हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 206 ⇒ मंगती बिल्ली… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मंगती बिल्ली”।)

?अभी अभी # 206 ⇒ मंगती बिल्ली… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बिल्ली यों तो कहने को शेर की मौसी है, लेकिन स्वभाव से बड़ी डरपोक होती है।

चोरी जरूर करती है, लेकिन कभी सीना जोरी नहीं करती। यहां वहां दुबक कर पड़े रहने वाले इस प्राणी की गिनती आवारा पशुओं में नहीं होती। कचरे में मुंह मारने की अपेक्षा यह दूध और मलाई में ही मुंह मारना पसंद करती है।

यह कुत्ते की तरह कभी भौंकती नहीं, तेरी मेरी सभी की बिल्ली, सिर्फ म्याऊॅं ही करती है। एक कुत्ते की तरह यह भी न तो घर की ही है, न किसी घाट की।

वैसे यह जंगली भी हो सकती है, और पालतू भी, लेकिन कुत्ते की तरह स्वामिभक्ति और वफादारी इसके खून में नहीं। यह शातिर भी हो सकती है और मौका आने पर खूंखार भी। फिर भी विदेशों में इसे बड़े शौक से पाला जाता है। ।

यह बड़ी सफाई पसंद होती है। दिन में इसे सिर्फ सड़कों पर लोगों का रास्ता काटते देखा जा सकता है, रात के अंधेरे में यह चूहों का शिकार करने के बहाने आपके घरों में घुसती है, और लगे हाथ दूध पर भी हाथ साफ कर देती है। यह कभी कुत्ते की मौत नहीं मरती। लेकिन निश्चिंत रहिए, हम आपको सोने की बिल्ली वाली कहानी नहीं सुनाने वाले।

बिल्ली एक रहस्यमयी प्राणी है। इसका उपयोग जादू टोने और रामसे ब्रदर्स के भुतहे बंगलों में बहुत हुआ है। लालटेन वाला चौकीदार, पुराने दरवाजे की चरचराहट की आवाज, रात के अंधेरे में चमगादड़, और काली बिल्ली की चमकती डरावनी आंखों के बीच फिल्म गुमनाम का गीत, गुमनाम है कोई, अनजान है कोई, और एक लाश, दर्शकों को डराने के लिए काफी होता था। ।

लेकिन फिर भी शहर में आज भी ऐसे कई मोहल्ले और बस्तियां हैं, जहां घरों में बिल्लियां आजादी से, बेखौफ घूमती हैं। पुराने घरों के जीर्ण शीर्ण कमरों और अनुपयोगी फर्नीचर और सामान के बीच वे ना केवल अपना आशियाना बना लेती हैं, अपितु अपने वंश वृद्धि के लिए भी इस जगह का उपयोग करती रहती हैं।

बड़े प्यारे होते हैं, कुत्ते बिल्ली के बच्चे। जब इंसान बच्चों के साथ बच्चा बन जाता है तो उसकी भेद बुद्धि खत्म हो जाती है। केवल एक नादान बच्चा ही निडर होकर शेर के मुंह में हाथ डाल सकता है। हर इंसान का बच्चा, शेर बच्चा होता है। आखिर शेर का बच्चा भी तो शेर बच्चा ही होता है। ।

एक बार अगर कोई बिल्ली म्याऊं-म्याऊं करती घर में प्रवेश कर गई, तो फिर वह घर की ही होकर रह जाती है। उसका अनुनय विनय अधिकार में परिवर्तित हो जाता है। वह भी घर के अन्य बच्चों की तरह दूध की मांग करने लग जाती है। जो अपने बच्चों से करे प्यार, वह बिल्ली को दूध देने से कैसे करे इंकार। बस इसी तरह एक बिल्ली पालतू बन जाती है, सबकी मुंहलगी बन जाती है।

