हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन – होली ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(ई-अभिव्यक्ति में साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी का हार्दिक स्वागत है। प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशन। कई साझा संकलनों में प्रकाशन। राष्ट्रीय / अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 150 से अधिक पुरस्कारों / सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन – होली ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

(विधा-कुण्डलिया)

होली आई साजना, बिखरे रंग गुलाल ।

मुझको कब ये रंग दे, तरसे मेरे गाल ।।

तरसे मेरे गाल, सजा के प्रेमिल आना ।

बाट जोहती प्रीत, सजन अब जीवन लाना ।।

कहती प्रेमा आज, योगिता जोगन भोली ।

नैन निहारे राह, कहे जो आई होली ।।1!!

 

होली के त्यौहार में, खेले सब जन रंग ।

है पौराणिक यह कथा, है प्रहलाद प्रसंग ।

है प्रहलाद प्रसंग, होलिका बनी सयानी ।

 भस्म करे जो आग, बनी है देख कहानी  ।।

कहती प्रेमा आज, कपट की जलती डोली ।

हुआ मगन मन आज, खेलती खुल के होली ।।2!!

 

होली खेले आज जो, कृष्ण राधिका देख ।

रास रचाये ग्वाल भी, करते हैं उल्लेख ।।

करते हैं उल्लेख, बनी जोड़ी है प्यारी ।

प्रीत सिखाती रीत, कहे जो दुनिया सारी ।।

कहती प्रेमा आज, बनी रसिकों की टोली ।

लिए सीख मनुहार, खेलते प्रेमिल होली ।।3!!

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

मंडला, मध्यप्रदेश 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (81-87)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (81 – 87) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

संध्यावंदन बाद सिया ने किया कुटी-निवास।

शैया थी मृगचर्म की, इंगुदि दीप प्रकाश।।81।।

 

कर नियमित स्नान, विधि, पूज अतिथि सत्कार।

कंद-मूल-फल खा, किया जीवन का उपचार।।82।।

 

लक्ष्मण ने कहा राम से सिया कथा विस्तार।

शायद करे वह राम के मन पै कठिन प्रहार।।83।।

 

हुआ बात सुन राम के मन पै एक आघात।

पौष-चंद्र सम कर चले नयन अश्रु बरसात।।84अ।।

 

क्योंकि लोक-निंदा से था सीता का परित्याग।

मन में निर्मल प्रेम था, धधक रही थी आग।।84ब।।

 

धर्म-धुरंधर राम ने किया समन्वित राज।

शोक संयमित रख किया सात्विक हर एक काज।।85।।

 

राम थे जिनने किया निज प्रिय पत्नी का त्याग।

राज-लक्ष्मी का रहा नित उन पर अति अनुराग।।86।।

 

त्याग सीता को, न सोचा राम ने फिर ब्याह को

स्वर्ण प्रतिमा गई बनाई धर्म के निर्वाह को।

सुन के यह वृत्तांत सीता ने भी दुख सब कुछ सहा

एक पत्नी व्रत की भी होती है एक महिमा महा।।87।।

 

चौदहवां  सर्ग समाप्त

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #135 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल-21 – “मौत आती है मगर नहीं आती…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “मौत आती है मगर नहीं आती…”)

? ग़ज़ल # 21 – “मौत आती है मगर नहीं आती…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मौत आती है मगर नहीं आती,

ठीक से क्यूँ एक बार नहीं आती।

 

खैर मनाती  ज़िंदगी तब तक,

आहट तेरी जब तक नहीं आती।

 

दिल से दिल लगाती है बेवफ़ा,

सिर पर चढ़ क्यों नहीं आती।

 

झलक दिखा कर छुप जाती है,

रास्ता देखे महबूब नहीं आती।

 

दिन किसी तरह कट जाता है,

नीद मगर रात भर नहीं आती।

 

हो रहे सभी परेशान घर बाहर,

मुसीबत एक बारगी नहीं आती।

 

