हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 77 ☆ सॉनेट – आशा ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘सॉनेट – आशा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 77 ☆ 

☆ सॉनेट – आशा ☆

*

गाओ मंगल गीत, सूर्य उत्तरायण हुआ।

नवल सृजन की रीत, नव आशा ले धर्म कर।

तनिक न हो भयभीत, कभी न निष्फल कर्म कर।।

काम करो निष्काम, हर निर्मल मन दे दुआ।।

*

उड़ा उमंग पतंग, आशा के आकाश में।

सीकर में अवगाह, नेह नर्मदा स्नान कर।

तिल-गुड़ पौष्टिक-मिष्ठ, दे-ले सबका मान कर।।

करो साधना सफल, बँधो-बाँध भुजपाश में।।

*

अग्नि जलाकर नाच, ईर्ष्या-क्रोध सभी जले।

बीहू से सोल्लास, बैसाखी पोंगल मिले।

दे संक्रांति उजास, शतदल सम हर मन खिले।।

*

निकट रहो या दूर, नेह डोर टूटे नहीं।

मन में बस बन याद, संग कभी छूटे नहीं।

करो सदा संतोष, काल इसे लूटे नहीं।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१५-१-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 11 (91-93)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #11 (91-93) ॥ ☆

 

देव कार्य की पूर्ति में सफल हो पाये नाम।

राम-लखन से कह यही चुप हुये परशूराम।।91।।

 

दशरथ ने की राम पर हृदय लगा सद्दृष्टि।

सुख पाया ज्यों दाव से दग्ध वृक्ष पा वृष्टि।।92।।

 

तब नरपति दशरथ बिता मग में दिन दो-चार।

गये अयोध्या जो विकल हो, थी रही निहार।।93अ।।

 

कमल-नयन, अरविंद-मुख रमणी लगी गवाक्ष।

वधु-मुख कमल विलोकने झुकी रही थी झाँक।।93ब।।

 

ग्यारहवां  सर्ग समाप्त

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #127 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 14 – “तुम क्या जान लोगे? ” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “तुम क्या जान लोगे?”)

? ग़ज़ल # 14 – “तुम क्या जान लोगे?” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मिरे चेहरे से  तुम क्या जान लोगे,

दिल तुमको दिया क्या जान लोगे।

 

हुआ नीलाम सियासती बाज़ार में,

उस मज़लूम से क्या ईमान लोगे।

 

कल  रात  ठंड में ठिठुर मरा कोई,

फटी पोटली से क्या सम्मान लोगे।

 

बिक चुका जो नेता जिंस की तरह,

उस बेईमान से क्या उन्मान लोगे।

 

दुकाने खुली नफ़रतों की हर सिम्त,

कहाँ से मुहब्बत का सामान लोगे।

 

इश्क़ तो तुमको हुआ मसरूफियत से

तयशुदा ख़रीद तुम पूरा ज़हान लोगे।

 

डरते क्यों हो ज़माने  की निगाहों से,

मुहब्बत पा जाओगे अग़र ठान लोगे।

 

हमसे कुछ दिन थोड़ा और रूठे रहो,

मिलने की मजबूरी आतिश जान लोगे।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सच ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि –  सच  ??

 

कई पैरों पर खड़ा

झूठ लड़खड़ाता रहा,

सच अंगद-सा

एक पाँव पर डटा रहा..!

 

©  संजय भारद्वाज

(प्रात: 11:35 बजे, 21.10.2020)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा 66 ☆ गजल – ’मुखौटे’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “मुखौटे”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 66 ☆ गजल – ’मुखौटे’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

नया युग है पुराने का हो गया अवसान है

मुखौटो का चलन है, हर साध्य अब आसान है।।

 

बात के पक्के औ’ निज सिद्धान्त के सच्चे है कम

क्या पता क्यों आदमी ने खो दिया ईमान है।।

 

बदलता रहता मुखौटे कर्म, सुबह से शाम तक

जानकर भी यह कि वह दो दिनों का मेहमान है।।

 

वसन सम चेहरे औ’ बातें भी बदल लेते हैं कई

समझते यह शायद इससे मिलता उनको मान है।।

 

आये दिन उदण्डता, अविवेक बढते जा रहे

आदमी की सदगुणों से अब नहीं पहचान है।।

 

सजावट है, दिखावट है, मिलावट है हर जगह

शुद्ध, सात्विक कहीं भी मिलता न कोई सामान है।।

 

खरा सोना और सच्चे रत्न अब मिलते नहीं

असली से भी ज्यादा नकली माल का सम्मान है।।

 

ढ़ोग, आडम्बर, दिखावे नित पुरस्कृत हो रहे

तिरस्कृत, आहत, निरादृत अब गुणी इंसान है।।

 

योग्यता या सद्गुणों की परख अब होती कहॉ ?