क्या बिल्ली बेशर्म भी होती है। अभी हाल ही में, एक साधारण से होटल में जब सुबह सुबह हम पोहे लेने गए, तो होटल के बाहर ही एक बिल्ली ने हमारा म्याऊं म्याऊं कहकर स्वागत किया। हम उसे अनदेखा करते हुए अंदर होटल में जाकर बैठ गए। बिल्ली का म्याऊं म्याऊं का राग जारी था। कुछ ही समय में वह हमारे पास अंदर आ गई और शिकायत के अंदाज में म्याऊं करती रही। ।

मान न मान, मैं तेरा मेहमान। होटल का मालिक बैठा है, मांगना है तो उससे मांग। हम तो ग्राहक हैं। लेकिन तब तक तो बिल्ली की आवाज ने पूरी होटल सर पर उठा ली थी। मालिक ने बताया, आज अभी तक दूध नहीं आया है। पहले दूध वाला इसे बाहर दूध देता है, उसके बाद ही होटल में प्रवेश कर पाता है। क्या कहेंगे इसे आप, बेशर्मी, दादागिरी अथवा दैनिक हफ्ता वसूली।

जब तक दूध वाला नहीं आएगा, हर ग्राहक के पास जा जाकर हमारी शिकायत करती फिरेगी। सालों से हिली हुई है, न मार सकते, न भगा सकते। हमारे मुंह से भी निकल ही गया, अच्छी बेशर्म और मंगती बिल्ली पाल रखी है आपने। खैर, दूध वाला नहीं आया सो नहीं आया। हमने काउंटर पर पैसे दिए, और अपना रास्ता नापा। बिल्ली की हमसे शिकायत जारी थी। हमें जाते जाते भी उसकी म्याऊं म्याऊं सुनाई दे रही थी। बेचारी बेशर्म, मंगती बिल्ली !

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 216 – साक्षात्कार ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 216 ☆ साक्षात्कार ?

मुँह अंधेरे यात्रा पर निकलना है। निकलते समय घर की दीवार पर टँगे मंदिर में विराजे ठाकुर जी को माथा टेकने गया। दर्शन के लिए बिजली लगाई। बिजली लगाने भर की देर थी कि मानो ठाकुर जी हँस पड़े। मनुष्य को भी अपनी वैचारिक संकीर्णता पर स्वयं हँसी आ गई।

दिव्य प्रकाशपुंज को देखने के लिए 5-7 वॉट का बल्ब लगाना! सूरज को दीपक दिखाने का मुहावरा संभवत: ऐसी नादानियों की ही उपज है।

नादानी का चरम है, भीतर की ठाकुरबाड़ी में बसे ठाकुर जी के दर्शन से आजीवन वंचित रहना। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि मनुष्य आँखों को खुद ढककर अंधकार-अंधकार चिल्लाता है।

खुदको प्रकाश से वंचित रखनेवाले मनुष्यरूपी प्रकाश की कथा भी निराली है। अपनी लौ से अपरिचित ऐसा ही एक प्रकाश, संत के पास गया और प्रकाशप्राप्ति का मार्ग जानना चाहा। संत ने उसे पास के तालाब में रहनेवाली एक मछली के पास भेज दिया। मछली ने कहा, “अभी सोकर उठी हूँ, प्यास लगी है। कहीं से थोड़ा जल लाकर पिला दो तो शांति से तुम्हारा मार्गदर्शन कर सकूँगी।”

प्रकाश हतप्रभ रह गया। बोला, “जल में रहकर भी जल की खोज?”

मछली ने कहा, “यही तुम्हारी जिज्ञासा का समाधान है। खोज सके तो खोज।”

“खोजी होये तुरत मिल जाऊँ

एक पल की ही तलाश में।

कहत कबीर सुनो भाई साधो,

मैं तो हूँ विश्वास में।।

भीतर के ठाकुर जी के प्रकाश का साक्षात्कार कर लोगे तो बाहर की ठाकुरबाड़ी में स्वत: उजाला दिखने लगेगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी से आपको शीघ्र ही अवगत कराएंगे। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 205 ⇒ आसमान से गिरे… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आसमान से गिरे”।)

