हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 56 – देश-परदेश – आज का मक्खन ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 56 ☆ देश-परदेश – आज का मक्खन ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज सांय रेडियो पर एक गीत “ओ मेरे मखना मेरी सोनिए” बज रहा था, तो मक्खन शब्द पर मन में अनेक विचार आने लगे। हमारे परिवार में एक बुजुर्ग भी “मक्खन लाल” के नाम से जाने जाते थे। जब नौकरी आरंभ हुई तो वरिष्ठ साथी कहने लगे मक्खन लगाना सीख लो, तभी ऊंचाई तक पहुंच पाओगे।

अब तो नाश्ते में भी “ब्रैड बटर” को प्रमुखता दी जाती हैं।

विगत दो दशकों से “ढाबा” संस्कृति का चलन बहुत अधिक हो गया हैं। घर का भोजन छोड़ बाहर के भोजन को प्राथमिकता दी जाने लगी है। आजकल किसी भी ढाबे पर जाओ मक्खन दिल खोल कर खिला रहा है। खाने के साथ कटोरी में या परांठों के ऊपर मक्खन के बड़े से क्यूब रख दिए जाते हैं या फिर इस मक्खन को दाल और सब्जियों के ऊपर गार्निश की तरह डाल दिया जाता है।  

खाने वाले गदगद हो जाते हैं कि देखो क्या कमाल का होटल है पूरा पैसा वसूल करवा रहा है।

ये मक्खन नहीं सबसे घटिया पाम आयल से बनी मार्जरीन है।

बटर टोस्ट, दाल मखनी, बटर ऑमलेट, परांठे, पाव भाजी, अमृतसरी कुल्चे, शाही पनीर, बटर चिकन और ना जाने कितने ही व्यंजनों में इसे डेयरी बटर की जगह इस्तेमाल किया जा रहा है और आपसे दाम वसूले जा रहे हैं डेयरी बटर के।

कुछ लोगों को ढाबे पर दाल में मक्खन का तड़का लगवाने और रोटियों को मक्खन से चुपड़वा कर खाने की आदत होती है। उनकी तड़का दाल और बटर रोटी में भी यही घटिया मार्जरीन होती है।    

लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए इसे जीरो कोलेस्ट्रॉल का खिताब भी हासिल है। क्योंकि मेडिकल लॉबी ने लोगों के दिमाग में ठूंस दिया है कि बैड कोलेस्ट्रॉल ह्रदय आघात का प्रमुख कारण है। इसीलिये आजकल जिस भी चीज पर जीरो कोलेस्ट्रॉल लिखा होता है जनता उसे तुरंत खरीद लेती है। इस प्रकार के उत्पाद जो किसी असली चीज का भ्रम देते हैं उनपर सरकार को कोई ठोस नियम बनाना चाहिए।

सरकार को चाहिये इस मार्जरीन का रंग डेयरी बटर के रंग सफ़ेद और हल्के पीले के स्थान पर भूरा आदि करने का नियम बनाये जिससे लोगों को इस उत्पाद को पहचानने में सुविधा हो ताकि उन्हें मक्खन के नाम पर कोई मार्जरीन ना खिला सके… आप मार्जरीन के बारे मे और अधिक गूगल पर सर्च कर सकते है यह मक्खन नहीं है।

इसलिए बाज़ार के मक्खन का उपयोग दूसरों को लगाने में ही करें। आपके अटके हुए कार्य इत्यादि जल्द पूरे हो जाएंगे। यदि मक्खन खाना है, तो घर में बनाया हुआ ही खाए और स्वस्थ रहें।

मदनगंज किशनगढ़ (राजस्थान) में “पहाड़िया” के मक्खन वड़े बहुत प्रसिद्ध होते हैं। कहते हैं, सबके साथ खाने से जल्दी हजम हो जाते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 186 ⇒ आंख से टपकी जो चिंगारी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आंख से टपकी जो चिंगारी”।)

?अभी अभी # 186 ⇒ आंख से टपकी जो चिंगारी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सुबह सुबह विविध भारती लगाया, तो ये शब्द कानों में पड़े;

आंख से टपकी जो चिंगारी

हर आंसू में छवि तुम्हारी।

ऐसा लगा आंसू आंख से नहीं, आकाश से टपका हो। मेरा पूरा ध्यान केवल एक शब्द “टपकी” पर टिक गया। मेरे कानों ने टपकने की आवाज साफ सुनी, क्योंकि यह शब्द रफी साहब ने टपकाया था।

गीतकार तो गीत लिख देता है, फिर उसकी धुन संगीतकार बनाता है और गायक उसको गाता है।

यह एक शब्द की यात्रा है, जो जब किसी धुन में बांधकर किसी गायक के गले से बाहर निकलता है, तो अमर हो जाता है। ये आंसू मेरे दिल की जुबान है।।

अक्सर जब हम किसी गीत को सुनते हैं, तो अनायास ही बहते बहते किसी जगह ठहर जाते हैं, कभी कोई शब्द हमें छू जाता है, तो कभी कोई धुन। और कहीं गायक का अंदाज हमें मंत्रमुग्ध कर देता है।

रफी साहब के बारे में कहा जाता है कि वे गीत को अपनी स्टाइल में नहीं, अदाकार की स्टाइल में गाया करते थे। उनके मन में सभी संगीतकारों के लिए सम्मान था, और उन्हें भी इतनी छूट थी कि वे गाने को अपने हिसाब से गाएं। और शायद इसी कारण जब उनकी आवाज में आंख से चिंगारी टपकी, तो उस पर मेरा ध्यान चला गया। “टपकी” उन्होंने जिस अंदाज़ में गाया, यह उनका अपना अंदाज था, अपना प्रयोग था।।

पूरा गीत एक ठहराव लिए हुए है। लगता है मानो पूरा गीत रफी साहब ने आंसुओं में डूबकर ही गाया है। और अगर संगीत की भाषा में कहें तो आंसुओं में बहते बहते गाया है। धुन भी इतनी प्यारी और दर्द भरी, कि बस सुनने और गुनगुनाने का मन करे।

गीत में केवल तीन अंतरे हैं, लेकिन पूरे आंसुओं की दास्तान कह जाते हैं। जो आंसुओं की जबान जानता है, वही इस दर्द को महसूस कर सकता है, जब आंख से आंसू नहीं चिंगारी टपकती है। रफी साहब उस दर्द को महसूस करते हुए जब अपना सारा गायकी का हुनर “टपकी” पर लगा देते हैं, तो यह गीत अमर हो जाता है। ऐसे कमाल रफी साहब अक्सर अपने गीतों में किया करते हैं ;

आंख से टपकी जो चिंगारी

हर आंसू में छवि तुम्हारी।

चीर के मेरे दिल को देखो

बहते लहू में प्रीत तुम्हारी।।

ये जीवन जैसे सुलगा तूफान है …

हसरत जयपुरी, शंकर जयकिशन और इनके हमराही रफी साहब ने मिलकर ये आंसुओं का सैलाब जो बहाया है, उसके बारे में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि ये गीत मानो बहते आंसुओं का प्रवाह है …!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ नवरात्रि पर्व विशेष – नवरात्रि पर्व – घटस्थापना, दर्शन और विज्ञान ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

☆ आलेख ☆ नवरात्रि पर्व विशेष – नवरात्रि पर्व – घटस्थापना, दर्शन और विज्ञान ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

इस वर्ष 15 अक्टूबर से 2023 से नवरात्रि पर प्रारंभ हो रहा है जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है यह 9 रातों का त्यौहार है। हम सभी जानते हैं कि इस त्यौहार में हम दुर्गा मां और उनके विभिन्न रूपों का अध्ययन एवं आराधना करते हैं। मां दुर्गा की आराधना का यह त्यौहार वर्ष में 4 बार आता है। दो बार गुप्त नवरात्रि और दो बार नवरात्रि के रूप में।

