श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 132 ☆
☆ गुरु पूर्णिमा विशेष – गुरु का हमारे जीवन में महत्व ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई ।
जौ बिरंचि संकर सम होई ।
(रा०च०मा०)
गुरु गोविन्द दोनों खड़े,काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय ।।
(महात्मा कबीर)
आइए सर्व प्रथम गुरु शब्द की समीक्षा करें। यह जानें कि हमारे जीवन में गुरु की आवश्यकता क्यों?
गुरु शब्द का आविर्भाव गु+रू =गुरु दो अक्षरों के संयोग से निर्मित हुआ है। गु का मतलब अंधकार तथा रू का मतलब है प्रकाश अर्थात जो शक्ति हमारे हृदय के अंधकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश भर दे वही गुरु है, जो ज्ञान नौका बन कर शिक्षा रूपी पतवार से भव निधि से पार करा दे वही गुरु है।
तभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा-
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥
(रा०च०मा०)
कई जन्मों के पुण्य फल एवम् शुभ कर्मों के परिणाम स्वरूप सदगुरु का आश्रय प्राप्त होता है तथा सदगुरु शिष्य की पात्रता को परखते हुए अपने चरणों में स्थान देकर आश्रय प्रदान करता है, और अभयदान दे भवसागर से पार उतार कर जीवन के सारे कष्ट हर लेता है। इष्ट प्राप्ति कराते हुए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। सत्पात्र शिष्य को ही गुरु श्री दीक्षा प्रदान करते हैं, और वह शिष्य ही गुरु दीक्षा का सम्मान करते हुए उनके बताए मार्ग का अनुसरण कर दिनों-दिन आत्मिक उन्नति करते हुए अपने गुरु का सम्मान बढ़ाता है। इसका अनुभव उन सभी भक्तों, शिष्यों तथा जिज्ञासु जनों को हुआ होगा, जो गुरु के प्रति अनन्य श्रद्धा भक्ति तथा जिज्ञासु भाव लेकर गए होंगे। गुरु संशय का नाश करते हैं। भ्रम का निवारण करते हैं। तभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में उक्त तथ्यों को अपने दोहे के माध्यम से पारिभाषित किया है।
भूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ।
सदगुर मिलें जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ॥
तथा इसी तथ्य को पारिभाषित करते हुए महाकवि सुंदर दास जी लिखते है कि-
परमात्मा जीव को माया मोह में फंसा कर आवागमन के चक्कर में डाल देता है, लेकिन उस मोह माया के चक्रव्यूह से मुक्ति तो गुरु ही प्रदान करता है। उसका एक समसामयिक उदाहरण प्रस्तुत है ध्यान दें-
गोविंद के किए जीव जात है रसातल कौं
गुरु उपदेशे सु तो छुटें जमफ्रद तें।
गोविंद के किए जीव बस परे कर्मनि कै
गुरु के निवाजे सो फिरत हैं स्वच्छंद तै।।
गोविंद के किए जीव बूड़त भौसागर में,
सुंदर कहत गुरु काढें दुखद्वंद्व तै।
औरउ कहांलौ कछु मुख तै कहै बताइ,
गुरु की तो महिमा अधिक है गोविंद तै।
(सुन्दर दास जी)
श्री गुरु के प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए कूटनितिज्ञ चाणक्य जी भी कहते हैं – जो लोग समझते हैं कि गुरु के निकट रहने से उनकी अच्छी सेवा होती है यह बात कतई ठीक नहीं । गुरु की न तो निकटता ठीक है न तो दूरी उनके अति निकटता हानिकारक है तो दूरी फलहीन। ऐसे में गुरु सेवा मध्यम भाव से करना चाहिए। अर्थात्—
अत्यासन्ना विनाशाय दूरस्था न फलप्रदा:।
सेव्यन्ता मध्यभागेन वह्निगुर्रु: स्त्रिय:।।
अज्ञान तिमिर तो गुरु कृपा से ही दूर होना संभव है, क्यो कि गुरु अपने वाणी के प्रभाव से शिष्य के भीतर श्रद्धा भक्ति तथा प्रबल कर्मानुराग पैदा कर देता है। तभी तो श्री राम एवम् श्री कृष्ण को भी गुरु के आश्रित होकर शिक्षा ग्रहण करना पड़ा था। आइए उस गुरु को अपने श्रद्धासुमन अर्पित कर गुरु नाम का जाप करें।
गुरु देव जी त्वं पाहिमाम्।
शरणागतम् शरणागतम्।।
ॐ श्री बंगाली बाबा समर्पणस्तु
© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”
संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