?अभी अभी # 205 ⇒ आसमान से गिरे… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अगर आपके पास पैराशूट नहीं है, और आप आसमान से जमीन पर गिरते हैं, तो आपका तो भगवान ही मालिक है। ऐसी स्थिति में अगर आप जमीन पर गिरने की जगह

खजूर में ही अटक जाएं, तो शायद आप भी खजूर को ही दोष दें, आसमान से गिरे, और खजूर में अटके।

बेचारा खजूर तो नेकी कर, दरिया में भी नहीं डाल सकता क्योंकि बद अच्छा बदनाम बुरा। और खजूर तो पहले से ही बदनाम है;

बड़ा हुआ तो क्या हुआ,

जैसे पेड़ खजूर।

पंथी को छाया नहीं

फल लागे अति दूर।।

इंसान को आसमान से गिरने की कोई चिंता नहीं, हो सकता है उसका जीवन बीमा हो। लेकिन अगर खजूर पर अटक गया तो कौन निकालेगा। कलयुग में खजूर से लंबा तो दशहरे पर रावण बनाया जाता है, आग लगने पर फायर ब्रिगेड बहुमंजिला भवनों से प्रभावित परिवारों को सफलतापूर्वक बचा लेता है, लेकिन बेचारा खजूर मानो कोई पनौती हो।

इसी खजूर के फल को अमीरों के घरों में कितना सम्मान मिलता है। अंग्रेजी में इसे डेट date अथवा date palm कहते हैं। सूखने पर यह सूखा मेवा ही खारक कहलाता है। अगर यही खजूर गरीबों के मेवे बोर की तरह झाड़ियों में उगता तो बकरी के साथ साथ, हर आम और खास के लिए भी आसानी से उपलब्ध हो जाता। वैसे भी अमीरों के फल तो आसमान में ही उगते हैं।।

प्रकृति की गोद में हर प्राणी का वास है। यह वत्सला एक चींटी से लेकर हाथी तक का पूरा खयाल रखती है। बस्ती, जंगल, बर्फ, पहाड़ और रेगिस्तान में भी जीवन व्याप्त है। केवल मनुष्य को छोड़कर किसी प्राणी को प्रकृति से कोई शिकायत नहीं। भले ही दास मलूका अजगर और पंछी को निकम्मा साबित कर दें, कोई अजगर और पंछी इंसान की भांति मंदिर में घंटियाँ बजा, उस दाता से कभी कुछ नहीं मांगता।

यह मनुष्य ही है, जो बंदर से भी दो कदम आगे बढ़ बागों के फूल भी तोड़ता है और फल भी खाता है और फिर कुल्हाड़ी लेकर गुलशन भी उजाड़ देता है।

अपने विशाल महल के खिड़की दरवाजों के लिए वह कितने पंछियों को बेघर करता है, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है और खजूर को दोष देता है, बड़ा हुआ तो क्या हुआ।।

लेकिन वह इतना मूढ़ मति भी नहीं ! उसका स्वार्थ देखिए, जब डूबता है तो तिनके का सहारा लेना भी नहीं भूलता। और जब कोई तिनका भी नसीब नहीं होता, तो पता है, क्या कहता है ;

हम तो डूबेंगे सनम

तुमको भी ले डूबेंगे ….

स्वार्थ और खुदगर्जी के इस पुतले से बचाने के लिए ही प्रकृति कुछ वस्तुएं उसकी पहुंच से दूर रखती है। रेगिस्तान में ऊंट को पीने को पानी और उसकी भूख मिटाने इंसान नहीं जाता।

हाथी का पेट एक इंसान नहीं भर सकता लेकिन एक जानवर कई इंसानों का पेट पालता है।

सुबह सुबह, खजूर खाते हुए मुझे कोई डर नहीं, कि कहीं मैं भी आसमान से गिरकर खजूर में न अटक जाऊं। इसके पहले कि कोई दूसरा आ जाए, क्यों न कुछ और खजूर उदरस्थ कर लिए जाएं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 204 ⇒ पलटवार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पलटवार”।)

?अभी अभी # 204 ⇒ पलटवार… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यहां वार की पहल नहीं की गई है। पहले किसी और ने वार किया है। पलटवार को आप जवाबी हमला भी कह सकते हैं। यहां हम अहिंसक रहते हुए, केवल मौखिक हमलों की ही चर्चा करेंगे। जो नीति और रणनीति की बातें करते हैं उनकी बात अलग है, क्योंकि उनका ब्रह्म वाक्य ही यह होता है ;

Art of Defence

is to attack.