विक्रम संवत के वर्ष का प्रारंभ  चैत्र मास की शुक्ल  पक्ष की परिवा से होता है। और इसी दिन से चैत्र मास की नवरात्रि भी प्रारंभ होती है। ऐसा माना जाता है कि चैत्र शुक्ल पक्ष के नवमी के दिन भगवान राम का धरती पर अवतरण हुआ था। इस नवरात्रि को वासंतिक नवरात्रि कहते हैं।

दूसरी प्रकट नवरात्रि को हम शारदीय नवरात्रि कहते हैं। यह अश्वनी  माह के शुक्ल पक्ष के प्रतिपदा से प्रारंभ होता है। इस वर्ष यह 15 अक्टूबर से प्रारंभ हो रही है।

पहली गुप्त नवरात्रि आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से तथा दूसरी गुप्त नवरात्रि माघ मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारंभ होती है।

नवरात्रि घटस्थापना  के नियम :-

1-देवी भागवत के अनुसार अगर अमावस्या और प्रतिपदा एक ही दिन पड़े तो उसके अगले दिन पूजन और घट स्थापना की जाती है।

2-विष्णु धर्म  नाम के ग्रंथ के अनुसार सूर्योदय से 10 घटी तक प्रातः काल में घटस्थापना शुभ होती है।

3-रुद्रयामल नाम के ग्रंथ के अनुसार यदि प्रातः काल में चित्रा नक्षत्र या वैधृति योग हो तो उस समय घट स्थापना नहीं की जाती है अगर इस चीज को टालना संभव ना हो तो अभिजीत मुहूर्त में घट स्थापना की जाएगी।

4- देवी पुराण के अनुसार देवी की देवी का आवाहन प्रवेशन नित्य पूजन और विसर्जन यह सब प्रातः काल में करना चाहिए।

5-निर्णय सिंधु नाम के ग्रंथ के अनुसार यदि प्रथमा तिथि वृद्धि हो तो प्रथम दिन घटस्थापना करना चाहिए।

 वर्ष 2023 के शारदीय नवरात्र के घट स्थापना का मुहूर्त:-

उपरोक्त नियमों को ध्यान में रखते हुए  हम घटस्थापना के मुहूर्त का शोध करेंगे। नियम  क्रमांक 2 विष्णु धर्म ग्रंथ के अनुसार 10 घड़ी के अंदर घटस्थापना की जानी चाहिए। 15 अक्टूबर को सूर्योदय 6:21 पर होगा  अतः 10 घड़ी 10: 21 मिनट पर समाप्त होगी। अतः इस नियम के अनुसार घटस्थापना 10:21 के पहले कर लेनी चाहिए।

15 अक्टूबर को  चित्रा नक्षत्र है और नियम  तीन के अनुसार घट स्थापना का कार्य चित्रा नक्षत्र में नहीं करना चाहिए। अतः 10:21 तक घट स्थापना करना संभव नहीं है। इसी नियम के अनुसार घटस्थापना का  कार्य अभिजीत मुहूर्त में करना चाहिए जो की सागर के पंचांग के अनुसार 11:38 से 12:24 तक है। अतः सागर में घटस्थापना 11:38 से 12:24 दोपहर के बीच में किया जाना चाहिए। अन्य स्थानों के लिए अक्षांश देशांतर के अनुसार समय में थोड़ा सा परिवर्तन होगा।

नवरात्रि का दार्शनिक पहलू:-

देवी भागवत के अनुसार देवी मां ने सबसे पहले  महिषासुर के सेना का वध किया था। उसके बाद उन्होंने महिषासुर का वध किया। महिषासुर का अर्थ होता है ऐसा असुर जोकि भैंसें के गुण वाला है अर्थात जड़  बुद्धि है। महिषासुर का विनाश करने का अर्थ है समाज से जड़ता का संहार करना। समाज को इस योग्य बनाना कि वह नई बातें सोच सके तथा निरंतर आगे बढ़ सके।

समाज जब आगे बढ़ने लगा तो आवश्यक था कि उसकी दृष्टि पैनी होती तथा वह दूर तक देख सकता। अतः तब माता ने धूम्रलोचन का वध कर समाज को दिव्य दृष्टि दी। धूम्रलोचन का अर्थ होता है धुंधली दृष्टि। इस प्रकार माता जी  ने धूम्र लोचन का वध कर समाज को दिव्य दृष्टि प्रदान की।

समाज में जब ज्ञान आ जाता है उसके उपरांत बहुत सारे तर्क वितर्क होने लगते हैं। हर बात के लिए कुछ लोग उस के पक्ष में तर्क देते हैं और कुछ लोग उस के विपक्ष में तर्क देते हैं। समाज की प्रगति और अवरुद्ध जाती है। चंड मुंड इसी तर्क और वितर्क का प्रतिनिधित्व करते हैं। माता ने चंड मुंड का संहार कर समाज को बेमतलब के तर्क वितर्क से आजाद कराया।

समाज में नकारात्मक ऊर्जा के रूप में मनोग्रंथियां आ जाती हैं। रक्तबीज इन्हीं मनोग्रंथियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिस प्रकार एक रक्तबीज को मारने पर अनेकों रक्तबीज पैदा हो जाते हैं उसी प्रकार एक नकारात्मक ऊर्जा को समाप्त करने पर हजारों तरह की नकारात्मक ऊर्जा पैदा होती है। जिस प्रकार सावधानी से रक्तबीज को मां दुर्गा ने समाप्त किया उसी प्रकार नकारात्मक ऊर्जा को भी सावधानी के साथ ही समाप्त करना पड़ेगा।

नवरात्र के 9 दिन अलग-अलग देवियों की आराधना की जाती है। नवरात्र का हर दिन मां के विशिष्ट स्वरूप को समर्पित होता है और हर स्वरूप की महिमा अलग-अलग होती है। आदि शक्ति के हर स्वरूप से अलग-अलग मनोरथ पूर्ण होते हैं। यह पर्व नारी शक्ति की आराधना का पर्व है।

नवरात्रि और विज्ञान

हमारे पुराने ऋषि मुनियों ने हर चीज को बड़ी सोच समझ कर बनाया था हमारे जो भी त्यौहार हैं उनके पीछे एक वैज्ञानिक महत्व भी है नवरात्र त्यौहार के पीछे भी वैज्ञानिक महत्व है जिसको मैं आपको आगे बताऊंगा।

15 अक्टूबर 2023 से शारदीय नवरात्रि का पर्व प्रारंभ हो रहा है और इन नौ दिनों में निम्न अनुसार देवियों की पूजा की जावेगी। :-

15 अक्टूबर – घटस्थापना, मां शैलपुत्री की पूजा

16 अक्टूबर दूसरे दिन – मां ब्रह्मचारिणी

17 अक्टूबर तीसरे दिन – मां चंद्रघंटा

18 अक्टूबर चौथे दिन – मां कूष्मांडा

19 अक्टूबर पांचवे दिन – मां स्कंदमाता

20 अक्टूबर छठवें दिन – मां कात्यायनी

21 अक्टूबरसातवें दिन – मां कालरात्रि

22 अक्टूबर आठवें  दिन – मां महागौरी

23 अक्टूबर नवें दिन – मां सिद्धिदात्री

 

