेलीफोन के दफ्तरों से ट्रंककॉल होता था जिसके लिए घंटों लाइन लगानी पड़ती थी।

ऐसे में अज़ीज़ों की चिन्ता करने और उनके लिए दुआएं करने के सिवा और कुछ नहीं रह जाता था। अब सूचना का ऐसा आक्रमण है कि मिनट मिनट की सूचना मिल रही है। लेकिन सूचना की उपयोगिता तभी है जब आदमी कुछ कर सके। यदि कहीं किसी संबंधी का आपरेशन चल रहा है तो सूचना मिलने पर हज़ार मील दूर बैठे लोग पूरे समय बदहवास तो हो सकते हैं, लेकिन कुछ कर नहीं सकते। इससे बेहतर तो यह है कि जब आपरेशन हो जाए तभी कुशल मंगल का समाचार मिले।

ऐसा नहीं है कि सूचना से भला ही होता है। बहुत सी बातें पोशीदा, ढकी-मुँदी रहना ही बेहतर होती है। कई ज़िन्दगियाँ मुगा़लतों में कट जाती हैं, यदि हकीकत सामने आ जाए तो बर्दाश्त न हो। तीस-पैंतीस साल पुरानी प्रेमिका अगर अब अचानक सामने आ जाए तो भूतपूर्व प्रेमी को बिजली का झटका लगेगा। पैंतीस साल से सहेजी दिलकश छवि चूर चूर हो जाएगी। इसलिए अब उनका दीदार न हो तो भला।

मोपासां की एक कहानी है जिसमें पत्नी बहुत से गहने खरीदती है और पति के पूछने पर समझाती है कि वे गहने नकली और सस्ते हैं। पत्नी की अचानक मृत्यु हो जाने पर पति उन गहनों की जाँच कराता है और पता चलता है कि गहने असली और बहुमूल्य हैं। यह खुलासा होने पर पति का भ्रम और पत्नी की छवि कैसे टूटती है यह समझा जा सकता है।

लेकिन अब मुगा़लतों, भ्रमों की कोई गुंजाइश नहीं है। सब कुछ सूचना के दायरे में है। अब फिल्मों में हीरोइन यह गीत नहीं गाएगी—‘तुम न जाने किस जहाँ में खो गये’ या ‘बता दे कोई कौन गली गये श्याम’। अब श्याम जहाँ भी होंगे, पाँच मिनट में मोबाइल के मार्फत ढूँढ़ लिये जाएंगे।

मोबाइल के माध्यम से अब घर में आगन्तुक की इतनी सूचना आ जाती है कि उसके आने का कुछ मज़ा ही नहीं रहता। दिल्ली से बैठते हैं तो मथुरा, आगरा, ग्वालियर, झाँसी से फोन करते रहते हैं, यहाँ तक कि सुनने वाला परेशान हो जाता है। आखिरी फोन आने पर जब घरवाले पूछते हैं, ‘कहाँ तक पहुँचे भैया?’ तो जवाब मिलता है, ‘आपके गेट पर खड़े हैं।’ अब ऐसे मेहमान का आना क्या और न आना क्या।

इसमें शक नहीं कि सूचना-क्रांति ने बहुत सी जगहें भर दीं, बहुत से शून्य पाट दिये, लेकिन साथ ही साथ इंतज़ार, संशय और रोमांच के जो क्षण खाली हुए हैं वे कैसे भरे जाएंगे, इसका जवाब मिलना अभी बाकी है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 29 ☆ पोलिंग बूथ पर किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक सामायिक व्यंग्य  “पोलिंग बूथ पर किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन”.  श्री विवेक जी को धन्यवाद एक सदैव सामयिक रहने वाले व्यंग्य के लिए। इस व्यंग्य को  सकारात्मक दृष्टि से पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साह9त्य  # 29 ☆ 

☆ पोलिंग बूथ पर किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन 

 

अर्जुन जी का नेचर ही थोड़ा कनफुजाया हुआ है. वह महाभारत के टाईम भी एन कुरुक्षेत्र के मैदान में कनफ्यूज हो गये थे. भगवान कृष्ण को उन्हें समझाना पड़ा तब कहीं उन्होनें धनुष उठाया.