मुखौटों से आदमी की हो रही पहचान है।।

 

जिसके है जितने मुखौटे वह है उतना ही बड़ा

मुखौटे जो बदलता रहता वही भगवान है।।

 

है ’विदग्ध’ समय की खूबी, बुद्धि गई बीमार हो

पा रहे शैतान आदर, मुखौटों का मान है।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 11 (86-90)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #11 (86-90) ॥ ☆

पितुहंता क्षत्रियों का कर सम्पूर्ण विनाश।

योग्य ब्राह्मणों को दिया जिसने पृथ्वी राज्य।।86अ।।

 

ऐसे मुझको पराजित करना अपने हाथ।

उचित प्रशंसा योग्य है कार्य आपका नाथ।। 86ब।।

 

अतः बुद्धि वर गति मेरी तीर्थगमन की रक्ष्य।

नहीं भोग की कामना स्वर्ग करें प्रभु नष्ट।।87।।

 

कह-‘तथास्तु’ तब राम ने इच्छा उनकी मान।

छोड़ा स्वर्ग अवरोध हित पूर्व दिशा में बाण।।88।।

 

परशुराम के चरण छू ‘क्षमा करें’ हे राम।

 

विजय प्राप्त कर शक्ति से, क्षमा बड़ों का काम।।89।।

 

मातृदत्त तज रजोगुण सत ग्रह पितृ-प्रदत्त।

मुझे न चहिये स्वर्ग जो निश्चित है मम हित।।90।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – परिधि ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – परिधि ??

 

कुछ मैं,

कुछ मेरे शब्द,

सब कुछ की परिधि

कितनी छोटी होती है..!

 

©  संजय भारद्वाज

(शनि. 20 अप्रैल 2019 , संध्या 6.54 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 117 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 117 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

संविधान जबसे बना, है गणतंत्र महान।

हमको अपने देश का, रखना होगा मान।।

 

संविधान देता हमें, जीने का अधिकार।

बदला हुआ राजतंत्र, हमें यही स्वीकार।।

 

संविधान की भावना, जिसके मन में आज।

वही कर रहा है अभी, सभी दिलों पर राज।।

 

कहे तिरंगा शान से, बसे देश के प्रान।

कहता गाथा देश की, दिए बहुत बलिदान।।

 

देश भक्ति के भाव का, करते  है गुणगान।

मिलजुल कर करते सभी, देश का सम्मान।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष#106 ☆ प्रेम के बस में हैं घनश्याम ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “प्रेम के बस में हैं घनश्याम…. । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 106☆

☆ प्रेम के बस में हैं घनश्याम ….

 

प्रेम गीत सुनाए बाँसुरी,प्रेम मिले बिन दाम

प्रेम दिवानी मीरा कहतीं,प्रेम राधिका नाम

बिष पी कर जब नाचन लागी,चकित हुआ आवाम

चीर द्रोपदी का जब बाढ़ा,हुआ न तन नीलाम

सिंघासन पर बिठा मित्र को,पैर पखारें श्याम

दीन-हीन “संतोष”पुकारे,श्याम प्रेम के धाम

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 11 (81-85)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #11 (81-85) ॥ ☆

टिका भूमि पर धनुष को चढ़ा प्रत्यंचा राम।

परशुराम के तेज की दिखा दिया कर शाम।।81।।

 

देखा सबने पूर्णिमा चन्द्रोदय सम श्रीराम।

और डूबते सूर्य से गतछवि परशूराम।।82।।

 

परशुराम को अस्तछवि औ’ अमोध उस बाण।

को निहार कार्तिकेय सम विनयी बोले राम।।83।।

 

हुये पराजित किन्तु हैं ब्राह्मण चूंकि आप।

कर प्रहार निर्दयी सा मैं न करूँगा पाप।।84अ।।

 

इससे अपने बाण से कर दूँ गति तव नाश।

या बोलें कि यज्ञ से अर्जित स्वर्ग-विनाश।।84ब।।

 

परशुराम बोले-मुझे अवतारी तुम ज्ञात।

लखूँ वैष्णवी तेज तव कुमति किया सो नाथ।।85।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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