आइये अब हम इसके वैज्ञानिक पक्ष पर चर्चा करते हैं।

नवरात्र के वैज्ञानिक पक्ष की तरफ अगर हम ध्यान दें तो हम पाते हैं कि दोनों प्रगट नवरात्रों के बीच में 6 माह का अंतर है। चैत्र नवरात्रि के बाद गर्मी का मौसम आ जाता है तथा शारदीय नवरात्रि के बाद ठंड का मौसम आता है। हमारे महर्षियों ने शरीर को गर्मी से ठंडी तथा ठंडी से गर्मी की तरफ जाने के लिए तैयार करने हेतु इन नवरात्रियों की प्रतिष्ठा की है। नवरात्रि में व्यक्ति पूरे नियम कानून के साथ अल्पाहार एवं शाकाहार  या पूर्णतया निराहार व्रत रखता है। इसके  कारण शरीर का डिटॉक्सिफिकेशन होता है। अर्थात शरीर के जो भी विष तत्व है वे बाहर हो जाते हैं। पाचन तंत्र को आराम मिलता है। लगातार 9 दिन के  आत्म अनुशासन की पद्धति के कारण मानसिक स्थिति बहुत मजबूत हो जाती है। जिससे डिप्रेशन, माइग्रेन, हृदय रोग आदि बीमारियों  के होने की संभावना कम हो जाती है।

वर्ष के बीच में जो हम एक-एक दिन का व्रत करते हैं उससे मानसिक स्थिति मजबूत नहीं हो पाती है केवल पाचन तंत्र पर ही उसका प्रभाव पड़ता।

नवरात्रि में दिन से ज्यादा रात्रि का महत्व है:-

नवरात्रि में दिन से ज्यादा रात्रि के महत्व होने का  विशेष कारण है। नवरात्रि में हम व्रत संयम नियम यज्ञ भजन पूजन योग साधना बीज मंत्रों का जाप कर सिद्धियों को प्राप्त करते हैं। हम देखते हैं अगर हम दिन में आवाज दें तो वह कम दूर तक जाएगी परंतु रात्रि में वही आवाज दूर तक जाती है। दिन में सूर्य की किरणें आवाज की तरंगों को और रेडियो तरंगों को आगे बढ़ने से  रोकती है। अगर हम किसी रेडियो से दिन में गाने सुने सुन तो वह रात्रि में उसी रोडियो से उसी स्टेशन के गाने से कम अच्छा सुनाई देगा। दिन में वातावरण में कोलाहल रहता है जबकि रात में शांति रहती है। इसी शांत वातावरण के कारण नवरात्रि में  सिद्धि हेतु रात का ज्यादा महत्व दिया गया है।

हमारे शरीर में 9 द्वार हैं। 2 आंख, दो कान, दो  नाक, एक मुख, एक मलद्वार, तथा एक मूत्र द्वार। नौ द्वारों को सिद्ध करने हेतु तथा पवित्र करने हेतु नवरात्रि के पर्व का विशेष महत्व है। नवरात्रि में किए गए पूजन अर्चन तप यज्ञ हवन आदि से यह नौ  द्वार शुद्ध होते हैं।

नवरात्रि हमें यह भी संदेश देती है की सफल होने के लिए सरलता के साथ ताकत भी आवश्यक है जैसे माता के पास कमल के साथ चक्र एवं त्रिशूल आदि हथियार भी है समाज को जिस प्रकार  कमलासन की आवश्यकता है उसी प्रकार सिंह अर्थात ताकत, वृषभ अर्थात गोवंश, गधा अर्थात बोझा ढोने वाली ताकत, तथा पैदल अर्थात स्वयं की ताकत सभी कुछ आवश्यक है।

 

मां दुर्गा से प्रार्थना है कि वह आपको पूरी तरह सफल करें। आप इस नवरात्रि में  जप तप पूजन अर्चन कर मानसिक एवं शारीरिक दोनों रुप में आगे के समय के लिए पूर्णतया तैयार हो जाएं।

आपसे अनुरोध है कि इस आलेख के बारे में आपके विचारों से हमें अवश्य अवगत कराएं।

मां शारदा से प्रार्थना है या आप सदैव स्वस्थ सुखी और संपन्न रहें।

 

जय मां शारदा।

निवेदक:-

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 213 – सार्थक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 213 सार्थक ?

जीवन मानो एक दौड़ है। जिस किसी से पूछो, कहता है; वह दौड़ना चाहता है, आगे बढ़ना चाहता है। फिर बताता है कि अब तक जीवन में कितना आगे बढ़ चुका है। अलबत्ता कभी विचार किया कि आगे यानी किस ओर बढ़ रहे हैं? मनुष्य प्रतिप्रश्न दागता है कि यह कैसा निरर्थक विचार है? स्वाभाविक है कि जीवन की ओर बढ़ रहे हैं। सच तो यह है कि प्रश्न तो सार्थक ही था पर मनुष्य का उत्तर नादानी भरा है। जीवन की ओर नहीं बल्कि मनुष्य मृत्यु की ओर बढ़ रहा होता है।

भयभीत या अशांत होने के बजाय शांत भाव से तार्किक विचार अवश्य करना चाहिए। मनुष्य चाहे न चाहे, कदम बढ़ाए, न बढ़ाए, पहुँचेगा तो मृत्यु के पास ही। मनुष्य के वश में यदि पीछे लौटना होता तो वह बार-बार लौटता, अनेक बार लौटता, मृत्यु तक जाता ही नहीं, फिर लौट आता, चिरंजीवी होने का प्रयास करता रहता।

स्मरण रखना, मृत्यु का कोई एक गंतव्य नहीं है,  बल्कि यात्रा का हर चरण मृत्यु का स्थान हो सकता है, मृत्यु का अधिष्ठान हो सकता है। विधाता जानता है मनुष्य की वृत्ति, यही कारण है कि कितना ही कर ले जीव, पीछे लौट ही नहीं सकता। जिज्ञासा पूछती है कि लौट नहीं सकते तो विकल्प क्या है? विकल्प है, यात्रा को सार्थक करना।

सार्थक जीने का कोई समय विशेष नहीं होता। मनुष्य जब अपने अस्तित्व के प्रति चैतन्य होता है, फिर वह अवस्था का कोई भी पड़ाव हो, उसी समय से जीवन सार्थक होने लगता है।

एक बात और, यदि जीवन में कभी भी, किसी भी पड़ाव पर मृत्यु आ सकती है तो किसी भी पड़ाव पर जीवन आरंभ क्यों नहीं हो सकता? इसीलिए कहा है,

कदम उठे,

यात्रा बनी,

साँसें खर्च हुईं

अनुभव संचित हुआ,

कुछ दिया, कुछ पाया

अर्द्धचक्र पूर्ण हुआ,

भूमिकाएँ बदलीं-

शेष साँसों को

पाथेय कर सको

तो संचय सार्थक है

अन्यथा

श्वासोच्छवास व्यर्थ है..!

ध्यान रहे, जीवन में वर्ष तो हरेक जोड़ता है पर वर्षों में जीवन बिरला ही फूँकता है। आपका बिरलापन प्रस्फुटन के लिए प्रतीक्षारत है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज  दि. 15 अक्टूबर 2023 से नवरात्रि साधना आरंभ होगी। इस साधना के लिए मंत्र इस प्रकार होगा-

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता,

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

🕉️ 💥 देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करे। अपेक्षित है कि नवरात्रि साधना में साधक हर प्रकार के व्यसन से दूर रहे, शाकाहार एवं ब्रह्मचर्य का पालन करे। सदा की भाँति आत्म-परिष्कार तथा ध्यानसाधना तो चलेंगी ही। मंगल भव। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 185 ⇒ दर और द्वार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दर और द्वार”।)

?अभी अभी # 185 ⇒ दर और द्वार? श्री प्रदीप शर्मा  ?