पिछले कई दिनो से आज के अरजुन देख रहे थे कि  सत्ता से बाहर हुये नेता गण जनसेवा के लिए और सत्तासीन कुर्सी बचाने के लिए बेचैन हो रहे हैं. येन केन प्रकारेण फिर से कुर्सी पा लेने/कुर्सी बचाने के लिये गुरुकुलों तक में तोड़ फोड़, मारपीट, पत्थरबाजी सब करवाई जा रही थी. कौआ कान ले गया की रट लगाकर भीड़ को कनफ्यूजियाने का हर संभव प्रयास चल रहा था. तेज ठंड के चलते जो लोग कानो पर मफलर बांधे हुये हैं वे. बिना कान देखे कौए के पीछे दौड़ते फिर रहे हैं. ऐसे समय में ही राजधानी के चुनाव आ गये.  अरजुन जी किसना के संग पोलिंग बूथ पर जा पहुंचे. ठीक बूथ के बाहर वे फिर से कनफुजिया गये. किंकर्तव्यविमूढ़ अरजुन ने किसना से कहा कि ये चारों बदमाश जो चुनाव लड़ रहे हैं मेरे अपने ही हैं. मैं भला कैसे किसी एक को वोट दे सकता हूं ? इन चारों में से कोई भी मेरे देश का भला नही कर सकता. मैँ इन सबको बहुत अच्छी तरह जानता हूं. अरजुन की यह दशा देख इंद्रप्रस्थ पोलिंग बूथ पर लगी लम्बी कतार में ही किसना ने कहा..

हे पार्थ तुम केवल प्याज की महंगाई की चिंता करो तुम्हें देश की चिंता क्यों सता रही है !

हे पार्थ तुम फ्री बिजली, फ्री पानी, फ्री वाईफाई और मेट्रो में पत्नी के फ्री सफर, शिक्षा/स्वास्थ्य केन्द्रों की चिंता करो तुम्हें भला देश की चिंता का अधिकार किसने दिया है.

हे पार्थ तुम  बेटे के रोजगार की चिंता करो. बेरोजगारी भत्ते की चिंता करो तुम्हें जातियों के अनुपात की  चिंता क्यों !

हे पार्थ तुम शहर की स्मार्टनेस की चिंता करो तुम्हें साफ सफाई के बजट की और उसमें दिख रहे घपले की चिंता नहीं होनी चाहिये  !

हे पार्थ तुम सीमा पर शहीद जवान की शव यात्रा में शामिल होकर देश भक्ति के नारे लगाओ  भला तुम्हें इससे क्या लेना देना कि यदि नेता जमात ने  सही निर्णय लिये होते तो जवान के शहीद होने के अवसर ही न आते !

हे पार्थ तुम देश बंद के आव्हान पर अपनी दूकान बन्द करके बंद को समर्थन दो.  अन्यथा तुम्हारी दूकान में तोड़फोड़ हो सकती है. तुम्हें इससे कोई सरोकार नहीं रखना चाहिये कि यह बन्द किसने और क्यों बुलाया ?

हे पार्थ तुम्हें सरदार पटेल. आजाद. सुभाष चन्द्र बोस. सावरकर. विवेकानन्द  या गोलवलकर जी वगैरह को पढ़ने समझने की भला क्या जरूरत तुम तो आज के मंत्री जी को पहचानो उनसे अपने ट्रांसफर करवाओ. सिफारिश करवाओ और लोकतंत्र की जय बोलो व प्रसन्न रहो !

हे पार्थ तुम्हें शाहीन रोड पर  धरना देने के लिए पार्टियों का प्रतिनिधित्व करने पर सवाल उठाने की कोई जरूरत नहीं तुम मजे से चाय पियो. अखबार पढ़ो. बहस करो. टीवी पर बहस सुनो. कार्यक्रमों की टीआरपी बढ़ाओ.

हे पार्थ तुम्हें सच जानकार भला क्या मिलेगा ? तुम वही जानो जो तुम्हें बताया जा रहा है ! यह जानना तुम्हारा काम नही है कि जिसे चुनाव में पार्टी टिकिट मिली है उसका चाल चरित्र कैसा है. वह सब किसी पार्टी में हाई कमान ने टिकिट के लिए करोड़ो लेने से पहले. या किसी पार्टी ने वैचारिक मंथन कर पहले ही देख लिया होता है.

हे पार्थ वैसे भी तुम्हारे एक वोट से जीतने वाले नेता जी का ज्यादा कुछ बनने बिगड़ने वाला नहीं. सो तुम बिना अधिक संशय किये मतदान केंद्र में जाओ चार लगभग एक से चेहरों में से जिसे तुम देश का कम दुश्मन समझते हो उसे या जो तुम्हें अपनी जाति का अपने ज्यादा पास दिखता हो उसे अपना मत दे आओ, और जोर शोर से लोकतंत्र का त्यौहार मनाओ.