एक दिन तेरा तो पक्का ठहरा है,

काश तड़पा-तड़पा के नहीं आती।

 

आ जाए अगर एक बार ठीक से,

आतिश को फिर याद नहीं आती।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा#74 ☆ गजल – ’’कुछ याद रहे दिन वे…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “कुछ याद रहे दिन वे…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 74 ☆ गजल – ’कुछ याद रहे दिन वे… ’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

दिन से भी कहीं ज्यादा रातें हमें प्यारी हैं

क्योंकि ये सदा लातीं  प्रिय याद तुम्हारी हैं।

मशगूल बहुत दिन हैं, मजबूर बहुत दिन है

रातों ने ही तो दिल की दुनियाँ  ये सॅंवारी हैं।

सूरज के उजाले में परदा किया यादों ने

दिन तो रहे दुनियाँ के, रातें पै हमारी है।

कुछ याद रहे दिन वे भड़भड़ में गुजारे जो

है याद मगर रातें तनहाँ जो गुजारी हैं।

कोई ’विदग्ध’ बोले, दिन में कहाँ मिलती है ?

रातों के अँधेरों में जो मीठी खुमारी है।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ वसीयत… ☆ काव्य नंदिनी ☆

 ? वसीयत… ☆ काव्य नंदिनी ?

(ई- अभिव्यक्ति में कवियित्री काव्य नंदिनी जी  का हार्दिक स्वागत। हम समय समय पर आपकी भावप्रवण रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय कविता ‘वसीयत‘। ) 

 

जिंदगी एक कहानी नहीं हकीकत है

इस पर भी यह एक सच्ची और खरी खोटी नियत है

इसलिए इसमें सिर्फ मर्द और औरत की कहानी है

क्योंकि आज भी आंचल में दूध और आंखों में पानी है

सच्चाई कितनी भी अनदेखी की जाए मगर यह हकीकत है

आज भी औरत जन्म देती है नाम पिता का चलता है

सदियों से चला यह दस्तूर आज भी चलता है

समाज कितना भी आधुनिकता की दौड़ में शामिल हो

बस यही एक सच्ची और खरी खोटी नियत है

कि आज भी मर्द औरत को समझता है सिर्फ अपनी वसीयत है

 

© काव्य नंदिनी

जबलपुर, मध्यप्रदेश 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (76-80)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (76 – 80) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

मुनिगण आवागमन से पूर्ण है यह स्थान।

शोक पापहारी यहाँ तमसा तट स्नान।।76अ।।

 

इष्ट देव पूजन यहाँ देता मन को शांति।

सौम्य प्रकृति मन की यहाँ हरती सकल अशांति।।76ब।।

 

ऋतु ऋतु के नव पुष्प-फल पूजन हित नीवार।

मुनि कुमारियाँ करेंगी पीड़ा का परिहार।।77।।

 

अपने बल अनुरूप रख भरे घड़ों का भार।

सींच पौधों को पाओगी उनका शिशुवत प्यार।।78।।

 

अभिनंदन स्वीकारती दया भाव से साथ।

सीता आश्रम आई जहाँ मृग थे शांत सनाथ।।79।।

 

चंदा की अंतिम कला ज्यों ओषधि हित सार।

बाल्मीकि आश्रम को हुई सिय भी उसी प्रकार।।80।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 124 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  होली पर्व पर विशेष  “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 124 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  ☆

फसल प्यार की लग रही, आई खुशियां पास।

आँचल में उम्मीद के, हरदम जगती आस।।

 

कंचन काया देखकर, मन होता बेचैन।

मिलने को आकुल लगन, कब आएगा चैन।।

 

फसल खेत में पक गई,  सुंदर है खलिहान।

पाकर श्रम का पुण्यफल, खुश हो रहे किसान।।

 

धानी फसलें देखकर, मुस्काते खलिहान।

बढ़ता है भंडार गृह, करता काम किसान।।

 

माटी से सुंदर बने, काया सुभग अनूप ।

गढ़ता रूप कुम्हार जब, अपने ही अनुरूप।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #114 ☆ साधौ हरि से हो गई प्रीत… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “साधौ हरि से हो गई प्रीत…। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 114 ☆

☆ साधौ हरि से हो गई प्रीत…

जा दिन से लगि प्रीत साँवरे, मिल ग्यो मन को मीत

दिल में मोरे श्याम बसत हैं, बजे मधुर संगीत

लगो रहत चित चाक सदा ही, छोड़ी जग की रीत

बदल गए दिन मन मोहन से, गए बुरे दिन बीत

मन मयूरा झूम के नाचे, गाये हरि के गीत

श्याम शरण “संतोष”चाहता, करके काम पुनीत

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (71-75)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (71 – 75) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

 

अश्रुपोंछ रोदन विरत सिया ने किया प्रणाम।

मुनि ने आशीर्वाद दे मन को दिया विराम।।71।।

 

कहा उन्होंने ध्यान बल से मुझको है ज्ञान।

है मिथ्या अपवाद पर होनी है बलवान।।72अ।।

 

पुत्री तुम निर्दोष हो तजो मनः संताप।

अन्य देश में पिता गृह में हो समझो आप।।72ब।।

 

जग संकटहारी सतत् दृढ़प्रतिज्ञ हैं राम।

पर तुम प्रति व्यवहर से कुद्ध मैं उनके नाम।।73।।

 

श्वसुर तुम्हारे दशरथ सखा मेरे विख्यात।

पिता जनक ज्ञानी बड़े तव सज्जन अवदात।।74अ।।

 

तुम पावन पतिव्रता हो अग्र पूज्य अविभाज्य।

इससे मेरे स्नेह का तुम पर है साम्राज्य।।74ब।।

 

तापस आश्रम में यहाँ रहो निडर निर्बाध।

हो पूरी निर्विघ्न तव पुत्र प्राप्ति की साध।।75अ।।

 

होंगे पूरे पुत्र के सभी जात संस्कार।

स्नेह पूर्ण होंगे यहाँ सबके सब व्यवहार।।75ब।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 102 ☆ गीत – तुझको स्वयं बदलना होगा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपका एक गीत  “तुझको स्वयं बदलना होगा”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 102 ☆

☆ गीत – तुझको स्वयं बदलना होगा ☆ 

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।

जीवन की हर बाधाओं से

हँसते – हँसते लड़ना होगा।।

 

कर्तव्यों से हीन मनुज जो

अधिकारों की लड़े लड़ाई।

प्रकृति के अनुकूल न चलता

आत्ममुग्ध हो करे बड़ाई।

झूठे सुख के लिए सदा ही

देख रहा ना पर्वत – खाई।

धन  – संग्रह की होड़ लगी है

मन कपटी है चिपटी काई।

 

हे मानव ! तू सँभल ले अब भी

तुझको स्वयं भुगतना होगा।

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।।

 

जो सन्तोषी इस धरती पर

वह ही सुख का मूल्य समझता।

वैभवशाली, धनशाली का

सबका ही सिंहासन हिलता।

उद्यम कर, पर चैन न खोना

अपना लक्ष्य बनाकर चलना।

परहित – सा कोई धर्म नहीं है

देवदूत बन सबसे मिलना।

 

समय कीमती व्यर्थ न खोना

तुझको स्वयं समझना होगा।

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।।

 

सामानों की भीड़ लगाकर

अपने घर को नरक बनाए।

सारा बोझा छूटे एक दिन

उल्टे – पुल्टे तरक चलाए।

उगते सूरज योग करें जो

उनकी किस्मत स्वयं बदलती।

कर्म और पुरुषार्थ , भलाई

यहाँ – वहाँ ये साथ हैं चलतीं।

 

परिस्थितियां जो भी हों साथी

तुझको स्वयं ही ढलना होगा।

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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