किसी के दर तक तो पहुंच गए, लेकिन अगर द्वार ही बंद हो, तो दस्तक तो देनी ही पड़ती है ;

आशिक हूं तेरे दर का

ठुकरा मुझे ना देना।

आया हूं बन भिखारी

झोली तो भर ही देना।।

अतिथि तो भगवान होता है। पता पूछते पूछते घर तक तो आ गए, द्वार भी खुले मिले, फिर भी आपको देहरी तो लांघनी ही पड़ेगी। देहरी को ड्यौढ़ी भी कहते हैं। दर और द्वार की यह लक्ष्मण रेखा है। वहीं पहले स्वागत होता है, उसके पश्चात् ही गृह प्रवेश होता है।

मंदिर की भी चौखट होती है, मंदिर के द्वार भी होते हैं, और ठाकुर जी के पट जब खुलते हैं, तब ही दर्शन हो पाते हैं। जब उनसे कुछ मांगना होता है, तो चौखट पर नाक भी रगड़नी पड़ती है। परमात्मा से कैसी लाज, कैसी शरम।।

कभी कभी उल्टी गंगा भी बह जाती है। तेरे द्वार खड़ा भगवान, भगत भर दे रे झोली। यह जीव नहीं जानता, उसके दर पर जो खड़ा है, वह दाता है या भिखारी। जब कि सच तो यह है, भिखारी सारी दुनिया, दाता एक राम।

आजकल द्वार, door अथवा दरवाजा कहलाता है, देहरी का भी कुछ पता नहीं, बस एक डोअरमेट नजर आती है, घर के बाहर। कोई कुंडी नहीं, कोई सांकल नहीं, डोअरबेल बजाई जाती है।। दरवाजे के पहले दो पाट होते थे, दरवाजा आधा भी खोला जा सकता था, आज का द्वार वन पीस होता है।

जिसमें सुरक्षा के लिए ना केवल एक की होल बना होता है, बाहर सीसीटीवी कैमरे और डोअर अलार्म आगंतुक की पूर्व सूचना भी दे देता है। कहीं कोई साधु के वेश में रावण ना हो।।

लेकिन इसी जीव की कभी ऐसी भी अवस्था आती है जब सजन के लिए द्वार नहीं खोलना पड़ता और ना ही अपने प्रीतम प्यारे के लिए दर दर भटकना पड़ता है। जब खिड़की है तो द्वार का क्या काम ;

जरा मन की किवड़िया खोल

सैंया तोरे द्वारे खड़े …

मीरा जानती थी, इस भेद को, और शायद इसीलिए वह इतने सरल शब्दों में गूढ़ ज्ञान की बात कर पाई ;

घूंघट के पट खोल रे

तोहे पिया मिलेंगे।

धन जोबन का गरब ना कीजे

झूठा इनका मोल रे

तोहे पिया मिलेंगे।।

अज्ञान, अस्मिता और अहंकार का पर्दा ही तो वह घूंघट है, जिसे हमें हटाना है। अगर हमारे मन का द्वार खुला है, तो मन के मीत को क्या जरूरत हमारे दर पर आकर, द्वार पर दस्तक देने की। बैक डोअर एंट्री कहें, अथवा इमरजेंसी डोअर, मकसद तो दीदारे यार से है। जरा हसरत तो देखिए इस दीवाने की ;

मन मंदिर में तुझको बिठा के

रोज करूंगा बातें।

शाम सवेरे हर मौसम में

होगी मुलाकातें।।

यह हर पल जागने का, इंतजार का खेल है।

दर हो या द्वार, अंदर हो या बाहर, बस एक आस, एक विश्वास ;

जरा सी आहट होती है

तो दिल सोचता है

कहीं ये वो नहीं

कहीं ये वो तो नहीं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 184 ⇒ किलकारी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किलकारी”।)

?अभी अभी # 184 ⇒ किलकारी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बहुत दिनों बाद एक बच्चे की किलकारी सुनी। किसी के लिए भले ही यह एक रोजमर्रा का अहसास हो, जो बच्चों के बीच रहते हैं, उन्हें संभालते, पालते पोसते रहते हैं, कई नर्सरी और केजी स्कूल होते हैं, बाग बगीचे होते हैं, जहां बच्चों को हंसते खेलते, मुस्कुराते, किलकारी मारते देखा जा सकता है।

आपको अगर प्रकृति के करीब जाना है, तो कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं, बस पास के किसी बच्चे के पास चले जाइए। हम जब बच्चे थे, तो यही हमारी दुनिया थी, जैसे जैसे हम बड़े होते चले गए, बचपन दूर होता चला गया। बच्चों से जुड़ना, अपने बचपन से जुड़ना है।।

कल ही निदा फाजली का जन्मदिन था। उनकी ही गजल के कुछ शब्द हैं ;

फूलों से न तितली को उड़ाया जाए

अगर मस्जिद बहुत दूर है,

क्यूं न किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।।

बच्चे हमारी नकल करते हैं, वे हमसे ही तो सीखते हैं। लेकिन इनका बाल स्वरूप, लीला स्वरूप होता है, हम बच्चों को नहीं खिलाते, वे हमें खिलाते हैं। खेलने खाने में बहुत अंतर होता है। हमने जब से तमीज से खाना सीख लिया, हम खेलना ही भूल गए। एक बच्चे को खेलना सिखाना नहीं पड़ता, हां भूख लगने पर कुछ जबरदस्ती खिलाना जरूर पड़ता है।

बात किलकारी की हो रही थी। कोयल की कूक नहीं, लता की सुरीली आवाज नहीं, उन सबसे अलग होती है, बच्चे की एक किलकारी। अक्सर जॉन कीट्स की एक कविता Ode to a Nightingale से लिए गए वाक्यांश full throated ease का जिक्र होता है।

हिंदी में अगर उसे अभिव्यक्त किया जाए तो, पूरी सहजता, ही कहा जाएगा।।

सहजता और सरलता ही तो प्रकृति है।

इसीलिए एक बच्चे के मुख में प्रकृति ही नहीं, पूरा ब्रह्माण्ड समाया हुआ है, जिसका दर्शन सिर्फ यशोदा कर सकती है, लेकिन माया उसे वापस ढंक लेती है। प्रकृति और ईश्वर के कुछ रहस्य जाने तो जा सकते हैं, लेकिन किसी को बताए नहीं जा सकते। कह लीजिए इसे गूंगे का गुड़।

लेकिन बच्चे के साथ ऐसा कहां ! जिसे कीट्स full throated ease कहते हैं, वही पूरी सहजता एक बच्चे की किलकारी में समाई हुई है, लेकिन बच्चा कोई चाबी का खिलौना नहीं, कि इधर चाबी भरी, और उधर उसने किलकारी भरी। वह अपनी मर्जी का मालिक है, सभी हठ, अलग हट, यही तो है बालहठ।।

मंदिर जाकर बच्चा क्यों मांगा जाए, जब अपने आसपास ही किसी के घर में नन्हा बच्चा मौजूद हो।

बच्चा अमीर गरीब नहीं होता, न ही उसकी कोई जात पात होती है। वह तो स्वयं ईश्वर स्वरूप होता है।

काग के भाग तो तब ही जाग गए थे, जब वह हरि हाथ से माखन रोटी ले गया था। अगर आपके भाग भी जाग गए, तो शायद आप भी सुन लें, उसकी सहज, सरल, अकस्मात् विस्मित और चकित कर देने वाली मनमोहक किलकारी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #204 ☆ औरत की नियति ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख औरत की नियति। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 204 ☆

