हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गुनहगार कौन? ☆ – श्री कुमार जितेंद्र

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(आज प्रस्तुत है  श्री कुमार जितेंद्र जी   की एक समसामयिक कविता  “गुनहगार कौन? ”। 

☆ गुनहगार कौन? ☆

 

इंसान के कुकर्म से, धरा हो गई वीरान,

हें! प्राणी, बेजुबान पूछ रहे हैं, गुनहगार कौन?

 

मशीनों के छेद से, धरा हो गई हैरान,

हें! प्राणी, बेजुबान पूछ रहे हैं, गुनहगार कौन?

 

दौड़ – भाग छोड़ कर, घर में कैद हो गया इंसान,

हें! प्राणी, बेजुबान पूछ रहे हैं, गुनहगार कौन?

 

परिवार की अपनों से, अब हो रही है पहचान,

हें! प्राणी, बेजुबान पूछ रहे हैं, गुनहगार कौन?

 

कचरे का ढेर लगा के, अंधा हो गया इंसान,

हें! प्राणी, बेजुबान पूछ रहे हैं, गुनहगार कौन?

 

भूखे – प्यासे तड़प रहे हैं, देख रहा है इंसान,

हें! प्राणी, बेजुबान पूछ रहे हैं, गुनहगार कौन?

 

हवाओं में जहर घोल के, छिप गया इंसान,

हें! प्राणी, बेजुबान पूछ रहे हैं, गुनहगार कौन?

 

कपड़े से मुह छुपाकर, घूम रहा इंसान,

हें! प्राणी, बेजुबान पूछ रहे हैं, गुनहगार कौन?

 

©  कुमार जितेन्द्र

साईं निवास – मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान)

मोबाइल न. 9784853785

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ धरती है माँ हमारी ☆ – श्री नरेंद्र राणावत

श्री नरेंद्र राणावत

( आज प्रस्तुत है युवा साहित्यकार श्री नरेंद्र राणावत जी की एक समसामयिक कविता धरती है माँ हमारी.)

☆ धरती है माँ हमारी ☆

 

धरती है माँ हमारी

रखनी है लाज

हम सभी को,

लिया है जन्म

तो कर्ज चुकाने ही होंगे,

क्यू की प्रकृति हमेशा न्याय करती है,

बता दिया इस कोरोना वैश्विक महामारी ने,

कुछ भी नही चलता साथ

केवल हमारी नैसर्गिक प्रकृति ही हमे बचाती है।

 

क्या दिया हमने,क्या बोया हमने?

हिसाब तय है,

आओ हम सब मिलकर

पेड़ पौधे लगाये,

जीव,जन्तु,मनुष्य हम सब पर्यावरण को बचाये,

नही बचा गर इस धरा का

आंचलिक रूप,

तो हम कही का भी नही रह पाएंगे,

त्राहि त्राहि मच जायेगी चारों और

हाहाकर कर बेमौत मर जायेंगे हम सब,

 

इसलिए उठ मनुज

अभी वक़्त है सम्भलने का

समय रहते धरती माँ को बचा ले,

तेरे हर कृत्यों से

मुझ पर

इस तरह का प्रदूषण फैल गया है,

की अब तेरा बोया हुआ ही,

अब वापस लौटा रही हूँ में तुम्हे,

 

© नरेंद्र राणावत  

जिला सचिव रक्तकोष फाउंडेशन जालौर, युवा साहित्यकार व् लेखक

गांव-मूली, तहसील-चितलवाना, जिला-जालौर, राजस्थान

+919784881588

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कलंदर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – कलंदर ☆

तुम्हें छूने थे शंख, सीप,

खारेपन की उजलाहट,

मैं लगाना चाहता था

उर्वरापन में आकंठ डुबकी,

पर कुछ अलग ही पासे

फेंकता रहा समय का कलंदर,

मैंग्रोव की जगह उग आए कैक्टस

न तुम नदी बन सकी, न मैं समंदर…!

# घर में रहें, स्वस्थ रहें, सुरक्षित रहें।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:55 बजे, 26.4.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

writersanjay@gmail.com

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सामाजिक चेतना – #46 ☆ अक्षय तृतीया विशेष – अक्षय हो संस्कार ☆ सुश्री निशा नंदिनी भारतीय

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय 

(सुदूर उत्तर -पूर्व  भारत की प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना की अगली कड़ी में  प्रस्तुत है  अक्षय तृतीया पर्व पर विशेष कविता अक्षय हो संस्कार ।आप प्रत्येक सोमवार सुश्री  निशा नंदिनी  जी के साहित्य से रूबरू हो सकते हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना  #46 ☆

☆  अक्षय तृतीया विशेष – अक्षय हो संस्कार  ☆

 

