हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #130 ☆ एक बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं आपकी  “एक बुन्देली पूर्णिका। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 130 ☆

☆ एक बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा ☆

अब साँचो सो प्यार कितै है

माँ  को  प्रेम  दुलार  कितै है

 

पलना  घर  में  पलते  बच्चा

बचपन को  संस्कार  कितै है

 

धरम  पै  करते  चोट  अधर्मी

इनको    बंटाधार    कितै   है

 

गुडिमुड़ी   से   हो   रये   सबरे

इनमें  अब  फुफकार  कितै है

 

दुख   में   देखो   परे    अकेले

पहलऊं  सो व्यबहार  कितै  है

 

फाँसी  लगा  किसान  मरत  हैं

अब  हितुआ सरकार  कितै  है

 

हरई  काम   में   पूछत   तुम्हरो

“संतोष” अब  आधार  कितै  है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 171 ☆ वसीयत ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता  – वसीयत ! ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 171 ☆  

? कविता  – वसीयत! ?

माना

कि मौत पर वश नही अपना

पर प्रश्न है कि

क्या जिंदगी सचमुच अपनी है ?

हर नवजात के अस्फुट स्वर

कहते हैं कि ईश्वर

इंसान से निराश नहीं है

हमें जूझना है जिंदगी से

और बनाना है

जिदगी को जिंदगी

 

इसलिये

मेरे बच्चों

अपनी वसीयत में

देकर तुम्हें चल अचल संपत्ति

मैं डालना नहीं चाहता

तुम्हारी जिंदगी में बेड़ियाँ

तुम्हें देता हूँ अपना नाम

ले उड़ो इसे स्वच्छंद/खुले

आकाश में जितना ऊपर उड़ सको

 

सूरज की सारी धूप

चाँद की सारी चाँदनी

हरे जंगल की शीतल हवा

और झरनों का निर्मल पानी

सब कुछ तुम्हारा है

इसकी रक्षा करना

इसे प्रकृति ने दिया है मुझे

और हाँ किताबों में बंद ज्ञान

का असीमित भंडार

मेरे पिता ने दिया था मुझे

जिसे हमारे पुरखो ने संजोया है

अपने अनुभवों से

वह सब भी सौंपता हूँ तुम्हें

बाँटना इसे जितना बाँट सको

और सौंप जाना कुछ और बढ़ाकर

अपने बच्चों को

 

हाँ

एक दंश है मेरी पीढ़ी का

जिसे मैं तुम्हें नहीं देना चाहता

वह है सांप्रदायिकता का विष

जिसका अंत करना चाहता हूँ मैं

अपने सामने अपने ही जीवन में..

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सवाल ☆ श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल ☆

श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल

(युवा साहित्यकार श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल जी लखनऊमें पले बढ़े और अब पुणे में सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। आपको बचपन से ही हिंदी और अंग्रेजी कविताएं लिखने का शौक है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता सवाल।)

 ☆ कविता ☆ सवाल ☆ श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल ☆

जवाब की तलाश में चला

खुद एक सवाल बन वापस आया है

खोया पाया की बातों से ऊपर उठ

नफा नुक्सान से दूर निकल आया है

उठा जब भी एक के जवाब के साथ

तो जवाब ख़ुद ही कर बैठा एक सवाल

और फ़िर खोज शुरू कर दी उसने जवाब की

 

देख भीड़ में अगोचर से चेहरे

या कुछ जाने से लोग

और जब कोई खिलखिला कर हँस देता

और देख उन्हें दौड़ते हुए अपने सपनों के पीछे

खड़े होते तरह तरह के सवाल

वह हो गया निराश

लगा जैसे कोई बड़ी सफाई से

जवाब मिटा के गायब हो गया

कोई और भी न ढूंढ पाया होगा

यही सोच उसने मायनो की किताब को आग लगा दी

 

पर सवाल नही जलते

और जवाब , जवाब नही मिलते

 

© केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल

पुणे मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 119 ☆ गीत – अनगिन चले गए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 119 ☆

☆ गीत – अनगिन चले गए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

परिचित शुभचिन्तक

देखा अदभुत रे संसार।

अब तो छूट रहा है प्यार।।

 

ये भी जोड़ा, वो भी जोड़ा

नाते , रिश्ते जोड़ लिए

कहीं कपट था, कहीं रपट है

कुछ ने रिश्ते तोड़ लिए

 