☆ औरत की नियति 

‘दिन की रोशनी ख्वाबों को बनाने में गुज़र गई/ रात की नींद बच्चों को सुलाने में गुज़र गई/ जिस घर में मेरे नाम की तख्ती भी नहीं/ मेरी सारी उम्र उस घर को सजाने में गुज़र गई।’ जी हां! यह पंक्तियां हैं अतुल ओबरॉय की,जिसने महिलाओं के दर्द को आत्मसात् किया; उनके दु:ख को समझा ही नहीं,अनुभव किया और उनके कोमल हृदय से यह पंक्तियां प्रस्फुटित हो गयीं; जो हर औरत के जीवन का सत्य व कटु यथार्थ हैं। वैसे तो यदि हम ‘औरत’ शब्द को परिभाषित करें तो उसका शाब्दिक अर्थ जो मैंने समझा है– ‘औरत’ औ+रत अर्थात् जो औरों की सेवा में रत रहे; जो अपने अरमानों का खून कर दूसरों के लिए जिए और उनके लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर प्रसन्नता का अनुभव करे।

यदि हम ‘नारी’ शब्द को परिभाषित करें, तो उसका अर्थ भी यही है– ना+अरि, जिसका कोई शत्रु न हो; जो केवल समझौता करने में विश्वास रखती हो; जिसमें अहं का भाव न हो और वह दूसरों के प्रति समर्पित हो। वैसे तो समाज में यही भावना बलवती होती है कि संसार में उसी व्यक्ति का मान-सम्मान होता है,जिसने जीवन में सर्वाधिक समझौते किए हों और औरत इसका अपवाद है। जीवन संघर्ष का पर्याय है। परंतु उसे तो जन्म लेने से पूर्व ही संघर्ष करना पड़ता है,क्योंकि लोग भ्रूण-हत्या कराते हुए डरते नहीं–भले ही हमारे शास्त्रों में यह कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति को कुम्भीपाक नरक प्राप्त होता है। दुर्भाग्यवश यदि वह जन्म लेने में सफल हो जाती है; घर में उसे पग-पग पर असमानता-विषमता का सामना करना पड़ता है और उसे बचपन में ही समझा दिया जाता है कि वह घर उसका नहीं है और वह वहां चंद दिनों की मेहमान है। तत्पश्चात् उसे स्वेच्छा से उस घर को छोड़कर जाना है और विवाहोपरांत पति का घर ही उसका घर होगा। बचपन से ऐसे शब्द-दंश झेलते हुए वह उस चक्रव्यूह से मुक्त नहीं हो पाती। पति के घर में भी उसे कहाँ मिलता है स्नेह व सम्मान,जिसकी अपेक्षा वह करती है। तदोपरांत यदि वह संतान को जन्म देने में समर्थ होती है तो ठीक है अन्यथा वह बाँझ कहलाती है और परिवारजन उसे घर से बाहर का रास्ता दिखाने में तनिक भी संकोच नहीं करते। उसका जीवन साथी मौन रह कर कठपुतली की भांति उस अप्रत्याशित हादसे को देखता रहता है, क्योंकि उसकी मंशा से ही उसे अंजाम दिया जाता है। इतना ही नहीं,वह मन ही मन नववधु के स्वप्न संजोने लगता है।

सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देने के पश्चात् उसे जननी व माता का दर्जा प्राप्त होता है और वह अपनी संतान की अच्छी परवरिश हित स्वयं को मिटा डालती है। उसके दिन-रात कैसे गुज़र जाते हैं; वह सोच भी नहीं पाती।  वास्तव में दिन की रोशनी तो ख़्वाबों को सजाने व रातों की नींद बच्चों को सुलाने में गुज़र जाती है। उसे आत्मावलोकन करने तक का समय ही नहीं मिलता। परंतु वह खुली आंखों से स्वप्न देखती है कि बच्चे बड़े होकर उसका सहारा बनेंगे। सो! उसका सारा जीवन इसी उधेड़बुन में गुज़र जाता है। दिन भर वह घर-गृहस्थी के कार्यों में व्यस्त रहती है और परिवारजनों के इतर कुछ भी सोच ही नहीं पाती। उसकी ज़िंदगी ता-उम्र घर की चारदीवारी तक सिमट कर रह जाती है। परंतु जिस घर को अपना समझ वह सजाने-संवारने में लिप्त होकर अपने सुखों को तिलांजलि दे देती है; उस घर में उसे लेशमात्र भी अहमियत नहीं मिलती तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है और वह सोचने पर विवश हो जाती है कि ‘जिस घर में उसकी उसके नाम की तख्ती भी नहीं; उसकी सारी उम्र उस घर को सजाने-संवारने में गुज़र गयी।’

वास्तव में यही नियति है औरत की– ‘उसका कोई घर नहीं होता और वह सदैव परायी समझी जाती है। उन विषम परिस्थितियों में वह विधाता से प्रार्थना करती है कि ऐ मालिक! किसी को दो घर देकर उसका मज़ाक मत उड़ाना। पिता का घर उसका होता नहीं और पति के घर में वह अजनबी समझी जाती है। सो! न तो पति उसका हो पाता है; न ही पुत्र।’ अंतकाल में कफ़न भी उसके मायके से आता है और मृत्यु-भोज भी उनके द्वारा–यह देखकर हृदय चीत्कार कर उठता है कि क्या पति व पुत्र उसके लिए दो गज़ कफ़न जुटाने में अक्षम हैं? जिस घर के लिए उसने अपने अरमानों का खून कर दिया; अपने सुखों को तिलांजलि दे दी; उसे सजाया-संवारा– उस घर में उसे आजीवन अजनबी अर्थात् बाहर से आयी हुई समझा जाता है।

मुझे स्मरण हो रही हैं मैथिलीशरण गुप्त की वे पंक्तियां ‘अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी/ आँचल में है दूध और आँखों में पानी।’ इक्कीसवीं सदी में भी नब्बे प्रतिशत महिलाओं के जीवन का यही कटु यथार्थ है। वे मुखौटा लगा समाज में खुश रहने का स्वाँग करती हैं। अवमानना, तिरस्कार व प्रताड़ना उसके गले के हार बन जाते हैं और उसे आजीवन उस अपराध की सज़ा भुगतनी पड़ती है; जो उसने किया ही नहीं होता। इतना ही नहीं,उसे तो जिरह करने का अवसर भी प्रदान नहीं किया जाता,जो हर अपराधी को कोर्ट-कचहरी में प्राप्त होता है– अपना पक्ष रखने का अधिकार।

धैर्य एक ऐसा पौधा होता है,जो होता तो कड़वा है,परंतु फल मीठे देता है। बचपन से उसे हर पल यह सीख जाती है कि उसे सहना है, कहना नहीं और न ही किसी बात पर प्रतिक्रिया देनी है,क्योंकि मौन सर्वोत्तम साधना है और सहनशीलता मानव का अनमोल गुण। परंतु जब निर्दोष होने पर भी उस पर इल्ज़ाम लगा कटघरे में खड़ा किया जाता है, वह अपने दिल पर धैर्य रूपी पत्थर रख चिन्तन करती है कि मौन रहना ही श्रेयस्कर है,क्योंकि उसके परिणाम भी मनोहारी होते है। शायद! इसलिए ही लड़कियों को

प्रतिक्रिया न देने की सीख दी जाती है और वे मासूम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से आजीवन कोसों दूर रहती हैं। बचपन में वे पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे तथा विवाहोपरांत पति व पुत्र के अंकुश में रहती हैं और अपनी व्यथा-कथा को अपने हृदय में दफ़न किए इस बेदर्द जहान से रुख़्सत हो जाती हैं। नारी से सदैव यह उम्मीद की जाती है कि वह निष्काम कर्म करे और किसी से अपेक्षा न करें।