अक्षय तृतीय पर

हम करते हैं कामना

धन-संपत्ति अक्षय होने की

सुख-शांति अक्षय होने की

रिश्ते-परिवार अक्षय होने की

नहीं करते हम कामना

संस्कृति-संस्कार, भक्ति

अक्षय होने की

हो गई अगर भक्ति अक्षय

सुसंस्कार-संस्कृति अक्षय

मिलेगा सुख-शांति चैन

धन-संपदा मिल जाएगी

बचेंगे रिश्ते टूटने से

व्यक्ति-व्यक्ति से जुड़ जायेगा

परिवार, समाज व देश बनेगा

भ्रष्टाचार मिट जाएगा।

दुर्गुणों से दूर होकर

काम, क्रोध, लोभ, मोह

डर कर छिप जाएगा,

सबसे बड़ा धन संतोष

जीवन में आ जाएगा।

भक्ति संस्कार-संस्कृति ही

जड़-जीवन की आधार शिला

हे प्रभु ! करो कुछ ऐसा

इस अक्षय तृतीया पर

अक्षय हो संस्कार-संस्कृति

भ्रमण करें धरती पर

बेल फैले सुकर्मों की

रचना हो रामराज्य की।

 

© निशा नंदिनी भारतीय 

तिनसुकिया, असम

9435533394

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आभा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – आभा  ☆

 

दैदीप्यमान रहा

मुखपृष्ठ पर कभी,

फिर भीतरी पृष्ठों पर

उद्घाटित हुआ,

मलपृष्ठ पर

प्रभासित है इन दिनों..,

इति में आदि की छाया

प्रतिबिम्बित होती है,

उद्भव और अवसान की

अपनी आभा होती है!

 

# घर में रहें, स्वस्थ रहें, सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 11:07 बजे, 25.4.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

writersanjay@gmail.com

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 5 ☆ हर तरफ मौत का सामान ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

ई- अभिव्यक्ति में डॉ निधि जैन जी का हार्दिक स्वागत है। आप भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपने हमारे आग्रह पर हिंदी / अंग्रेजी भाषा में  साप्ताहिक स्तम्भ – World on the edge / विश्व किनारे पर  प्रारम्भ करना स्वीकार किया इसके लिए हार्दिक आभार।  स्तम्भ का शीर्षक संभवतः  World on the edge सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं लेखक लेस्टर आर ब्राउन की पुस्तक से प्रेरित है। आज विश्व कई मायनों में किनारे पर है, जैसे पर्यावरण, मानवता, प्राकृतिक/ मानवीय त्रासदी आदि। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  जीवन के स्वर्णिम कॉलेज में गुजरे लम्हों पर आधारित एक  समसामयिक भावपूर्ण एवं सार्थक कविता  हर तरफ मौत का सामान।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 5 ☆

☆  हर तरफ मौत का सामान ☆

 

रास्ते गलियां सुनसान हैं, घर में कैद इंसान है

संभल के जियो, हर तरफ मौत का सामान है ।

 

दुनिया बंद, इंसान परेशान है,

संभल के जियो,हर तरफ मौत का सामान है ।

 

कैसा समय है  इंसान कैद, पंछी उड़ते गगन में खुला आसमान है,

संभल के जियो, हर तरफ मौत का सामान है।

 

सब बेहाल परेशान हैं, ना किसी से मिलना ना किसी के घर जाना,

डरा हुआ सा इंसान है, हर तरफ मौत का सामान है।

 

ना बरखा की बूंदे अच्छी लगती, ना कोयल की कूके,

बदलते मौसम से परेशान, हर तरफ मौत का सामान ।

 

मंदिर के दरवाजे बंद, न घंटियों की झंकार,

ना अगरबत्ती की खुशबू  फलती, हर तरफ मौत का सामान ।

 

ना चाकू, ना पिस्तौल है, ना रन है

जीव जंतु औजार हैं, करते बेहाल हैं, हर तरफ मौत का सामान।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लॉकडाउन विशेष – खुली खिड़की से ☆ श्री दिवयांशु शेखर

श्री दिव्यांशु शेखर 

(युवा साहित्यकार श्री दिव्यांशु शेखर जी ने बिहार के सुपौल में अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण की।  आप  मैकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक हैं। जब आप ग्यारहवीं कक्षा में थे, तब से  ही आपने साहित्य सृजन प्रारम्भ कर दिया था। आपका प्रथम काव्य संग्रह “जिंदगी – एक चलचित्र” मई 2017 में प्रकाशित हुआ एवं प्रथम अङ्ग्रेज़ी उपन्यास  “Too Close – Too Far” दिसंबर 2018 में प्रकाशित हुआ। ये पुस्तकें सभी प्रमुख ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक समसामयिक सार्थक कविता  “लॉकडाउन विशेष – खुली खिड़की से  )

☆ लॉकडाउन विशेष – खुली खिड़की से 

 

मैं देखता हूँ जब आज खुली खिड़की से,

कई नज़ारे अब बंद दिखते हैं,

बेबाक कदमें अब चंद दिखते हैं,

सड़कों पे फैला हुआ लबों के हँसी की मायूसी,

बीते कल के शोर की एक अजीब सी ख़ामोशी।

 

