हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 421 ⇒ खानाबदोश… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “खानाबदोश।)

?अभी अभी # 421 ⇒ खानाबदोश? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक चींटी हो या चिड़िया, सबका अपना एक मुकाम होता है, घर होता है, घरबार होता है। कोई इंसान घर को साथ लेकर नहीं चलता ! कुछ ऐसे भी लोग होते हैं, जिनका घरबार उनके साथ ही चलता है। ऐसे लोग खानाबदोश कहलाते हैं।

बहुत से लोग रेलवे प्लेटफॉर्म के बाहर और अंदर इस कदर सोते नज़र आते हैं, मानो उनका कोई घर न हो, कोई ठिकाना न हो। इनमें से कुछ मुसाफ़िर होते हैं, और कुछ ऐसे जिन्हें कहीं आना जाना ही नहीं है। प्रशासन इन पर कड़ी नजर भी रखता है, कहीं इनमें कोई असामाजिक तत्व या कोई घुसपैठिया न हो।।

किसी बंजारे अथवा खानाबदोश की ज़िंदगी आज इतनी आसान नहीं, जितनी पहले कभी रहा करती थी। ये लोग लकड़ी की बैलगाड़ी में अपनी पूरी गृहस्थी लेकर निकल पड़ते थे। सड़क के पास किसी भी पेड़ की छाँव में अपना डेरा डाला और अपने दाना पानी का इंतज़ाम शुरू। आप चाहें तो इन्हें चलित लोहार भी कह सकते हैं। ये जनजातियाँ घुमक्कड़ किस्म की होती हैं। रोजगार की तलाश में निकले ये लोग शहर के बाहर आज भी रसोई में उपयोग आने वाले लोहे के तवे, चाकू, कढ़ाई, कढ़छे लोहे की भट्टी में तपाते देखे जा सकते हैं।

ये एक दो नहीं होते ! इनका कारवाँ चलता है। स्मार्ट सिटी और आधुनिकीकरण के चलते ये आम आदमी की नज़रों से दूर होते चले जा रहे हैं। आखिर हैं तो ये भी हमारी संस्कृति के ही अंग। क्या घर परिवार को लेकर इस तरह बिना किसी गंतव्य के कहीं भी कूच किया जा सकता है। मरता क्या न करता।।

कुछ सरकारी और गैर सरकारी नौकरियां भी ऐसी होती हैं, जिनमें एक व्यक्ति को कश्मीर से कन्याकुमारी तक कहीं भी धंधे रोज़गार की खातिर जाना पड़ सकता है। एक जगह पाँव जमे नहीं कि दूसरी जगह जाने का आदेश ! अच्छी खानाबदोशों जैसी ज़िन्दगी हो जाती है इंसान की।

ज़िम्मेदारी भरी परिवार सहित यहाँ से वहाँ भटकने वाली ज़िन्दगी को आप और क्या कहेंगे। पूरे घर परिवार की सुरक्षा हर प्राणी का पहला कर्तव्य है। खुशनसीब हैं वे लोग, जिन्हें एक स्थायी और सुरक्षित ज़िन्दगी गुज़ारने का सुख हासिल है।।

एक और ज़िन्दगी होती है जिसे घुमक्कड़ों की ज़िंदगी कहते हैं। बिना किसी ख़ौफ़ अथवा चिंता-फिक्र के यहाँ से वहाँ निश्चिंत हो घूमना यायावरी की ज़िंदगी कहलाता है। इसमें इंसान घर परिवार की चिंता से मुक्त अकेला ही विचरण किया करता है। यह विचरण सोद्देश्य और निरुद्देश्य भी हो सकता है।

एक समय श्री सुरेन्द्र प्रताप सिंह के संपादकत्व में एक साप्ताहिक पत्रिका रविवार निकला करती थी। उसमें श्री वसंत पोत्दार का एक नियमित स्तंभ होता था

यायावर की डायरी ! यह डायरी कब कहाँ खुलेगी, और उसके किस पन्ने पर भारतीय जीवन का कौन सा दृश्य या किरदार प्रकट होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता था। भाषा, कंटेंट और क़िस्सागोही इस अंदाज में बयां होती थी, कि कुछ कहते न बनता था।

यायावरी का जिक्र हो और श्री देवेंद्र सत्यार्थी को याद न किया जाए, ऐसा मुमकिन नहीं !भारतीय लोकगीतों को अपनी तीन हज़ार कविताओं में संजोकर रखने का काम जो देवेंद्र सत्यार्थी ने किया है, वह एक अनूठी साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर है।।

एक यायावर की ज़िंदगी जहाँ मस्ती, रोमांच और विविधताओं से भरी है, वहीं एक खानाबदोश की ज़िंदगी असुरक्षा, अनिश्चितता और अंधेरों से घिरी है। हमारे जीवन में भी ऐसे कई क्षण आते हैं जब हम इन मानसिकताओं से गुजरते हैं। फ़िल्म रेलवे प्लेटफार्म का यह गीत हमारी यही मनोदशा दर्शाता है ;

बस्ती बस्ती परबत परबत

गाता जाए बंजारा

लेकर दिल का इक तारा।।

कितना अच्छा हो दुनिया में कोई खानाबदोश न रहे, लेकिन सब यायावर रहें! स्वच्छन्द, उन्मुक्त, निर्भय, निश्चिंत, निर्द्वन्द्व।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 420 ⇒ पार्ट टाइम/फुल टाइम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पार्ट टाइम/फुल टाइम…।)

?अभी अभी # 420 ⇒ पार्ट टाइम/फुल टाइम? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कुछ शब्द इतनी आसानी और सहजता से हमारी बोलचाल में शामिल हो गए हैं कि हम उसे किसी अन्य भाषा में न तो समझ सकते हैं, और ना ही समझा सकते हैं। पार्ट टाइम के साथ तो जॉब लगाने की भी आवश्यकता नहीं होती। जब कि नौकरी, धंधा, कृषि व्यवसाय अथवा महिलाओं का गृह कार्य फुल टाइम कहलाता है। सुविधा के लिए आप चाहें तो इन्हें अंशकालिक और पूर्णकालिक कार्य कह सकते हैं।

पार्ट टाइम में समय की सीमा होती है, बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना, संगीत और नृत्य की शिक्षा के अलावा हमारे घर की कामवालियों की भी गिनती पार्ट टाइम जॉब में ही होती है। कुछ लोग मजबूरी में, अथवा आदतन फुल टाइम जॉब और पार्ट टाइम जॉब दोनों साथ साथ करते हैं। आठ घंटों का फुल टाइम और बाकी समय में कहीं पार्ट टाइम। ।

पार्ट टाइम में जहां समय सीमा निर्धारित होती है, फुल टाइम अपने आपमें पूरी तरह स्वतंत्र है। किसी नौकरी का फुल टाइम आठ अथवा दस घंटे का भी हो सकता है, जब कि एक किसान अथवा गृहिणी फुल टाइम काम करते हुए भी समय के बंधन से बंधे हुए नहीं है। जो बेरोजगार, निकम्मे, निठल्ले अथवा नल्ले हैं, वे तो फुल टाइम फ्री हैं।

हर व्यक्ति की कार्य करने की स्थिति, कार्य का तरीका और पद्धति अलग अलग हो सकती है, कहीं मेहनत मजदूरी तो कहीं लिखने पढ़ने का काम और कहीं प्रशासनिक जिम्मेदारी। ऑफिस अवर्स में कौन फुल टाइम काम करता है, और कौन गप्पें मारता रहता अथवा चाय पीते रहता है, यह भी काम के तरीके और व्यक्ति के स्वभाव पर निर्भर करता है।।

फुल टाइम हो अथवा पार्ट टाइम, कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो अपने व्यवसाय से अलग हटकर भी कुछ काम कर गुजरते हैं, इसके लिए वे जो समय निकालते हैं, वही टाइम मैनेजमेंट कहलाता है। फुरसत का समय तो हमेशा जीवन में एक्स्ट्रा और फ्री होता है, बिल्कुल फ्री।

जितनी भी ललित कलाएं हैं, उनमें साहित्य, संगीत, कला, वास्तु और अध्यात्म जैसी अनगिनत विधाएं शामिल हैं, जो व्यक्ति के जीवन को एक सार्थक दिशा देती है। वह अपने दैनिक जीवन के पार्ट टाइम और फुल टाइम के अलावा भी कुछ समय चुरा लेता है, और इन विधाओं में पारंगत हो, समय और जीवन को एक खूबसूरत मोड़ दे देता है।।

रोजी रोटी के साथ एक समानांतर यात्रा सृजन की भी चलती रहती है, जिसमें कहीं कला है, तो कहीं संगीत, कहीं नृत्य है तो कहीं साहित्य सृजन। हर व्यक्ति के पास उतना ही समय है, कोई उसमें पैसा कमाकर भौतिक सुखों का उपभोग कर रहा है, तो कोई निःस्वार्थ रूप से समाज सेवा कर रहा है।

हम सबके पास एक जैसा फुल टाइम है तो किसी के पास पार्ट टाइम। फिर भी अपने शौक और जुनून के लिए एक्स्ट्रा टाइम सब निकाल ही लेते हैं। समय को चुराना कहां सबको आता है। हमारा खूबसूरत कला और साहित्य का संसार इन्हीं फुल टाइम और पार्ट टाइम और उसके टाइम मैनेजमेंट की ही देन है। आइए, थोड़ा समय चुराएं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 92 – देश-परदेश – Wedding/ Marriage ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 92 ☆ देश-परदेश – Wedding/ Marriage ☆ श्री राकेश कुमार ☆

सांयकालीन फुरसतिया संघ उद्यान सभा में आज इस विषय को लेकर गहन चिंतन किया गया था।

चर्चा का आगाज़ तो “खरबपति विवाह” से हुआ।भानुमति के पिटारे के समान कभी ना खत्म होने वाले विवाह से ही होना था।हमारे जैसे लोग जो किसी भी विवाह में जाने के लिए हमेशा लालियत रहते हैं, कुछ नाराज़ अवश्य प्रतीत हुए।

पंद्रह जुलाई को post wedding कार्यक्रम आयोजित किया गया है।ये कार्यक्रम अधिकतर उन लोगों के लिए होता है, जो विवाह के कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए जी जान से महीनों/वषों से लगे हुए थे।

इसको कृतज्ञता का प्रतीक मान सकते हैं। कॉरपोरेट कल्चर में भी इस तरह के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। पुराने समय में विवाह आयोजन में आसपास के परिचित लोग ही दरी इत्यादि बिछाने/उठने का कार्य किया करते थे।फिल्मी भाषा में “पर्दे के पीछे” कार्य करने वाले कहलाते हैं।

हमारे जैसे माध्यम श्रेणी के लोग विवाह को मैरिज कहते हैं। वैडिंग शब्द पश्चिम से है, इसलिए “वैडिंग बेल” का उपयोग भी पश्चिम में ही लोकप्रिय हैं। हमारे यहां तो” गेट  बेल ” बजने पर भी लोग कहने लगे है, अब कौन आ टपका है ?

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 419 ⇒ ॥ मेंटलमैन ॥… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “॥ मेंटलमैन ॥ ।)

?अभी अभी # 419 ॥ मेंटलमैन ॥ ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

(*mentalman)

सभ्य और सज्जन पुरुष को अंग्रेजी में जेंटलमैन कहते हैं। Gentle शब्द से ही तो बना है जेंटलमैन। जैंटल का अर्थ सौम्य भी होता है। सौम्य अर्थात् गंभीर और कोमल स्वभाव का सुशील, शांत, नम्र।

सौम्य एवं सौम्या भारतीय नाम है। उत्तर एवं पूर्वी भारत में यह पुरुषवाचक रूप सौम्य में अधिक प्रयुक्त होता है और दक्षिण भारत में यह महिलासूचक रूप सौम्या में अधिक उपयोग होता है। सौम्य का मतलब कोमल, मुलायम, मृदुल है। सौम्य का अर्थ ‘सोम के पुत्र’ से भी है। [1] संस्कृत में ‘चन्द्र’ को सोम कहा जाता है अतः इसका अर्ध चन्द्र का पुत्र ‘बुध’ होता है। लेकिन सौम्य का शब्दिक अर्थ शुभग्रह है।।

संक्षिप्त में, हम शरीफ व्यक्ति को जेंटलमैन कह सकते हैं, जो किसी के लेने देने में नहीं पड़ता, केवल अपने काम से काम रखता है ;

शरीफ़ों का ज़माने में

अजी बस हाल वो देखा

कि शराफ़त छोड़ दी मैने।।

लेकिन जो सज्जन पुरुष होते हैं, वे किसी भी परिस्थिति में भलमनसाहत नहीं छोड़ते ;

इसको ही जीना कहते हैं तो यूँ ही जी लेंगे।

उफ़ न करेंगे लब सी लेंगे

आँसू पी लेंगे।।

दुख को पीना, विपरीत परिस्थितियों में भी सत्य की राह पर चलना इतना आसान नहीं होता। जिसके कारण मन में चिंता, अवसाद और घुटन घर कर लेती है। एक अच्छा भला इंसान जेंटलमैन से मेंटलमैन बन जाता है।

बाहर से वह स्वस्थ और प्रसन्नचित्त नजर आता है, लेकिन अंदर से उसकी हालत बद से बदतर होती जाती है। अच्छा खाना, पहनना, चेहरे पर सदा मुस्कुराहट बनाए रखने के लिए वह मजबूर होता है। किसी को कानों कान खबर नहीं होती, उसके अंदर क्या चल रहा है।।

मेरी बात रही मेरे मन में,

कुछ कह ना सकी उलझन में ;

नियमित व्यायाम, संतुलित आचरण के बावजूद इस स्वार्थी और बनावटी संसार से वह समझौता नहीं कर पाता, और धीरे धीरे जेंटल से मेंटल होने लगता है।

मेंटल होने की यह बीमारी केवल वयस्कों में ही नहीं, आज की युवा पीढ़ी में भी घर करती जा रही है।

सपने देखना आसान होता है, लेकिन पूरी मेहनत और ईमानदारी के बावजूद भी जब निराशा और असफलता ही हाथ लगती है तो परिणाम की चिंता किए बगैर वह कुछ ऐसा अप्रत्याशित कदम उठा लेता है, जो कल्पना से परे और दुर्भाग्यपूर्ण होता है।।

आज ऊपर से हर व्यक्ति जेंटलमैन ही नज़र आता है, लेकिन उसके अंदर क्या चल रहा है, यह केवल वह ही जानता है। हमारे बीच आज कितने जेंटलमैन हैं और कितने मेंटलमैन, यह पहचान पाना बड़ा मुश्किल है।

गुब्बारा जब तक फूला रहता है, तब तक ही आकर्षक लगता है, लेकिन एक हल्की सी खरोंच, और वह फूट पड़ता है। शायद आपको अतिशयोक्ति लगे लेकिन शायर गलत नहीं कहता ;

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है।

इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यों है।।

एक तंदुरुस्त दिल और स्वस्थ दिमाग ही तो एक सज्जन पुरुष की पहचान है, और जो सभ्य, सौम्य और जेंटलमैन हैं, उनके ही क्यों हार्ट अटैक होते हैं, उनको ही क्यों अधिक ब्रेन हेमरेज होता है। कहीं सभी जेंटलमैन, मेंटलमैन तो नहीं बनते जा रहे ??

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 249 – मन एव मनुष्याणां ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 249 मन एव मनुष्याणां ?

‘मेरे शुरुआती दिनों में उसने मेरे साथ बुरा किया था। अब मेरा समय है। ऐसी हालत की है कि ज़िंदगी भर याद रखेगा।’…’मेरी सास ने मुझे बहुत हैरान-परेशान किया था। बहुत दुखी रही मैं। अब घर मेरे मुताबिक चलता है। एकदम सीधा कर दिया है मैंने।’…’उसने दो बात कही तो मैंने भी चार सुना दीं।’…आदि-आदि। सामान्य जीवन में असंख्य बार प्रयुक्त होते हैं ऐसे वाक्य।

यद्यपि  पात्र और परिस्थिति के अनुरूप हर बार प्रतिक्रिया भिन्न हो सकती है पर मनुष्य के मूल में मनन न हो तो मनुष्यता को लेकर चिंता का कारण बनता है।

मनुष्यता का सम्बंध मन में उठनेवाले भावों से है। मन के भाव ही बंधन या मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं। कहा गया है,

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।

मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष का प्रमुख कारण है।

वस्तुत: भीतर ही बसा है मोक्ष का एक संस्करण, उसे पाने के लिए, उसमें समाने के लिए मन को मनुष्यता में रमाये रखो। मनुष्यता, मनुष्य का प्रकृतिगत लक्षण है।प्रकृतिगत की रक्षा करना मनुष्य का स्वभाव होना चाहिए।

एक साधु नदी किनारे स्नान कर रहे थे। डुबकी लगाकर ज्यों ही सिर बाहर निकाला, देखते हैं कि एक बिच्छू बहे जा रहा है। साधु ने समय लगाये बिना अपनी हथेली पर बिच्छू को लेकर जल से निकालकर भूमि की ओर फेंकने का प्रयास किया। फेंकना तो दूर जैसे ही उन्होंने बिच्छू को स्पर्श किया, बिच्छू ने डंक मारा। साधु वेदना से बिलबिला गये, हथेली थर्रा गई, बिच्छू फिर पानी में बहने लगा। अपनी वेदना पर उन्होंने बिच्छू के जीवन को प्रधानता दी। पुनश्च बिच्छू को हथेली पर उठाया और क्षणांश में ही फिर डंक भोगा। बिच्छू फिर पानी में।…तीसरी बार प्रयास किया, परिणाम वही ढाक के तीन पात। किनारे पर स्नान कर रहा एक व्यक्ति बड़ी देर से घटना का अवलोकन कर रहा था। वह साधु से बोला, ” महाराज! क्यों इस पातकी को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। आप बचाते हैं और यह काटता है। इस दुष्ट का तो स्वभाव ही डंक मारना है।” साधु उन्मुक्त हँसे, फिर बोले, ” यह बिच्छू होकर अपना स्वभाव नहीं छोड़ सकता तो मैं मनुष्य होकर अपना स्वभाव कैसे छोड़ दूँ?”…

लाओत्से का कथन है, “मैं अच्छे के लिए अच्छा हूँ, मैं बुरे के लिए भी अच्छा हूँ।” यही मनुष्यता का स्वभाव है। मनन कीजिएगा क्योंकि ‘मन एव मनुष्याणां…।’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 418 ⇒ बच्चे झूठ क्यों बोलते हैं… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बच्चे झूठ क्यों बोलते हैं ।)

?अभी अभी # 418 ⇒ बच्चे झूठ क्यों बोलते हैं ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बच्चे, मन के सच्चे ! बच्चों में तो ईश्वर का वास होता है, वे कहां झूठ बोलते हैं।

लेकिन उनका सच झूठी दुनिया में कहां अधिक समय तक टिक पाता है। बच्चों के सच की उम्र सिर्फ तीन वर्ष की होती है।

तीन से तेरह वर्ष की उम्र के बीच उनके सच की उम्र का पता चल जाता है। वे वही सीखते हैं, जो देखते और सुनते हैं। वे जब बड़ों की नकल करते हैं, तो शुरू में तो अच्छा लगता है, क्योंकि वह आपका बंटी और पापा की परी है, लेकिन बढ़ती उम्र के साथ उसे रोकना, टोकना, समझाना, डांटना और फटकारना भी पड़ता है। बालहठ अगर चंद्रमा को घर की परात में उतार सकता है, तो रात को दो बजे कुछ ऐसी भी मांग कर सकता है, जो पूरी करना संभव ही नहीं हो। ।

तीन से तेरह वर्ष के बीच ही वह स्कूल जाना शुरू करता है, उसके भी अपने दोस्त होते हैं, सहेलियां होती हैं। अगर बच्चा स्कूल बस में जाता है, तो ड्राइवर और कंडक्टर का उसके जीवन में प्रवेश होता है, घर में भी काम वाली बाई और स्कूल में भी टीचर/केयरटेकर। अब २४ घंटे वह आपकी आंखों के सामने नहीं रह पाता।

बच्चे नाजुक होते हैं, मासूम होते हैं, अपना अच्छा बुरा नहीं समझते। बढ़ती उम्र के साथ वे सभी बातें घर के सदस्यों अथवा माता पिता से शेयर नहीं कर सकते, यार दोस्तों में उन्हें अच्छा लगता है, वे उन्मुक्त और अधिक खुला खुला महसूस करते हैं। ।

बढ़ती उम्र में बहुत से do’s and don’ts होते हैं, यह मत करो, वह मत करो।

धूप में मत खेलो, गंदे बच्चों की संगति मत करो। मन में ऐसे प्रश्न, जिज्ञासा और शंकाओं का अंबार जमा होता रहता है, जिसका जिक्र ना तो माता पिता से किया जा सकता है और ना ही स्कूल में टीचर से। एक मित्र ही ऐसे समय में सबसे करीबी नजर आता है। किसी बात को छुपाना, झूठ की पहली कमजोर कड़ी होती है।

कहां गए थे, और क्या कर रहे थे, का अगर संतोषजनक उत्तर नहीं मिला तो आपकी खैर नहीं। घर में अगर बच्चे से कोई टूट फूट हो जाती है, और अगर बदले में उसे डांट फटकार नसीब होती है, तो आगे से वह झूठ बोलना शुरू कर देगा। कभी कभी तो टीचर की डांट फटकार से घबराकर बच्चा स्कूल ही नहीं जाता, यहां वहां घूमा करता है। जब घर में पता चलता है तो वही डांट फटकार घर में भी दोहराई जाती है। ।

हमारे जमाने में तो सच उगलाया जाता था, मतलब हम भी झूठ ही बोलते थे।

मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो! बच्चा ही तो झूठ बोलेगा। हम बड़े तो सब सत्यवादी हरिश्चंद्र हैं न।

बच्चों को एडवेंचर का शौक होता है। चोरी छिपे बहुमंजिला मकानों की छत पर चढ़ जाते है और हादसों के शिकार हो जाते हैं। कभी कभी कड़वा सच, झूठ पर भी भारी पड़ जाता है।।

तीन से तेरह तक की उम्र में ही इसका हल नहीं निकाला गया तो आगे तो पूरी teen age पड़ी है। बच्चा नादान है, इसलिए झूठ बोलता है। अगर उसके मन से सजा (punishment ) का डर निकाल दिया जाए, उससे दोस्ताना व्यवहार किया जाए, तो शायद झूठ उसके जीवन में पांव न जमा सके। बड़ा होकर तो वह भी समझ जाएगा, जीवन में सच और झूठ का महत्व।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 417 ⇒ भाव और अभाव… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भाव और अभाव…।)

?अभी अभी # 417 ⇒ भाव और अभाव? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अचानक मुझे टमाटर से प्रेम हो गया है, क्योंकि उसके भाव बढ़ गए हैं। जब इंसान के भी भाव घटते बढ़ते रहते हैं, तो टमाटर क्यों पीछे रहें। हमारे टमाटर जैसे लाल लाल गाल यूं ही नहीं हो जाते। आम आदमी वही जो अभाव में भी सिर्फ टमाटर और प्याज़ से ही काम चला ले।

सभी जानते हैं, An apple a day, keeps the doctor away. एक सेंवफल रोज खाएं, डॉक्टर को दूर भगाएं ! यह अलग बात है, आदमी यह महंगा फल तब ही खाता है, जब वह बीमार पड़ता है। अंग्रेजी वर्णमाला तो a फॉर एप्पल से ही शुरू होती है, बेचारा टमाटर बहुत पीछे लाइन में खड़ा रहता है। ।

हमने भी हमारी बारहखड़ी में टमाटर को नहीं, अनार को पहला स्थान दिया। अ अनार का और आ आम का। एक अनार सौ बीमार ! और आम तो फलों का राजा है, शुरू से ही खास है। बेचारा टमाटर ककहरे में उपेक्षित सा, ठगा सा, ट, ठ, ड, ढ और ण के बीच पड़ा हुआ है। उसे अपनी मेहनत का “फल” कभी नहीं मिला, उसे बस अमीरों के सलाद में स्थान मिला, और हर आम आदमी तक उसकी पहुंच ही उसकी पहचान रही है।

सब्जियों के बीच अच्छा फल फूल रहा था, लेकिन प्याज की तरह उसको या तो किसी की नज़र लग गई, अथवा किसी लालची व्यापारी की उस पर नज़र पड़ गई। अभाव में पहले कोई वस्तु गायब होती है, और बाद में उसके भाव बढ़ते हैं। शायद इसी कारण, आज टमाटर जबर्दस्त भाव खा रहा है। ।

एक समय था, जब टमाटर की एक ही किस्म होती थी। फिर अचानक टमाटर की एक और किस्म बाजार में प्रकट हो गई। यह टमाटर, कम खट्टा और कम रसीला, और कम बीज वाला होता है। सलाद के लिए आसानी से कट जाता है। हमें तो पुराने देसी टमाटर ही पसंद हैं, क्या खुशबू, क्या स्वाद, और क्या रंग रूप। दोनों ही खुद को स्वदेशी कहते हैं, पसंद अपनी अपनी।

पाक कला महिलाओं की रसोई से निकलकर पंच सितारा संस्कृति में शामिल हो गई है। पहले कभी, मेरी सहेली और गृह शोभा के रसोई विशेषांक प्रकाशित होते थे, तरला दलाल और शेफ संजीव कपूर का नाम चलता था।

आज होटलों का खाना महंगा होता जा रहा है, घरों में भी फास्ट फूड और पिज्जा बर्गर पास्ता का प्रवेश हो गया है। ।

बिना प्याज टमाटर की ग्रेवी के कोई सब्जी नहीं बनती। घर के मसाले गायब होते जा रहे हैं, शैजवान सॉस का घरों में प्रवेश हो गया है। cheese पनीर नहीं, तो सब्जी में स्वाद नहीं। ऐसे में आम आदमी कभी प्याज के आंसू बहाता है, तो कभी टमाटर को अपनी पहुंच से बाहर पाता है।

आजकल महंगाई के विरुद्ध प्रदर्शन और आंदोलन नहीं होते। महंगाई अब डायन नहीं, हमारी सौतन है। विकास में हमारे कदम से कदम मिलाकर हमारा साथ देती है। अधिक अन्न उपजाओ, अधिक कमाओ। यह असहयोग का नहीं, सहयोग का युग है। ।

आम आदमी भी आजकल समझदार हो गया है। वह स्वाद पर कंट्रोल कर लेगा, लेकिन उफ नहीं करेगा। इधर बाजार में महंगे टमाटर, और उधर सोशल मीडिया पर लाल लाल, स्वस्थ, चमकीले टमाटरों की तस्वीरें उसे ललचाती भी हैं, उसके मुंह में पानी भी आता है, लेकिन वह अपने आप पर कंट्रोल कर लेता है। उसने टमाटर का बहिष्कार ही कर दिया है।

वह जानता है, सभी दिन एक समान नहीं होते। आज अभाव के माहौल में जिस टमाटर के इतने भाव बढ़े हुए हैं, कल वही सड़कों पर रोता फिरेगा। कोई पूछने वाला नहीं मिलेगा। भूल गया वे दिन, जब किसान की लागत भी वसूल नहीं होती थी, और वह तुझे यूं ही खेत में पड़े रहने देता था। आज तुम्हारे अच्छे दिन हैं और उपभोक्ता के परीक्षा के दिन। दोनों मिल जुलकर रहो, तो दाल में भी टमाटर पड़े और बच्चों के चेहरे पुनः टमाटर जैसे खिल उठें।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #240 ☆ मोहे चिन्ता न होय… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख मोहे चिन्ता न होय… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 240 ☆

