हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #145 ☆ व्यंग्य – प्रेम और पाकशास्त्र ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘प्रेम और पाकशास्त्र। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 145 ☆

☆ व्यंग्य – प्रेम और पाकशास्त्र

बात उन दिनों की है जब शीतल भाई जवान थेऔर अधिकतर युवाओं की तरह प्रेम के रोग में फँसे थे। प्रेम-रोग के कारण उन्हें संपूर्ण जगत प्रेमिकामय दिखायी देता था। सभी रोमांटिक प्रेमियों की तरह वे भी अपनी प्रेमिका की आँखों में आँखें डाले दुनिया जहान को भूले रहते थे। सभी की तरह वे भी अपनी प्रेमिका के मुख, आँखों और ओठों की तुलना चाँद, सितारों, गुलाब वगैरः वगैरः से किया करते थे। उन दिनों उनकी नींद कम हो गयी थी और उनका मन किसी काम में नहीं लगता था। ऑफिस में फाइल खोलते ही पन्ने पर प्रेमिका बैठ जाती थी, और वे सिर पकड़े उसी पन्ने को देखते बैठे रहते थे।

स्वाभाविक रूप से आपके मन में यह जिज्ञासा उठेगी कि शीतल भाई तो अधेड़ावस्था को प्राप्त हुए, किन्तु उनकी इस प्रेमिका का हश्र क्या हुआ। अतः यह स्पष्ट कर दूँ कि आज जो महिला उनके घर में पत्नी के रूप में प्रतिष्ठित है वही उन दिनों उनकी प्रेमिका हुआ करती थी। यह बात आपको आज अविश्वसनीय भले ही लगे लेकिन यह है बिल्कुल सच।

शीतल भाई की पत्नी नीरा जी बताती हैं कि प्रेम के उस दौर में भी वे शीतल भाई को एक दो बार दबी ज़ुबान से बता चुकी थीं कि उन्हें भोजन बनाना नहीं आता, लेकिन शीतल भाई रोमांस के बीच में भोजन जैसी टुच्ची चीज़ का प्रवेश देखकर दुखी हो जाते थे। वे कहा करते थे, ‘तुम भी कैसी घटिया बात लेकर बैठ गयीं। तुम कहो तो मैं तुम्हारे चेहरे की तरफ देखते हुए सारी ज़िन्दगी भूखे प्यासे गुज़ार सकता हूँ। प्रेम दैवी चीज़ है, उसका भला भोजन जैसी भौतिक चीज़ से क्या संबंध?’

जब कभी शीतल भाई नीरा जी के घर जाते थे तो वे उन्हें चाय बना कर ज़रूर पिलाती थीं। लेकिन अक्सर यह होता कि उन्हें चाय देने के बाद नीरा जी ठुड्डी पर हाथ रखकर कहतीं, ‘हाय! मैं चीनी डालना तो भूल ही गयी।’ और शीतल भाई मुग्ध नेत्रों से उनकी तरफ देख कर कहते,’चीनी की ज़रूरत नहीं है। तुम सिर्फ अपनी उँगली चाय में डालकर हिला दो। चाय मीठी हो जाएगी।’ नीरा जी दुबारा ठुड्डी पर उँगली रख कर कहतीं, ‘ हाय! मेरी उँगली जल नहीं जाएगी?’ और शीतल भाई उनकी इस अदा पर निहाल हो जाते। वे मिठास के लिए नीरा जी की तरफ देखते हुए बिना शकर की चाय पी जाते।

इसी प्रकार शीतल भाई का प्रेम फलता फूलता रहा और अन्त में वे दोनों शादी को प्राप्त हो गये। शादी के बाद भोजन बनाने की समस्या सामने आयी। शीतल भाई भी महसूस करने लगे कि खाली प्रेम की ख़ूराक पर ज़िन्दगी ज़्यादा दिन नहीं चल सकती। मुश्किल यह थी नीरा जी पाक कला में बिल्कुल ही अनाड़ी थीं। उनसे न सब्ज़ी काटते बनता, न आटा गूँधते। आग पर रखे बर्तन वे हाथों से ही उठा लेतीं और फिर ‘हाय माँ’ कह कर उन्हें ऊपर से छोड़ देतीं।

एकाध बार जब शीतल भाई ने उनसे पूछा कि बर्तन कैसे गिर गया तो उन्होंने नूरजहाँ की तरह दुबारा पटक कर बता दिया कि कैसे गिर गया। लेकिन शीतल भाई के साथ दिक्कत यह थी कि वे सलीम की तरह कोई राजकुँवर नहीं थे।वे मध्यवर्गीय परिवार के थे और बर्तनों के गिरने से उनके दिमाग में झटका लगता था।

आरंभ में उन्हें पत्नी का पाक कला में  अनाड़ीपन नहीं अखरा। वे हँसते हुए होटल से भोजन ले आते और अपने हाथों से पत्नी को खिलाते थे। लेकिन जब आधी से ज़्यादा तनख्वाह पेट में जाने लगी तब शीतल भाई की प्रेमधारा का पाट कुछ सँकरा होने लगा। अब वे धीरे से कुनमुना कर पत्नी से कहते कि उसे भोजन बनाना सीखना चाहिए था। लेकिन पत्नी अभी तक अपने को प्रेमिका ही समझे बैठी थी। वह उनकी बात पर मुँह चिढ़ा कर सबेरे नौ बजे तक आराम से सोती रहती।

अन्ततः प्रेमशास्त्र में अर्थशास्त्र की दीमक लगने लगी। अब शीतल भाई खुलकर पत्नी से कहने लगे कि वह कौन सा बाप के घर से दहेज ले कर आयी है जो वे उसे होटल से ला ला कर खिलाते रहें। अब पत्नी उनकी बात सुनकर आँसू बहाती। वह रसोईघर में जाकर कुछ खटपट भी करती, लेकिन बात कुछ खास बनी नहीं।

अन्त में अंग्रेजी कहावत के अनुसार उनकी गृहस्थी की नाव पानी से निकलकर चट्टान पर चढ़ने लगी, अर्थात उसके टूटने की नौबत आने लगी। जब नीरा देवी को यह खतरा स्पष्ट दिखायी देने लगा तब उन्होंने घबराकर मेरी पत्नी की शरण ली।

हमने चुपचाप उन्हें पाकशास्त्र का प्रशिक्षण दिया। जब वे कुछ दक्ष हो गयीं तो हमने शीतल भाई को बिना कुछ बताये उनका बनाया भोजन खिलाया। जब शीतल भाई ने उस भोजन की प्रशंसा की तो हमें बात कुछ बनती हुई लगी। उसके बाद हमने नीरा जी की पकायी हुई वस्तुएँ उन्हीं के घर भेजीं और शीतल भाई ने उनकी भी खूब तारीफ की। तब हमने उन्हें बताया कि वे वस्तुएँ किसने बनायी थीं। परिणाम यह हुआ कि शीतल भाई की सूखती हुई प्रेम-बेल फिर हरी हो गयी और उनकी गृहस्थी की नाव फिर चट्टान से उतर कर पानी में तैरने लगी।