मैं सुनता हूँ जब आज खुली खिड़की से,

ना होती वाहनों के शोर की वो घबराहट,

ना पाता किसी अपने ख़ास के कदमों की आहट,

रँगीन गली में अब पदचिन्हों की दुःखभरी कथा,

किनारे खड़े खंभे से आती प्रकाश की अपनी व्यथा।

 

मैं बोलता हूँ जब आज खुली खिड़की से,

कई चीजों के मायनें कैसे बदल रहे,

तो कई रिश्ते बंद कमरों में कैसे मचल रहे,

कोई खुद के प्यार में पड़ वर्तमान में कैसे खो रहा,

तो आज भी भविष्य तो कोई बीते कल की मूर्खता में रो रहा।

 

मैं सोचता हूँ जब आज खुली खिड़की से,

क्या होगा जब वापस सब पहले जैसा शुरू होगा,

कैसा लगेगा जब दिल आजादी से पुनः रूबरू होगा,

सूरज की चमक से तन कैसे पसीने से भींगेगा,

हवा के थपेड़ों से मन कैसे दीवानों की तरह झूमेगा।

 

मैं लिखता हूँ जब आज खुली खिड़की से,

कई लोग कल दोबारा हाथों को कसकर थामे कैसे खुशी से गायेंगे,

तो कैसे मतलब के कुछ रिश्ते आँखों में आँसू छोड़ जायेंगे,

जब खिड़कियों के जगह दरवाजें खुलेंगे तो वो कितना सच्चा होगा,

जब वापस कई बिछड़े दिल मिलेंगे तो वाकई कितना अच्छा होगा।

 

©  दिव्यांशु  शेखर

कोलकाता

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्रतीक्षा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – प्रतीक्षा ☆

 

अंजुरि में भरकर बूँदें

उछाल दी अंबर की ओर,

बूँदें जानती थीं

अस्तित्व का छोर,

लौट पड़ी नदी

की ओर..,

मुट्ठी में धरकर दाने

उछाल दिए आकाश की ओर,

दाने जानते थे

उगने का ठौर

लौट पड़े धरती की ओर..,

पद, धन, प्रशंसा, बाहुबल के

पंख लगाकर

उड़ा दिया मनुष्य को

ऊँचाई की ओर..,

……….,………..,

….तुम कब लौटोगे मनुज..?

# घर में रहें, स्वस्थ रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

श्रीविजयादशमी 2019, अपराह्न 4.27 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

writersanjay@gmail.com

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 31 – हाँ! मैं टेढ़ी हूँ ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  स्त्री -शक्ति पर आधारित एक सार्थक एवं भावपूर्ण रचना  ‘हाँ! मैं टेढ़ी हूँ । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 31– विशाखा की नज़र से

☆ हाँ ! मैं टेढ़ी हूँ  ☆

 

तुम सूर्य रहे, पुरुष रहे

जलते और जलाते रहे

मैं स्त्री रही, जुगत लगाती रही

मैं पृथ्वी हो रही

अपने को बचाने के जतन में

मैं ज़रा सी टेढ़ी हो गई

 

मैं दिखती रही भ्रमण करते हुए

तेरे वर्चस्व के इर्दगिर्द

बरस भर में लगा फेरा

अपना समर्पण भी सिद्ध करती रही

पर स्त्री रही तो मनमानी में

घूमती भी रही अपनी धुरी पर

 

टेढ़ी रही तो फ़ायदे में रही

देखे मैंने कई मौसम

इकलौती रही पनपा मुझमें ही जीवन

तेरे वितान के बाकी ग्रह

हुए क्षुब्ध , वक्र दृष्टि डाले रहे

पर उनकी बातों को धत्ता बता

मैं टेढ़ी रही ! रही आई वक्र !

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 34 ☆ सुन ऐ जिंदगी! ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्रकृति के आँचल में लिखी हुई एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “ सुन ऐ जिंदगी! ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 34 ☆

 ☆ सुन ऐ जिंदगी! ☆

सुन ऐ जिंदगी!

तुम चाहती थी ना

कि मैं डूब जाऊँ

यह लो आज मैं

समंदर की गहराई में हूँ ।

 

तुम चाहती थी ना

कि मैं छुप जाऊँ

यह लो आज मैं

समंदर की भँवर में हूँ ।

 

तुम चाहती थी ना

कि मैं बिखर जाऊँ

यह लो आज मैं

रेगिस्तान में बिखर गई हूँ ।

 

तुम चाहती थी ना

कि मैं बिसर जाऊँ

यह लो आज दुनिया ने

मुझे बिसरा दिया है ।

 

सुन ऐ जिंदगी!

अब तो तुम खुश हो ना??

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोबाईल 9975577684

sujata.kale23@gmail.com

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