हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 101 ☆ सॉनेट ~ आस्था ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित सॉनेट ~ आस्था)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 101 ☆ 

☆ सॉनेट ~ आस्था ☆

आस्था क्षणभंगुर चोटिल हो

पल-पल में कुछ भी सुन-पढ़कर

दुश्मन की आसान राह है

हमें लड़ाए नित कुछ कहकर

 

मैं-तुम चतुर हद्द से ज्यादा

शीश छिपाते शुतुरमुर्ग सम

बंद नयन जब आए तूफां

भले निकल जाए चुप रह दम

 

रक्तबीज का रक्त पी लिया

जिसने वह क्या शाकाहारी?

क्या सच ही पानी, खूं अपना

जो पीता नहिं मांसाहारी

 

आस्था-अंधभक्त की जय-जय

रंग बदलो, हो गिरगिट निर्भय

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

८-७-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #133 ☆ गुरु पूर्णिमा विशेष – गुरु का हमारे जीवन में महत्व ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 132 ☆

☆ ‌ गुरु पूर्णिमा विशेष – गुरु का हमारे जीवन में महत्व ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई ।

जौ बिरंचि संकर सम होई ।

(रा०च०मा०)

गुरु गोविन्द दोनों खड़े,काके लागूं पाय।

बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय ।।

(महात्मा कबीर)

आइए सर्व प्रथम गुरु शब्द की समीक्षा करें। यह जानें कि हमारे जीवन में गुरु की आवश्यकता क्यों?

गुरु शब्द का आविर्भाव गु+रू =गुरु दो अक्षरों के संयोग से निर्मित हुआ है। गु का मतलब अंधकार तथा रू का मतलब  है प्रकाश अर्थात जो शक्ति हमारे हृदय के अंधकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश भर दे वही गुरु है, जो ज्ञान नौका बन कर शिक्षा रूपी पतवार से भव निधि से पार करा दे वही गुरु है।

तभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा-

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥

(रा०च०मा०)

कई जन्मों के पुण्य फल एवम् शुभ कर्मों के परिणाम स्वरूप सदगुरु का आश्रय प्राप्त होता है तथा सदगुरु शिष्य की पात्रता को परखते हुए अपने चरणों में स्थान देकर आश्रय प्रदान करता है, और अभयदान दे भवसागर से पार उतार कर जीवन के सारे कष्ट हर लेता है। इष्ट प्राप्ति कराते हुए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। सत्पात्र शिष्य को ही गुरु श्री दीक्षा प्रदान करते हैं, और वह शिष्य ही‌ गुरु दीक्षा का सम्मान करते हुए उनके बताए मार्ग का अनुसरण कर दिनों-दिन आत्मिक उन्नति करते हुए अपने गुरु का सम्मान बढ़ाता है। इसका अनुभव उन सभी भक्तों, शिष्यों तथा जिज्ञासु जनों को हुआ होगा, जो गुरु के प्रति अनन्य श्रद्धा भक्ति तथा जिज्ञासु भाव लेकर गए होंगे। गुरु संशय का नाश करते हैं। भ्रम का निवारण करते हैं। तभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में उक्त तथ्यों को अपने दोहे के माध्यम से पारिभाषित किया है।

भूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ।
सदगुर मिलें जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ॥

तथा इसी तथ्य को पारिभाषित करते हुए महाकवि सुंदर दास जी लिखते है कि-

परमात्मा जीव को माया मोह में फंसा कर आवागमन के चक्कर में डाल देता है, लेकिन उस मोह माया के चक्रव्यूह से मुक्ति तो गुरु ही प्रदान करता है। उसका एक  समसामयिक उदाहरण प्रस्तुत है ध्यान दें-

गोविंद के किए जीव जात है रसातल कौं
गुरु उपदेशे सु तो छुटें जमफ्रद तें।
गोविंद के किए जीव बस परे कर्मनि कै
गुरु के निवाजे सो फिरत हैं स्वच्छंद तै।।
गोविंद के किए जीव बूड़त भौसागर में,
सुंदर कहत गुरु काढें दुखद्वंद्व तै।
औरउ कहांलौ कछु मुख तै कहै बताइ,
गुरु की तो महिमा अधिक है गोविंद तै।

(सुन्दर दास जी)

श्री गुरु के प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए कूटनितिज्ञ चाणक्य जी भी कहते हैं – जो लोग समझते हैं कि गुरु के निकट रहने से उनकी अच्छी सेवा होती है यह बात कतई   ठीक नहीं । गुरु की न तो निकटता ठीक है न तो दूरी उनके अति निकटता हानिकारक है तो दूरी फलहीन। ऐसे में गुरु सेवा मध्यम भाव से करना चाहिए। अर्थात्—