किसना अरजुन संवाद जारी था. पर मेरा नम्बर  आ गया और मैं अंगुली पर काला टीका लगवाने आगे बढ़ गया.

कुरुक्षेत्र में कृष्ण के अर्जुन को उपदेशों से गीता बन पड़ी थी. आज भी इससे कईयों के पेट पल रहे हैं. कोई गीता की व्याख्या कर रहा है. कोई समझ रहा है.  कोई समझा रहा है. कोई छापकर बेच रहा है. इसी से प्रेरित हो हमने भी अरजुन किसना संवाद लिख दिया है. इसी आशा से कि लोग कानो के मफलर खोल कर अपने कान देखने का कष्ट उठायें. और पोलिंग बूथ पर हुये इस संवाद के निहितार्थ समझ सकें तो समझ लें.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 2 ☆ हास परिहास ☆ – श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “हास परिहास। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 2 ☆

☆ हास परिहास

मोबाइल को चार्ज पर लगा चैटिंग का आनन्द उठा ही रही थी तभी  अचानक से बैटरी लो का संकेत हुआ और जब तक मैं कुछ समझती मोबाइल एक मीठी सी आवाज़ के साथ ऑफ हो गया । अब तो एक  बेचारगी की स्थिति हो गयी , तभी ध्यान आया कि अपने पड़ोसी से मुलाक़ात की जाए जो फ्री में एवलेबल रहते हैं पर फ्री नहीं रहते अरे भई  पत्रकार जो ठहरे कुछ न कुछ करते ही रहते हैं ज्यादातर तो टी. व्ही. के सामने ही देखा जाता है उनको ।

फोन पर वे किसी को बड़े प्यार से समझा रहे थे, यह सर्वोत्तम है किन्तु अधिक व्यक्ति होने से एवं समय कम होने से ही बिना नाम के देने पड़े, भविष्य में नाम वाले  प्रतीक चिन्ह देंगे।

तभी फोन के दूसरी ओर से किसी ने कहा हमें इतनी खुशी न दें कि हम  बर्दाश्त ही न कर सकें , चेहरा तो फिर पीलिया से ग्रसित दिखने लगा पत्रकार महोदय का, मैंने धीरे से टोकते हुए कहा कुछ गड़बड़ हुआ क्या ?

उन्होंने हाथ के इशारे से मौन रहने का संदेश दिया  सो मैंने चुप रहने में ही भलाई समझी ।

फोन पर वार्तालाप को विराम देते  हुए उन्होंने कहा आप  दो चार कविता सुना ही दीजिए कुछ समस्याओं  का हल भी मिल जाएगा ।  फेसबुक में पढ़ा कि आपको कोई सम्मान मिला है, कोई अधिकारी बन  गयीं हैं आप ।

बुझे मन से मैंने कहा हाँ जब तक कोई शिरा न खींच दे , मणि तो आप सब हैं मैँ तो एक शिरा हूँ दूसरे शिरे पर लोग पदों  को छीनने के लिए लालायित बैठे हैं ।

मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा “ऐसे ही लोगों के लिए क्या खूब कहा गया है –

जब भगवान दे खाने को

       जाए कौन कमाने को

मैंने कहा भगवान से खजूर और ताड़ी याद आ गयी…..

अब खजूर पे मत चढ़ा देना मुझको । वो मिसेज शर्मा भी तो काव्य पाठ करतीं  हैं एक कार्यक्रम में देखा था, वहाँ तो बिल्ला लगाएँ थीं, मुझे देखा तो मुस्कुराकर  अभिवादन किया  मेरा,  वहाँ पर  काव्य पाठ वीर रस से शृंगार  रस तक  पहुँच गया, श्रोता भी गजब के थे, तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा पंडाल गूंज उठा,  एक कवि की कल्पना तो देखिए उसने कहा ताड़ के नीचे खड़ा कर देंगे, ताड़ी का मजा मिलेगा ।

उन्होंने बात को बदलते हुए कहा आपकी बड़ी दीदी को संरक्षिका होना चाहिए काव्य सम्मेलन का ।  हम कब तक पुरानी यंग लेड़ी की वापसी का इन्तज़ार करेंगे,  बहुत ही सुस्त व भयंकर कामचोर हैं अभी तक डॉकूमेंट भी  नहीं भेजा चलिए कोई बात नहीं,  व्यंग्य लिखने हेतु टॉपिक ढूंढ रहे थे मिल गया पत्रकार महोदय ने कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए कहा । आप भी मेरे अखबार में जुड़ जाइए खूब काव्य रचनाएँ प्रकाशित होंगी ।