चूँकि अब नीरा देवी अपने पति के हृदय प्रदेश पर पुनः आधिपत्य कर चुकी हैं, अतः वे शीतल भाई को आड़े हाथों लेने से चूकती नहीं हैं। वे साफ-साफ कहती हैं कि शीतल भाई के हृदय में पहुँचने का रास्ता उनके पेट से होकर जाता है। शीतल भाई यह सुनकर शर्मा कर हँस देते हैं।

अन्त में एक बात और।अब इतिहास अपने को दुहरा रहा है। जिस तरह पचीस तीस वर्ष पहले शीतल भाई प्रेम-पीड़ित थे उसी तरह अब उनका बड़ा पुत्र भी आजकल एक कन्या के प्रेम में गिरफ्तार है। वह भी आजकल चाँद सितारों की दुनिया में रहता है। शीतल भाई इस बात को लेकर परेशान हैं।

एक दिन मेरे ही सामने शीतल भाई पुत्र से कहने लगे, ‘भैया, यह पता तो लगा लो कि वह खाना बनाना जानती है या नहीं।’

उनका पुत्र ताव खाकर बोला, ‘पापाजी, मैं आपसे कई बार कह चुका हूँ कि आप मुझसे ऐसी घटिया बात न किया करें, लेकिन आप मानते ही नहीं।’

और शीतल भाई बड़ी करुण मुद्रा बनाकर मेरी तरफ देखने लगे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 104 ☆ स्थिति परिवर्तन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  स्थिति परिवर्तन । इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 104 ☆

स्थिति परिवर्तन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

जिस तरह दो स्थितियाँ हमारे सामने होती हैं उसी तरह दो लोग भी होते हैं। एक तो वे जो हमारे अनुरूप कार्य करें और दूसरे वे जो क्रिएटिव तो हों किन्तु मनमानी करें। जिस समय जो चाहिए यदि वो उपलब्ध नहीं होगा। तो ऐसे व्यक्तियों का क्या फायदा। हमें चाहिए आम और वे लोग पपीता ला रहे हैं। तर्क भी ऐसा कि माथे पर बल आना स्वाभाविक है। जब मैंगो शेक  पीने की इच्छा हो और पपीता शेक आए तो गिलास फेंकने का मन करेगा। परन्तु धैर्य रखते हुए सब बर्दाश्त करना पड़ता है। बहुत सुंदर कहते हुए सुखीराम जी आम की खोज में निकल पड़े। अब सच्चे मन से जो चाहो वो मिल  जाता है सो उनको भी मिल गया। 

ये सही है कि इन स्थितियों से बैचेनी बढ़ती है कि सामने वाला आपके अनुसार नहीं अपने अनुसार चल कर मनमानी कर रहा है। प्यास लगने पर पानी ही चाहिए, अच्छा भोजन किसी ने सामने रखा है पर गला सूख रहा है तो पानी ही प्यास बुझायेगा। अब आपकी टीम में ऐसे लोगों की भरमार हो जो मनमर्जी सरकार चलाने में माहिर हों तो जाहिर सी बात है, ऐसे लोग काँटे की तरह चुभेंगे। किसी और कि वफादारी करते हुए ऊल- जुलूल निर्णय कभी  हितकारी नहीं होते। अगर टीम के साथ एकजुटता रखनी है तो सबको अपनी कार्यशैली बदलनी होगी। जिस समय जो कहा जाए वही पूरा हो, बहाने बाजी आसानी से समझ में आ जाती है। एकबार जो व्यक्ति मन से उतरा तो समझो दिमाग़ उसे उतारने में एक पल भी लगाता। आखिर कचरा जमा करने का ठेका थोड़ी ले रखा है।

कोई भी कार्य बिना कुशल नेतृत्व के नहीं होगा। अब ये टीम लीडर की जिम्मेदारी है कि वो सही पहचान करते हुए समय- समय पर खरपतवार जैसे लोगों की छटनी करता रहे। वैसे भी अवांछित वस्तुएँ कबाड़ी को देने का चलन सदियों से चला आ रहा है। मौसम के अनुरूप बदलाव करना उचित होता है किंतु गिरगिट बन जाना किसी को शोभा नहीं देता। टीम में जब तक मेहनती, बुद्धिमान व शीघ्रता से कार्य करने वाले लोग नहीं होंगे तब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा। अक्सर देखने में आता है कि शीर्ष अधिकारी जबर्दस्ती कामचोरों को भी टिका देते जिन्हें समझाते- समझाते पूरा समय बीत जाता है और परिणाम आशानुरूप नहीं आता है। 

जब भी लक्ष्य बड़ा हो तो छोटे-छोटे कदम बढ़ाते हुए सबको साथ लेना चाहिए। क्या पता कौन कब उपयोगी हो। टीम लीडर को अच्छा संयोजक भी होना चाहिए। ऐसे समय मे रहीम दास जी का यह दोहा सार्थक सिद्ध होता है –

रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार।

रहिमन फिर -फिर पोइए, टूटे मुक्ताहार।।

खैर समयानुसार निर्णय लिए जाते हैं। टीम चयन करते समय ही ठोक- पीट कर लगनशील व्यक्ति का चयन होना चाहिए क्योंकि जो लगातार कार्य करेगा उसे अवश्य ही सफलता मिलेगी।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #144 ☆ व्यंग्य – भूत जगाने वाले ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘भूत जगाने वाले’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 144 ☆

☆ व्यंग्य – भूत जगाने वाले

उस दिन घर में नया सीलिंग फैन आया था। पत्नी और मैं खुश थे। पंखे को फिट कराने के बाद हम उसके नीचे बैठे उसे अलग-अलग चालों पर दौड़ा रहे थे— कभी दुलकी, सभी सरपट। तभी कहीं से घूमते घामते सुखहरन जी आ गये। कुर्सी पर बैठकर उन्होंने ऊपर की तरफ देखा, बोले, ‘ओहो, नया पंखा लगवाया है?’

मैंने खुश खुश कहा, ‘हाँ।’

उन्होंने पूछा, ‘कितने का खरीदा?’