अत्यासन्ना विनाशाय दूरस्था न फलप्रदा:।
सेव्यन्ता मध्यभागेन वह्निगुर्रु: स्त्रिय:।।

अज्ञान तिमिर तो गुरु कृपा से ही दूर होना संभव है, क्यो कि गुरु अपने वाणी के प्रभाव से शिष्य के भीतर श्रद्धा भक्ति तथा प्रबल कर्मानुराग पैदा कर देता है। तभी तो श्री राम एवम् श्री कृष्ण को भी गुरु के आश्रित होकर शिक्षा ग्रहण करना पड़ा था। आइए उस गुरु को अपने श्रद्धासुमन अर्पित कर गुरु नाम का जाप करें।

गुरु देव जी त्वं पाहिमाम्।

शरणागतम् शरणागतम्।।

ॐ श्री बंगाली बाबा समर्पणस्तु

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मुक्तक – ।। जिन्दगी मुझे खुद वापिस बुलाने लगी है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना ।जिन्दगी मुझे खुद वापिस बुलाने लगी है)

☆ मुक्तक – ।। जिन्दगी मुझे खुद वापिस बुलाने लगी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

हक़ीक़त मुझे आईना, दिखाने लगी   है।

कौन दोस्त दुश्मन, यह बताने लगी  है।।

सुन रहा जबसे दिल, की आवाज़  अपनी।

हर तस्वीर साफ़ अब, नज़र आने लगी है।।

[2]

जिंदगी धुन कोई नई सी, गुनगुनाने लगी है।।

गर्द साफ जहन से, जिंदगी मुस्कारानें लगी है।

बस आस्तीन छिपे दोस्तों को, जरा  पहचाना।

तबियत अब खुद ही, सुधर जाने लगी    है।।

[3]

आज मुश्किल खुद ही, रास्ता बताने लगी है।

जिन्दगीआजआसान सी, नज़र आने लगी है।।

जरा मैंने दिल सेअपने, नफरत को  निकाला।

हवा खुद मेरे चिरागों को, जलाने लगी   है।।

[4]

उम्मीद रोशन नई, जिन्दगी में चमकाने लगी है।

सही गलत समझ खूब, मुझको आने लगी है।।

बहुत दूर नहीं गया मैं, किसी गलत  राहों पर।

अब जिन्दगी मुझे वापिस, बुलाने    लगी है ।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 90 ☆ ’’विश्व में भगवान…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता  “विश्व में भगवान…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 90 ☆ ’’विश्व में भगवान…”  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

एक तो जागृत प्रकृति है, दूसरा इन्सान है

बुद्धि और विवेक का जिसको मिला वरदान है।

निरन्तर चिन्तन मनन से कर्म से विज्ञान से

नव सृजन के प्रति सजग नित मनुज ही गतिवान है।

भूमि-जल-आकाश में जो भी जहाँ कुछ दिख रहा

वह सभी या तो प्रकृति या मनुज का निर्माण है।

प्रकृति पर भी पा विजय इन्सान आगे बढ़ गया

और आगे कर रहा नित नये अनुसंधान है।

चल रहा उसकी प्रगति का बिन रूकावट सिलसिला

अपरिमित ब्रम्हाण्ड में उड़ रहा उसका यान है।

खोज जारी है रहस्यों की तथा भगवान की

अमित भौतिक आध्यात्मिक विजय का अभियान है।

आदमी से बड़ा कोई नहीं दिखता विश्व में

वास्तव में आदमी ही इस जगत का प्राण है।

प्रकृति औ’ परमात्मा ही हैं नियंता विश्व के

साथ ही पर मुझे लगता तीसरा इन्सान है।

चेतना परिव्याप्र है जो मानवी मस्तिष्क में

शायद यह ही चेतना इस विश्व में भगवान है।          

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – भय  ??

साँप का भय

बहुत है मनुष्य में,

दिखते ही बर्बरता से

कुचल दिया जाता है,

सूँघते ही मनुष्य

भाग खड़ा होता है,

मनुष्य का भय

बहुत है साँप में..!

© संजय भारद्वाज

रात्रि 8.18 बजे, 7.7.19

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #140 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे …।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 140 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे … दिल ☆

दिल से दिल की दूरियां, दूर करो तुम आज।

प्रणय निवेदन कर रहे, बन जाओ सरताज।।

दिल कितना बेचैन है, देख लिया है आज।

मिलने को आतुर हुआ, रख ली उसने लाज।।

मजबूरी मेरी रही, आया नहीं मैं पास।

दिल तो तेरे पास है, बस इतनी थी आस।।

दिल तो तेरा हो गया, रखना उसका मान।

चोट न अब उसको लगे, कभी न हो अपमान।।

हमने बस अब कर दिया, सब कुछ तेरे नाम

दिल की सारी ख्वाहिशें, दिल है तेरे नाम।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #129 ☆ एक बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं आपकी  “एक बुन्देली पूर्णिका। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 129 ☆