परंतु अब ज़माना बदल रहा है। शिक्षित महिलाएं सशक्त व समर्थ हो रही हैं; परंतु उनकी संख्या नगण्य है। हां! उनके दायित्व अवश्य दुगुन्ने हो गए हैं। नौकरी के साथ उन्हें पारिवारिक दायित्वों का भी वहन पूर्ववत् करना पड़ रहा है और घर में भी उनके साथ वैसा ही अमानवीय व्यवहार किया जाता है। फलत: उन्हें मानसिक प्रताड़ना सहन करनी पड़ती है।

परंतु संविधान ने महिलाओं के पक्ष में कुछ ऐसे कानून बनाए गए हैं, जिनके द्वारा वर पक्ष का उत्पीड़न हो रहा है। विवाहिता की दहेज व घरेलू-हिंसा की शिकायत पर उसके पति व परिवारजनों को जेल की सीखचों के पीछे डाल दिया जाता है; जहाँ उन्हें अकारण ज़लालत व मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। इसलिए लड़के आजकल विवाह संस्था को भी नकारने लगे हैं और आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प कर लेते हैं। इसे हवा देने में ‘लिव इन व मी टू’ का भी भरपूर योगदान है। लोग महिलाओं की कारस्तानियों से आजकल त्रस्त हैं और अकेले रहना उनकी प्राथमिकता व नियति बन गई है। सो! वे अपना व अपने परिजनों का भविष्य दाँव पर लगाने का खतरा मोल नहीं लेना चाहते।

‘अपने लिए जिए तो क्या जिए/ तू जी ऐ दिल! ज़माने के लिए।’ यह पंक्तियां औरत को हरपल ऊर्जस्वित करती हैं और साधना,सेवा व समर्पण भाव को अपने जीवन में संबल बना जीने को प्रेरित करती हैं।’ यही है औरत की नियति,जो वैदिक काल से आज तक न बदली है, न बदलेगी। सहसा मुझे स्मरण हो रही हैं वे पंक्तियां ‘चुपचाप सहते रहो तो आप अच्छे हो; अगर बोल पड़ो,तो आप से बुरा कोई नहीं।’ यही है औरत के जीवन के भीतर का कटु सत्य कि जब तक वह मौन रहकर ज़ुल्म सहती रहती है; तब तक सब उसे अच्छा कहते हैं और जिस दिन वह अपने अधिकारों की मांग करती है या अपने आक्रोश को व्यक्त करती है, तो सब उस पर कटाक्ष करते हैं; उसे बुरा-भला कहते हैं। परंतु ध्यातव्य है कि रिश्तों की अलग-अलग सीमाएं होती हैं,लेकिन जब बात आत्म-सम्मान की हो; वहाँ रिश्ता समाप्त कर देना ही उचित है,क्योंकि आत्मसम्मान से समझौता करना मानव के लिए अत्यंत कष्टकारी होता है। परंतु नारी को आजीवन संघर्ष ही नहीं; समझौता करना पड़ता है–यही उसकी नियति है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 183 ⇒ प्रशंसक… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्रशंसक”।)

?अभी अभी # 183 ⇒ प्रशंसक? श्री प्रदीप शर्मा  ?

गुण के गाहक सहस नर !

यह मनुष्य का स्वभाव है कि उसे जो चीज पसंद आती है, वह उसका प्रशंसक बन जाता है। हमें तुमसे प्यार कितना, ये हम नहीं जानते, मगर जी नहीं सकते तुम्हारे बिना ! यह हकीकत भी हो सकती है और अतिशयोक्ति भी, लेकिन इसमें भी प्रशंसा का भाव ही निहित है। गुणगान भी प्रशंसा ही है, और तो और किसी चीज का विज्ञापन भी प्रशंसा ही। भले ही प्रशंसा आजकल पेशा बन गया हो, लेकिन सच तो यह है कि प्रशंसा हर इंसान की कमजोरी है। कुछ पति इतने कंजूस होते हैं कि दुनिया भर की तारीफ करेंगे, लेकिन कभी अपनी पत्नी की प्रशंसा में एक शब्द नहीं बोलेंगे। दो मीठे बोल ही तो प्रशंसा है। प्रशंसा जीवन का टॉनिक है। तारीफ करूं क्या उसकी जिसने तुम्हें बनाया। हम सब में एक प्रशंसक छुपा है।

कल अमिताभ बच्चन के प्रशंसकों का दिन था। अमिताभ की एक पुरानी फिल्म थी, सौदागर, जरा उसके इस गीत पर गौर फरमाइए ;

हर हंसीं चीज का मैं तलबगार हूं।

रस का, फूलों का,

गीतों का बीमार हूं।।  

कुछ ऐसे ही भाव इस गीत में भी देखे जा सकते हैं ;

आने से उसके आए बहार

जाने से उसके जाए बहार

बड़ी मस्तानी है, मेरी महबूबा।

मेरी जिंदगानी है, मेरी महबूबा ;

रुत ये सुहानी है, मेरी महबूबा।।  

एक प्रशंसक कोई संपादक, समीक्षक, आलोचक अथवा समाज सुधारक नहीं होता। एक प्रशंसक के लिए कोई स्कूल, कॉलेज नहीं, कोई कोचिंग क्लास नहीं, कोई डिग्री डिप्लोमा नहीं, उसका कवि, लेखक अथवा साहित्यकार होना भी जरूरी नहीं ! एक अंगूठा छाप, निरक्षर भी किसी का प्रशंसक हो सकता है। प्रशंसा पर किसी का कॉपीराइट नहीं।।  

प्रेम में तो फिर भी ढाई अक्षर है, फैन जी हां, फैन में तो सिर्फ दो अक्षर है।

किसी का मुरीद होना, अथवा प्रशंसक होना क्या इतना आसान है। हमें पता ही नहीं चलता, हम कब किसके प्रशंसक बन जाते हैं। उसकी तारीफ के पुल बांधने लगते हैं, उसकी बुराई नहीं सुन सकते, लोगों से लड़ने लग जाते हैं। क्या किसी का प्रशंसक होना, उसकी गिरफ्त में होना नहीं। ऐसे ही प्रशंसक जब किसी गलत व्यक्ति या विचारधारा के प्रशंसक हो जाते हैं, तो गिरफ्तार भी हो जाते हैं।

मैं भी एक इंसान हूं, और किसी का प्रशंसक भी ! एक लंबी चौड़ी फेहरिस्त है, जो अगर शुरू हुई, तो खत्म होने का नाम नहीं लेगी। कहीं मेरी स्मरण शक्ति जवाब दे देगी तो कहीं मेरे शब्द और मेरी जुबां। एक शब्द है चुनिंदा जिसमें शामिल हैं मोहम्मद रफी, महमूद और अमीन सयानी, लता, सुरैया और खुर्शीद, मंटो, मोहन राकेश और शैलेश मटियानी, अज्ञेय, निर्मल वर्मा और कृष्ण बलदेव वेद, परसाई, शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल, विनोद खन्ना, जगजीत सिंह और गिरीश कर्नाड। पंडित जसराज, भीमसेन जोशी और कुमार गंधर्व, साहिर, शैलेंद्र और संगीतकार उषा खन्ना।।  

जो इन चुनिंदा में शामिल नहीं, उन सबमें वे शामिल हैं, जिनके आप भी प्रशंसक हैं। सूर, तुलसी, कबीर और मीरा बाई के तो सब प्रशंसक हैं, अगर छूट जाती हैं तो सहजोबाई। इन्हें सुना नहीं जाता, गुना जाता है। जब किशोरी अमोणकर गाती हैं, म्हारो प्रणाम, बांके बिहारी जी, तो वही प्रशंसा स्मरण, कीर्तन और भजन में परिवर्तित हो जाती है। सहज समाधि लग जाती है।

