हिन्दी साहित्य – कविता ☆ यूं ही उजड़ा – उजड़ा सा रहता है… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – यूं ही उजड़ा – उजड़ा सा रहता है।)

✍ यूं ही उजड़ा – उजड़ा सा रहता है… ☆ श्री हेमंत तारे  

आज शब लफ़्ज़ों को चाय पर बुलाया है

चन्द ख्व़ाब, चन्द यादों ने शोर मचाया है

गर बात बनी तो मुकम्मिल होगी ये ग़ज़ल

इस तसव्वुर-ऐ- जानां ने दिल महकाया है

 *

यूं ही उजड़ा – उजड़ा सा रहता है मन मेरा

तेरे आने की उम्मीद बनी, इसे सजाया है

 *

इस मुआशरे के हर बाशिंदे का तजुर्बा है

जो ताजदार बना उसी ने लूटा ओ सताया है

 *

हट गया तेरी दीदों से मगरूरी का चष्मा

मेरे इल्म -ओ – हुनर से तेरा ग़ुरूर शर्माया है

 *

इश्क़ आसां नही ये जमाने का दस्तूर सही

पर क़ामयाब हुये हैं हम, ये मिसाल  नुमाया है

 *

नये तौर- तरीके ‘हेमंत ‘ मुबारिक तुम को

मैं क़ाइम हूं रिवायत पे, जो मेरा सरमाया है

(शब = रात,  मुकम्मिल = सम्पूर्ण, तसव्वुर-ऐ- जाना = मनपसंद कल्पना, मुआशरा = सभ्यता/ समाज,  क़ाइम = दृढ, रिवायत =  परम्परा,  सरमाया = पूंजी, धन – दौलत)

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 105 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 10 ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकें गे। 

इस सप्ताह से प्रस्तुत हैं “चिंतन के चौपाल” के विचारणीय मुक्तक।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 105 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 10 ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

कटे शीश वाले कहार थे, 

डोली पर लाये बहार थे, 

आजादी तो लाये लेकिन 

उनने भोगे तिरस्कार थे।

0

आजादी लाने की ठानी, 

सही यातना काला पानी, 

उन दीवानों की अब नेता 

भूल गये सारी कुर्बानी।

0

फिर चुनाव की तैयारी है, 

साँप-नेवले में यारी है, 

हर गठबंधन फिर वोटर से 

करने वाला गद्दारी है।

0

आसमान पर पारा होगा, 

सत्ता का बँटवारा होगा, 

नेता चाटेंगे मलाई, 

पर शोषण सिर्फ हमारा होगा।

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 178 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपके “मनोज के दोहे…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 178 – मनोज के दोहे… ☆

आँखों से झरना बहा, दिल में उठा गुबार।

पहलगाम को चाहिए, अब केवल प्रतिकार।।

 *

मधुकर उड़ता बाग में, गाता है मृदु गान।

आमंत्रित करती कली, दे कर मधु मुस्कान।।

 *

प्रेम-वंशिका बज रही, कृष्ण राधिका धाम।

मुदित गोपिका नाचती, बसे यहाँ घन-श्याम।।

 *

बहते आँसू रुक गए, नाम दिया सिंदूर।

आतंकी गढ़ ध्वस्त कर, शरणागत-मजबूर।।

 *

जनसंख्या की वृद्धि जब, हों कुटीर उद्योग।

अर्थ-व्यवस्था दृढ़ रहे, मिले सभी को भोग।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 700 ⇒ बरगद ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक कविता – “बरगद।)

?अभी अभी # 700 ⇒ बरगद ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 मैं जड़ हूँ!

जड़ से चेतन हुआ।

ज़मीन से निकला

बड़ा हुआ!

बरगद,खुशी से गदगद।

मेरी जड़ें ज़मीन में हैं

ज़मीन में ही गड़ी जाती हैं।

हाँ मैं बूढ़ा हूँ,बुजुर्ग हूँ

ज़मीन से जुड़ा हूँ।

सबको छाया देता,

पंछियों को विश्राम।।

बट सावित्री पर मेरी

पूजा करती महिलाएँ

पर्यावरण का रखवाला

बूढ़ा बरगद।।मैं जड़ हूँ!

जड़ से चेतन हुआ।

ज़मीन से निकला

बड़ा हुआ!