अपने दो चार व्यंग्य दे दीजिए, काव्यपाठ के बीच- बीच में हास परिहास के काम आएंगे जब श्रोताओं का मन भटका तो उनको रोकने के लिए सुना दिया  करेंगे , लोग भी कमाल के होते हैं कविता से  तो ऊब जाते हैं पर हास्य मिश्रित चुटकुले को सर आँखो पर लेते हैं अब कौन पूँछे कि अमा कविता सुनने को आए थे आप या यूं ही गम ग़लत करने को तशरीफ का टोकरा लेकर हाज़िर हो गए  ।

पत्रकार महोदय ने फिर बात बदलते हुए कहा किसी और को ढूंढ लीजिये वरना मेरा तो  …… मंत्र है ही ।

बने रहो पगला

काम करेगा अगला ।

अनुभवी लोगों का सूत्र है ये , अरे कुछ देर पहले ताड़ी की बात निकली थी आप कैसे जानती हैं ?

क्या आपके यहाँ निकाली जाती है ?

संभव तो नहीं है पर कहावतों के बिना कोई बात प्रभावी होती ही नहीं सो बीच – बीच में फिट कर देती हूँ मंद- मंद मुस्कुराते हुए कहा ।

चलो कुछ तो टाइम पास हुआ अब चलती हूँ मोबाइल भी चार्ज हो गया होगा ।

बहन जी तो अभी तक क्या सत्संग हो रहा था ।

अरे वो ताड़ी की बात याद आई हमारे इलाके में

बरसात में खूब बिकती है।

पढ़ती तो हमेशा थी आपका लिखा व्यंग्य पेपर में पर  अब देख रही हूँ बात- चीत में भी आप बख़ूबी कटाक्ष करते हैं ।

व्यंग्य माला निकल जायेगी, कहिए तो अपनी संस्था में बात करूँ मैंने कहा । शुभकामना पत्र पर , अलंकारिक भाषा में आप लिख लेना मेरी तरफ़ से , सिग्नेचर मैं कर दूंगी मुस्कुराते हुए मैंने कहा ।  चलते- चलते चंद पंक्तियाँ सुना ही देती हूँ , वो कहते हैं न जहाँ भी मौका मिले काव्यज्ञान देने से नहीं चूकना चाहिए…….

गीतिका जो कवि रचे , संगीत सँग मधुहास हो ।

नेह रंग  में   रंग सभी, करते  चलें  परिहास हो ।।

भावनाओं को समेटे,   मान  अरु  सम्मान  नित ।

वक्त  चाहें  कुछ  रहे,  छाया नवल उत्साह  हो ।।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 1 ☆ धड़कता अहसास ☆ – श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

 

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वाराव्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है बुंदेलखंडी भाषा की चाशनी में लिपटा एक व्यंग्य “धड़कता अहसास”। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 1 ☆

☆ धड़कता अहसास ☆

भगतराम  बद्रीनाथ धाम की  यात्रा पर गए थे कल ही सकुशल लौटे, जैसे ही घर में प्रवेश किया प्रश्नों की झड़ी लग गयी। भाई पुरोहित जी जो हैं, कालोनी के  लोगों में इनकी अच्छी पैठ है। कम दक्षिणा में भी ग्रह  व गृह दोनों शान्ति करवा देते हैं।

सबकी एक ही शिकायत थी आप फोन क्यों नहीं उठा रहे थे … ???

उन्होंने कहा वहाँ नेटवर्क नहीं आता है, तथा चार्ज करने की समस्या भी रही,  समझा भी तो करिए आप लोग,भगवान से सीधी मुलाकात करके आये हैं अब तो चुटकियों में आप सभी की समस्या यूँ निपट जायेगी जैसे……. कहते – कहते पंडित जी चुप हो गए।

जैसे क्या गुरूजी ……अकेले लड्डू खाय आए, कुछू परसाद भी लाएँ हैं या  कोई और बहाना …?  सुना है संगम भी नहाय आए, सबके लिए कुछ माँगा भगवान बद्दरीनाथ से?

