हिंदी साहित्य – कविता ☆ बाल कविता: ♣ संवेदी (हमदर्द) ♣ ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

बाल कविता: संवेदी (हमदर्द) ♣ ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी 

(रवीन्द्रनाथ के बाल-कविता-संकलन ‘शिशु’ की एक कविता ‘समव्यथी’ का भावानुवाद)

 अगर न होकर तेरा मुन्ना

                      मैं पिल्ला ही होता,

   मुझको पास न आने देती

                       जितना भी मैं रोता ?

 

   जब तू खाने बैठा करती

                       अगर पहुँच मैं जाऊँ

   मुझे भगाती डाँट कर कहीं

                       जाकर मुँह न लगाऊँ,

   कहती, कुतवा, अरे भाग रे,

                        बिलकुल पास न आना।’

   हाथ से तेरे फिर न खाऊँ,

                        मुझे न गोद उठाना।

 

   मुझे कभी मत चूमा करना

                        तेरे हाथ न खाऊँगा।

   तेरी थाली तुझे मुबारक

                        तेरे पास न जाऊँगा।

 

   तेरा मुन्ना कहीं न होकर

                        अगर बना मैं तोता,

   कहीं पिंजड़े से उड़ न जाऊँ

                        जंजीरों में होता ?

 

   सच सच कहना मेरी अम्मां,

                        मुझसे छल मत करना

   कहती, नमक हराम बड़ा है,

                        पिंजड़े में बन्द रखना।’

 

   प्यार मुझे तब तुम मत करना

                        दो गोदी से उतार।

   जंगल में बस अभी चला माँ

                          मत करो मुझे दुलार।                

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो: 9455168359, 9140214489

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 120 ☆ गीत – शस्य श्यामला माटी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 120 ☆

☆ गीत – शस्य श्यामला माटी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

अपनी संस्कृति को पहचानो

इसका मान करो।

शस्य श्यामला माटी पर

मित्रो अभिमान करो।।

 

गौरव से इतिहास भरा है भूल न जाना।

सबसे ही बेहतर है होता सरल बनाना।

करो समीक्षा जीवन की अनमोल रतन है,

जीवन का तो लक्ष्य नहीं भौतिक सुख पाना।

 

ग्राम-ग्राम का जनजीवन, हर्षित खलिहान करो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

 

उठो आर्य सब आँखें खोलो वक़्त कह रहा।

झूठ मूठ का किला तुम्हारा स्वयं ढह रहा।

अनगिन आतताइयों ने ही जड़ें उखाड़ीं,

भेदभाव और ऊँच-नीच को राष्ट्र सह रहा।

 

उदयाचल की सविता देखो, उज्ज्वल गान करो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

 

तकनीकी विज्ञान ,ज्ञान का मान बढ़ाओ।

सादा जीवन उच्च विचारों को अपनाओ।

दिनचर्या को बदलो तन-मन शुद्ध रहेगा,

पंचतत्व की करो हिफाजत उन्हें बचाओ।

 

भारत, भारत रहे इसे मत हिंदुस्तान करो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

 

भोग-विलासों में मत अपना जीवन खोना।

आपाधापी वाले मत यूँ काँटे बोना।

करना प्यार प्रकृति से भी हँसना- मुस्काना,

याद सदा ईश्वर की रखना सुख से  सोना।

 

समझो खुद को तुम महान  श्वाशों में प्राण भरो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#142 ☆ तन्मय दोहे – गिरगिट जैसे सिद्ध…2 ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय “तन्मय दोहे – गिरगिट जैसे सिद्ध…1”)

☆  तन्मय साहित्य # 142 ☆

☆ तन्मय दोहे – गिरगिट जैसे सिद्ध… 2 ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

भीतर   हिंसक  बाघ  है,   बाहर दिखते गाय।

कहे बात कुछ और ही, रहता कुछ अभिप्राय।।

 

भीतर में  प्रतिशोध है, बाहर में  अनुराग।

ले कागज के फूल को, कहते प्रीत पराग।।

 

चेहरे,  चाल,  चरित्र  से,  हैं  पूरे  संदिग्ध।

रंग बदलने में निपुण, गिरगिट जैसे सिद्ध।।

 