☆ एक बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा ☆

बाप मताई खों आंख दिखा रए, शरम ने आई।

करनी अपनी खूब लजा रए, शरम ने आई।

 

कभउं जो कोउ के काम ने आबे, मूंड पटक लो,

खुद खों धन्ना सेठ बता रए, शरम ने आई।

 

झूठ-फरेब कुकर्म करे, दौलत के लाने।

तीरथ जा खें पुण्य कमा रए, शरम ने आई।

 

पढ़वे लिखवे में तौ, सबसे रहे पछारूं,

अब नेता बन धौंस जमा रए, शरम ने आई।

 

भूखी अम्मा घर में, परी परी चिल्लाबे,

बाहर भंडारे करवा रए, शरम ने आई।

 

धरम-करम “संतोष”छोड़ खें, सारे भैया,

दौलत के लाने भैरा रए, शरम ने आई।

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 118 ☆ वंदना गीत – निर्धनों को मान दे दो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 118 ☆

☆ वंदना गीत – निर्धनों को मान दे दो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

भगवती माँ शारदे तुम

शिष्टता का ज्ञान दे दो

हर बुराई दूर करके

मधुर वंशी तान दे दो

 

प्रेम का दीपक जलाओ

सत्य पथ पर तुम चलाओ

ज्ञान का आलोक देकर

हर मुसीबत से बचाओ

 

मैं भलाई कर सकूँ माँ

सभ्यता , सम्मान दे दो

 

सुरभि का सामर्थ्य देना

धरणि – सा परमार्थ देना

व्योम अक्षय सार का तुम

शुभ्र नूतन पार्थ देना

 

विनय भावों को सदा ही

अब नई पहचान दे दो

 

द्वेष ,तम को तुम हटा दो

दृष्टि नूतन – सी छटा दो

सत्य के नित अर्थ देकर

सरस सावन की घटा दो

 

नम्रता सदपंथ देकर

निर्धनों को मान दे दो

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#140 ☆ तन्मय दोहे – मायावी षड्यंत्र…2 ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय “तन्मय दोहे – मायावी षड्यंत्र…2”)

☆  तन्मय साहित्य # 140 ☆

☆ तन्मय दोहे – मायावी षड्यंत्र…2 ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

जब से मेरे गाँव में, पहुँचे शहरी भाव।

भाई-चारे  प्रेम के, बुझने लगे अलाव।।

 

भूखों का मेला लगा, तरह-तरह की भूख।

जर,जमीन,यश, जिस्म की, जैसा जिसका रूख।।

 

खादी तन पर डालकर, बगुले  बनते हंस।

रच प्रपंच मिल कर रहे, लोकतंत्र विध्वंस।।

 

धर्म-पंथ के नाम पर, अलग-अलग है सोच

लोकतंत्र  लँगड़ा रहा, पड़ी  पाँव में  मोच।

 

वेतन-भत्ते सदन में, सह-सम्मति से पास।

दाई-जच्चा वे स्वयं, फिर क्यों रहें उदास।।

 

जिनके ज्यादा अंक है, अपराधों में खास।

है उनके ही   हाथ में, प्रजातंत्र  की  रास।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 32 ☆ बीता बचपन… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण गीत  “बीता बचपन… ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 32 ✒️

? गीत – बीता बचपन… — डॉ. सलमा जमाल ?

मन करता इक बार मैं फिर से ,

बीता बचपन जी लूं ।

चैंयां- मैंयां, छुपन- छुपाई ,

घोर-घोर रानी खेलूं ।।

 

अम्मा की मैं लाडली बेटी,

दादी की चंदा रानी ,

मामा- मामी गोदी उठाएं,

नानी कहती कहानी ,

दादा-नाना घोड़ा बनें ,

पिता की बाहों में सो लूं ।

मन करता ——————–।।

 

बस्ता दे शाला को भेजा ,

 छूटा घर और भाई ,

भाई- बहन और सखी सहेली,

के संग उमर बिताई ,

बोझ पढ़ाई और होमवर्क को,

एक बार फिर झेलूं ।

मन करता ——————।।

 

ईद, दीपावली, रक्षाबंधन ,

होली की पिचकारी,

शैतानी पर डांटते पड़ोसी,

 दुश्मन- दुनिया सारी,

बाग, खेत, सावन के झूले,

 झूल आकाश को छू लूं ।

मन करता —————-।।

 

हुई सयानी तो बाबुल ने,

मुझको किया है पराया,

चार कहार व डोली द्वार पे,

लाया किसी का जाया,

“सलमा” विदाई की बेला में,

सीने से लग रो लूं ।

मन करता —————-।।

 

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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