भगतराम जी ने मुस्कुराते हए कहा   अवश्य माँगा वत्स …. *सर्वे भवन्तु सुखिनः,सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्ति-  – –

संगम सब को पार उतार देता है, यहीं तैरना सीखो और भव सागर पार करो, कुछ को सीधे मोक्ष भी देते हैं संगम के पंडे कहते हुए भगत राम जी कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए  चुप हो गए।

सुवीर ने कहा बुन्देलखण्ड में कहावत है

*कुंआ की माटी*

*कुअई मैं लगत*

संगम के साथ

ज्ञान की गंगा

यत्न की यमुना

और सरस्वती विलुप्त होकर समाहित है पंडित जी ने कहा।

परम सत्य आदरणीय जय हो नर्मदा की पवित्रता,महानदी की स्वतंत्रता और ब्रह्मपुत्र का विस्तार आपकी  वाणी में समाहित है  भावेश ने कहा।

*सौ डंडी एक बुंदेलखंड़ी* किसी ने सही ही कहा है गुरुदेव सुवीर ने कहा।

अरे भाई  कहावते सुनाना छोड़ो अब, आराम करने दो गुरुदेव को   बिहारी काका ने कहा।

*ऐसो है आग को छड़को लडैया बिजली खों डरात* बोलते हुए पंडित जी ने सबको प्रणाम कर आगे के कार्यक्रम की तैयारी में जुट गए।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1

बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 28 ☆ व्यंग्य – वर्ष 2020 कुछ दार्शनिक अंदाज में ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “वर्ष 2020 कुछ दार्शनिक अंदाज में ”.  श्री विवेक जी को धन्यवाद एक सदैव सामयिक रहने वाले व्यंग्य के लिए। इस व्यंग्य को पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य  # 28 ☆ 

☆ वर्ष 2020 कुछ दार्शनिक अंदाज में 

समय की तेजी और अनिश्चिंतता में ही उसकी रोमांचकता है.  वर्ष २००० के आने की धमक याद है ना ? लगता था कि कम्प्यूटर के सारे साफ्टवेयर गड़बड़ा जायेंगे वर्ष के अंत में ०० होने के चलते. १९९९ से २००० में प्रवेश नई शताब्दि का आगाज था, और देखते देखते फटाफट नई शताब्दि के दूसरे दशक में आ चुके हैं हम . वर्ष २० २० आ चुका है. ट्वेंटी  ट्वेंटी क्रिकेट में भी यही तेजी है,  जिसके कारण वह लोकप्रिय हुआ है. इस व्यस्त युग में हमारा जीवन भी बहुत तेज हो चुका है, लोगो के पास सब कुछ है, बस समय नही है, बहुत कुछ साम्य है जीवन और २०..२० क्रिकेट में. सीमित गेंदो में अधिकतम रन बनाने हैं और जब फील्डिंग का मौका आये तो क्रीज के खिलाड़ी को अपनी स्पिन गेंद से या बेहतरीन मैदानी पकड़ से जल्दी  से जल्दी आउट करना होता है.

जिस तरह बल्लेबाज नही जानता कि  कौन सी गेंद उसके लिये अंतिम गेंद हो सकती है, ठीक उसी तरह हम नही जानते कि कौन सा पल हमारे लिये अंतिम पल हो सकता है. धरती की विराट पिच पर परिस्थितियां व समय बॉलिंग कर रहे है, शरीर बल्लेबाज है, परमात्मा के इस आयोजन में धर्मराज अम्पायर की भूमिका निभा रहे हैं,विषम परिस्थितियां, बीमारियाँ फील्डिंग कर रही हैं, विकेट कीपर यमराज हैं,ये सब हर क्षण हमें हरा देने के लिये तत्पर हैं.  प्राण हमारा विकेट है.प्राण पखेरू उड़े तो हमारी बल्लेबाजी समाप्त हुई.  जीवन एक २० .. २० क्रिकेट ही तो है, हमें निश्चित समय और निर्धारित गेंदो में अधिकाधिक रन बटोरने हैं. धनार्जन  के रन सिंगल्स हो सकते हैं,यश अर्जन के चौके,  समाज व परिवार के प्रति हमारी जिम्मेदारियो के निर्वहन के रूप में दो दो रन बटोरना हमारी विवशता है. अचानक सफलता के छक्के कम ही लगते  हैं. कभी-कभी कुछ आक्रामक खिलाड़ी जल्दी ही पैवेलियन लौट जाते हैं, लेकिन पारी ऐसी खेलते हैं कि कीर्तिमान बना जाते हैं, सबका अपना-अपना रन बनाने का तरीका  है.