इक – दूजे  के  सामने, वे  हैं  खड़े  विरुध्द।

आपस के इस द्वंद्व में, पथ-विकास अवरुद्ध।।

 

झंडों  में  डंडे  लगे,  डंडों  का  आतंक।

दीमक बन कुर्सी चढ़ें, चरें देश निःशंक।।

 

बहुरुपियों  के  वेश  से,  भ्रमित हुआ  इंसान।

असल-नकल के भेद को, कौन सका पहचान।।

 

बुद्धू  सारे  हो रहे, दाँव – पेंच से  बुद्ध।

बैठे हैं मन मार कर, वें जो शुद्ध- प्रबुद्ध।।

 

मुफ्तखोर निष्क्रियपना, पनप रहा यह रोग

विमुख कर्म से हो रहे, सुविधाभोगी लोग।।

 

लोकतंत्र की नाव में, अगणित छिद्र-दरार।

मनोरोग   से   ग्रस्त   हैं,  इसके   खेवनहार।।

 

साँठ-गाँठ  भीतर  चले,  बाहर  प्रत्यारोप।

षड्यंत्रों का दौर यह, फैला घृणित प्रकोप।।

 

कुर्सी  पर  वंशानुगत,   बना  रहे  अधिकार।

धनबल भुजबल युक्तिबल, तकनीकी संचार।।

 

लोकतंत्र में बो दिए, संशय के विष बीज।

वे ही हैं सम्मुख खड़े, जिनमें नहीं तमीज।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ☆ ग़ज़ल – ‘‘माना कि उलझे उलझे से हैं दस्तूर ज़िंदगी के…’’ ☆ सुश्री लीना मित्तल खेरिया ☆

सुश्री लीना मित्तल खेरिया 

संक्षिप्त परिचय

शिक्षा – एम बी ए

सम्प्रत्ति – हिन्दी कवितायें लिखने का बहुत शौक है।

प्रकाशन – आपके दो काव्य संग्रह ‘Direct दिल से ‘ एवं ‘सफर एहसासों का’ प्रकाशित। अनेकोनेक रचनायें सॉंझा संकलन राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित ।

पुरस्कार/ सम्मान – आपको कई पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत/ सम्मानित। इनमें प्रमुख हैं प्राईड ऑफ विमेन अवार्ड, स्टार डायमंड अचीवर्स अवार्ड, अटल साहित्य गौरव सम्मान, शहीद स्मृति सम्मान, मातृ भूमि सम्मान, नवीन कदम वीणापाणी सम्मान, लिटरेरी कैप्टन अवार्ड, आयाति साहित्य सम्मान आदि।

☆ ग़ज़ल – ‘‘माना कि उलझे उलझे से हैं दस्तूर ज़िंदगी के…’’ ☆ सुश्री लीना मित्तल खेरिया ☆

क्यूँ फ़िज़ूल ही दिलो जाँ को जलाया जाए

चलो आज से जी भर कर मुस्कुराया जाए

 

मन के अलाव पर पकता रहा कुछ न कुछ

चलो कुछ ज़ायक़ेदार बना के खाया जाए

 

क्यूँ कैद हैं नफ़रतों की आँधियाँ हर मन में

बेमुरव्वत जज़्बों का जनाजा उठाया जाए

 

थक गए इशारों पर कठपुतली से नाचते

चलो इस रंग मंच का पर्दा गिराया जाए

 

उँगली उठाने वाले ख़ुद भी देख लें आईना

उसके बाद ही फिर औरों को दिखाया जाए

 

माना कि उलझे उलझे से हैं दस्तूर ज़िंदगी के

कोशिश है पूरी शिद्दत से उन्हें निभाया जाए

 

ज़हन में कौंधती हैं बिजली सी यादें उनकी

चलो फिर नये सिरे से उनको भुलाया जाए

 

ताश के पत्तों सा बिखरा आशियाना अपना

चलो अब एक नया ही घरौंदा बनाया जाए

 

ना ही वो दावतें न वो मेहमान नवाज़ी बाकी

अब किसके लिए दस्तरख़ान बिछाया जाए

 

मजलिस में बैठ कर जुगनू सारे हैं सोच रहे

मनसूबा है कि चाँद सूरज को हटाया जाए

 