आपको आश्चर्य होगा, वार भी दो तरह के होते हैं। एक होता है अंग्रेज़ी का वॉर (war) जिसका अर्थ सिर्फ युद्ध होता है, फिर चाहे वह वर्ल्ड वॉर हो अथवा रूस यूक्रेन और इसराइल हमास वॉर।

लेकिन हमारी हिंदी का वार कभी खाली नहीं जाता। सप्ताह में अगर सात दिन होते हैं, तो सात ही वार होते हैं, कोई भी खाली वार हो तो बताइए। बस, एक रविवार की जरूर छुट्टी हो जाती है। भारतीय परिधान साड़ी कितने वार की होती है, गूगल कर लें।।

हमारी भारतीय सनातन संस्कृति में कभी युद्ध नहीं होता, सिर्फ धर्मयुद्ध होता है। जब भी धर्म की हानि होती है, मैं अवतार लेता हूं ;

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।

जब तक हम पर युद्ध नहीं थौंपा जाता, हम कभी युद्ध नहीं करते। लेकिन अगर दुश्मन वार करेगा, तो हम उसे दूसरा गाल ऑफर करने से तो रहे। वो क्या कहते हैं उसे, शठे शाठ्यम् समाचरेत् ! यह हमारी नहीं, विदुर नीति है। वार का पलटवार तो कुश्ती में भी होता है, और शास्त्रार्थ में भी।

रामायण और महाभारत सीरियल में कैसे अस्त्र, दिव्यास्त्र और ब्रह्मास्त्र छोड़े जाते थे। इधर से वार तो उधर से पलटवार। बस एक ब्रह्मास्त्र ही लाजवाब था, जिसके आगे नतमस्तक होना पड़ता था। राजनीति तो छोड़िए जनाब, यहां तो हमने लोगों को नजरों के तीर भी कस कसकर मारते देखा है। वैदिक हिंसा की तरह ही इसे भी हिंसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहां तो तीर खाने वाला ही फरियाद करता नजर आता है ;

तीर आंखों से, जिगर के

पार कर दो यार तुम।

जान ले लो, या तो जां को

निसार कर दो यार तुम।।

बचपन में हमने भी बहुत वाकयुद्ध खेला है। बहुत वार और पलटवार किए हैं। उधर से पहला वार, तू चोर। देखिए हम कितने शरीफ, तू महाचोर से ही जवाब दे दिया। लेकिन जब उधर से प्रत्युत्तर में, तेरा बाप चोर, आया तो हमने भी कोई चूड़ियां नहीं पहन रखी थी। हमने भी पलटवार किया, तू गधा, तेरा बाप गधा, तेरा पूरा खानदान चोर। कभी हाथापाई भी होती और कभी बीच बचाव भी। लेकिन कुछ समय बाद, वही, एक दूसरे के गले में हाथ डाले घूम रहे हैं, चोर और महाचोर।

लेकिन अफसोस, इस आज की राजनीति ने तो हमारे बरसों की दोस्ती पर भी डाका डाल दिया है। फेसबुक पर दोस्त बनते हैं, राजनीतिक मतभेद के चलते, और स्वस्थ संवाद के अभाव में ब्लॉक और अनफ्रेंड करने की नौबत आ जाती है।।

रिश्तों में राजनीति, खेल में राजनीति, सामाजिक जीवन में राजनीति। वही वार और पलटवार। अच्छे भले भले मानुस, यानी जैन्टलमैन्स गेम क्रिकेट के मुकाबले को पहले तो धर्मयुद्ध बना दिया और उसके बाद सत्ता और विपक्ष का जो वार और पलटवार शुरू हुआ, वह बंद होने का नाम ही नहीं ले रहा। आप हम कौरव पांडव बने, शकुनि के पासों में उलझे हुए हैं।