बरगद,खुशी से गदगद।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #281 – कविता – ☆ कमर हुई पतली, नदिया की जेठ में… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता कमर हुई पतली, नदिया की जेठ में” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #281 ☆

☆ कमर हुई पतली, नदिया की जेठ में… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कमर हुई पतली, नदिया की जेठ में

खूब घाम में तपती, नदिया जेठ में।

*

बीच-बीच में, शर्माती सकुचाती सी

रेत से चेहरा ढँकती, नदिया जेठ में।

*

जलसों में भी, जल के ही चर्चे होते

अखबारों में छपती, नदिया जेठ में।

*

बहना छोड़ा नहीं, अभावों में उसने

मन से कभी न थकती, नदिया जेठ में।

*

ताप सूर्य का तो, सहर्ष सहना होगा

यही समय है, पकती नदिया जेठ में।

*

विचलित हुई न अवरोधों से कहीं कभी

रोड़े देख ठुनकती, नदिया जेठ में।

*

बंधनमुक्त तटों से हो, अपने दम पर

खुद की शक्ति परखती, नदिया जेठ में।

*

तट पर बैठे, लहर-लहर को देख रहे

पल-पल रही सरकती, नदिया जेठ में।

*

मेघों से उम्मीद लगी है, बरसेंगे

इंद्रदेव को जपती, नदिया जेठ में।

☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 105 ☆ पुछ गया सिंदूर ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “पुछ गया सिंदूर?” ।)       

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 105 ☆ पुछ गया सिंदूर ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

घायल हो गया मन

बन गया है ज़ख़्म अब नासूर

पुछ गया सिंदूर ।

 

कैंडलों की रोशनी

मुरझाए से चेहरे

घोषणाओं में छिपे

गुपचुप राज से गहरे

 

हो गया पत्थर भी चकनाचूर ।

पुछ गया सिंदूर।

 

खो गई इंसानियत

क्या अब, युद्ध केवल हल

संधियों पर है टिका

बस यातनाओं का महल

 

हो गए हैं पराजित दस्तूर।

पुछ गया सिंदूर ।

 

हुए समझौते रुकी

थम गया सेना का जुनून

फिर पनपने का मिला

आतंकियों को क्या सुकून

 

क्या हुई संवेदना मजबूर

पुछ गया सिंदूर ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – टिटहरी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – टिटहरी ? ?

भीषण सूखे में भी

पल्लवित होने के प्रयास में

जस- तस अंकुर दर्शाती,

अपने होने का भास कराती,

आशाओं को, अंगुली थाम

नदी किनारे छोड़ आता हूँ।

 

आशाओं को

अब मिल पाएगा

पर्याप्त जल और

उपजाऊ जमीन।

 

ईमानदारी से मानता हूँ

नहीं है मेरा सामर्थ्य

नदी को खींचकर

अपनी सूखी जमीन तक लाने का,

न कोई अलौकिक बल

बंजर सूखे को

नदी किनारे बसाने का।

 

वर्तमान का असहाय सैनिक सही

भविष्य का परास्त योद्धा नहीं हूँ,

ये पिद्दी-सी आशाएँ,

ये ठेंगु-से सपने,

पलेंगे, बढ़ेंगे,

भविष्य में बनेंगे

सशक्त, समर्थ यथार्थ,

एक दिन रंग लाएगा

मेरा टिटहरी प्रयास।

 

जड़ों के माध्यम से

आशाओं के वृक्ष

सोखेंगे जल, खनिज

और उर्वरापन,

अंकुरों की नई फसल उगेगी,

पेड़ दर पेड़ बढ़ते जाएँगे,

लक्ष्य की दिशा में

यात्रा करते जाएँगे।

 

मैं तो नहीं रहूँगा

पर देखना तुम,

नदी बहा ले जाएगी

सारा नपुंसक सूखा,

नदी कुलाँचें भरेगी

मेरी जमीन पर,

सुदूर बंजर में

जन्मते अंकुर

शरण लेंगे

मेरी जमीन पर,

और हाँ..,

पनपेंगे घने जंगल

मेरी जमीन पर..!

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ हमारी अगली साधना श्री विष्णु साधना शनिवार दि. 7 जून 2025 (भागवत एकादशी) से रविवार 6 जुलाई 2025 (देवशयनी एकादशी) तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना का मंत्र होगा – ॐ नमो नारायणाय।💥

💥 इसके साथ ही 5 या 11 बार श्री विष्णु के निम्नलिखित मंत्र का भी जाप करें। साधना के साथ ध्यान और आत्म परिष्कार तो चलेंगे ही –

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ||

💥 संभव हो तो परिवार के अन्य सदस्यों को भी इससे जोड़ें💥  

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ पर्यावरण दिवस विशेष – बुन्देली गीत – “पर्यावरण बचाने हे हमें” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है पर्यावरण दिवस पर आपका एक बुन्देली गीत पर्यावरण बचाने हे हमें)