आख़िर ख़ुद से ही तू क्यूँ आजिज़ है लीना

चलो ख़ुद ही से हर फ़ासला मिटाया जाए

(अलाव- आंच, बेमुरव्वत- बेरहम, शिद्दत- ईमानदारी, दस्तरख़ान- मेज़पोश, मजलिस- सभा, मनसूबा- इरादा, आजिज़- परेशान)

©  सुश्री लीना मित्तल खेरिया 

बोड़कदेव, अहमदाबाद, गुजरात 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 43 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 43 – मनोज के दोहे

1 पावस   

पावस की बूँदें गिरीं, हर्षित फिर खलिहान।

धरा प्रफुल्लित हो उठी, हरित क्रांति अनुमान।।

 

2 पपीहा

गूँज पपीहा की सुनी, बुझी न उसकी प्यास।

आम्र कुंज में बैठकर, स्वाति बूँद की आस।।

 

3 मेघ

मेघ गरज कर चल दिए, देकर यह संदेश ।

बरसेंगे उस देश में, कृष्ण भक्ति -अवधेश।।

 

4 हरियाली

शिव की अब आराधना, हरियाली की धूम।

काँवड़ यात्रा चल पड़ी, आया सावन झूम।।

 

5 घटा

छाई सावन की घटा, रिमझिम पड़ी फुहार।

भीगा तन उल्हास से, उमड़ा मन में प्यार।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जीवन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि –  जीवन ??

जुग-जुग जीते सपने

थोड़े से पल अपने,

सूक्ष्म और स्थूल का

दुर्लभ संतुलन है,

नश्वर और ईश्वर का

चिरंतन मिलन है,

जीवन, आशंकाओं के पहरे में

संभावनाओं का सम्मेलन है।

© संजय भारद्वाज

प्रातः 8.11 , 30.3.19

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 172 ☆ अच्छा लगता है ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता  – अच्छा लगता है।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 172 ☆  

? कविता  – अच्छा लगता है  ?

कवि गोष्ठी से मंथन करते, घर लौटें तो अच्छा लगता है

शब्द तुम्हारे कुछ जो लेकर,  घर लौटें तो अच्छा लगता है।

 

कौन किसे कुछ देता यूँ ही,  कौन किसे सुनता है आज

छंद सुनें और गाते गाते,  घर लौटें तो अच्छा लगता है।

 

शुष्क समय में शून्य हृदय हैं, सब अपनी मस्ती में गुम हैं

रचनायें सुन भाव विभोरित,  घर लौटें तो अच्छा लगता है।

 

मेरी पीड़ा तुम्हें पता क्या, तेरी पीड़ा पर चुप हम हैं

पर पीड़ा पर लिखो पढो जो,और सुनो  तो अच्छा लगता है।

 

एक दूसरे की कविता  पर, मुग्ध तालियां उन्हें मुबारक

गीत गजल सुन द्रवित हृदय जब रो देता तो अच्छा लगता है।

 

कविताओं की विषय वस्तु तो, कवि को ही तय करनी है

शाश्वत भावों की अभिव्यक्ति सुनकर किंतु अच्छा लगता है।

 

रचना  पढ़े बिना, समझे बिन,  नाम देख दे रहे बधाई

आलोचक पाठक की पाती  पढ़कर लेकिन अच्छा लगता है।

 

कई डायरियां, ढेरों कागज, खूब रंगे हैं लिख लिखकर

पढ़ने मिलता छपा स्वयं का, अब जो तो अच्छा लगता है।

 

बहुत पढ़ा  और लिखा बहुत, कई जलसों में शिरकत की

घण्टो श्रोता बने, बैठ अब मंचो पर अच्छा लगता है।

 

बड़ा सरल है वोट न देना,  और कोसना शासन को

लम्बी लाइन में लगकर पर, वोटिंग करना अच्छा लगता है।

 

जीते जब वह ही प्रत्याशी,  जिसको हमने वोट किया

मन की चाहत पूरी हो, सच तब ही तो अच्छा लगता है।

 

कितने ही परफ्यूम लगा लो विदेशी खुश्बू के

पहली बारिश पर मिट्टी की सोंधी खुश्बू से अच्छा लगता है।

 