हमें आजकल आरपार की लड़ाई का बहुत शौक है। जब तक वार चलता रहेगा, पलटवार भी चलता रहेगा। इनके बीच, आज कोई राजकपूर जैसा दीवाना नहीं, जो आकर कह दे ;

तुम्हारी भी जय जय, हमारी भी जय जय।

ना तुम हारे, ना हम हारे..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #207 ☆ अनुभव और निर्णय ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अनुभव और निर्णय। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 207 ☆

☆ अनुभव और निर्णय ☆

अगर आप सही अनुभव नहीं करते, तो निश्चित् है कि आप ग़लत निर्णय लेंगे–हेज़लिट की यह उक्ति अपने भीतर गहन अर्थ समेटे है। अनुभव व निर्णय का अन्योन्याश्रित संबंध है। यदि विषम परिस्थितियों में हमारा अनुभव अच्छा नहीं है, तो हम उसे शाश्वत् सत्य स्वीकार उसी के अनुकूल निर्णय लेते रहेंगे। उस स्थिति में हमारे हृदय में एक ही भाव होता है कि हम आँखिन देखी पर विश्वास रखते हैं और यह हमारा व्यक्तिगत अनुभव है–सो! यह ग़लत कैसे हो सकता है? निर्णय लेते हुए न हम चिन्तन-मनन करना चाहते हैं; ना ही पुनरावलोकन, क्योंकि हम आत्मानुभव को नहीं नकार सकते हैं?

मानव मस्तिष्क ठीक एक पैराशूट की भांति है, जब तक खुला रहता है, कार्यशील रहता है–लार्ड डेवन का यह कथन मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर प्रकाश डालता है और उसके अधिकाधिक प्रयोग करने का संदेश देता है। कबीरदास जी भी ‘दान देत धन न घटै, कह गये भक्त कबीर’ संदेश प्रेषित करते हैं कि दान देते ने से धन घटता नहीं और विद्या रूपी धन बाँटने से सदैव बढ़ता है। महात्मा बुद्ध भी जो हम देते हैं; उसका कई गुणा लौटकर हमारे पास आता है–संदेश प्रेषित करते हैं। भगवान महाबीर भी त्याग करने का संदेश देते हैं और प्रकृति का भी यही चिरंतन व शाश्वत् सत्य है।

मनुष्य तभी तक सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम, सर्वगुण-सम्पन्न व सर्वपूज्य बना रहता है, जब तक वह दूसरों से याचना नहीं करता–ब्रह्मपुराण का भाव, कबीर की वाणी में इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है ‘मांगन मरण एक समान।’ मानव को उसके सम्मुख हाथ पसारने चाहिए, जो सृष्टि-नियंता व जगपालक है और दान देते हुए उसकी नज़रें सदैव झुकी रहनी चाहिए, क्योंकि देने वाला तो कोई और…वह तो केवल मात्र माध्यम है। संसार में अपना कुछ भी नहीं है। यह नश्वर मानव देह भी पंचतत्वों से निर्मित है और अंतकाल उसे उनमें विलीन हो जाना है। मेरी स्वरचित पंक्तियाँ उक्त भाव को व्यक्त करती हैं…’यह किराये का मकान है/ जाने कौन कब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा’ और ‘प्रभु नाम तू जप ले रे बंदे!/ वही तेरे साथ जाएगा’ यही है जीवन का शाश्वत् सत्य।