कैसे मिथक और उपमाएं

करतीं जीवन साज – सँवार।

 

ईश्वर को मैं देख न पाया

लेकिन गीत सदा ही गाया

सुख – दुख में सब काल छिन गया

सुख चाहती है केवल काया

 

कोशिश करी सदा मिलने की

आँख बंद कर की मनुहार।।

 

शब्द – शब्द ने ब्रह्म जगाया

जो चाहते थे कब वह पाया

मैल लगे वस्त्रों को हमने

थोड़ा – थोड़ा था चमकाया

 

द्वार खोलती अनुभूति नित

कुछ से मिलता प्यार अपार।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#141 ☆ तन्मय दोहे – गिरगिट जैसे सिद्ध…1 ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय “तन्मय दोहे – गिरगिट जैसे सिद्ध…1”)

☆  तन्मय साहित्य # 141 ☆

☆ तन्मय दोहे – गिरगिट जैसे सिद्ध… 1 ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

जब से मेरे गाँव में, पहुँचे शहरी भाव।

भाई-चारे  प्रेम के, बुझने लगे अलाव।।

 

भूखों  का  मेला  लगा,  तरह – तरह  की  भूख।

जर,जमीन,यश, जिस्म की, जैसा जिसका रूख।।

 

खादी तन पर डालकर, बगुले  बनते हंस।

रच प्रपंच मिल कर रहे, लोकतंत्र विध्वंस।।

 

धर्म-पंथ के नाम पर, अलग-अलग है सोच

लोकतंत्र  लँगड़ा रहा, पड़ी  पाँव में  मोच।

 

वेतन-भत्ते सदन में, सह -सम्मति से पास।

दाई – जच्चा  वे स्वयं, फिर क्यों रहें उदास।।

 

जिनके ज्यादा अंक है, अपराधों में खास।

है उनके ही   हाथ में,  प्रजातंत्र  की  रास।।

 

इक्के-दुक्के रह गए, खादी वाले लोग।

सूट-बूट के भाग्य में, राजनीति संयोग।।

 

हाकिम का आदेश है, नहीं मचाएं शोर।

मिट जाएगा तम स्वयं, हो जाएगी भोर।।

 

रोज खबर अखबार के, प्रथम पृष्ठ पर खास।

द्विगुणित गति से हो रहा, चारों ओर बिकास।।

 

रावण को यह ज्ञात था, निश्चित मृत्यु विधान।

किंतु  छोड़ पाया  नहीं, सत्ता  का  अभिमान।।

 

बारिश में अमरत्व का, गाते झींगुर गान।

है जीवन इक रात का, हो इससे अंजान।।

 

तू-तू ,मैं-मैं  की हवा, संसद क्रीड़ागार।

भूखे – नंगों का यहाँ, शब्दों से  शृंगार।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चित्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि –  चित्र ??

वर्णित शब्दों के आधार पर

चित्रकार उकेर देते हैं

अनदेखे चेहरों के चित्र..,

पढ़ता हूँ कविताएँ,

पढ़ता हूँ कहानियाँ,

अनगिनत रचनाकारों के

मूल चित्र संग्रहित हैं

मेरे मन के संग्रहालय में..!

© संजय भारद्वाज

(प्रात: 5:57 बजे, 13.5.21)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 33 ☆ मत कहना अनाथ… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण गीत  “मत कहना अनाथ… ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 33 ✒️

? मत कहना अनाथ… — डॉ. सलमा जमाल ?

मैं हूँ 

‘अनाथ’

उठता है

प्रश्न??

क्या होता है अनाथ?

 

उसे कहते होंगे

शायद —

जिसके ना हो

कोई साथ  ।।

 

सबके हैं

माता-पिता

भाई-बहन

परिवार

“परंतु”

‘मेरे’?

सभी के हैं नाम

परंतु मेरा?

होटल में,

हरामी, कमीना

गैराज में

साला, कुत्ता, चोर

अनाथ और आवारा

बंगले में,

रामू, छोटू

कलमुंहा,

पेट्रोल पंप में

वीभत्स ताने

अबे गधे, नाकारा,

और

ना जाने क्या-क्या???