मैंने जवाब दिया, ‘अठारह सौ का।’

वे मुँह बिगाड़कर बोले, ‘तुम बहुत जल्दी करते हो। हमसे कहते हम आर्मी कैंटीन से दिलवा देते। कितने मेजर, कर्नल और ब्रिगेडियर अपनी पहचान के हैं। कम से कम दो तीन सौ की बचत हो जाती।’

हमारे उत्साह की टाँगें टूट गयीं। पत्नी ने मेरी तरफ मुँह फुला कर देखा और कहा, ‘सचमुच आप बहुत जल्दबाजी करते हो। सुखहरन भैया से कहते तो कुछ पैसे बच जाते।’

हमारा मूड नाश हो गया। अब हम अपने उत्साह को बार-बार पूँछ पकड़ कर ऊपर उठाते थे और वह गरियार बैल की तरह नीचे बैठ जाता था। सुखहरन हमारा सुख हर कर आराम से बैठे पान चबा रहे थे। पंखे की ठंडी हवा अब हमें लू की तरह काट रही थी।

इसके बाद जब एक ऑटोमेटिक प्रेस खरीदने की ज़रूरत हुई तो मैंने सुखहरन को पकड़ा। वे मेजरों और ब्रिगेडियरों की चर्चा करके मुझे कई दिन बहलाते रहे, लेकिन वे मुझे प्रेस नहीं दिलवा पाये। उस दिन ज़रूर वे हमारी खुशी को ग्रहण लगा गये।

ऐसे भूत जगाने वाले बहुत मिलते हैं। चतुर्वेदी जी के घर जाता हूँ तो वे अक्सर बीस साल पहले हुई अपनी शादी का रोना लेकर बैठ जाते हैं। उन्हें अपनी पत्नी से बहुत शिकायत है। पत्नी को सुनाकर कहते हैं, ‘क्या बताएं भैया, हमारे लिए दुर्जनपुर से द्विवेदी जी का रिश्ता आया था। डेढ़ लाख नगद दे रहे थे और साथ में एक मोटरसाइकिल भी कसवा देने को कह रहे थे। लेकिन अपने भाग में तो ये लिखी थीं।’ वे पत्नी की तरफ हाथ उठाते हैं।

मैं उनके चंद्रमा के समान असंख्य  गड्ढों से युक्त चेहरे और उनकी घुन खाई काया को देखता हूँ और कहता हूँ, ‘सचमुच दुर्भाग्य है।’ फिर युधिष्ठिर की तरह धीरे से जोड़ देता हूँ, ‘तुम्हारा या उनका?’

मेरे एक और परिचित संतोख सिंह परम दुखी इंसान हैं। वैसे खाते-पीते आदमी हैं, कोई अभाव नहीं है। लेकिन वेदना यह है कि उन्हें बीस पच्चीस साल पहले एक रुपये फुट के हिसाब से एक ज़मीन मिल रही थी जो उन्होंने छोड़ दी।अब वही ज़मीन डेढ़ सौ रुपए फुट हो गयी। संतोख सिंह इस बात को लेकर व्यथित हैं कि वे उस ज़मीन को लेने से क्यों चूक गये। लेकिन असल बात यह है संतोख सिंह परले सिरे के मक्खीचूस हैं और उस वक्त यदि स्वयं गुरु बृहस्पति भी उन्हें वह ज़मीन खरीदने की सलाह देते तब भी वे अपनी टेंट ढीली न करते।

ऐसे ही भूत जगाने वाले बहुत से राजा रईस हैं। उनका ज़माना लद गया, लेकिन उनमें से बहुत से अभी अपने को राजा और जनता को अपनी प्रजा समझते हैं। अपने घर में पुरानी तसवीरों और धूल खाये सामान से घिरे वे मुर्दा हो गये वक्त को इंजेक्शन लगाते रहते हैं।खस्ताहाल हो जाने पर भी अपने सिर पर दो चार नौकर लादे रहते हैं। अपने हाथ से काम न खुद करते हैं न अपने कुँवरों को करने देते हैं। ऐसा ही प्रसंग लखनऊ की एक बेगम साहिबा का है जो अपने पुत्र, पुत्री, पाँच छः नौकरों और दस बारह कुत्तों के साथ कई साल तक दिल्ली स्टेशन के एक वेटिंग रूम में पड़ी रहीं।

चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास ‘ग्रेट एक्सपेक्टेशंस’ में एक प्रसिद्ध चरित्र मिस हविशाम का है। मिस हविशाम को उनके प्रेमी ने धोखा दिया और वह ऐन उस वक्त गायब हो गया जब मिस हविशाम शादी के लिए तैयार बैठीं उसकी प्रतीक्षा कर रही थीं। मिस हविशाम पर इस बात का ऐसा असर हुआ कि उन्होंने समय को उसी क्षण रोक देने का निश्चय कर लिया। उन्होंने घर की सब घड़ियाँ रुकवा दीं। वह ज़िंदगी भर अपनी शादी की पोशाक पहने रहीं। घर की सब चीजे़ं वैसे ही पड़ी रहीं जैसी वे उस दिन थीं। शादी की केक पर मकड़जाले तन गये। लेकिन इस सब के बावजूद समय मिस हविशाम की उँगलियों के बीच से फिसलता गया और धीरे-धीरे वे बूढ़ी हो गयीं।

एक अंग्रेज कवि ने कहा है, ‘भूत को अपने मुर्दे दफन करने दो। वर्तमान में रहो।’ लेकिन भूत जगाने वालों को यह बात समझा पाना बहुत मुश्किल है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 103 ☆ भावना में संभावनाओं का खेल ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “भावना में संभावनाओं का खेल”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 103 ☆

☆ भावना में संभावनाओं का खेल ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

कहते हैं मन पर विजय प्राप्त हो जाए तो सब कुछ अपने वश में किया जा सकता है। पर क्या किया जाए यही तो चंचल बन मारा- मारा फिर रहा है। समस्या कितनी भी बड़ी क्यों न हो वो अपने साथ समाधान लेकर चलती है। आज नहीं तो कल व्यक्ति लक्ष्य को हासिल कर ही लेगा बस ध्यान में ये रखना होगा कि हमें सकारात्मक चिंतन करते हुए सबको एक सूत्र में जोड़ते हुए चलना है।

ये सही है कि रहिमन इस संसार में भाँति- भाँति के लोग किन्तु हमें अपनी मंजिल को पाना ही होगा। भावनाओं का महत्व अपनी जगह सही है लेकिन हर जगह इसकी उपस्थित खटकती है। हमको मिलकर आगे बढ़ना होगा। कटीले तारों की बाड़ी बनाकर खेतों की रक्षा की जाती है परन्तु पैदावार बढ़ाने हेतु खाद का सहारा लेना पड़ता है। जीवन के निर्णय भी इन कार्यों से अछूते नहीं हैं। समय- समय पर परीक्षा देनी होती है। एक तरह कुँआ तो दूसरी ओर खाई ऐसे में कुशल खिलाड़ी तेजी दौड़ते हुए कुछ कदम पीछे की ओर करता है फिर पूरे मन से जोर लगाते हुए लक्ष्य की ओर पहुँच जाता है।