मानव अहंनिष्ठता के कारण निर्णय लेने से पूर्व औचित्य- अनौचित्य व लाभ-हानि पर सोच-विचार नहीं करता और उसके पश्चात् उसे पत्थर की लकीर मान बैठता है, जबकि  उसके विभिन्न पहलुओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक होता है। अंततः यह उसके जीवन की त्रासदी बन जाती है। अक्सर निर्णय हमारी मन:स्थिति से प्रभावित होते है, क्योंकि प्रसन्नता में हमें ओस की बूंदें मोतियों सम भासती हैं और अवसाद में आँसुओं सम प्रतिभासित होती हैं। सौंदर्य वस्तु में नहीं, दृष्टा के नेत्रों में होता है। इसलिए कहा जाता है ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।’ सो! चेहरे पर हमारे मनोभाव प्रकट होते हैं। इसलिए ‘तोरा मन दर्पण कहलाए’ गीत की पंक्तियाँ आज भी सार्थक हैं।

दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है, क्योंकि हम स्वयं को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझते हैं। परिणामत: हम सत्यान्वेषण नहीं कर पाते। ‘बहुत कमियाँ निकालते हैं/ हम दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाकात/ ज़रा आईने से भी कर लें।’ परंतु मानव अपने अंतर्मन में झाँकना ही नहीं चाहता, क्योंकि वह आश्वस्त होता है कि वह गुणों की खान है और कोई ग़लती कर ही नहीं सकता। परंतु अपने ही अपने बनकर अपनों को प्रताड़ित करते हैं। इतना ही नहीं, ‘ज़िन्दगी कहाँ रुलाती है/ रुलाते तो वे लोग हैं/ जिन्हें हम अपनी ज़िन्दगी समझ बैठते हैं’ और हमारे सबसे प्रिय लोग ही सर्वाधिक कष्ट देते हैं। ढूंढो तो सुक़ून ख़ुद में है/ दूसरों में तो बस उलझनें मिलेंगी। आनंद तो हमारे मन में है। यदि वह मन में नहीं है, तो दुनिया में कहीं नहीं है, क्योंकि दूसरों से अपेक्षा करने से तो उलझनें प्राप्त होती हैं। सो! ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ बेवजह ही न किसी से ग़िला कीजिए’ स्वरचित गीत की पंक्तियाँ उलझनों को शीघ्र सुलझाने व शिक़ायत न करने की सीख देती हैं।

उत्तम काम के दो सूत्र हैं…जो मुझे आता है कर लूंगा/ जो मुझे नहीं आता सीख लूंगा। यह है स्वीकार्यता भाव, जो सत्य है और यथार्थ है उसे स्वीकार लेना। जो व्यक्ति अपनी ग़लती को स्वीकार लेता है, उसके जीवन पथ में कोई अवरोध नहीं आता और वह निरंतर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता जाता है। ‘दो पल की है ज़िन्दगी/ इसे जीने के दो उसूल बनाओ/ महको तो फूलों की तरह/ बिखरो तो सुगंध की तरह ‘ मानव को सिद्धांतवादी होने के साथ-साथ हर स्थिति में खुशी से जीना बेहतर विकल्प व सर्वोत्तम उपाय  है।

बहुत क़रीब से अंजान बनके निकला है/ जो कभी दूर से पहचान लिया करता था–गुलज़ार का यह कथन जीवन की त्रासदी को इंगित करता है। इस संसार म़े हर व्यक्ति स्वार्थी है और उसकी फ़ितरत को समझना अत्यंत कठिन है। ज़िन्दगी समझ में आ गयी तो अकेले में मेला/ न समझ में आयी तो भीड़ में अकेला…यही जीवन का शाश्वत्  सत्य व सार है। हम अपनी मनस्थिति के अनुकूल ही व्यथित होते हैं और यथासमय भरपूर सुक़ून पाते हैं।