जीवन के क्रिकेट में हम ही कभी क्रीज पर रन बटोर रहे होते हैं तो साथ ही कभी फील्डिंग करते नजर आते हैं, कभी हम किसी और के लिये गेंदबाजी करते हैं तो कभी विकेट कीपिंग, कभी किसी का कैच ले लेते हैं तो कभी हमसे कोई गेंद छूट जाती है और सारा स्टेडियम  हम पर हंसता है. हम अपने आप पर झल्ला उठते हैं. जब हम इस जीवन क्रिकेट के मैदान पर कुछ अद्भुत कर गुजरते हैं तो खेलते हुये और  खेल के बाद भी  हमारी वाहवाही होती है,रिकार्ड बुक में हमारा नाम स्थापित हो जाता है.सफल खिलाड़ी के आटोग्राफ लेने के लिये हर कोई लालायित रहता है.  जो खिलाड़ी इस जीवन के क्रिकेट में असफल होते हैं उन्हें जल्दी ही लोग भुला भी देते हैं.

अतः जरूरी है कि हम अपनी पारी श्रेष्ठतम तरीके से खेलें. क्रीज पर जितना भी समय हमें परमात्मा ने दिया है उसका परिस्थिति के अनुसार तथा टीम की जरूरत  के अनुसार अच्छे से अच्छा उपयोग किया जावे. कभी आपको तेज गति से रनो की दरकार हो सकती है तो कभी बिना आउट हुये क्रीज पर बने रहने की आवश्यकता हो सकती है.जीवन की क्रीज पर  हम स्वयं ही अपने कप्तान और खिलाड़ी होते हैं. हमें ही तय करना होता है कि हमारे लिये क्या बेहतर है ? हम जैसे शाट लगाते हैं गेंद वैसी और उसी दिशा में भागती है. हमें ही तय करना है कि  किस दिशा में हम गेंद मारते हैं.

जिस तरह एक सफल खिलाड़ी मैच के बाद भी निरंतर अभ्यास के द्वारा स्वयं को सक्रिय बनाये रखता है, उसी तरह हमें जीवन में भी सतत सक्रिय बने रहने की आवश्यकता है. हमारी सक्रयता ही हमें स्थापित करती है,जब हम स्थापित हो जाते हैं तो हमें नाम, दाम और काम सब अपने आप मिलता जाता है. जीवन आदर्श स्थापित करके ही हम दर्शको की तालियां बटोर सकते हैं. हमें सदैव हर परिस्थिति के लिये फिट बने रहने के यत्न करने होंगे. वर्ष २०२० तो जल्दी ही बीत जायेगा, पर इसकी किस तारीख को हम स्वर्ण अक्षरो में लिख देंगे या किस तारीख पर दुनियां कालिख पोत देगी यह कैलेंडर में छिपा हुआ है. सकारात्मक प्रयास ही हमारे हाथो में हैं, जो हमें निरंतर करते रहना होगें.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 29 – व्यंग्य – यादों में पंगत – पंगत में गारी  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका  एक चुटीला संस्मरणात्मक व्यंग्य  “यादों में पंगत – पंगत में गारी ”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) \

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 29 ☆

☆ संस्मरणात्मक व्यंग्य – यादों में पंगत – पंगत में गारी   

पंगत में जमीन में बैठकर दोना पतरी में खाने का यदि आपने  आनंद नहीं लिया , तो खाने के असली सुख से वंचित रह गए।

एक बार परिवार मे संझले भाई की शादी में बारात में गए। गांव की बारात थी डग्गा में डगमगाते कूदते फांदते दो घंटा में बारात लगी, बारात गांव के गेवड़े में बने खपरैल स्कूल में रोकी जानी थी पर लड़की वालों का सरपंच से झगड़ा हो गया तो लड़की वालों ने आमा के झाड़ के नीचे जनवासा बना दिया। आम के झाड़ के नीचे पट्टे वाली दरी बिछा दी। सब बाराती थके हारे दरी में लेट गए। आम के झाड़ से बंदर किचर किचर करन लगे और एक दो बाराती के ऊपर मूत भी दिये। एक बंदर दूल्हे की टोपी लेकर झाड़ में चढ़ गया। रात को आगमानू भई तब बंदर झाड़ छोड़ कर भगे। दूसरे दिन दोपहर में पंगत बैठी। पंगत में बड़ा मजा आया, औरतें की गारी चालू हो गई थी…. “जैसे कुत्ता की पूंछ वैसे समधी की मूंछ….. कुत्ता पोस लो रे मोरे नये समधी…… कुत्ता पोस लेओ…………”