बंद द्वार की कुंडी खटका भीतर जाना किसको भाता है

बाट जोहती जब वो आँखें मिलती तब ही अच्छा लगता है।

 

बच्चों के सुख दुख  के खातिर पल पल  जीवन होम करें

बाप से बढ़कर  निकलें बच्चें, तो तय है कि अच्छा लगता है।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 98 – गीत – मुखर जलज सा रुप… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – मुखर जलज सा रुप…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 98 – गीत –मुखर जलज सा रुप✍

मुखर जलज सा रुप

मुग्ध मधुप सा मेरा मन।

 

तुमसे पहले जीवन मरू था

तुम्हें देखकर मेघ पधारे

गंध छंद में बँधकर आई

बँधे गीत के वंदन वारे

ओ मेरी साधों की संगिनी

तुम हो सगुण शेष है निर्गुण।

 

जीवन था निर्जीव शब्द सा

दिया तुम ही ने अर्थ उजाला

तुमने ही जलती तृष्णा को

संयम के साँचे में ढाला ।

तुमने ही मन किया नियंत्रित

तेरा मन है मेरा दरपन।

 

मुखर जलज सा रुप

मुग्ध मधुप सा मेरा मन।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 100 – “माता की ममता पर अंधड़…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत –माता की ममता पर अंधड़।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 100 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “माता की ममता पर अंधड़”|| ☆

पहले बेचे बैल बाद में

दोनों खेत बिके

बेटेकी शिक्षापर दम्पति

के अरमान टिके

 

माँ कैसे भी खोंसे रहती

खुद को साड़ी में

जो फट कर चीथड़े हुई

है आँगन बाड़ी में

 

रहा कर्ज का बोझ पिता

 की रीढ़ हुई दोहरी

माता की ममता पर अंधड़

जीवन की गति के

 

आस बड़ी पर एक जून

का भोजन है दूभर

खेत गये, तो रामधनी

अब जोत रहा ऊसर

 

किस किस का भुगतान

करे वह दीन हीन मानुस

और चुकये पैसा बिन

पत्नी की सहमति के

 

बहुत पुरानी थी मियार

पिछवाड़े के घर की

बारिश तेज हुई तो

बिखरी भीटें बाहर की

 

भीगे नहीं अनाज,

सोचते जो परसों आया

कैसे भी दोनो की

काया में हैं प्राण छिके

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

14-07-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अकाल मृत्यु हरणं ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – अकाल मृत्यु हरणं ??

गोल होते कान,

वाचा का थकना,

फटी सफेदी वाली

आँखों का शून्य तकना,

बात-बात में

हाथ उठाकर

आशीर्वाद देने का गोत

कुछ संकेत देने लगती है

ले जाने से पहले

बूढ़ी मौत..!

 

संकेत देते हैं वे भी,

ग़लती न होने पर भी

जो झिड़कियाँ खाते हैं,

अपशब्दों की बौछार पर

खिसियाए-से हँसते जाते हैं,

अन्याय को अनुकंपा मान

मिलती रोटी ठुकराने से डरते हैं,

ये वे जवान हैं जो-

जीते-जी रोज मरते हैं..,

 

पर…,

ये जो मर जाते हैं,

सड़कों पर तपाक से

अपनी हाईस्पीड बाइक

खुद डिवाइडर से टकराए,

रेल की पटरियों पर कट जाते हैं

मोबाइल कान से चिपकाए,

लहरों और बहाव की अनदेखी कर

‘सेल्फी फॉर डेथ’ खिंचवाते हैं,

फिर इन्हीं लहरों पर सवार

बेबसी में शव बनकर आते हैं..,

 

काश…,

काश होते कुछ संकेत

इन बावरों के लिए भी.., कि

बढ़ती गति तो सड़क थम जाती,

पटरियों पर कान की स्वर तरंगें

स्पीकर बन खतरे के विरुद्ध चिल्लाती,

होता कुछ ऐसा कि लहरें

इन्हें जीते-जी उछाल बाहर फेंक आती,

यदि घट पाता ऐसा कुछ

तो ये नादान बेमौत न मरते

और अपने जाने के बाद

अपनों को रोज़ाना

तिल-तिल मरने को

विवश भी न करते !

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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