तराशिए ख़ुद को इस क़दर जहान में/ पाने वालों को नाज़ व खोने वाले को अफ़सोस रहे। वजूद ऐसा बनाएं कि कोई तुम्हें छोड़ तो सके, पर भुला न सके। परंतु यह तभी संभव है, जब आप इस तथ्य से अवगत हों कि रिश्ते एक-दूसरे का ख्याल रखने के लिए होते हैं, इस्तेमाल करने के लिए नहीं। हमें त्याग व समर्पण भाव से इनका निर्वहन करना चाहिए। सो! श्रेष्ठ वही है, जिसमें दृढ़ता हो; ज़िद्द नहीं, दया हो; कमज़ोरी नहीं, ज्ञान हो; अहंकार नहीं। जिसमें इन गुणों का समुच्चय होता है, सर्वश्रेष्ठ कहलाता है। समय और समझ दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलती है, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर समय निकल जाता है। प्राय: जिनमें समझ होती है, वे अहंनिष्ठता के कारण दूसरों को हेय समझते हैं और उनके अस्तित्व को नकार देते हैं। उन्हें किसी का साथ ग़वारा नहीं होता और एक अंतराल के पश्चात् वे स्वयं को कटघरे में खड़ा पाते हैं। न कोई उनके साथ रहना पसंद करता है और न ही किसी को उनकी दरक़ार होती है।

वैसे दो तरह से चीज़ें नज़र आती हैं, एक दूर से; दूसरा ग़ुरूर से। ग़ुरूर से दूरियां बढ़ती जाती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। दुनिया में तीन प्रकार के लोग होते हैं–प्रथम दूसरों के अनुभव से सीखते हैं, द्वितीय अपने अनुभव से और तृतीय अपने ग़ुरूर के कारण सीखते ही नहीं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। बुद्धिमान लोगो में जन्मजात प्रतिभा होती है, कुछ लोग शास्त्राध्ययन से तथा अन्य अभ्यास अर्थात् अपने अनुभव से सीखते हैं। ‘करत- करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ कबीरदास जी भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि हमारा अनुभव ही हमारा निर्णय होता है। इनका चोली-दामन का साथ है और ये अन्योन्याश्रित है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 203 ⇒ चाय के बहाने… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चाय के बहाने।)

?अभी अभी # 203 ⇒ चाय के बहाने… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मौसम के करवट बदलते ही, गुलाबी ठंड का असर मेरे गुलाबी गालों और होठों पर पड़ने लगता है।

पंखों में हवा की जगह मानो हवा में ही पंख लग गए हों। हवा के झोँकों में इतनी ताजगी रहती है, कि नींद की खुमारी तो गायब हो जाती है, लेकिन गुलाबी चाय की तलब कुछ और ही बढ़ जाती है।

पीने वाले को पीने का बहाना चाहिए, लेकिन चाय एक हकीकत है, कोई फसाना नहीं ! एक ऐसी कड़वी सच्चाई जिसके लिए झूठी कसमें नहीं खाई जाती, बस एक कप गर्मागर्म चाय से मुंह जूठा किया जाता है। होठों से छू लो तुम, मेरा स्वाद अमर कर दो।।

बंदर को भले ही अदरक का स्वाद ना मालूम हो, लेकिन चाय के स्वाद से यह जरूर पता चल जाता है कि चाय में अदरक है कि नहीं। मसाले वाली चाय में तो तुलसी, अदरक, लौंग इलायची और दालचीनी के अलावा भी बहुत कुछ डाला जाता है। जो नर सुरापान नहीं करते, उन्हें तो चाय की चुस्कियों में ही जन्नत नजर आ जाती है।

अगर चाय में नशा ना होता, तो हर नर इस तरह मोदी मोदी नहीं करता।

चाय पीने वालों के भी विभिन्न स्तर और स्टाइल होती हैं। कौन मेहमान आज प्लेट में चाय डालकर

चाय पीता नहीं, सुड़कता है। एक चाय ट्रे की चाय कहलाती है। दूध अलग, चाय का खौलता पानी अलग। अपनी पसंद अनुसार दूध और शकर मिलाएं और चाय का स्वाद लें। शुगर फ्री चाय भी लोग बिना शुगर फ्री डाले नहीं पीते।।

अधिक चाय स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है, इसलिए डॉक्टर कॉफी पीने की सलाह देते हैं।

एक चायवाले ने न केवल हमारे जीवन में क्रांति ला दी है, आजकल चाय के जीवन में भी हरित क्रांति ने प्रवेश कर लिया है।