प्रशंसा क्या है, राम का गुणगान, कृष्ण का ध्यान ही तो उस निर्गुण, निराकार, ओंकार की आराधना है। जहां साकार निरंकार एक होते हैं, यही वह सृष्टि है, वही सगुण है और वही निर्गुण।

जो घट घट में व्याप्त है, हम तो वास्तव में उसी के प्रशंसक हैं ;

जाकी रही भावना जैसी।

प्रभु मूरत, तिन देखी तैसी।।  

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 182 ⇒ आओ चिंता पालें… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आओ चिंता पालें”।)

?अभी अभी # 182 ⇒ आओ चिंता पालें? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सबकी अपनी पसंद होती है, अपने अपने शौक होते हैं। कोई कबूतर पालता है तो कोई गैया, कोई तोता पाले तो कोई पाले गवैया, कोई संगीत का शौकीन तो कोई करे ता ता थैया। क्या करें उन लोगों का, जो मुफ्त में किसी से दुश्मनी भी पालें और आस्तीन में सांप भी।

इस पापी पेट को पालना इतना आसान भी नहीं। कोई आया बच्चों की देखभाल कर अपना पेट पालती है तो कोई किसान खेती बाड़ी के साथ साथ जानवरों को भी पालता है। बेचारे बैल खेत को जोतते हैं तो गाय भैंस के दूध से किसान की आमदनी भी हो जाती है। मुर्गी पालन और कुक्कुट पालन के साथ ही साथ मधुमक्खी पालन भी कई लोगों का व्यवसाय रहता चला आया है।।

अगर इंसान के सर पर परिवार का बोझ और जिम्मेदारी है तो उसे उसकी चिंता तो पालनी ही पड़ती है। बहुत पुरानी कहावत है ;

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथै:।

न हि सुप्तस्य सिंहस्य

प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।

माना कि चिंता चिता है, चिंता से कुछ हासिल नहीं होता, लेकिन रोजमर्रा की कठिनाई और परेशानियों के बीच निश्चिंत और गैर जिम्मेदार भी तो नहीं रहा जा सकता। बड़े अरमान थे, उत्साह उत्साह में परिवार बड़ा होता चला गया, हमें तो हम दो हमारे दो में ही पसीने आ गए, जिनके हम दो हमारे नौ होंगे वे बाल बच्चों के साथ साथ कितनी चिंता और पालते होंगे।

फिर भी पालक तो पालक होता है, चाहे दो बच्चों का परिवार हो या दस बारह का। जितने बच्चे उतनी उनकी पढ़ाई लिखाई, खानपीन और बाद में शादी की चिंता। बीमारी और गरीबी में आटा अगर होता भी था, तो गीला ही होता था। आज की तरह कहां बेचारों को मुफ्त राशन नसीब होता था। आज सरकार चिंता पाल रही है, कल तक तो परेशानियों का मारा, आम इंसान ही सब चिंता पालता था ना।

तब कोई मामा न तो लाडली बहना के लिए इस तरह आकर खड़ा होता था, और ना ही वृद्धों को कोई परिवारिक पेंशन सुविधा की गारंटी थी। कितना कर्जा कर करके बेटियों की शादी की। कर्ज के मारे रात रात भर नींद अलग नहीं आती थी, और ऊपर से यह चिंता, कहीं हमारी बेटी दुखी तो नहीं।।

वास्तविक पालनहारा तो वह निर्गुण और न्यारा ही है, लेकिन चिंता की शर शैय्या पर पड़ा, काम और कर्जे का मारा एक आदमी, कोई भीष्म पितामह नहीं, जो इच्छा मृत्यु के लिए भी अपने आराध्य का इंतजार करता फिरे। चिंता ने मारे जवानी में बूढ़े जवां कैसे, गरीबी और मजबूरी खा गई, इंसां कैसे कैसे।

कहना बहुत आसान है ;

किस किसको याद कीजिए

किस किसको रोइये।

आराम बड़ी चीज है,

मुंह ढंक कर सोइये।।

कल की तुलना में आज छोटे परिवार के अलावा भी बहुत कुछ है पालने को। सुबह बच्चों के स्कूल और टिफिन की चिंता, चार रोज काम वाली बाई नहीं आएंगी उसकी चिंता। बच्चों का होमवर्क, कोचिंग, परसेंटेज और अच्छे भविष्य की चिंता, नौकरी में बॉस और दुकानदारी में नफा नुकसान की चिंता। उम्र की चिंता के साथ, बी पी, शुगर, कोलोस्ट्राल और ओव्हरवेट की चिंता।

सुबह जल्दी उठकर स्ट्रेस मैनेजमेंट के लिए योग और ध्यान के अलावा मॉर्निंग वॉक की चिंता भी हम पाल ही रहे हैं। उधर एक युद्ध से निपटे तो इधर दूसरे में गले पड़ गए। वे कहां हमारी छाती पर चढ़ रहे हैं, लेकिन एक हम जो हैं न, चिंता को न्यौता देते फिर रहे हैं। मनवा ! रात भर जाग, तबीयत से फिर देश की चिंता पाल।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ महानायक अमित जी के जन्म दिवस पर विशेष – प्रभात बेला के रंग – भाग-2 – लेखक- श्री विश्वास देशपांडे ☆ भावानुवाद – डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ आलेख – प्रभात बेला के रंग – भाग-2 – लेखक- श्री विश्वास देशपांडे ☆ भावानुवाद – डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

(महानायक श्री अमिताभ बच्चन जी के जन्मदिवस 11 अक्तूबर पर विशेष)

श्री विश्वास देशपांडे

चलिए, आज थोड़ा मुस्कुराते हैं – महानायक बीमार पड़ते हैं तब की बात बताऊँ…

कुछ देर बाद अमरीश पुरी वहाँ पहुंचते हैं। उनकी भारी भरकम आवाज गेट के बाहर से ही सुनी जा सकती है। तभी अस्पताल के रिसेप्शन काउंटर पर कोई उनका पहचान पत्र मांगता है।

बस फिर क्या था, पुरी साहब बरस पड़ते हैं, “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? मुझसे मेरा ही पहचान पत्र मांग रहे हो? खबरदार, अगर किसीने भी मुझे रोकने की कोशिश की तो!” हर कोई डर के मारे किनारे हट जाता है। अमरीश पुरी सीधे बेखटके अमिताभ के कमरे में दाखिल होते हैं। अपनी तराशी हुई कर्कश आवाज में बड़ी बड़ी ऑंखें और फैलाते हुए अमिताभ से पूछते हैं, “ऐसे ऑंखें फाड फाड कर क्या देख रहे हो? क्या मैं तुम्हें मिलने नहीं आ सकता? देखो, इस वक्त तुम बीमार हो। ‘मोगैम्बो खुश हुआ’ ये डायलॉग तो यहाँ चलेगा नहीं ना। मैं तुम्हें बस एक हफ्ते की मोहलत और देता हूँ। इस बीच अगर तुम ठीक नही हुए, तो मुझे ही कुछ करना पडेगा।” 

उनके निकलने की देर थी कि, प्रवेश द्वार पर आगमन होता है अभिनेत्री रेखा का। अरे यह क्या देखने में आ रहा है? उसके हाथ में सामान से लदे दो झोले नजर आ रहे हैं। रेखा के आने के बाद सभी ने उसका बड़े ही सलीक़े से स्वागत किया। डॉक्टरसाहब रेखा से पूछते हैं, “मैडमजी, क्या आपको जया भाभी और ऐश्वर्या से मिलना है?”‘

रेखा अपनी खनकती आवाज में जवाब देती है, “जी नहीं डाक्टरबाबू, उनसे तो मैं बाद में मिलूंगी। मुझे सबसे पहले अमितजी से मिलना है।”