बड़े बुजुर्गों को सब परोसा गया।  फिर कुछ लोगों की मांग पर अग्निदेव परोसे गए, नाई ने जब देखा कि भोग लगने पर खाना चालू हो जाएगा, भोग लगने के पहले भरी पंगत में नाई खड़ा हो गया, बोला – “साब, इस पंगत में गाज गिर सकती है।”

बड़े बुजुर्ग बोले “गंगू,  यदि गाज गिरी तो सब के साथ तुम्हारे ऊपर भी तो गिर सकती है।” गंगू नाई ने सबके सामने तर्क दिया “साब, मैं तब भी बच जाऊँगा कयूं कि जैसे सबके पत्तल में  मही – बरा परसा गया  है पर मुझे छोड़ दिया गया है। यदि गाज बरा में गिरी  तो मैं बच जाऊँगा ……. ” तुरंत  गंगू नाई को दो दोना में मही बरा परसा गया तब कहीं पंगत में भोग लग पाया।

फिर लगातार चुहलबाजी चलती रही परोसने वाले थक गए। औरतें डर गईं कहीं खाना न खतम हो जाय इसलिए औरतों ने गारी गाना बंद कर दिया और पंगत में बंदरों ने हमला कर दिया। सब अपने अपने लोटा लेकर भागे। लड़की वालों की इज्जत बच गई।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 32 ☆ व्यंग्य – अफसर की कविता-कथा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता  और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं . आज का व्यंग्य  है अफसर की कविता-कथा।  वास्तव में  अफसर की कविता – कथा  अक्सर अधीनस्थ  साहित्यकार की व्यथा कथा हो जाती है । डॉ परिहार जी की पैनी व्यंग्य दृष्टि  से ऐसा कोई पात्र नहीं बच सकता  और इसके लिए तो आपको यह व्यंग्य पढ़ना ही पड़ेगा न।  हास्य का पुट लिए ऐसे  मनोरंजक एवं सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 32 ☆

☆ व्यंग्य – अफसर की कविता-कथा ☆

 

भूल मेरी ही थी कि मैं उस शाम अपने अफसर को कवि-सम्मेलन में ले गया। दरअसल मेरी नीयत उनको मस्का लगाने की थी। कवि-सम्मेलन में मैं तो वहाँ आने की सार्थकता सिद्ध करने के लिए ‘वाह वाह’ करता रहा और अफसर महोदय अपने हीनभाव को दबाने के लिए बार बार सिर हिलाते रहे। मैं जानता था कि कविताएं उनके सिर के ऊपर से गुज़र रही थीं और कविता जैसी चीज़ से उनका दूर का भी वास्ता नहीं था।

फिर हुआ यह कि एक कवि ने एक कविता सुनायी जो कुछ इस प्रकार थी—–

‘मैं फाइल में कैद कागज़ हूँ,
फाइल ही मेरी ज़िन्दगी है।
फड़फड़ाता हूँ लेकिन मुक्ति कहाँ है?’

और मुझे लगा जैसे मेरे अफसर को किसी ने घूँसा मार दिया हो। कविता खत्म होने पर वे बड़ी देर तक ‘वाह वाह’ करते रहे। कविताएं चलती रहीं लेकिन वे सब कविताओं से बेखबर उस एक कविता को याद करके आँखें मींचे ‘वाह वाह’ करते रहे।

कवि-सम्मेलन खत्म होने पर जब हम घर लौटे तो वे रास्ते भर ‘मैं फाइल में कैद कागज़ हूँ’ दुहराते रहे। अलग होते समय उन्होंने मुझे कई बार धन्यवाद दिया। मेरी आत्मा गदगद हो गयी।

दूसरे दिन दफ्तर में दोपहर को साहब के पास मेरा बुलावा हुआ। उन्होंने बड़े आदर के साथ मुझे बैठाया। मैंने देखा, वे कुछ नयी बहू जैसे शर्मा रहे थे। मुख लाल हो रहा था। थोड़ी देर तक वे इधर उधर की बातें करते रहे, फिर कुछ और शर्माते हुए उन्होंने दराज़ से एक कागज़ निकाला और मुझे पकड़ा दिया। मैंने देखा, उस कागज़ पर एक कविता लिखी थी, इस प्रकार—–

‘टाइपराइटर की चटचट,
टेलीफोन की घनघन,
यही मेरा जीवन,
यही मेरा बंधन।
जो देखे थे सपने,
दफन हो चुके हैं,
बगीचे सभी
सूखे वन हो चुके हैं।
कहाँ खो गये हाय
वे सारे उपवन।’

इसी वज़न के तीन और छन्द थे। आखिरी पंक्ति थी, ‘खतम हो चुका है उमंगों का राशन।’

मैंने पढ़कर सिर उठाया।वे भयंकर उत्सुकता से मुझे देख रहे थे। बोले, ‘कैसी है?’