ऐसा ही होना चाहिए। कुछ करो या मरो जैसा जज़्बा रखने वालों को मंजिल मिलती है। अनावश्यक मोबाइल पर रोजगार सर्च करने में समय लगाने से बेहतर है किसी स्किल पर कार्य करें।

सफल व्यक्ति कार्य करते नहीं है वे तो टीम  बनाते हैं जो उनके लिए कार्य करती रहती है। टीम को मोटिवेट व विल्डअप करते हुए टीम लीडर स्वयं की पहचान बनाने लगता है। लगातार किसी कार्य को करते रहें अवश्य ही विजयी भवः का आशीर्वाद प्रकृति देने लगती है।

संख्या बल की उपयोगिता को समझते हुए समय- समय पर समझौते भी करने पड़ते हैं क्योंकि समय पर जब सचेत नहीं होंगे तो थोड़े -थोड़े लोग आपस में जुड़कर लकड़ी का गट्ठा बना लेंगे जो एकता और शक्ति दोनों के बलबूते पर बिना दिमाग़ के कार्यों की ओर भी प्रवत्त हो सकता है।समय रखते अच्छे विचारों को एक प्लेटफॉर्म पर सच्चाई व सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा हेतु आगे आना चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 163 ☆ व्यंग्य – कांच के शो रूम में शो ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय व्यंग्य – कांच के शो रूम में शो।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 163 ☆

☆ व्यंग्य – कांच के शो रूम में शो ☆

राम भरोसे बड़ा प्रसन्न था। कारण जानना चाहा, तो पता चला कि उसे सूचना का अधिकार मिल गया है। अर्थात् अब सब कुछ पारदर्शी है। यूं तो ’इस हमाम में हम सब नंगे है’, पर अब जो नंगे न हों, उन्हे नंगे करने का हक भी हम सब के पास है।  वैसे झीना-पारदर्शीपन, कुछ कुछ सेक्स अपील से संबंधित प्रतीत होता है, पर यह पारदर्शीता उस तरह की नहीं है। सरकारी पारदर्शिता के सूचना के अधिकार के मायने ये हैं, कि कौन क्या कर रहा है, क्यों कर रहा है, कैसे कर रहा है? यह सब, सबके सामने उजागर होना चाहिये। मतलब ये नहीं कि कोई तो ’राम भरोसे’ हो, और कोई ’सुखी राम’ बन जाये। कोई ’रामसिंग’ हो और कोई ’दुखीराम।’ कोई ’राम लाल’ तो और कोई कालू राम बनकर रह जावे- जब सब राम के बंदे हैं, तो सबको बराबर के अधिकार हैं। सबकों पता होना चाहिये कि उनके वोट से चुनी गई सरकार, उन्हीं के बटोरे गये टैक्स से उनके लिये क्या काला-सफेद कर रही है। सीधे शब्दों में अब सब कांच के घरों में बैठे हैं। वैसे इसका भावार्थ यह भी है कि अब कोई किसी पर पत्थर न उछाले। मजे से कांच की दीवारों पर रेशमी पर्दे डालकर ए.सी. की ठंडी बयार में अफसर बियर पियें, नेता चाहें तो खादी के पर्दे डाल कर व्हिस्की का सेवन कर सकते हैं। रामभरासे को सूचना का अधिकार मिल गया है। जब उसे संदेह होगा कि कांच के वाताकूलित चैम्बर्स तक उसकी आवाज नहीं पहुंच पा रही है, तो यथा आवश्यकता वह, पूरे विधि विधान से अर्जी लगाकर परदे के भीतर का आँखों देखा हाल जानने का आवेदन लगा सकेगा। और तब, यदि गाहे बगाहे उसे कुछ सच-वच जैसा, मालूम भी हो गया, तो कृष्ण के अनुयायी माखन खाने से मना कर सकते हैं। यदि  टी.वी. चैनल पर सरासर कोई फिल्म प्रसारित भी हो जावे, तो उसे फर्जी बताकर, अपनी बेकसूरी सिद्ध करते हुये, एक बार पुनः लकड़ी की कढ़ाई चूल्हे पर चढ़ाने का प्रयास जारी रखा ही जा सकता है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #143 ☆ व्यंग्य – जल-संरक्षण के व्रती ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘जल-संरक्षण के व्रती’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 143 ☆

☆ व्यंग्य – जल-संरक्षण के व्रती

दशहरा मैदान में जल-संरक्षण पर धुआँधार भाषण हो रहे थे। बड़े-बड़े उत्साही वक्ता और विशेषज्ञ जुटे थे। कुछ गाँवों, शहरों में ‘वाटर हार्वेस्टिंग’ की बात कर रहे थे, कुछ पुराने टाइप के फटकारदार कुल्लों का त्याग करने की गुज़ारिश कर रहे थे। कुछ टॉयलेट में कम पानी बहाने का सुझाव दे रहे थे। कुछ की शिकायत थी कि स्त्रियाँ अमूमन ज़्यादा नहाती हैं और केश धोने में अधाधुंध पानी खर्च करती हैं, इसलिए जल- संरक्षण की दृष्टि से सभी स्त्रियों को अपने बाल छोटे करा लेना चाहिए। इससे जल की बचत होने के साथ-साथ वे आधुनिका भी दिखेंगीं। इससे घरेलू हिंसा भी कम होगी क्योंकि पति महोदय आसानी से पत्नी के केश नहीं गह सकेंगे। एक साहब ने क्रान्तिकारी सुझाव दिया कि भारत में टॉयलेट के भीतर ‘टॉयलेट पेपर’ का उपयोग कानूनन अनिवार्य बना देना चाहिए और वहाँ पानी बहाने वालों को जेल भेजना चाहिए।

यह भी सुझाव आया कि जैसे फौज में दारू का कम उपभोग करने वाले जवानों के अफसरों को पुरस्कृत किया जाता है वैसे ही शहरों में साल भर में पानी का न्यूनतम उपयोग करने वाले परिवारों को पुरस्कृत और सम्मानित किया जाना चाहिए और इसके लिए तत्काल जाँच- प्रक्रिया का निर्धारण किया जाना चाहिए।

इस सभा में मंच पर दूसरी पंक्ति में चार महानुभाव आजू बाजू विराजमान थे। बढ़ी दाढ़ी और मैले-कुचैले कपड़े। लगता था महीनों से शरीर को जल का स्पर्श नहीं हुआ। उनके आसपास बैठे लोग नाक पर रूमाल धरे थे।