एक नर्स उसे अमिताभ के कमरे में ले जाती है। रेखा को देखते ही अमिताभ के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है और जैसे ही वह उठने की कोशिश करने लगता है, तो रेखा कह उठती हैं, “जी नहीं, आप उठिए मत। आपको आराम की सख्त जरूरत है। देखिये मैंने आपके लिए कुछ लाया है। ये जो छोटा बॉक्स है न, इसमे मैंने खुद अपने हाथों से बनाये हुये कुछ मास्क हैं। आप इन्हे पहन लीजिये, जल्दी ठीक हो जायेंगे। दूसरे बॉक्स मे आपके लिये स्टीमर लायी हूँ। दिन मे दो तीन बार स्टीम लेते रहिये। और देखिये ना, आप के लिए अपने हाथों से बादाम की खीर बनाकर लाई हूँ। मुझे मालूम है, आपको बहोत पसंद है, इस जरूर खा लीजिये।” इतना सब कहते कहते रेखा की ऑंखें भर आती हैं। उन्हें पोंछते हुए वह बोलती है, “आप जल्दी ठीक हो जाइये अमितजी, बस और क्या कहूं? बाकी तो आप जानते हैं…….!”   

ऐसे में ही अस्पताल में खबर पहुँचती है कि, माननीय मुख्यमंत्रीजी अमिताभ से मिलने आ रहे हैं। नर्सें, वार्ड ब्वॉय इधर उधर भागने लगते हैं। डॉक्टर अपनी पीपीई या ऐसी ही किट पहनकर व्ही आय पी मंडली का स्वागत के लिए तैयार हो जाते हैं। सफाई कर्मियों पर अक्सर बेवजह जोर शोर से चिल्लाना जारी है। वैसे तो अमिताभ का कमरा साफ-सुथरा ही है, लेकिन फिर एक बार कीटाणुनाशक दवाइयाँ छिड़ककर और टाइल्स को घिस घिस कर पोंछते हुए उन्हें बारम्बार चकाचक चमकाया जाता है।    

मुख्यमंत्रीजी सीधे अमिताभ के कमरे में आते हैं। उनके साथ साथ डाक्टरों की टीम भी है। सी एम को देखते ही अमिताभ उठकर नमस्ते कहने की कोशिश करता है।

“अरे, आप उठिये मत। आराम करते रहिये। आप को जल्दी ठीक होना है। अब कैसा लग रहा है आपको?” 

“जी, मैं बिल्कुल ठीक हूँ।”

“कोई परेशानी तो नही है न? अगर हो तो हमें जरूर बतलाना।”

सी एम डाक्टर की ओर मुड़कर बोले, “देखिये, इनका खूब अच्छे से ख्याल रखना। अभिषेक, ऐश्वर्या और आराध्या के इलाज पर भी ठीक से ध्यान दीजिए। मुझे कोई शिकायत नहीं आनी चाहिए।”

प्रमुख चिकित्सक, “सर, हम हमारी ओर से पूरी कोशिश कर रहे हैं। आप रत्तीभर भी चिंता न करें।”

मुख्यमंत्री, “फिर ठीक है। आप कोशिश कर रहे हैं ना, करते रहना चाहिए। सावधानी बरत रहे हैं ना। सावधानी बरतना जरुरी है। सावधानी से काम लिए बगैर कैसे चलेगा? इसका ध्यान रखना सबसे ज्यादा जरुरी है। कोरोना के संकट से तो हम सभी घिरे हैं। हम सब को मिलकर उस पर काबू पाना होगा। उसके बगैर वह कैसे जायेगा?”

डाक्टर को यूँ निर्देश देने के बाद माननीय मुख्यमंत्री अपने काफिले के साथ निकल जाते हैं।  

अगले दिन सुबह सुबह अस्पताल के बाहर अभी भी कड़ी सुरक्षा जारी है। अब सुरक्षा बढ़ा दी जाती है। ब्लैक कैट कमांडो ने सम्पूर्ण इमारत पर कब्ज़ा कर लिया है। ताज़ातरीन खबर आयी है कि, माननीय प्रधान मंत्रीजी अमिताभ का हाल चाल पूछने हेतु अस्पताल को भेंट देने आ रहे हैं। सुबह के करीबन दस बजे उनका आगमन होता है। वे अपनी सुरक्षा टीम को बाहर छोड़कर अकेले ही अमिताभ से मिलने आते हैं। प्रवेश द्वार पर तैनात डाक्टरों की एक टीम अदब से उनका स्वागत करती है। चलते चलते वे डाक्टर से पूछते हैं, “कहिये, सब ठीक तो है?”

सारे डाक्टर एक स्वर में तुरंत जवाब देते हैं,”येस सर! एव्हरीथिंग इस ओके। वी आर ट्राईन्ग अवर लेवेल बेस्ट!”

पी एम अमिताभ के कमरे में आते हैं। अमिताभ पहले ही बेड पर उठ कर बैठा हुआ है। उन्हें देखते ही वह हाथ जोड़कर नमस्कार करता है। 

माननीय प्रधान मंत्रीजी, “कैसे हो? यहां कोई कमी तो नहीं?” 

“जी नहीं। यह तो हमारा सौभाग्य है कि, आप हमें देखने आये हैं।”  

“अरे ये क्या कह रहे हो अमितजी? आपकी ओर तो सम्पूर्ण देश का ध्यान लगा हुआ है। आपको तो जल्दी ठीक होना है और लोगों को सन्देश भी देना है कि, कोरोना की महामारी का आपने सफलता पूर्वक मुकाबला कैसे किया। बस, आप जल्दी ठीक हो जाईये।”

फिर अस्पताल के ही एक हॉल में प्रधानमंत्री अस्पताल की नर्सों, वार्ड बॉय और डाक्टरों को पाँच मिनट के लिए संबोधित करते हैं।

“भाइयों और बहनों, मै जानता हूँ की इस परीक्षा की घडी में आप सब जी जान से कड़ी मेहनत कर रहे हैं। पूरा ध्यान रहे कि, हमें कोरोना को हर हाल मे हराना है।  दुनिया की ऐसी कोई बीमारी नहीं है, जो ठीक नहीं हो सकती। हमें बहुत अधिक सावधानी बरतनी होगी। अपनी इम्युनिटी बढानी होगी। योग और प्राणायाम का नियमित अभ्यास इसे दूर रखने में हमारी सहायता अवश्य करेगा। हम इस बीमारी पर काबू पाने की लगातार कोशिश करेंगे। हम दुनिया को यह दिखा देंगे कि, भारत के पास हर समस्या का समाधान है और हम दुनिया का भी मार्गदर्शन कर सकते हैं। आप सभी को मेरी शुभ कामनाएँ!”

इस प्रकार माननीय प्रधान मंत्री की अस्पताल यात्रा के बाद लोगों का अमिताभ से मिलने का सिलसिला खत्म हुआ। इसके पश्चात डॉक्टर ने अन्य किसी को अमिताभ से मिलने से मनाही कर दी।

– समाप्त –  

मूल संकल्पना एवं लेखक- श्री विश्वास देशपांडे

चाळीसगाव

९४०३७४९९३२

तारीख -११ अक्टूबर २०२३

मुक्त अनुवाद (हिंदी)-डॉक्टर मीना श्रीवास्तव, ठाणे 

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

टिपण्णी – इसी लेख के जरिये हमारी ओर से अमिताभजी को उनके जनम दिन के उपलक्ष पर हमारी ओर से ढेर सारी शुभकामनाएँ, इस उम्मीद के साथ कि वे स्वस्थ रहें, जुग जुग जियें और यूँही दर्शकों का मनोरंजन करते रहें!

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares