हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 57 – देश-परदेश – गधा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 57 ☆ देश-परदेश – गधा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

ये शब्द सुनते ही पाठशाला “मॉडल हाई स्कूल” जबलपुर के आदरणीय शिक्षक उपाध्याय जी के साथ पच्चास वर्ष पूर्व हुई एक चर्चा की स्मृति मानस पटल पर आ गई।

मॉडल हाई स्कूल, हमेशा हायर सेकंडरी की राज्य स्तरीय योग्यता सूची में सबसे अधिक स्थान प्राप्त करता था। इस विषय पर मैंने नवमी कक्षा का छात्र होते हुए शिक्षक से कहा, जब कक्षा छः के प्रवेश के समय भी उच्चतम अंक प्राप्त छात्रों को ही प्रवेश दिया जाता है। वो तो “घोड़े” होते है, कम अंक (गधे) प्राप्त छात्रों को मैट्रिक की मेरिट में लेकर आएं तो पाठशाला की क्षमता मानी जा सकती हैं।

शिक्षक भी हाजिर जवाब थे, और तुरंत बोले छः वर्ष तक घोड़े को घोड़ा बना रहने देते है, ये क्या कम हैं ? उनकी बात में वजन था। हमने भी उनसे क्षमा मांग कर उनका सम्मान बनाए रखा।

“मेरा गधा गधों का लीडर ” स्वर्गीय शम्मी कपूर जी का एक पुरानी फिल्म का गीत दूर कहीं बज रहा था। तभी एक मित्र ने उपरोक्त फोटो भेजी जिसमें एक पाकिस्तानी युवा अपनी नई नवेली पत्नी को “गधा” भेंट कर रहा हैं। फोटू का शीर्षक “एक गधा, गधा भेंट करते हुए”।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 193 ⇒ समय का पंछी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “समय का पंछी”।)

?अभी अभी # 193 ⇒ समय का पंछी… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 समय का पंछी उड़ता जाए! आपके पंख नहीं, पांव हैं, आप समय के साथ चल तो सकते हैं, उड़ नहीं सकते। हां, समय बचाने के लिए हवाई जहाज में उड़ जरूर सकते हैं। जो इस तरह समय बचाते हैं, उन्हें समय बहुत महंगा पड़ता है, लेकिन उन्हें कम समय में पैसा कमाने का गुर भी आता है।

किसी के लिए पैसा ही समय है और किसी के लिए समय ही पैसा। जिनके पास पैसा ही नहीं, उन्हें समय खर्च करने से कौन रोक सकता है।

पैसे वालों का समय बहुत कीमती होता है। वे समय बेचते हैं। डॉक्टर वकील से आपको समय खरीदना पड़ता है, लेकिन उसमें भी वे भाव खाते हैं, और तगड़ा खाते हैं।।

बचपन में हमारे पास इतना समय था, कि हमें घड़ी देखना ही नहीं आता था। जब मां उठाती, तब सुबह हो जाती थी, और जब मां सुलाती, शाम हो जाती थी। आज जिंदगी की शाम में हमें जगाने, सुलाने वाला कोई नहीं, जब जागे तभी सवेरा और आंख बंद हुई तभी रात।

पंछी की तरह हमने भी समय को घड़ी रूपी पिंजरे में कैद कर लिया, और खुश हो गए। समय आत्मा की तरह अजन्मा, अमर और अभेद्य है। इस शरीर में आत्मा जीवात्मा बन गई और हमने समय देखने के लिए, घड़ी में चाबी भरना शुरू कर दिया। समय हमारे लिए खिलौना हो गया। जितनी भारी चाबी, उतना चला खिलौना।।

समय का भी खेल देखिए!

जो अटल था, वह भी डिजिटल हो गया। आज भी मेरी दीवार घड़ी निप्पो और एवरेडी के सेल पर ही सांस लेती है। क्या समय की भी सांस फूलती है, क्या समय को भी वेंटिलेटर पर रखना पड़ता है। आज भी समय देखने के लिए हम घड़ी पर ही तो मोहताज हैं। समझ में नहीं आता, घड़ी समय से चलती है, या समय घड़ी से चलता है।

आप घड़ी को आगे पीछे तो कर सकते हैं, समय को नहीं कर सकते। हम समय के साथ चल सकते हैं, शायद समय से पहले भी चल लेते हों, लेकिन समय से आगे कभी नहीं निकल सकते। जो भी है, बस यही एक पल। पलक झपकते ही क्या से क्या हो जाता है। समय का पंछी हाथ से उड़ जाता है।।

समय तो समय होता है, किसी के लिए अच्छा होता है, तो किसी के लिए बुरा। हम भले ही समय घड़ी में देखते हों, खराब समय आने पर अक्सर मुंह से निकल ही जाता है, क्या मनहूस घड़ी है, लेकिन तब भी हम अपनी घड़ी को नहीं, समय को ही कोस रहे होते हैं। बेचारी घड़ी का क्या दोष, वह तो सगाई में मिली थी।

समय को तो हम बांट नहीं सकते, चलिए, घड़ी को ही बांट लेते हैं। सगाई की घड़ी को आप मिलन की घड़ी कह सकते हैं, शुभ शुभ बोलेंगे हम तो, जुदाई की घड़ी की बात कतई नहीं करेंगे, क्योंकि ;

बात मुद्दत के ये घड़ी आई।

आप आए, तो जिन्दगी आई।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 192 ⇒ || चौपाल || ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जश्न और त्रासदी “।)

?अभी अभी # 192 || चौपाल || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हम कभी गांव नहीं गए, क्योंकि गांव ही अब तो चलकर शहर आ गए हैं। एक समय था, जब साइकिल उठाई कुछ किलोमीटर चले, तो गांव ही गांव, खेत ही खेत, चौपाल ही चौपाल। आजकल कार से फॉर्म हाउस और रिसॉर्ट जाया जाता है, जन्मदिन की पार्टियों और विवाह समारोहों में।

गांव का लुत्फ लोग चोखी ढाणी और राजस्थानी ढाबे में ही उठा लेते हैं।

प्रेमचंद और रेणु की कहानियों में अवश्य चौपाल का जिक्र आया होगा। गांव के किसी बड़े पेड़ के नीचे किसी बड़े ओटले पर केवल पुरुष अपनी चौपाल जमाते थे।

घर गृहस्थी, खेती बाड़ी, सुख दुख और राजनीति की ही चर्चा होती होगी चौपाल में। कोई साक्षर अखबार का वाचन करता होगा, कुछ पुरुषों के ग्राम्य गीत गाए जाते होंगे, बीड़ी सिगरेट तंबाकू और बारी बारी से हुक्का गुड़गुड़ाया जाता होगा।।

एक आदर्श ग्राम में कभी चाय और पान की दुकान का जिक्र नहीं होता। शराब की दुकान की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। मेरे सपनों का गांव हमारा आदर्श ही रहा है। अच्छे सपने देखने से दिन भी अच्छा ही गुजरता है।

आजकल ई -चौपाल और ई -शिक्षा का जमाना है। हमारे माननीय प्रधान मंत्री और लाडली बहना वाले मामा एक मिली जुली ई – चौपाल का आयोजन राजधानी में करते हैं, जिसमें प्रदेश के पूरे गांववासी, उनके प्रतिनिधि और जिला कलेक्टर जुड़ जाते हैं और समस्याओं का डिजिटल निराकरण भी हो जाता है। मन रे, तू कोई गीत सुहाना गा। मनरे ..गा।।

मैं भी अपने अभी अभी के नित्य कर्म से निवृत्त होकर सुबह सुबह फेसबुक की चौपाल पर चला आता हूं। मेरी आंखों को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ता। हेमा जी पहले से ही चौपाल में मौजूद रहती हैं।

उधर देहरादून से सैनी जी ताक लगाए बैठे रहते हैं। नेपथ्य में रैना जी की मौजूदगी हमेशा महसूस होती रहती है।

चैन और सुकून से चर्चा ही तो चौपाल का उद्देश्य होता है। चर्चा को चैट यूं ही नहीं कहते। हेमा जी का क्या है, कभी मीरा तो कभी महादेवी, कभी प्रवासी तो कभी एलियन।

कभी इस चौपाल में पंडित प्रदीप मिश्रा के साथ सत्संग होता है तो कभी जैनेंद्र कुमार जी से। कलयुग के दीपक यादव को अगर आप सुनें तो लगेगा, भटके हुए ओशो हैं। सुबह सुबह का स्वस्थ और सार्थक संवाद चौपाल जैसा ही सुख देता है। अखबार के पन्ने की तरह खुलती बंद होती रहती है फेसबुक की चौपाल, चाय की चुस्कियों और जरूरी कामकाज के बीच। हमारी चौपाल में आपका स्वागत है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 214 – दिव्यता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 214 दिव्यता ?

घटना दस-बारह वर्ष पूर्व की है। भाषा, संस्कृति और सेवा के लिए कार्यरत हमारी संस्था हिंदी आंदोलन परिवार, समाज के अलग-अलग वर्ग के लिए विशेष आयोजन करती रहती है। इसी संदर्भ में हम नेत्रहीन बालिकाओं की एक निवासी पाठशाला में पहुँचे। यहाँ पहली से दसवीं तक की कक्षाएँ लगती हैं। लगभग 150 की क्षमता वाली इस पाठशाला की सभी बालिकाओं के लिए हम उपहारस्वरूप स्कार्फ खरीदकर ले गए थे। पाठशाला के मैदान में  पाँचवीं और छठी कक्षा की छात्राओं के लिए स्कार्फ का वितरण हो रहा था। मेरी धर्मपत्नी ने थैले से स्कार्फ निकालकर एक छात्रा के हाथ में  दिया। आश्चर्य! उस बिटिया ने स्कार्फ लेकर उसे सूंघा, फिर बोली, “यह रंग मुझे अच्छा नहीं लगता। इसे बदलकर गुलाबी रंग का स्कार्फ दीजिए ना!” हमारे रोंगटे खड़े हो गए। नेत्रों से जलधारा बह निकली। जन्मांध बच्ची को स्कार्फ के रंग का बोध कैसे हुआ? बड़ा प्रश्न है कि इस बच्ची के लिए रंग की परिभाषा क्या होती होगी? रंग को लेकर उसके मन में कैसी भावनाएँ उठती होंगी?

इस संदर्भ में अपनी एक कविता  की कुछ पंक्तियाँ स्मरण हो आईं,

आँखें, जिन्होंने देखे नहीं कभी उजाले,

कैसे बुनती होंगी आकृतियाँ-

भवन, झोपड़ी, सड़क, फुटपाथ,

कार, दुपहिया, चूल्हा, आग,

बादल, बारिश, पेड़, घास,

धरती, आकाश

दैहिक या प्राकृतिक सौंदर्य की,

‘रंग’ शब्द से कौनसे चित्र बनते होंगे

मन के दृष्टिपटल पर,

भूकंप से  कैसा विनाश चितरता होगा,

बाढ़ की परिभाषा क्या होगी,

इंजेक्शन लगने से पूर्व

भय से आँखें मूँदने का विकल्प क्या होगा,

आवाज़ को घटना में बदलने का

पैमाना क्या होगा,

चूल्हे की आँच और चिता की आग में

अंतर कैसे खोजा जाता होगा,

दृश्य या अदृश्य का

सिद्धांत कैसे समझा जाता होगा..?

बिना आँख के दृश्य और अदृश्य के इस बोध को अध्यात्म छठी इंद्रिय की प्रबलता कहता है। किसी एक इंद्रिय के निर्बल या निष्क्रिय होने की स्थिति में आंतरिक ऊर्जा का सक्रिय होना ही छठी इंद्रिय की प्रबलता का द्योतक है। भारत के प्रधानमंत्री ने इस प्रबलता के अधिष्ठाता का सटीक नामकरण ‘दिव्यांग’ किया है।

स्कार्फ के रंग को पहचाना, अपनी पसंद के रंग का स्कार्फ मांगना, उस बिटिया के भीतर की दिव्यता थी।

विशेष बात है कि यह दिव्यता हम सब में भी विद्यमान है। ध्यान, प्राणायाम, स्वाध्याय, चिंतन, सत्संग, विद्वानों से चर्चा के माध्यम से इसे जाग्रत किया जा सकता है। बहुत कुछ है जिसे देखा जा सकता है, समझा जा सकता है।

अर्जुन ने परमात्मा के विराट का दर्शन किया था। आत्मा अंश है परमात्मा का। इसका अर्थ है कि विराट का एक संस्करण हम सब में भी विद्यमान है, अंतर्निहित है। इस अंतर्निहित को, योगेश्वर कुछ यूँ समझाते हैं,

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि ॥ ७ ॥

अर्थात ‘हे गुडाकेश ! अब इस मेरे शरीर में एक स्थान पर स्थित हुए चराचर सहित सम्पूर्ण जगत को देखो तथा और भी जो कुछ तुम देखना चाहते हो, उसे भी देखो।’

निद्रा को  जीत चुके व्यक्ति को गुडाकेश कहते हैं। संकेत स्पष्ट है। दृष्टि की दिव्यता को सक्रिय करो, विराट रूप दर्शन संभव है।

उस विराट को जानने की यात्रा अपने विराट को पहचानने से होती है। अपनी दिव्यता की अनुभूति इसका आरंभ बिंदु हो सकता है।

… शुभं अस्तु।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

नवरात्रि साधना के लिए मंत्र है –

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता,

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

🕉️ 💥 देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करे। अपेक्षित है कि नवरात्रि साधना में साधक हर प्रकार के व्यसन से दूर रहे, शाकाहार एवं ब्रह्मचर्य का पालन करे। सदा की भाँति आत्म-परिष्कार तथा ध्यानसाधना तो चलेंगी ही। मंगल भव। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 191 ⇒ व्यंग्य के सरपंच… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका ललित आलेख – “व्यंग्य के सरपंच”।)

?अभी अभी # 191 ⇒ व्यंग्य के सरपंच… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जो अंतर हास्य और व्यंग्य में है, वही अंतर एक पंच और सरपंच में है। पंच और हास्य में एक समानता है, दोनों ही ढाई आखर के हैं। वैसे भी पढ़ा लिखा पंच नहीं मारता, बहुत बड़ा हाथ मारता है। सरपंच और व्यंग्य की तो बात ही अलग है। प्रेमचंद की भाषा में तो पंच ही परमेश्वर है, जब कि व्यंग्य की दुनिया में तो सभी सरपंच ही विराजमान है।

अगर इस अभी अभी का शीर्षक पंच और सरपंच होता, तो कुछ लोग इसे राग दरबारी की तरह पंचायती राज से जोड़ देते। जिन्होंने राग दरबारी नहीं पढ़ी, वे उसे आसानी से संगीत से जोड़ सकते हैं।।

वैसे हास्य का संगीत से वही संबंध है जो व्यंग्य का पंच से है। हाथरस हास्य का तीर्थ ही नहीं, वहां प्रभुलाल गर्ग उर्फ काका हाथरसी का संगीत कार्यालय भी है। छोटे मोटे पंच मारकर कुछ लोग हास्य सम्राट बन बैठते हैं, जब कि व्यंग्य की पंचायत में कई सरपंच रात दिन नि:स्वार्थ भाव से सेवारत हैं।

अकबर के नवरत्नों में पंच प्रमुख बीरबल का वही स्थान था, जो नवरस में हास्य रस का होता है। हमारे आज के जीवन में भी अगर हास्य पंच है तो व्यंग्य सरपंच। जैसे बिना पंच के पंचायती राज नहीं, वैसे ही बिना पंच के हास्य नहीं। बिना सरपंच के कहां पंचायत बैठती है और, बिना व्यंग्य के सरपंच के, कहां व्यंग्य की दाल गलती है।।

जिसके व्यंग्य में अधिक पंच होते हैं, वे व्यंग्य के सरपंच कहलाते हैं। इन सरपंचों के अपने संगठन होते हैं, जिनकी समय समय पर गोष्ठियां और सम्मेलन भी होते हैं। सरपंचों को पुरस्कृत और सम्मानित भी किया जाता है। इनमें युवा वृद्ध, महिला पुरुष सभी होते हैं।

पंच बच्चों का खेल नहीं !

वैसे तो व्यंग्य के पंच अहिंसक होते हैं, लेकिन मार भारी करते हैं। कभी कभी जब पंच व्यंग्य पर ही भारी पड़ जाता है, तो सरपंच के लिए सरदर्द बन जाता है। माफीनामे से भी काम नहीं चलता और नौकरी जाने का अंदेशा तक बना रहता है।।

आए दिन बिनाका गीत माला की तरह व्यंग्य के सरपंचों की सूची जारी हुआ करती है। निष्पक्ष होते हुए भी इसके दो पक्ष होते हैं, शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। हम आचार्य रामचंद्र शुक्ल की नहीं, श्रीलाल शुक्ल की बात कर रहे हैं। कुछ त्यागी सरपंच ऐसे भी हैं, जो सभी प्रपंचों से दूर हैं।

व्यंग्य के सरपंचों में ज्ञान और विवेक की भी कमी नहीं। हलाहल पीने वाले हरिशंकर और जोशीले शरद निर्विवाद रूप से व्यंग्य के सरपंचों में सर्वोपरि हैं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #205 ☆ मैं भी सही : तू भी सही ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मैं भी सही : तू भी सही। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 204 ☆

☆ मैं भी सही : तू भी सही 

बहुत सारी उलझनों का जवाब यही है कि ‘मैं अपनी जगह सही हूं और वह अपनी जगह सही है। ‘ऐ ज़िंदगी! चल नई शुरुआत करते हैं…कल जो उम्मीद दूसरों से थी, आज ख़ुद से करते हैं’ में छिपा है सफल ज़िंदगी जीने का राज़; जीने का अंदाज़ और यही है– संबंधों को प्रगाढ़ व सौहार्दपूर्ण बनाए रखने का सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ उपादान अर्थात् जब आप स्वीकार लेते हैं कि मैं अपनी जगह सही हूं और दूसरा भी अपनी जगह ग़लत नहीं है, वह भी सही है… तो सारे विवाद तुरंत संवाद में बदल जाते हैं। सभी समस्याओं का समाधान स्वयमेव निकल जाता है। परंतु मैं आपका ध्यान इस ओर केंद्रित करना चाहती हूं कि समस्या का मूल तो ‘मैं’ अथवा ‘अहं’ में है। जब ‘मानव की मैं’ ही नहीं रहेगी, तो समस्या का उद्गम-स्थल ही नष्ट हो जाएगा… फिर समाधान की दरक़ार ही कहां रहेगी?

मानव का सबसे बड़ा शत्रु है अहं, जो उसे ग़लत तर्क पर टिके रहने को विवश करता है। इसका कारण होता है ‘आई एम ऑलवेज़ राइट का भ्रम।’ दूसरे शब्दों में ‘बॉस इज़ ऑल्वेज़ राइट’ अर्थात् मैं सदैव ठीक कहता हूं, ठीक सोचता हूं, ठीक करता हूं। मैं श्रेष्ठ हूं, घर का मालिक हूं, समाज में मेरा रूतबा है, सब मुझे दुआ-सलाम करते हैं। सो! ‘प्राण जाएं, पर वचन न जाई’ अर्थात् मेरे वचन पत्थर की लकीर हैं। मेरे वचनों की अनुपालना करना तुम्हारा प्राथमिक कर्तव्य व दायित्व है। सो! वहां यह नियम कैसे लागू हो सकता है कि मैं अपनी जगह सही हूं और वह अपनी जगह सही है। काश! हम जीवन में इस धारणा को अपना पाते, तो हम दूसरों के जीने की वजह बन जाते और हमारे कारण किसी को कष्ट नहीं पहुंचता। महात्मा बुद्ध का यह संदेश कि ‘दूसरों से वैसा व्यवहार करें, जिसकी अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं’ सार्थक सिद्ध हो जाता और सभी समस्याएं समूल नष्ट हो जाती।

आइए! हम इस के दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात करें… ‘ऐ ज़िंदगी!चल नई शुरुआत करते हैं। कल जो उम्मीद औरों से थी, आज ख़ुद से करते हैं।’ इस में जीवन जीने की कला का दिग्दर्शन होता है। जीवन में चिंता व परेशानी से तनाव की स्थिति तब जन्म लेती है; जब हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं। उम्मीद ही दु:खों की जनक है, संतोष की हन्ता है तथा शांति का विनाश करती है। इस स्थिति में हमारे मन में दूसरों के प्रति शिकायतों का अंबार लगा रहता है और हम हर समय उनकी निंदा करने में मशग़ूल रहते हैं, क्योंकि वे हमारी अपेक्षाओं व मापदण्डों पर खरे नहीं उतरते। जहां तक तनाव का संबंध है, उसके लिए उत्तरदायी अथवा अपराधी हम स्वयं होते हैं और अपनी सोच बदल कर ही हम उस रोग से निज़ात पा सकते हैं। कितनी सामान्य-सी बात है कि आप दूसरों के स्थान पर ख़ुद को उस कार्य में लगा दीजिए अर्थात् अंजाम प्रदान करने तक निरंतर परिश्रम करते रहिए … सफलता एक दिन आपके कदम अवश्य चूमेगी और आप आकाश की बुलंदियों को छू पाएंगे।

अर्थशास्त्र का नियम है, अपनी इच्छाओं को कम से कम रखिए…उन पर नियंत्रण लगाइए, क्योंकि सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी अमुक संदेश देते हैं कि यदि आप शांत भाव से तनाव-रहित जीवन जीना चाहते हैं, तो सुरसा के मुख की भांति जीवन में पांव पसारती बलवती इच्छाओं- आकांक्षाओं पर अंकुश लगाना बेहतर है। इस

 सिक्के के दो पहलू हैं…प्रथम है इच्छाओं पर अंकुश लगाना और द्वितीय है दूसरों से अपेक्षा न करना। यदि हम इच्छाओं व आकांक्षाओं पर नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं, तो द्वितीय का शमन स्वत: हो जायेगा, क्योंकि इच्छाएं ही अपेक्षाओं की जनक हैं। दूसरे शब्दों में ‘न होगा बांस, न बजेगी बांसुरी।’

विपत्ति के समय मानव को अपना सहारा खुद बनना चाहिए और इधर-उधर नहीं झांकना चाहिए…न ही किसी की ओर क़ातर निगाहों से देखना चाहिए अर्थात् किसी से अपेक्षा व उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। ‘अपने हाथ जगन्नाथ’ अर्थात् हमें अपनी अंतर्निहित शक्तियों पर विश्वास करते हुए अपनी समस्त ऊर्जा समस्या के समाधान व लक्ष्य-पूर्ति के निमित्त लगा देनी चाहिए। हमारा आत्मविश्वास, साहस, दृढ़-संकल्प व कठिन परिश्रम हमें विषम परिस्थितियों मेंं भी किसी के सम्मुख नतमस्तक नहीं होने देता, परंतु इसके लिए सदैव धैर्य की दरक़ार रहती है।

‘सहज पके सो मीठा होय’ अर्थात् समय आने पर ही वृक्ष फूल व फल देते हैं और समय से पहले व भाग्य से अधिक मानव को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। सो! सफलता प्राप्त करने के लिए लगन व परिश्रम के साथ-साथ धैर्य भी अपेक्षित है। इस संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगी कि मानव को आधे रास्ते से कभी लौट कर नहीं आना चाहिए, क्योंकि उससे कम समय में वह अपने निर्धारित लक्ष्य तक पहुंच सकता है। अधिकांश विज्ञानवेता इस सिद्धांत को अपने जीवन में धारण कर बड़े-बड़े आविष्कार करने में सफल हुए हैं और महान् वैज्ञानिक एडिसन व अल्बर्ट आइंस्टीन आदि के उदाहरण आपके समक्ष हैं। ‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ अर्थात् निरंतर अभ्यास व प्रयास करने से यदि मूर्ख व्यक्ति भी बुद्धिमान हो सकता है, तो एक बुद्धिजीवी – आत्मविश्वास व निरंतर परिश्रम करने से सफलता क्यों नहीं प्राप्त कर सकता …यह विचारणीय है।

जिस दिन हम अपनी दिव्य शक्तियों से अवगत हो जाएंगे… हम जी-जान से स्वयं को उस कार्य में झोंक देंगे और निरंतर संघर्षरत रहेंगे, उस स्थिति में बड़ी से बड़ी आपदा भी हमारे पथ की बाधा नहीं बन पायेगी। वास्तव में चिंता, परेशानी, आशंका, संभावना आदि हमारे अंतर्मन में सहसा प्रकट होने वाले वे भाव हैं; जो लंबे समय तक हमारे आशियां में डेरा डालकर बैठ जाते हैं और जल्दी से विदा होने का नाम भी नहीं लेते। परंतु हमें उन आपदाओं को स्थायी स्वीकार कर, उनसे भयभीत होकर पराजय नहीं स्वीकारनी चाहिए, बल्कि यह सोचना चाहिए कि ‘जो आया है, अवश्य जायेगा। सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं। थोड़ा समय जीवन में प्रवेश करने के पश्चात् मुसाफिर की भांति संसार-रूपी सराय में विश्राम करेंगे, चंद दिन रहेंगे और चल देंगे।’ सृष्टि का क्रम भी इसी नियम पर आधारित है, जो निरंतर चलता रहता है। इसका प्रमाण है…रात्रि के पश्चात् दिन, अमावस के पश्चात् पूनम व विभिन्न ऋतुओं का यथासमय आगमन, परिवर्तन व प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने पर उसके विकराल व भीषण रूप का दिग्दर्शन, हमें उस सृष्टि-नियंता की कुशल व्यवस्था से अवगत कराता है तथा सोचने पर विवश करता है कि सृष्टि-नियंता की महिमा अपरंपार है। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता व परिस्थितियां निरंतर परिवर्तनशील रहती हैं। इसलिए मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए। हमारा दृष्टिकोण सदैव सकारात्मक होना चाहिए, क्योंकि जीवन में नकारात्मकता हमें तन्हाई के आलम में अकेला छोड़ कर चल देती है और हम लाख चाहने पर भी तनाव व अवसाद के व्यूह से बाहर नहीं निकल सकते।

अंतत: मैं यही कहना चाहूंगी कि आप अपने अहं का त्याग कर दूसरों की सोच व अहमियत को महत्व दें तथा उसे स्वीकार करें… संघर्ष की वजह ही समाप्त हो जाएगी तथा दूसरों से अपेक्षा करने के भाव का त्याग करने से तनाव व अवसाद की स्थिति आपके जीवन में दखल नहीं दे पाएगी। इसलिए मानव को अपने बच्चों को भी इस तथ्य से अवगत करा देना चाहिए कि उन्हें अपना सहारा ख़ुद बनना है। वैसे तो सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला सब कार्यों को संपन्न नहीं कर सकता। उसे सुख-दु:ख के साथी की आवश्यकता होती है। दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि ‘जिस पर आप सबसे अधिक विश्वास करते हैं; एक दिन वह ही आप द्वारा स्थापित इमारत की मज़बूत चूलें हिलाने का काम करता है।’ इसलिए हमें स्वयं पर विश्वास कर जीवन की डगर पर अकेले ही अग्रसर हो जाना चाहिए, क्योंकि भगवान भी उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। आइए! दूसरों के अस्तित्व को स्वीकार अपने अहं का विसर्जन करें और दूसरों से अपेक्षा न रख, अपना सहारा खुद बनें। आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे निरंतर संघर्षशील रहें। रास्ते में थक कर न बैठें, न ही लौटने का मन बनाएं, क्योंकि नकारात्मक सोच व विचारधारा लक्ष्य-प्राप्ति के मार्ग में अवरोधक सिद्ध होती है और आप अपने मनोवांछित मुक़ाम पर नहीं पहुंच पाते। परिवर्तन सृष्टि का नियम है…क्यों न हम भी शुरुआत करें–नवीन राह की ओर कदम बढ़ाने की, क्योंकि यही ज़िंदगी का मर्म है, सत्य है, यथार्थ है और सत्य हमेशा शिव व सुंदर होता है। इस राह का अनुसरण करने पर हमें यह बात समझ में आ जाएगी कि ‘मैं भी सही और तू भी सही है’ और यही है– ज़िंदगी जीने का सही सलीका व सही अंदाज़… जिसके उपरांत जीवन से संशय, संदेह, शंका, तनाव, अलगाव, अवसाद आदि का शमन हो जाएगा और चहुं ओर अलौकिक आनंद की वर्षा होने लगेगी।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 190 ⇒ शब्द और विचार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “शब्द और विचार।)

?अभी अभी # 190 ⇒ शब्द और विचार… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

विचारों के पंख तो होते हैं, लेकिन पाँव नहीं होते। उन्हें जमीन पर उतारने के लिए शब्दों का सहारा लेना पड़ता है। विचार लिखा जा सकता है, पढ़ा जा सकता है, और सुना भी जा सकता है, लेकिन देखा नहीं जा सकता। भले ही आप विचार को विचारक कह लें, और दर्शन को दार्शनिक, लेकिन विचार, दर्शन होते हुए भी, कभी दर्शन नहीं देता। और तो और, विचारों के प्रदर्शन के लिए भी शब्दों का ही सहारा लेना पड़ता है।

शब्द अगर ध्वनि का मामला है, तो अक्षर का तो कभी क्षरण ही नहीं होता।

श्रुति, स्मृति हो, अथवा पुराण, बिना शब्द के सब, नि:शब्द हैं। प्रकाश की अगर किरणें होती हैं, तो ध्वनि की भी तरंगें होती हैं। होती होगी विचार की भी तरंग, उठती होंगी मन मस्तिष्क में, होते रहें आप विचार मग्न, केवल एक सद्गुरू ही आपके मन की तरंगों को पढ़ सकता है, जान सकता है, और अपने शुभ संकल्प से आपका कायाकल्प कर सकता है। विचार की तरह, गुरु तत्व और ईश्वर तत्व, कहीं दिखाई नहीं देते, लेकिन केवल विचारों के स्तर पर ही, उनका साक्षात्कार किया जा सकता है। हां, देह और शब्द उसके अनुभूति के माध्यम अवश्य हो सकते हैं। ।

हम प्रभावित तो शब्दों से होते हैं, लेकिन उन्हें ही विचार मान लेते हैं। किसी के मन के विचारों को पढ़ने अथवा जान लेने की विद्या को टेलीपैथी अथवा दूर संवेदन कहते हैं। किसी के मन की बात को जान लेना अथवा पढ़ लेना अथवा एक ही विचार दो लोगों के मन में एक साथ आना, टेलीपैथी हो सकती है। अभी अभी आपको याद किया, और आप पधार गए। कभी कभी तो एक ही बात दोनों के मुंह से एक साथ निकल जाती है। है न विचित्र संयोग।

गजब की स्मरण शक्ति है हमारे मस्तिष्क की और मन है, जो संकल्प विकल्प से ही बाज नहीं आता। कैसे कैसे विचार हमारे मन में आते हैं, बिना किसी साधना अथवा धारणा ध्यान के ही, कहां कहां हमारा ध्यान चला जाता है। अगर मन, बुद्धि और अहंकार को विवेक और वैराग्य की राह पर ले जाया जाए, तो अवश्य वह घटित हो जाए, जो शब्दों से परे है और केवल हमारे चित्त के अधीन है। ।

ज्ञान विज्ञान, परा विद्या,

जादू टोना और अविद्या हमें जिस सूक्ष्म जगत के दर्शन कराती है, वह कितना खरा है और कितना खोटा, यह जानना इतना आसान नहीं, अतः जो आंखों से दिखाई दे, शब्दों के माध्यम से प्रकट हो, और शास्त्रोक्त हो, उसी विचार को आत्मसात कर, व्यवहार में लाया जाना चाहिए।

सनातन, पुरातन, आधुनिक और वर्तमान का समग्र चिंतन ही हमारा विचार प्रवाह है। शब्द ही वह माध्यम है, जो वैचारिक क्रांति भी लाता है और हमारे अंदर सकारात्मकता और नकारात्मकता के बीज भी बोता है। नीर, क्षीर और विवेक के अलावा और कोई गुरु अथवा मसीहा आपको सही राह नहीं दिखा सकता। ।

मंत्र की ही तरह विचार भी बड़े शक्तिशाली होते हैं। जिस तरह मंत्र के शब्द गौण हो जाते हैं और मंत्र शक्ति ही काम करती है, इसी तरह शब्द तो गौण हो जाते हैं, और विचार शक्तिशाली हो जाते हैं।

आज के युग में शस्त्र से अधिक वैचारिक युद्ध कारगर हो रहे हैं। वाक् शक्ति का दुरुपयोग देखना हो तो आज अपने आसपास चल रहे वाक् युद्ध देखिए। शब्द और विचार इतने मारक भी हो सकते हैं, यह तो शायद ईश्वर ने भी नहीं सोचा होगा। हिंसा पर मानसिक हिंसा हावी है। ।

कोई नेता नहीं, कोई अभिनेता नहीं, अपनी राह आप चुनें ;

मैं तो अकेला ही चला था

जानिब ए मंज़िल मगर।

लोग साथ आते गए और

कारवाँ बनता चला गया। ।

००० 000 ०००

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 188 ⇒ चोट्टा, चुगलखोर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चोट्टा, चुगलखोर”।)

?अभी अभी # 188 ⇒ चोट्टा, चुगलखोर… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

ये शब्द बाल साहित्य के हैं। नंद और यशोदा के लाल के लिए भक्त शिरोमणि सूरदास जी छलिया और माखनचोर जैसे शब्दों का प्रयोग करते नजर आते हैं, जब कि हमारे जमाने के बाल गोपाल एक दूसरे के लिए चोट्टा और चुगलखोर जैसे शब्दों से ही काम चला लेते थे।

जो अंतर चोर और चोट्टे में है, वही अंतर शिकायत और चुगली में है। जागो ग्राहक जागो, अपने अधिकारों के प्रति सजग हों। मिलावट, और चोर बाजारी के खिलाफ आवाज उठाना और शिकायत करना, हर उपभोक्ता का संवैधानिक अधिकार है। लेकिन जब चोर चोर मौसेरे नहीं, सगे भाई बहन हों, तो जागा नहीं जाता, शिकायत नहीं की जाती। वहां तो बस मिलीभगत ही काम आती है। ।

वैसे हमारे वयस्क समाज में ये दोनों शब्द ही शोभनीय नहीं हैं। हमारे संत भी चोर मन की ही बात करते हैं, चोट्टे मन की नहीं। एक भक्त को यह अधिकार तो है कि वह अपने आराध्य से शिकायत करे, अनुनय विनय करे, गिड़गिड़ाए, लेकिन भगवान से भी कभी किसी की चुगली नहीं की जाती।

मैया मोहि दाऊ मोहे बहुत खिझायों

मो से कहत मोल को लीन्हौ

तू जसुमति कब जायौं ?

लेकिन महाराज, यह तो सरासर चुगली है और मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो, तो चोरी और सीना जोरी ! बिल्कुल ऐसा ही हमारे साथ बचपन में होता था। बड़े भाई साहब तो हमेशा डांटते और खाने को दौड़ते थे, लेकिन दीदी से हमारी बहुत घुटती थी। घुटने का मतलब ही होता है, एक दूसरे के काम आना, एक दूसरे की कमजोरियों को छुपाना।

स्कूल में, इंटरवल में कौन गोली, बिस्किट और बर्फ के लड्डू नहीं खाता। जब गला खराब होता तो घर जाकर शामत आ जाती। जरूर कुछ उल्टा सुल्टा खाया होगा। जवाब दो !

मां तो सिर्फ डांटती थी। लेकिन बड़े भैया और पिताजी से बहुत डर लगता था। बहुत कुछ छुपाना पड़ता था एक दूसरे के लिए।।

कभी कभी जब किसी बात पर लड़ाई हो जाती, तो छोटी मोटी गलतियों और वारदातों की चुगली भी कर दी जाती। साथ साथ दूध और दही की मलाई चोरी से खाने का मजा ही कुछ और था। थोड़ी किसी बात को लेकर अनबन हुई, और चुगली शुरू! मां ये भैया चोट्टा है, चोरी से मलाई खाता है।

मां को ऊंठे जूठे से बहुत चिड़ थी, वह भी भड़क उठती, ठहर चोट्टे, तुझे बताती हूं। बेचारा हम जैसा कमजोर इंसान क्या कर सकता था। जब कि मलाई तो हम दोनों भाई बहन मिलकर ही चुराते और खाते थे। मन मसोसकर दीदी को यही कह पाते थे, दीदी आप चुगलखोर हो। आगे से मैं भी आपकी इसी तरह हर बात पर चुगली करूंगा। आपसे कट्टी। ।

इसे मानवीय कमजोरी कहें, अथवा भाई बहन का प्रेम, संकट में वैसे भी सगे ही काम आते हैं। बहुत जल्द हमारा समझौता हो जाता। केवल चोर चोर ही मौसेरे भाई नहीं होते, बचपन में, चोट्टे और चुगलखोर, आपस में भाई बहन भी होते हैं।

आज जब भी बचपन की ऐसी छोटी मोटी घटनाएं याद आ जाती हैं, मन करता है, आज फिर कोई हमारी चुगली करे, हमें चोट्टा कहे। बहुत अर्सा हुआ, चोरी से मलाई नहीं खाई। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 88 – प्रमोशन… भाग –6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की एक नवीन शृंखला “प्रमोशन…“ की अगली कड़ी।

☆ आलेख # 88 – प्रमोशन… भाग –6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

आखिर कुछ महीनों और कुछ दिनों के इंतजार के बाद बहुप्रतीक्षित रिजल्ट आ ही गया और सारे कि सारे ही पास हो गये. अब इंटरव्यू फेस करना था तो उसकी तैयारियां शुरु हो गईं. तैयारी का पहला चरण इंटरव्यू के लिये पहनी जानी वाली ड्रेस का चयन करना था. इंटरव्यू की अनुमानित तिथि तक ग्रीष्म ऋतु के पूरे शबाब में होने के कारण फुल शर्ट और पैंट ही मुफीद माना गया. कंठलंगोट पहनने का प्रशिक्षण शुरु हो गया जो कि साक्षात्कार से दस मिनट पहले भी पहनी जा सकती है. शुक्र है कि उस वक्त सीसीटीवी का अविष्कार नहीं हो पाया था वरना बाहर की रिकार्डिंग देखकर ही अंदरवाले कुछ लोगों को सिलेक्ट लिस्ट से बाहर कर देते. जो रोजमर्रा के जीवन में पहने जाते हैं उन्हें जूते कहा जाता है पर इंटरव्यू में चरणों की शोभा “शूज़” से बढ़ती है इसका पूरा खयाल रखा जाता है कि ये साउंड प्रुफ हों और इन शूज़ को कुत्तों के समान काटने का शौक न हो. शहर इतना बड़ा तो था कि वहाँ बैंक में पहले प्रमोशन के हिसाब से सब कुछ मिल जाता था तो बाहरी डेकोरेशन की तैयारी पूरी थी.

अब इंटरनल डेकोरेशन के लिये तैयारी करनी थी. उस समय मॉक इंटरव्यू नामक सुविधा उपलब्ध नहीं थी. जिन लोगों ने फिर से वही किताबें उठा लीं, उनको सलाह दी गई कि इन किताबों पर आधारित ज्ञान की परीक्षा तो हो गई. अब इंटरव्यू का मतलब पर्सनैलिटी परीक्षण से होता है. बात करने का तरीका, समस्याओं पर प्रत्याशी का नजरिया, जो भी आसपास घट रहा है याने करेंट अफेयर्स, उसकी अपडेट्स, और सबसे कठिन प्रश्न कि “Why you should be promoted” वैसे इसके बहुत सारे सरल जवाब हैं पर ये इंटरव्यू में दिये नहीं जा सकते, उद्दंडता प्रकट होने का खतरा होता है. जो इसका जवाब बड़ी चतुराई से दे पाते हैं वो बोर्ड के सामने सिक्का जमा लेते हैं. ये बोर्ड कैरमबोर्ड नहीं बल्कि शतरंज का बोर्ड होता है जिसमें सारे शक्तिशाली मोहरे, दूसरी तरफ बैठे प्यादे की वजीर बनने की क्षमता भांपते हैं या अपने मानदंडों पर नापते हैं. इंटरव्यू कक्ष में नॉक करने और कक्ष में प्रवेश करते समय की बॉडी लेंग्वेज से लेकर वापस जाने तक की बॉडीलैंग्वेज का बड़ी बारीकी से परीक्षण किया जाता है. लिपिकीय स्टाफ क्या आसानी से अपनी कंफर्ट ज़ोन से बाहर आ पायेगा या फिर शाखाप्रबंधक बनकर भी बाबू बनकर ही बचा हुआ या छोड़ा हुआ काम करता रहेगा. प्रबंधन भले ही कनिष्ठ हो पर चयन, उपलब्ध में से ही सबसे बेहतर लोगों को चुनने की प्रक्रिया ही इंटरव्यू कहलाती है जिसकी गुणवत्ता और श्रेष्ठता प्रबंधन के बढ़ते लेवल के साथ बढ़ती जाती है. इंटरव्यू के दौरान कॉन्फिडेंस तो कम होता है पर हाथों, और चेहरे पर पसीना आना, गला सूखने पर भी सामने रखे पानी के गिलास का अनुमति लेकर प्रयोग नहीं करना, आवाज़ कांपना, बहुत धीरे बोलना, जानते हुये भी खुद को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त नहीं कर पाना ये सब व्यक्तित्व की कमजोरियों में शुमार होते हैं. हर अर्जुन, कर्ण और एकलव्य के समान कुशल धनुर्धर नहीं होता पर काबलियत से जो इंटरव्यू बोर्ड को आश्वस्त करदे वही सिलेक्ट लिस्ट में जगह पाता है. मि. 100% जब इंटरव्यू कक्ष में गये और फिर जब वापस निकले तो उनकी nervousness में अप्रत्याशित वृद्धि नजर आ रही थी जबकि बाकी चार तो “हुआ तो हुआ वरना कौन सी नौकरी जाने वाली है” वाले मूड में प्रफुल्लित नजर आ रहे थे.

रिजल्ट का इंतजार कीजिये, ये मेरी नहीं हमारी कहानी है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 187 ⇒ तीन पत्ती… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “तीन पत्ती ।)

?अभी अभी # 187 ⇒ तीन पत्ती? श्री प्रदीप शर्मा  ?

तीन पत्ती – (वैधानिक स्पष्टीकरण ; यह शरीफों का नहीं, बुद्धिमानों का खेल है।)

शुद्ध हिंदी में आप इसे जुआ कह सकते हैं, और शिष्ट भाषा में फ्लैश। मैं एक शरीफ इंसान हूं, इसलिए कोशिश करके भी तीन पत्ती नहीं खेल सकता। यह फूल पत्तियों का नहीं, ताश के बावन पत्तों का खेल है। जो मुझ जैसे लोग तीन पत्ती का मतलब नहीं जानते, वे सत्ते पे सत्ता और नहले पर दहला का अर्थ जरूर जानते हैं। ये दोनों बॉक्स ऑफिस की किसी जमाने की हिट फिल्म थी। वैसे सन् १९७३ में गुलाम बेगम बादशाह फिल्म भी आई थी, अच्छी भली शान से चल रही थी, अचानक चली गई।

जानकर सूत्रों के अनुसार तीन पत्ती केवल दस पत्तों का ही खेल है, और जिसके पास तीन इक्के, वह मुकद्दर का सिकंदर। जो ताश नहीं खेलते, वे भी जानते हैं, तीन इक्का क्या होता है। रेडियो पर कभी अमीन सयानी की आवाज गूंजती थी, मोटा दाना, मीठा स्वाद, तीन इक्का तुअर दाल, महादेव सहारा एंड सन्स, इंदौर। तब रेडियो पर इंदौर का नाम सुन बड़ा गर्व होता था।।

तीन का संबंध पत्ती से ही नहीं, बत्ती से भी है। इंदौर में पहला ट्रैफिक सिग्नल यानी तीन बत्ती, जेलरोड चौराहे पर लगी थी, और लोग उसे उत्साह में तीन बत्ती चौराहा कहने लगे थे। आज भी इंदौर में तीन पुलिया भी है और तीन इमली चौराहा भी। पोलोग्राउंड पर तीन बड़ी बड़ी चिमनियाँ कभी इंदौर की पहचान थी। आज उसी शहर में कपड़ा मिलों की चिमनियों का धुआं नहीं, चारों ओर वाहनों का धुआं और ध्वनि प्रदूषण व्याप्त है।

छोटी मोटी बुराई हर इंसान में होती है। हमारी मोटी बुद्धि में भी ताश जैसी बुराई बचपन से ही मौजूद थी। हम भाई बहन, रंग मिलावनी, सत्ती लगावनी, और तीन दो पांच से कभी आगे नहीं बढ़ पाए। बड़ों के सत्संग ने हमें आगे चलकर चौकड़ी और छकड़ी के लायक भले ही बना दिया हो, लेकिन चतुराई और हाथ की सफाई में हमने सबको निराश ही किया। इस निराश नर को कोई अपना पार्टनर बनाने को ही तैयार नहीं होता था।।

वे दिन भी क्या दिन थे। अक्सर ऑफिस और दफ्तरों में ट्रिप, पिकनिक और बगीचों में दाल बाफले की फेयरवेल पार्टियां हुआ करती थी। कभी मांडू जा रहे हैं तो कभी उदयपुर !

सफर तो अंताक्षरी से कट जाता था, लेकिन वहां जाकर दो ग्रुप हो जाते थे। एक शरीफ गृहस्थों का तंबोला ग्रुप और एक सयानों का तीन पत्ती ग्रुप।

एक माचिस की काड़ी से लोग फुल हाउस खेल जाते थे, और हम जैसे लोग two fat ladies सुनकर आपस की महिलाओं को देखा करते थे और हमारी एक भी लाइन क्लियर नहीं हो पाती थी।

बहुत क्लब हैं हमारे शहर में लायंस और रोटरी के अलावा भी। एक यशवंत क्लब भी है, जहां राजा महाराजा, ओल्ड डेलियन्स और नामी गिरामी क्रिकेट खिलाड़ियों के अलावा कई प्रसिद्ध उद्योगपति, व्यापारी और सेलिब्रिटीज सदस्य होते हैं। खेलों की कोई सीमा नहीं होती। कई हेल्दी गेम्स खेले जाते हैं यहां, जिनमें एक गेम ब्रिज भी अधिक प्रचलित है। जिसका दिमाग फ्लैश में ही नहीं चलता, उसके दिमाग की बत्ती ब्रिज जैसे गेम में कैसे चलेगी। चैस यानी शतरंज जैसा ही दिमाग का खेल है ब्रिज।

हम तो हावड़ा ब्रिज देखकर ही निहाल हो गए।।

आज की युवा पीढ़ी और कम उम्र के बच्चों को जब डेस्कटॉप और मोबाइल पर सभी आउटडोर और इनडोअर गेम्स खेलते देखता हूं, तो अपनी बुद्धि पर तरस आता है। हम जीवन भर बादाम खाते रहे और लगड़ी, खो खो, कबड्डी और सितोलिया खेलते रहे, और आज की पीढ़ी मैग्गी, पास्ता, बर्गर और चाइनीज खा खाकर भी हमसे कई किलोमीटर आगे निकल गई।

अगर हमें आगे बढ़ना है तो समय के साथ तो चलना ही पड़ेगा। तीन पत्ती जैसे वाहियात खेलों से ही दिमाग की बत्ती नहीं जलती। राजनीति भी एक अच्छा खेल है। खेल का एक ही नियम, उगते सूरज को सलाम।। शुभ नवरात्र !

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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