मैंने सावधानी से उत्तर दिया, ‘अच्छी है।’

वे मुस्कराये, बोले, ‘मेरी है।’

मैं पहले ही भाँप रहा था। कहा, ‘प्रथम प्रयास की दृष्टि से काफी अच्छी है। आप तो छिपे रुस्तम निकले।’

वे काफी प्रसन्न हो गये।

फिर वे रोज़ चार छः कविताएं लिखकर लाने लगे। रोज़ मेरी पेशी होती और मुझे सारी कविताएं सुननी पड़तीं। घरेलू समस्याओं का समाधान सोचते हुए मैं आँखें मींचे ‘वाह वाह’ करता रहता। मेरा काम करना दूभर हो गया। उनसे धीरे से काम की बात कही तो उन्होंने मेरा ज़्यादातर काम छिंगे बाबू को सौंप दिया। नतीजा यह हुआ कि मेरे साथियों ने मेरा नाम ‘नवनीत लाल’ और ‘ठसियल प्रसाद’ रख दिया।

मेरे अफसर महोदय अपने को पक्का कवि समझ चुके थे। कई बार मुझे दफ्तर से घर पकड़ ले जाते और बची-खुची कविताओं को वहाँ सुना डालते। एक दिन भावुक होकर कहने लगे, ‘मिसरा जी, आपसे क्या छिपाना। मेरा दिल टूटा हुआ है। ब्याह से पहले मेरा एक लड़की से ‘लव’ चलता था। माँ-बाप ने दहेज के लालच में इनसे शादी कर दी, लेकिन मेरा दिल कहीं नहीं लगता। अब भी डोर वहीं बंधी है। मेरे भीतर कवि के सब गुण पहले ही थे, आपके संपर्क ने चिनगारी का काम किया। मैं आपका बहुत आभारी हूँ।’

धीरे धीरे वे मेरे पीछे पड़ने लगे कि मैं उनको कवि सम्मेलनों में ठंसवा दिया करूँ। मैं बड़ी दौड़-धूप करके उनका नाम डलवाता। वे ‘हूट’ हो जाते तो उनके घावों पर मरहम लगाता। कहता, ‘साहब जी, समझदार श्रोता मिलते कहाँ हैं?’

एक दिन किस्मत मेरे ऊपर मुस्करायी। मेरा ट्रांसफर आर्डर आ गया। मैं अपने नगर में काफी गहरे तक स्थापित हो चुका हूँ, इसलिए मुझे पीड़ा तो काफी हुई लेकिन अफसर महोदय से छुटकारा मिलने की संभावना से प्रसन्नता भी कम नहीं हुई। लेकिन मेरे अफसर ने मुझे नहीं छोड़ा। उन्होंने मुझे ‘रिलीव’ करने से इनकार कर दिया और ऊपर लिख दिया कि मैं उनके लिए अपरिहार्य हूँ। वे मुझसे बोले, ‘मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता। अभी तो मेरी प्रतिभा निखर रही है, तुम चले जाओगे तो मैं फिर जहाँ का तहाँ पहुँच जाऊँगा।’ अन्ततः मेरा तबादला रद्द हो गया।

प्रभु ने एक बार फिर मेरी सुनी। अबकी बार मेरे अफसर का ही ट्रांसफर हो गया। वे बड़े दुखी हुए। मैं प्रसन्नता लिए उन्हें सांत्वना देता रहा। मैंने कहा, ‘अब कविता की दृष्टि से आप बालिग हो गये, अपने पैरों पर खड़े हो गये। अब आपको किसी के सहारे की ज़रूरत नहीं है।’  लेकिन वे मुझसे अलग होते बड़े असहाय हो रहे थे।

मैं उन्हें छोड़ने स्टेशन पर गया। वे बेहद उदास थे।चलते समय कहने लगे, ‘मिसरा जी, मेरा काम आपके बिना नहीं चल सकता। मैं आपका तबादला भी वहीं करा लूँगा। आप चिन्ता मत करना।’

और वे इन शब्दों के साथ मुझे चिन्ता के सागर में ढकेलकर चले गये।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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