अन्य वक्ताओं के भाषण के बाद संचालक महोदय बोले, ‘भाइयो, आज हमारे बीच चार ऐसी हस्तियाँ मौजूद हैं जिन्होंने अपने को पूरी तरह जल-संरक्षण के प्रति समर्पित कर दिया है। इन्होंने अपने व्रत के कारण समाज से बहुत उपेक्षा और अपमान झेला, लेकिन ये अपने जल-संरक्षण के व्रत से रंच मात्र भी नहीं डिगे। ज़रूरत है कि अपने उसूलों के लिए जीने मरने वाली ऐसी महान विभूतियों को समाज पहचाने और उन्हें वह सम्मान प्राप्त हो जिसके ये हकदार हैं। अब आपका ज़्यादा वक्त न लेकर मैं इन चार जल- संरक्षण सेनानियों में से श्री पवित्र नारायण को आमंत्रित करता हूँ कि वे माइक पर आयें और अपने साथियों के द्वारा जल-संरक्षण के लिए किये गये कामों पर विस्तृत प्रकाश डालें।’

नाम पुकारे जाने पर जल-संरक्षण के पहले सेनानी पवित्र नारायण जी सामने आये। उनके दर्शन मात्र से दर्शक धन्य हो गये। चीकट कपड़े, हाथ-पाँव पर मैल की पर्तें, पीले पीले दाँत और आँखों में शोभायमान कीचड़। दर्शक मुँह खोले उन्हें देखते रह गये।

पवित्र नारायण जी माइक पर आकर बोले, ‘भाइयो, आज मुझे और मेरे कुछ साथियों को आपके सामने आने का मौका मिला, इसके लिए हम आज के कार्यक्रम के आयोजकों के आभारी हैं। मैंने और मेरे साथियों ने जब से होश सँभाला तभी से हम जल-संरक्षण में लगे हैं, लेकिन हमें अफसोस है कि दुनिया ने हमें हमेशा गलत समझा है। इस कार्यक्रम में आने के बाद हमारे मन में उम्मीद जगी है फिर हमारे काम को समझा और सराहा जाएगा।

‘भाइयो, हमारी जल-संरक्षण की प्रतिबद्धता इतनी अडिग है कि हम कई साल से तीन-चार मग पानी में ही अपनी दिन भर की क्रियाएँ संपन्न कर रहे हैं। न हमें स्नान का मोह है, न कपड़े चमकाने का। पानी की बचत ही हमारे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। कुछ लोग इस गलतफहमी का शिकार हो जाते हैं कि हम स्वभावतः गन्दे हैं, लेकिन यह सच नहीं है। हम यहाँ इस उम्मीद से आये हैं कि कम से कम आप लोग हमें सही समझेंगे और हमारे काम और त्याग को महत्व देंगे।’

इतना बोल कर उन्होंने जनता की तरफ देखा कि उनके वक्तव्य पर ताली बजेगी, लेकिन वहाँ तो सबको साँप सूँघ गया था।

जनता में माकूल प्रतिक्रिया न देख पवित्र नारायण जी ने अपने तीनों साथियों को जनता के सामने ला खड़ा किया। बोले, ‘भाइयो, इस जल-संरक्षण अभियान में शामिल अपने तीन साथियों का परिचय कराता हूँ। ये धवलनाथ हैं। इनके हुलिया से ही आप समझ सकते हैं कि इन्होंने कितनी ईमानदारी से अपने को जल-बचत अभियान में झोंक रखा है। ये पानी की एक बूँद को भी ज़ाया करना हराम समझते हैं। लेकिन विडम्बना देखिए कि इनकी दस साल पहले शादी हुई और बीवी दूसरे ही दिन इस महान आदमी को छोड़कर चली गई। तब से उसने इधर का रुख नहीं किया। धवलनाथ जी का जज़्बा देखिए कि इस हादसे के बाद भी वे अपने मिशन में तन मन से लगे हैं।

‘और ये हमारे एक और साथी सुगंधी लाल हैं। आप देख सकते हैं कि इनकी उम्र ज्यादा नहीं है, लेकिन ये भी पूरी तरह हमारे मिशन को समर्पित हैं। अपने उद्देश्य के लिए इनका त्याग भी ऊँचे दर्जे का है। पिछले चार-पाँच सालों में इनको चार पाँच बार इश्क हुआ, लेकिन हर बार एक दो महीने में ही इनकी महबूबा ने इन से कन्नी काट ली। शिकायत वही  घिसी-पिटी है कि ये नहाते- धोते नहीं हैं। इसके जवाब में हमारे भाई सुगंधी लाल जी पूछते हैं कि जब मजनूँ, फरहाद, रांँझा और महीवाल इश्क फ़रमाने निकलते थे तो क्या वे रोज़ नहाते थे? महीवाल ज़रूर मजबूरी में नहाते होंगे क्योंकि कहते हैं कि वे दरया में तैर कर अपनी महबूबा से मिलने जाते थे, लेकिन बाकी महान प्रेमियों के नहाने का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। जो भी हो, अब भाई सुगंधी लाल ने मुहब्बत जैसी फिजूल बातों से मुँह मोड़ लिया है और पूरी तरह जल-बचत अभियान में डूब गये हैं। लोग कहते हैं कि इन्हें ‘हाइड्रोफोबिया’ है। बात सही भी है, लेकिन यह कुत्ते को काटने वाला हाइड्रोफोबिया नहीं है। इन्हें आपके आशीर्वाद की ज़रूरत है।’

पवित्र नारायण जी ने अपने आखिरी साथी का परिचय कराया, कहा ‘ये हमारे बड़े समर्पित साथी शफ़्फ़ाक अली हैं। इनके साथ यह जुल्म हो रहा है कि लोगों ने इनके मस्जिद में घुसने पर पाबन्दी लगा दी है। कहते हैं ये नापाक हैं। लेकिन भाई शफ़्फाक अली अपने उसूलों पर चट्टान की तरह कायम हैं। इनका कहना है नमाज़ तो कहीं भी और कैसे भी पढ़ी जा सकती है। उसके लिए मस्जिद की क्या दरकार?’