☆ पर्यावरण दिवस विशेष ☆

बुन्देली गीत – “पर्यावरण बचाने हे हमें” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

(5 जून विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष)

दद्दा सुन लो, दादी सुन लो, सुन लो प्यारी अम्मा

भौजी सुन लो, जिज्जी सुन लो, सुन लो प्यारे मुन्ना

*

पर्यावरण बचाने हे हमें पर्यावरण बचाने

पर्यावरण बचाने हे हमें पर्यावरण बचाने

*

जो जीवन में बोत जरूरी सबई कछू हे ईमें,

हवा हे ईमें, पानी ईमें, जंगल सोई हें ईमें,

ईमें फसलें, ईमें खाना, ईमें जनम बिताने।

पर्यावरण बचाने हे हमें पर्यावरण..

*

कूरा – करकट – परली जल रई बारूदी भई सांसें,

एसी फ्रिज की गैसें, बच हें धूल –  धुआं से कैसें,

इनसें बच कें हमें हमारी दुनिया स्वस्थ बनाने ।

पर्यावरण बचाने हे हमें पर्यावरण…

*

मन मरजी सें पेड़ काट रए, जंगल घटतई जा रए,

गरमी बढ़ रई, बरसा घट रई, सब प्रानी अकुला रए,

पेड़ लगा के उने बचाओ दुनिया अगर सजाने ।

पर्यावरण बचाने हे हमें पर्यावरण…

*

खाद रसायन डार – डार कें, कीड़ा मार रए हें,

भोजन जहर बना लओ, नकली गोरस बना रए हें,

बढ़ी बीमारी, उमर घट रई अब काहे चिचयाने।

पर्यावरण बचाने हे हमें पर्यावरण…

*

देवी पूजन या अजान हो बिन भोंपू नईं हो रए।

रामकथा, भागवत, जनम दिन सब हुल्लड़ में खो गए,

कानफोड़ू डी जे के आगे खूब पड़त चिल्लाने।

पर्यावरण बचाने हे हमें पर्यावरण…

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ ग़ज़ल # 108 ☆ कहानी अपनी कहती है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “कहानी अपनी कहती है“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 108 ☆

✍ कहानी अपनी कहती है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

ये खंज़र और ये  ढालें कहानी अपनी कहती हैं

किसी की मद भरी चालें कहानी अपनी कहती है

 *

नई कोपल से पेड़ों का पुराना पन नहीं छिपता

तने की खुरदरी छालें कहानी अपनी कहती हैं

 *

ये दावा झूठ पर्दाफाश होना है गुनाहों का

पुलिस की जाँच पडतालें कहानी अपनी कहती हैं

 *

छुपा लो मुफ़लिसी का हाल लेकिन वो नहीं छुपता

परोसी रोटियाँ दालें कहानी अपनी कहती हैं

 *

महज़ खादी पहिनने से कोई गांधी नहीं बनता

ये ओढ़ी रेशमी शालें कहानी अपनी कहती हैं

 *

है कितनी एकता घर में बयाँ मुँह से नहीं करिये

उठी घर में ये दीवालें कहानी अपनी कहती हैं

 *

उठाकर सर वजनदारी नहीं किरदार की दिखला

लचकती फल लदी डालें कहानी अपनी कहती है

 *

किन्ही को बात गोली से भी बढ़कर ज़ख्म करती है

किन्ही की मोटी पर खालें कहानी अपनी कहती हैं

 *

रिआया है अरुण खुशहाल पाते हक़ सभी अपना

मग़र ये रोज़ हड़तालें कहानी अपनी कहती है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ये मिट्टी की महक… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – ये मिट्टी की महक।)

✍ ये मिट्टी की महक… ☆ श्री हेमंत तारे  

उधर चश्म पूरनम हुई तो बादल याद आ गये

इधर, हसीं पैकर औ चंद नाम याद आ गये

माना के गुजरा वक्त कभी लौट आता नहीं

मगर संग- स॔ग गुजारे जमाने याद आ गये

 *

बारिश मौसम तो है, सुकूँ भी है यार

वजह जो भी हो, वो ख़मदार – गैसू याद आ गये

 *

ये मिट्टी की महक औ बून्दो की छमाछम

इक छाते तले तै किये फ़ासिले याद आ गये

 *

जो देखा उस बेफिक्र को सिगरेट जलाते

वो ना-आक़िबत भरे दिन मुझको याद आ गये

 *

मुन्तजिर हूँ “हेमंत” सियाह अब्र बरसते रहे

वो आवारगी में गुजारे जमाने याद आ गये

(पैकर = चेहरे, ख़मदार- गैसू = घुंघराले बाल, ना-आक़िबत = अविवेक)

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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