 

बाल मन की

समझ से परे

असंख्य

घृणित संबोधन,

जिन्हें याद कर

ज़ख्म हो जाते हैं हरे ।।

 

सभी कहते हैं

प्रत्येक औरत

मां है – बहन है

“परंतु “

उनके लिए मैं

एक अनाथ ।।

 

मां कहने पर

किसी ने उसे

बेटा नहीं कहा,

किसी

अबला को

जब कहा बहन

तो उसे

दुत्कार मिली ।।

 

इसके आगे

रिश्ते पनप नहीं पाए

गंदी – गंदी

गालियां व

फटकार मिली

फिर मैं

बन गया गुंडा

जैसे अनाम रिश्तों

इंसानों व

समाज द्वारा

निर्मित किया गया था ।।

 

दो जून की

रोटी की खातिर

जेल में पड़ा हूं,

पढ़ने की लालसा

सहेजे

उठाया था

किसी का बस्ता

और आज

यौवनावस्था में

मृत्यु शैया

पर पड़ा हूं ।।

 

अंतिम

इच्छा है मेरी

जब भी मिले

कोई अनाथ

तो उसे

मत दुत्कारना,

 मत मारना,

मत गाली देना

उसे अपना लेना

माता-पिता बनकर

भाई-बहन बनकर

उसे देना प्यार,

समाज के ठेकेदारों

मत कहना उसे

“अनाथ”

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 42 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 42 – मनोज के दोहे

कजरी

झूला सावन में लगें, गले मिलें मनमीत।

कजरी की धुन में सभी,गातीं महिला गीत।

देवी की आराधना, कजरी-सावन-गीत।

नारी करतीं प्रार्थना, जीवन-पथ में जीत।।

तीज

सावन-भादों माह में, पड़ें तीज-त्यौहार।

संसाधन कैसे जुटें, महँगाई की मार।।

भाद्र माह कृष्ण पक्ष को, आती तृतिया तीज ।

महिला निर्जल वृत करें, दीर्घ आयु ताबीज ।।

चूड़ी

लाड़ो चूड़ी पहन कर, भर माथे सिंदूर।

चली पराए देश में, मात-पिता मजबूर।।

शृंगारित परिधान में, चूड़ी ही अनमोल।

रंग बिरंगी चूड़ियाँ, खनकातीं कुछ बोल।।

मेहँदी

सपनों की डोली सजा, आई पति के पास।

हाथों में रच-मेहँदी, पिया मिलन की आस।।

लालरँग मेहँदी रची, आकर्षित सब लोग।

प्रियतम के मनभावनी, मिलते अनुपम भोग।।

झूला

सावन की प्यारी घटा, लुभा रही चितचोर।

झूला झूलें चल सखी, हरियाली चहुँ ओर।।

सावन में झूला सजें, कृष्ण रहे हैं झूल।

भारत में जन्माष्टमी, मना रहे अनुकूल।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आर-पार ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि –  आर-पार ??

नदी का पाट चौड़ा है,

नदी में पानी गहरा है,

नदी में भंवर उठते हैं,

नदी में मगरमच्छ बसते हैं,

नदी में झंझावात है,

नदी में आघात है,

नदी सतत आशंका है,

नदी मृत्यु का घंटा है,

नदी से डरो..!

 

नदी में पानी है,

नदी की कहानी है,

नदी में सृष्टि है,

नदी एक दृष्टि है,

नदी में प्रवाह है,

नदी में उछाल है,

नदी अखंड संभावना है,

नदी का निमंत्रण स्वीकार करो,

नदी को पार करो…!

© संजय भारद्वाज

प्रातः 5:05 20 जून 2022

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 97 – गीत – तुम्हीं बताओ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – तुम्हीं बताओ…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 97 – गीत – तुम्हीं बताओ✍

तुम्हीं बताओ जीवन घन

कैसे बीतेगा    जीवन।

 

तुम थीं कोई बात नहीं थी

 उजियारी थी, रात नहीं थी

तुम्हीं सम्हाँले थीं जीवन को

मेरी तो औकात नहीं थी।

अंधाधुंध चल पड़ी आँधियाँ

उजड़ गया साधों का उपवन

तुम ही बताओ जीवन धन

कैसे बीतेगा जीवन।

 

तुम थीं तो थी पूरनमासी

नहीं दुख था नहीं उदासी

चहल-पहल थी पूरे घर में

खुशियाँ दिन चौखट की दासी

उन्मन उन्मन रहता है मन

जाने कैसे लग गया गहन

तुम ही बताओ जीवन धन

कैसे बीतेगा जीवन।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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