उपसंहार के रूप में पवित्र नारायण बोले, ‘तो भाइयो, मैंने जल-संरक्षण में पूरी तरह समर्पित इन साथियों से आपका परिचय कराया। हमारी इच्छा है कि समाज और सरकार हमारे काम को तवज्जो दे और हमें स्वतंत्रता-संग्राम सेनानियों के बराबर दर्जा दिया जाए। हमें प्रशस्ति-पत्र मिले और हमारे लिए पेंशन मुकर्रर हो। इसके अलावा जो लोग हमसे अछूतों जैसा बर्ताव करते हैं उन्हें छुआछूत कानून के अंतर्गत दंडित किया जाए। हमें पूरी उम्मीद है कि हमारी आवाज सरकार के कानों तक पहुँचेगी और हमें हमारी कुरबानी के हिसाब से सम्मान और पुरस्कार मिलेगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 102 ☆ बरसों बाद… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “बरसों बाद…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 102 ☆

☆ बरसों बाद… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

बरस दर बरस समय तेजी से बीतता चला जा रहा है। जिसने समय के महत्व को समझा उसने सब कुछ पा लिया और जो मनोरंजन की दुनिया में खोया रहा वो आज भी उसी मोड़ पर इंतजार करता हुआ देखा जा सकता है। आज चर्चा इस बात पर नहीं कि समय का सदुपयोग कैसे करें बल्कि एक नया कथानक है कि जब दो सफल लोग मिलते हैं तो  एक दूसरे से किस प्रकार की अपेक्षा रखते हैं।

ट्रिन- ट्रिन घण्टी बज रही थी। मोबाइल उठाते हुए रीमा ने कहा हेलो…

उधर से आवाज आयी, “रीमा जी मैं संतोष बोल रहा हूँ।” आज मेरी पुस्तकों का विमोचन है आप अवश्य आइयेगा। नेहा जी आयी हुईं हैं। उन्होंने खासतौर पर आपको आमंत्रित करने के लिए कहा है। हम सभी आपका इंतजार करेंगे।

रीमा ने कहा, “सर्वप्रथम पुस्तकों के विमोचन हेतु आपको हार्दिक बधाई। नेहा से मिलने मैं जरूर आऊँगी।”

मन ही मन सोचते हुए उन्होंने कहा आज तो बच्चों को लेकर बाजार जाना था। अब क्या करूँ? कोई बात नहीं अगले रविवार को चली जाऊँगी, सोचते हुए वो तेजी से काम निपटाने लगीं।

कुछ ही देर में लाल बार्डर की साड़ी पहन कर बड़ी सी बिंदी माथे पर सजाए पूरी मैचिंग के साथ वे मिलने की खुशी समेटे हुए चल दीं।

तभी नेहा का फोन उनके पास आया दीदी आप जल्दी आ जाना क्योंकि कार्यक्रम शुरू होने पर बातचीत नहीं हो पाएगी।

हाँ नेहा मैं पहुँच रही हूँ, तुम समय पर आ जाना।

हाँ दीदी मैं पहुँच जाऊँगी, मीठे स्वर से नेहा ने कहा।

15 मिनट बाद रीमा कार्यक्रम स्थल में पहुँच चुकी थी। वहाँ से उत्सुकता पूर्वक उसने फोन लगाया। बदले में नेहा ने कहा दीदी कुछ लोग आ गए हैं बस थोड़ी देर से  आती हूँ।

लगभग 2 घण्टे बीत जाने के बाद भी जब नेहा नहीं आयी तो रीमा जी सोचने लगीं देखो मैं तो अपना जरूरी कार्य एक हफ्ते के छोड़कर इससे मिलने आयीं हूँ और इसने शायद अपना रुतबा दिखाने के लिए मुझे बुलाया था।

कार्यक्रम में सभी लोग नेहा जी… करते हुए उनका गुणगान कर रहे थे और रीमा बार -बार अपने हाथों की घड़ी देखे जा रही थी। तभी नेहा ने मुस्कुराते हुए हॉल में कदम रखा, सभी लोग नेहा जी आ गयीं कहते हुए फूल माला लेकर दौड़ पड़े।

नेहा ने आगे आकर रीमा के पैर छुए और कहा सबके आने से देर हो गयी।

मुस्कुराते हुए रीमा ने कहा कोई बात नहीं। मन ही मन वो समझ चुकीं थीं कि नेहा अब नेहा जी बन चुकीं हैं उससे भूल हो गयी थी वो तो उसी बरसो पुरानी नेहा से मिलने जो आ गयी थी।

ऐसा अक्सर होता है जब दूसरों से ज्यादा अपेक्षाएँ हम अपने स्तर पर बना लेते हैं।  हमें सोचना होगा बदलाव जीवन का बड़ा सत्य है। आज को जिएँ तभी कल सफल होगा। मिलना- जुलना तो एक बहाना है क्या आपने कभी सोचा कि त्रेतायुग का दोस्ती का उदाहरण अक्सर दिया जाता है किंतु वहाँ भी सुदामा ही  द्वारिकाधीश के पास गए थे वे नहीं आए थे। सो दोस्ती बराबरी में ही निभती है या तो बढ़ते रहो या उचित समय पर राहें बदल लो।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #142 ☆ व्यंग्य – एक धार्मिक जुलूस ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘एक धार्मिक जुलूस’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 142 ☆

☆ व्यंग्य – एक धार्मिक जुलूस

धार्मिक जुलूस निकलने को है। सूचनाएँ स्थानीय अखबारों में निकल चुकी हैं। जुलूस के नेताओं की अपीलें भी निकल चुकी हैं कि सब लोग सहयोग देकर धर्म को पुख़्ता करें और शांति बनाए रखें। धार्मिक जुलूसों के वक्त शांति बनाए रखने की अपील ज़रूरी होती है क्योंकि धर्म की शांति से पटरी बैठती नहीं। हमेशा शांति-भंग का ख़तरा रहता है। जुलूस के नेताओं में भी ज़्यादातर वे हैं जिन्हें जुलूसों और और तेज़-तर्रार वक्तव्यों को छोड़कर सच्चे अर्थों में धर्म से कुछ लेना-देना कम ही होता है। अब लोग धार्मिक कम हैं, धर्म के ठेकेदार ज्यादा हैं।

जुलूस को लेकर पूरे प्रशासन की जान हलक में है। महीना भर पहले से बैठकें हो रही हैं। धर्म के ठेकेदारों को बुलाकर मशवरा लिया जा रहा है कि भैया, ऐसा करो कि काम शांति से निपट जाए। धार्मिक नेताओं के भाव ऊँचे हैं। जुलूस किस रास्ते से जाए, इसे लेकर मान- मनौव्वल हो रहा है। ठेकेदार और उनके छुटभैये ज़िद करते हैं, ‘नहीं साहब, जुलूस तो उसी रास्ते से निकलेगा,चाहे कुछ भी हो जाए।’ बात यह है कि जुलूस निकालने वालों का काम जुलूस निकालना है। अमन बनाये रखने का ठेका प्रशासन का है। जुलूस तो ज़रूर निकलेगा, लेकिन अगर कोई गड़बड़ी हो जाए तो उचक कर प्रशासन की गर्दन थाम लो। फिर इंक्वायरी हो और फिर अंत में कोई बेचारा गरीब कांस्टेबल बलि का बकरा बना कर लाइन अटैच कर दिया जाए।