मोहे चिन्ता न होय… ☆

‘उम्र भर ग़ालिब, यही भूल करता रहा/ धूल चेहरे पर थी, आईना साफ करता रहा’– ‘इंसान घर बदलता है, लिबास बदलता है, रिश्ते बदलता है, दोस्त बदलता है– फिर भी परेशान रहता है, क्योंकि वह ख़ुद को नहीं बदलता।’ यही है ज़िंदगी का सत्य व हमारे दु:खों का मूल कारण, जहां तक पहुंचने का इंसान प्रयास ही नहीं करता। वह सदैव इसी भ्रम में रहता है कि वह जो भी सोचता व करता है, केवल वही ठीक है और उसके अतिरिक्त सब ग़लत है और वे लोग  दोषी हैं, अपराधी हैं, जो आत्मकेंद्रितता के कारण अपने से इतर कुछ देख ही नहीं पाते। वह चेहरे पर लगी धूल को तो साफ करना चाहता है, परंतु आईने पर दिखाई पड़ती धूल को साफ करने में व्यस्त रहता है… ग़ालिब का यह शेयर हमें हक़ीक़त से रूबरू कराता है। जब तक हम आत्मावलोकन कर अपनी गलती को स्वीकार नहीं करते; हमारी भटकन पर विराम नहीं लगता। वास्तव में हम ऐसा करना ही नहीं चाहते। हमारा अहम् हम पर अंकुश लगाता है; जिसके कारण हमारी सोच पर ज़ंग लग जाता है और हम कूपमंडूक बनकर रह जाते हैं। हम  जीवन में अपनी इच्छाओं की पूर्ति तो करना चाहते हैं, परंतु उचित राह का ज्ञान न होने के कारण अपनी मंज़िल पर नहीं पहुंच पाते। हम चेहरे की धूल को आईना साफ करके मिटाना चाहते हैं। सो! हम आजीवन आशंकाओं से घिरे रहते हैं और उसी चक्रव्यूह में फंसे, सदैव चीखते -चिल्लाते रहते हैं, क्योंकि हममें आत्मविश्वास का अभाव होता है। यह सत्य ही है कि जिन्हें स्वयं पर भरोसा होता है, वे शांत रहते हैं तथा उनके हृदय में संदेह, संशय, शक़ व दुविधा का स्थान नहीं होता। वे अंतर्मन की शक्तियों को संचित कर निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं; कभी पीछे मुड़कर नहीं देखते। वास्तव में उनका व्यवहार युद्धक्षेत्र में तैनात सैनिक के समान होता है, जो सीने पर गोली खाकर शहीद होने में विश्वास रखता है और आधे रास्ते से लौट आने में भी उसकी आस्था नहीं होती।

परंतु संदेह-ग्रस्त इंसान सदैव उधेड़बुन में खोया रहता है; सपनों के महल तोड़ता व बनाता रहता है। वह अंधेरे में ग़लत दिशा में तीर चलाता रहता है। इसके निमित्त वह घर को वास्तु की दृष्टि से शुभ न मानकर उस घर को बदलता है; नये-नये लोगों से संपर्क साधता है; रिश्तों व परिवारजनों तक को नकार देता है; मित्रों से दूरी बना लेता है… परंतु उसकी समस्याओं का अंत नहीं होता। वास्तव में हमारी समस्याओं का समाधान दूसरों के पास नहीं; हमारे ही पास होता है। दूसरा व्यक्ति आपकी परेशानियों को समझ तो सकता है; आपकी मन:स्थिति को अनुभव कर सकता है, परंतु उस द्वारा उचित व सही मार्गदर्शन व समस्याओं का समाधान करना कैसे संभव हो सकता है?

रिश्ते, दोस्त, घर आदि बदलने से आपके व्यवहार व दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं आता; न ही लिबास बदलने से आपकी चाल-ढाल व व्यक्तित्व में परिवर्तन होता है। सो! आवश्यकता है– सोच बदलने की; नकारात्मकता को त्याग सकारात्मकता अपनाने की;  हक़ीक़त से रू-ब-रू होने की; सत्य को स्वीकारने की। जब तक हम उन्हें दिल से स्वीकार नहीं करते; हमारे कार्य-व्यवहार व जीवन-शैली में लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं आता।

‘कुछ हंसकर बोल दो/ कुछ हंस कर टाल दो/ परेशानियां बहुत हैं/  कुछ वक्त पर डाल दो’ में सुंदर व उपयोगी संदेश निहित है। जीवन में सुख-दु:ख, खशी-ग़म आते-जाते रहते हैं। सो! निराशा का दामन थाम कर बैठने से उनका समाधान नहीं हो सकता। इस प्रकार वे समय के अनुसार विलुप्त तो हो सकते हैं, परंतु समाप्त नहीं हो सकते। इस संदर्भ में महात्मा बुद्ध के विचार बहुत सार्थक प्रतीत होते हैं। जीवन में सामंजस्य स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि हम सबसे हंस कर बात करें और अपनी परेशानियों को हंस कर टाल दें, क्योंकि समय परिवर्तनशील है और यथासमय दिन-रात व ऋतु-परिवर्तन अवश्यंभावी है। कबीरदास जी के अनुसार ‘ऋतु आय फल होय’ अर्थात् समय आने पर ही फल की प्राप्ति होती है। लगातार भूमि में सौ घड़े जल उंडेलने का कोई लाभ नहीं होता, क्योंकि समय से पहले व भाग्य से अधिक किसी को संसार में कुछ भी प्राप्त नहीं होता। इसी संदर्भ में मुझे याद आ रही हैं स्वरचित मुक्तक संग्रह ‘अहसास चंद लम्हों का’ की पंक्तियां ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं।’ इसी के साथ मैं कहना चाहूंगी, ‘ग़र साथ हो सुरों का/ नग़मात बदलते हैं’ अर्थात् समय व स्थान परिवर्तन से मन:स्थिति व मनोभाव भी बदल जाते हैं; जीवन में नई उमंग-तरंग का पदार्पण हो जाता है और ज़िंदगी उसी रफ़्तार से पुन: दौड़ने लगती है।

चेहरा मन का आईना है, दर्पण है। जब हमारा मन प्रसन्न होता है, तो ओस की बूंदे भी हमें मोतियों सम भासती हैं और मन रूपी अश्व तीव्र गति से भागने लगते हैं। वैसे भी चंचल मन तो पल भर में तीन लोगों की यात्रा कर लौट आता है। परंतु इससे विपरीत स्थिति में हमें प्रकृति आंसू बहाती प्रतीत होती है; समुद्र की लहरें चीत्कार करने भासती हैं और मंदिर की घंटियों के अनहद स्वर के स्थान पर चिंघाड़ें सुनाई पड़ती हैं। इतना ही नहीं, गुलाब की महक के स्थान पर कांटो का ख्याल मन में आता है और अंतर्मन में सदैव यही प्रश्न उठता है, ‘यह सब कुछ मेरे हिस्से में क्यों? क्या है मेरा कसूर और मैंने तो कभी बुरे कर्म किए ही नहीं।’ परंतु बावरा मन भूल जाता है  कि इंसान को पूर्व-जन्मों के कर्मों का फल भी भुगतना पड़ता है। आखिर कौन बच पाया है…कालचक्र की गति से? भगवान राम व कृष्ण को आजीवन आपदाओं का सामना करना पड़ा। कृष्ण का जन्म जेल में हुआ, पालन ब्रज में हुआ और वे बचपन से ही जीवन-भर मुसीबतों का सामना करते रहे। राम को देखिए, विवाह के पश्चात् चौदह वर्ष का वनवास; सीता-हरण; रावण को मारने के पश्चात् अयोध्या में राम का राजतिलक; धोबी के आक्षेप करने पर सीता का त्याग; विश्वामित्र के आश्रम में आश्रय ग्रहण; सीता का अपने बेटों को अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़ने पर उस सत्य से अवगत कराना; राम की सीता से मुलाकात; अग्नि-परीक्षा और अयोध्या की ओर गमन। पुनः अग्नि परीक्षा हेतु अनुरोध करने पर सीता का धरती में समा जाना’ क्या उन्होंने कभी अपने भाग्य को कोसा? क्या वे आजीवन आंसू बहाते रहे? नहीं, वे तो आपदाओं को खुशी से गले से लगाते रहे। यदि आप भी खुशी से कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो ज़िंदगी कैसे गुज़र जाती है– पता ही नहीं चलता, अन्यथा हर पल जानलेवा हो जाता है।

इन विषम परिस्थितियों में दूसरों के दु:ख को सदैव महसूसना चाहिए, क्योंकि यह इंसान होने का प्रमाण है। अपने दर्द का अनुभव तो हर इंसान करता है और वह जीवित कहलाता है। आइए! समस्त ऊर्जा को दु:ख निवारण में लगाएं। ख़ुद भी हंसें और संसार के प्राणी-मात्र के प्रति संवेदनशील बनें; आत्मावलोकन कर अपने दोषों को स्वीकारें। समस्याओं में उलझें नहीं, समाधान निकालें। अहम् का त्याग कर अपनी दुष्प्रवृत्तियों को सत्प्रवृत्तियों में परिवर्तित करने की चेष्टा करें। ग़लत लोगों की संगति से बचें। केवल दु:ख में ही सिमरन न करें, सुख में भी उस सृष्टि-नियंता को भूलाएं नहीं… यही है दु:खों से मुक्ति पाने का मार्ग, जहां मानव अनहद-नाद में अपनी सुध-बुध खोकर, अलौकिक आनंद में अवगाहन कर राग-द्वेष से ऊपर उठ जाता है। इस स्थिति में वह प्राणी-मात्र में परमात्मा-सत्ता की झलक पाता है और बड़ी से बड़ी मुसीबत में परेशानियां उसका बाल भी बांका नहीं कर पाती। अंत में कबीर दास जी की पंक्तियों को उद्धृत कर अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी, ‘कबिरा चिंता क्या करे, चिंता से क्या होय/ मेरी चिंता हरि करे, मोहे चिंता ना होय।’ चिंता किसी रोग का निदान नहीं है। इसलिए चिंता करना व्यर्थ है। परमात्मा हमारे हित के बारे में हम से बेहतर जानते हैं, तो हम चिंता क्यों करें? सो! हमें सृष्टि-नियंता पर अटूट विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि वह हमारे हित में हमसे बेहतर निर्णय लेगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 416 ⇒ टेढ़ा है पर मेरा है… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “टेढ़ा है पर मेरा है।)

?अभी अभी # 416 ⇒ टेढ़ा है पर मेरा है? श्री प्रदीप शर्मा  ?

वैसे तो बचपने पर केवल बच्चों का ही अधिकार होता है, लेकिन कभी कभी बड़े बूढ़े भी बच्चों जैसी हरकतों से बाज नहीं आते। बच्चों जैसी हरकत बच्चे ही करें, तो शोभा देता है, लेकिन कभी कभी बच्चों की हरकतें गंभीर शक्ल भी अख्तियार कर लेती है।

हर औसत बच्चा समझदार

नहीं होता। कुछ तीक्ष्ण बुद्धि वाले होते हैं तो कुछ मंदबुद्धि। बाल बुद्धि का क्या भरोसा, इसलिए एक उम्र तक उन पर निगरानी रखी जाती है, इधर आंख से ओझल हुए और कोई कांड किया।।

मेरा बचपन भी औसत ही था और बुद्धि का औसत कम से कमतर। आज याद नहीं, तब मेरी क्या उम्र रही होगी, लेकिन तब मेरी हरकत ही कुछ ऐसी थी, कि जिसके कारण आज भी मेरा एक हाथ कुरकुरे जैसा टेढ़ा है। पूरी बांह में वह ढंक जाता है, लेकिन आधी बांह में वह स्पष्ट नजर आ जाता है।

शायद दशहरा मिलन का दिन था, और मैं पिताजी के साथ साइकिल पर उनके साथ लद लिया था। उनके एक मित्र के यहां अन्य परिचित भी आमंत्रित थे।

बच्चे कब बड़ों के बीच में से गायब हो जाते हैं, कुछ पता ही नहीं चलता। हमने भी मौका देखा, और बाहर आंगन में निकल लिए।।

बच्चे तो शैतान होते ही हैं। खाली दिमाग शैतान का घर ! आंगन में आगंतुकों की कुछ साइकलें एक कतार में रखी हुई थीं, कुछ आपस में सटी, कुछ दूर दूर सी। हम इतने छोटे थे, कि साइकिल चलाना हमारे बस का ही नहीं था। लेकिन हमारी बालक बुद्धि ने कमाल बता ही दिया। कोने पर खड़ी एक साइकिल पर खड़े होकर पैडल मारने लगे जिससे पिछला पहिया घूमने लगा।

हम इधर साइकिल चलाने का आनंद ले रहे थे, और उधर साइकिल अपना संतुलन खो रही थी। इसके पहले कि हमें कुछ पता चलता, हम नीचे और एक के बाद एक सभी साइकिलें हमारे ऊपर। चीख सुनकर सभी दौड़े आए, हमें साइकिलों के नीचे से निकाला। तब कहां आज की तरह चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध थीं। पिताजी एकमात्र एम. वाय. अस्पताल ले गए। जांच से पता चला, कोहनी में फ्रेक्चर है। वहां से बायें हाथ की कोहनी पर पट्टा चढ़वाकर लौट के बुद्धू घर को आए।।

बचपने का इनाम भी मिला। घर में किसी ने डांटा तो नहीं, लेकिन पट्टा खोलने पर मालूम पड़ा, कोहनी की हड्डी टेढ़ी जुड़ गई है, तब कहां सोनोग्राफी जैसी सुविधाएं थी। तब से हमारा बांया हाथ टेढ़ा ही है।

हाथ सीधा करने के लिए एक नामी हड्डी विशेषज्ञ नन्नू पहलवान की भी सेवाएं लीं, तेल मालिश से हाथ तो मजबूत हो गया, लेकिन कुत्ते की दुम की तरह टेढ़ा ही रहा। शहर के प्रसिद्ध हड्डी विशेषज्ञ एवं हरि ओम योग केन्द्र के संस्थापक, डा.

आर.सी.वर्मा से चर्चा की तो वे बोले, शर्मा जी आपको कहां शादी करना है। हाथ तो आपका मजबूत है ही, इस उम्र में छेड़छाड़ ठीक नहीं। हमने भी तसल्ली कर ली और सोचा, टेढ़ा है, पर मेरा है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 204 ☆ कस न भेद कह देय… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना कस न भेद कह देय। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 204 ☆ कस न भेद कह देय

बुद्धि और  बुद्धिमान दोनों एक होकर भी अलग रहते हैं। यदि सही समय पर सही निर्णय नहीं लिया तो बुद्धि होने का क्या फायदा। बुद्धिमान व्यक्ति अपनी क्षमता का लोहा मनवा लेता है। अधूरी बातों पर प्रतिक्रिया  देने वाले न केवल अपना वरन समाज का भी अहित करते हैं। किसी ने सही कहा है-

परिवार और समाज दोनों  बर्बाद होने लगते हैं,जब समझदार मौन और नासमझ बोलने लगते हैं।

मनोवैज्ञानिक व्यक्ति का आचरण उसके हावभाव से तुरंत पता लगा लेते हैं। यदि व्यक्ति चालक हो तो उसे विवादों में लाकर  पहले क्रोधित करते हैं फिर वास्तव में उसका व्यक्तिव क्या है ये लोगों के सामने आ जाता है। घमंड सर चढ़कर बोलता है, व्यक्ति सही गलत का भेद भूलकर अपने स्वार्थ में अंधा होने लगता है। दूसरी तरफ जमीन से जुड़ा व्यक्ति हर परिस्थिति में सही का साथ देता है। मेहनत रंग लाती है, धीरे- धीरे लोग उसके साथ जुड़कर उसे विजेता बनाने में जुट जाते हैं। सच्चे रिश्ते स्वार्थ से ऊपर उठकर  जीना जानते हैं। डिजिटल युग में क्रियेटर  अपने फालोवर के दम पर अपने को शक्तिशाली घोषित करते हैं। बहुत से ऐसे शो बन रहे हैं जहाँ दर्शक पात्रों के साथ जुड़कर उनके व्यक्तित्व को परखते हैं, उनके लिए वोटिंग करते हैं। सबके सामने असली चेहरा कुछ दिनों में आ जाता है। व्यक्ति अपने आचरण से अपनी कामयाबी की गाथा लिखता है। जनमानस के हृदय में स्थान ऐसे ही नहीं मिलता। अच्छे विचारों के साथ सबका हित साधने की कला जिस साधक के पास होगी वही सच्चे अर्थों में विजेता बनेगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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