प्रशासन सब काम छोड़कर जुलूस की फिक्र में लगा है। बाकी सब काम बन्द। कोई आला अफसर अभी नहीं मिलेगा क्योंकि साहब अभी जुलूस वाली मीटिंग में हैं। जिसको कोई काम कराना हो वह जुलूस निकल जाने तक रुके,  चाहे काम जीवन-मरण का ही क्यों ना हो। जुलूस निकलने तक ज़िंदा रह सकते हो तो ठीक है, नहीं तो हरि इच्छा।
            ज़िले के सब हिस्सों से पुलिस की टुकड़ियाँ  बुलायी जा रही हैं क्योंकि धार्मिक जुलूस निकलना है। जहाँ पुलिस कम हो गयी है वहाँ तथाकथित असामाजिक तत्वों के हौसले कुछ ऊँचे हुए हैं और शांतिप्रिय भद्र लोगों के हौसले गिरे हैं, क्योंकि भद्र लोगों की भद्रता पुलिस के भरोसे ही कायम है।

शहर में असामाजिक तत्वों की धरपकड़ हो रही है ताकि जुलूस शांति से निकल जाए। जो  समझदार असामाजिक तत्व हैं वे पहले ही रिश्तेदारों के यहाँ चले गये हैं क्योंकि हर धार्मिक जुलूस के समय उन्हें सरकार की मेहमानदारी कबूल करनी पड़ती है। वैसे असामाजिक तत्वों में सिर्फ ऐरे-ग़ैरे-नत्थू-ख़ैरे ही आते हैं जिनका कोई माई-बाप नहीं होता। जिनके पास माल है या जिनका कोई धर्मपिता होता है वे असामाजिक तत्वों की फ़ेहरिस्त में नहीं आते।

पुलिस और प्रशासन जुलूस के पूरे रास्ते का निरीक्षण करते हैं। कहाँ-कहाँ फोर्स लगायी जाए, कहां निरीक्षण-मीनारें बनें, कहां एस.पी. साहब बैठें और कहाँ डी.आई.जी. साहब। रिज़र्व फोर्स कहाँ रहे, जो गड़बड़ी होते ही दौड़ पड़े। अश्रुगैस का पर्याप्त प्रबंध रहे।

जुलूस निकल रहा है। पुलिस अफसर जैसे उन्माद में हैं। कोई भी इधर-उधर दौड़ता- भागता दिखता है कि लाठी भाँजते दौड़ते हैं। जनता उत्सव के मूड में है, लेकिन प्रशासन के प्राण चोटी में हैं।

जुलूस एक-एक इंच  सरक रहा है और प्रशासन को एक-एक इंच सफलता मिल रही है। तनाव एक-एक इंच घट रहा है। कंट्रोल रूम को एक-एक क्षण की सूचना मिल रही है। जुलूस के लोग धर्मोन्माद में झूम रहे हैं, गा रहे हैं और प्रशासन असली धर्मपरायण की तरह राम और ख़ुदा को याद कर रहा है।

अंततः जुलूस ख़त्म हो गया है। लोग आखिरी जय-जयकारों के बाद बिखरने लगे हैं। जुलूस के नेताओं के चेहरे गौरवमंडित हैं। जब आखिरी जत्था भी चला जाता है तो प्रशासन ईश्वर को धन्यवाद देता है।

फिर प्रशासन के लोग एक दूसरे को बधाइयाँ देते हैं। ‘बधाई सर, सब ठीक-ठाक निपट गया।’ प्रदेश की राजधानी को प्रसन्नता भरे संदेश जाते हैं कि जुलूस शांतिपूर्वक निपट गया। राजधानी में भी बड़े लोग ठंडी साँस लेते हैं। अफसर घर लौट कर यूनिफॉर्म उतारते हुए तनावग्रस्त पत्नी को सूचना देते हैं कि सब काम ठीक से निपट गया,और पत्नी छत की तरफ आँखें उठाकर साड़ी का पल्लू आँखों से लगाती है।कारण यह है कि जुलूस अफसर को लाइन अटैच से लेकर सस्पेंड तक करा सकता है। इसलिए सही- सलामत घर लौटना भारी सुखकर होता है।

जुलूस ख़त्म हो गया है। अब बेचारे छोटे असामाजिक तत्व इस प्रतीक्षा में हैं कि हुकुम जारी हो तो वे सरकारी मेहमानख़ाने से बाहर आयें  और अगले जुलूस तक खुली हवा का सेवन करें।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 101 ☆ अवसरवादी व्यवस्था ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “अवसरवादी व्यवस्था…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 101 ☆

☆ अवसरवादी व्यवस्था… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

दूसरे के परिश्रम को छीन कर जब हम आगे बढ़ते हैं तभी से सीखने की प्रक्रिया रुकने लगती है। हमारा सारा ध्यान चोरी की मानसिकता व सत्य को झुठलाने की ओर मुड़ जाता है। देर सबेर जब आँख खुलती है तो पता चलता है कि हमारी कुर्सी खतरे में है। उपेक्षित होकर रहने से बेहतर है कि दूसरी जगह जाकर उनकी जी हुजूरी में अपना समय लगाएँ। हो सकता है वहाँ कोई नया अवसर मिले अवसरवादी बनने का।

हर जगह फोटो में छाए रहने वाले रौनक लाल जी  इस बार अपनी जगह सुनिश्चित न पाकर सोर्स लगाते हुए उपलब्धियों की सूची गिनाने लगे। तभी एक ने कहा हर बार यही विवरण देने से बात नहीं बनेगी। कुछ नया हो तो बताइए। उन्होंने झट से अखबार की कटिंग सामने रख दी। मजे की बात उसमें भी उनका नाम तो था पर सामान्य सदस्य के रूप में। अब बेचारे फोन उठा कर सम्बंधित व्यक्ति को उसकी भूल बतलाने लगे। तभी उनके सलाहकार ने कहा कोई बात नहीं अब आप दूसरी संस्था की ओर मुड़ जाइये यहाँ न सही वहाँ अध्यक्षीय कुर्सी पर विराजित होकर पेपर में नाम छपवाएँ।

उदास स्वर से रौनक लाल जी कहने लगे,” समय इतनी तेजी से बदलता जा रहा है। पहले जो लोग मेरी आँखों के इशारे से रास्ते बदल देते थे वे भी मुझे सलाह देते हुए कहते हैं कि ज्यादा लालच मत कीजिए। किसी एक संस्था के वफ़ादार बनें। हर जगह अध्यक्ष बनने की कोशिश में आपकी सदस्यता भी भंग हो जाएगी। सम्मान कमाना पड़ता है। कोई प्रेम से बोल दे तो इसका ये मतलब नहीं कि आप हर चीजों का निर्धारण करेंगे।

ऐसा अक्सर देखने में आता है किंतु अब ठहरा डिजिटल युग सो ऑनलाइन ही कार्यक्रम होने लगे हैं। जहाँ कुर्सी का किस्सा कुछ हद तक कमजोर होने लगा है। बस पोस्टर में फोटो हो फिर कोई शिकायत नहीं रहती। अपनी फोटो को देखने में जो आंनद है वो अन्य कहीं नहीं मिलता। सब कुछ मेरे अनुसार हो बस यही समस्या की जड़ है। जड़ उपयोगी है किंतु जड़बुद्धि की मानसिकता रखने वाला व्यक्ति घातक होता है।

मानव जीवन में बहुत से ऐसे पल आते हैं जब ये लगने लगता है कि चेहरे की मासूमियत व मुस्कान अब वापस नहीं आने वाली किन्तु दृढ़ इच्छाशक्ति व संकल्प से  सब कुछ जल्दी ही सामान्य होकर पुनः जीवन में नव उत्साह का संचार हो पूर्ववत स्थिति आ जाती है।

मुस्कुराहट से न केवल हम सभी वरन जीव – जंतु भी आकर्षित होते हैं। जब चेहरे में प्रसन्नता झलकती है तो आसपास का परिवेश भी मानो खुशहाली के गीत गुनगुनाने लगता है। अनजाने व्यक्ति से भी  एक क्षण में ही लगाव मुस्कुराहट द्वारा ही संभव हो सकता है।

तो आइये देरी किस बात की ईश्वर प्रदत्त इस उपहार को  मुक्त हस्त से बाँट कर परिवेश में खुशहाली फैलायें। अवसरवादी बनने हेतु अवसरों की भरमार है बस मुस्कुराते हुए कार्य करने की कला आनी चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 158 ☆ व्यंग्य – जिजिविषा के बन्द पन्ने ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य – जिजिविषा के बन्द पन्ने. इस आलेख में वर्णित विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं जिन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से लेना चाहिए।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 158 ☆

? व्यंग्य – जिजिविषा के बन्द पन्ने  ?

निज़ाम-ए-मय-कदा साक़ी बदलने की ज़रूरत है

हज़ारों हैं सफ़े जिन में न मय आई न जाम आया

रफ कापी मतलब पीरियड किसी भी विषय का हो, नोट्स जिस कापी में लिखे जाते थे, वह महत्वपूर्ण दस्तावेज एक अदद रफ कापी हुआ करती थी जैसे गरीब की लुगाई गांव की भौजाई होती है. फिर भी रफ कापी अधिकृत नोटबुक नही मानी जाती.

छुट्टी के लिये आवेदन लिखना हो तो रफ कापी से ही बीच के पृष्ठ सहजता से निकाल लिये जाते थे, मानो सरकारी सार्वजनिक संपत्ति हो. रफ कापी के पेज फाड़कर ही राकेट, नाव और कागज के फ्लावर्स बनाकर ओरोगामी सीखी जाती थी.  यह रफ कापी ही होती थी, जिसके अंतिम पृष्ठ में नोटिस बोर्ड की महत्वपूर्ण सूचनायें एक टांग पर खड़े होकर लिखी जाती थीं.

रफ कापी में ही कई कई बार लाइफ रिजोल्यूशन्स लिखे जाते थे, परीक्षायें पास आने लगती तो डेली रूटीन लिख लिख कर हर बीतते दिन के साथ बार बार सुधारे जाते थे. टीचर के व्याख्यान उबाऊ लग रहे होते  तो रफ कापी ही क्लास में दूर दूर बैठे मित्रो के बीच लिखित संदेश वाहिका बन जाती थी, उस जमाने में न तो हर हाथ में मोबाइल थे और न एस एम एस, व्हाट्स एप की चैटिंग.

उम्र के किशोर पड़ाव पर रफ कापी के पृष्ठ पर ही पहला लव लेटर भी लिखा था, यदि ताजमहल भगवान शिव का पवित्र मंदिर नही, प्रेम मंदिर ही है तो  चिंधी में तब्दील वह सफा, हमारे ताज बनाने की दास्तां से पूर्व उसकी स्वयम की गई भ्रूण हत्या थी. कुल मिलाकर रफ कापी हमारी पीढ़ी  का बेहद महत्वपूर्ण दस्तावेज रहा है. शायद जिंदगी का पहला  व्यंग्य भी रफ कापी पर ही लिखा था  मैंने.

नोट्स रि राइट करने की अपेक्षा  रफ कापी के वे पन्ने जो सचमुच रफ वर्क के होते उन्हें स्टेपल कर रफ वर्क को दबा कर फेयर कापी में तब्दील करने की कला हम समय के साथ सीख गये थे. जब रफ कापी के कवर की दशा दुर्दशा में बदल जाती और कापी सबमिट करनी विवशता हो तो नया साफ सु्थरा ब्राउन कवर चढ़ा कर निजात मिल जाती. नये कवर में पुराना माल ढ़ंका, मुंदा बन्द बना रहता. बन्द सफों और ढ़ंके कवर को खोलने की जहमत कोई क्यों उठाता.

इस ढ़ांकने, मूंदने, अपनी गलतियों को छुपा देने,  के मनोविज्ञान को नेताओ ने भली भांति समझा है, रफ कापी में टाइम पास के लिए हाशिये पर गोदे गये चित्र  इतिहास और मनोविज्ञान के समर्थ अन्वेषी साधन हैं.

बरसों से सचाई की खोज महज शोधकर्ताओ की थीसिस या किसी फिल्म का मटेरियल मात्र मानी जाती रही है.

तभी तो आजाद भारत में भी किसी को ताजमहल के तलघर के बन्द कमरों, या स्वामी पद्मनाभ मंदिर के गुप्त खजाने के महत्वपूर्ण इतिहास को खोजने में किसी की गंभीर रुचि नही रही. मीनार पर मीनार, गुम्बद पर गुम्बद की सचाई को ढ़ांके, नये नये कवर चढ़े हुये हैं.

लम्बी अदालती कार्यवाहियों के स्टेपल, जांच कमेटियों की गोंद, कमीशन रिपोर्ट्स के फेवीकाल, कानून के उलझे दायरों के मुडे सिले क्लोज्ड पन्नो में  बहमत के सारे मनोभाव, कौम की  सचाई छिपी है. वोट दाता नाराज न हो जाएं सो उनके तुष्टीकरण के लिये देश की रफ कापी के ढेरों पन्ने चिपका कर यथार्थ छिपाई जाती रही है. शुतुरमुर्ग की तरह सच को न देखने से सच बदल तो नही सकता, पर यह सच बोलना भी मना है.

पर आज  नोटबुक के सारे जबरदस्ती  बन्द रखे गए पन्ने फडफड़ा रहे हैं  उन्हें सिलसिलेवार समझना होगा क्योंकि अब मैं समझ रहा हूं कि रफ कापी के वे स्टेपल्ड बन्द पन्ने केवल रफ वर्क नहीं सच की फेयर डायरी है । जिनमें  दर्ज है पीढ़ी की जिजिविषा, तपस्या, निष्ठा और तत्कालीन बेबसी की दर्दनाक पीड़ा.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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