घर घर मोदी की तरह, घर घर ग्रीन टी का प्रचलन बढ़ गया है। यह वजन नहीं बढ़ाती, कोलोस्ट्राल घटाती है। जो लड़की अपने फिगर से करे प्यार, वह ग्रीन टी से कैसे करे इंकार। लेकिन कुछ लोगों को क्रांति हजम नहीं होती।

सम्पूर्ण क्रांति से जले लोग आज आंदोलन का हर कदम फूंक फूंक कर रखते हैं।।

सबसे भली चाय के प्याले की क्रांति है। कड़क उबली हुई चाय की तुलना आप बासी कढ़ी में उबाल से नहीं कर सकते। अगर जल ही जीवन है तो चाय भी एक जीवन शैली है।

गर्म चाय की भाप ना केवल फिक्र को वाष्प के साथ उड़ाती है, कई लोगों के लिए थिंक टैंक का काम भी करती है।

पीना था हमको चाय

ठिकाने बना लिए।

तलब थी लब की

हमने बहाने बना लिए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 202 ⇒ संकेतक… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जश्न और त्रासदी “।)

?अभी अभी # 202 || संकेतक || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

|| संकेतक || ~ signal ~

समझदार को इशारा काफी होता है, और डूबते को तिनके का सहारा। लेकिन कुछ सहारे श्री, खुद ऐसे टाइटैनिक होते हैं जो अपने साथ तिनकों को भी ले डुबो बैठते हैं। एक गलत इशारा हमारी मंजिल को भटका भी सकता है और एक संकेतक हमें अपनी मंजिल तक भी पहुंचा सकता है।

जीवन के सफर में मंजिल तक पहुंचने के लिए, हमें कोई ना कोई रास्ता तो चुनना ही पड़ता है। जहां कोई मार्गदर्शक नहीं होता, वहां संकेत ही काम आते हैं। गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है। यह सीटी संकेत भी है और एक तरह का अलार्म भी। चलिए, सिर्फ एक सीटी नहीं ! एक, दो, तीन के बाद कभी चार की गुंजाइश नहीं रह जाती। टेशन से गाड़ी छूट जाती है, एक, दो, तीन हो जाती है।।

शहर के भीड़ भरे यातायात को सुचारू रूप से चलाने के लिए, चौराहों पर ट्रैफिक सिग्नल लगाए जाते हैं। लाल, हरी और पीली बत्ती का मतलब कौन नहीं जानता। और तो और हमारे इंजन वाले वाहनों में भी आवाज वाले इंडिकेटर्स लगे होते हैं, कार को रिवर्स लेते वक्त भी अलार्म हमें आगाह किया करता है। फिर भी ;

ना तूने सिग्नल देखा

ना मैने सिग्नल देखा

एक्सीडेंट हो गया

रब्बा रब्बा …

इसे क्या कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना कहें, अथवा सरासर लापरवाही। पहले नजरों के इशारे हुए, फिर दिल से दिल टकराए, ना कोई खता हुई ना कोई थाने में रिपोर्ट, ना कोई दफा। दोनों गिरफ्तार भी हुए। लेकिन फिर भी मामला रफा दफा।

अगर हमारे जीवन के माइल स्टोन में, संकेतक और सूचक नहीं होते, तो क्या हमारी जिंदगी की राह इतनी आसान होती। एक छोटी सी उंगली का सहारा किसी की जीवन नैया को अगर पार लगा सकता है तो एक गलत सलाह आपके जीवन को बर्बाद और तबाह भी कर सकती है ;

माॅंझी नैया ढूॅंढे किनारा

किसी ना किसी की खोज

में है ये जग सारा।

कभी ना कभी तो समझोगे

तुम ये इशारा

माॅंझी नैया ढूॅंढे किनारा।।

किसी के स्पर्श मात्र से मन का बोझ हल्का हो जाता है तो किसी की छोटी सी सलाह अथवा मार्गदर्शन से इंसान कहां से कहां पहुंच जाता है। छोटे छोटे इशारों और संकेतों में ही जीवन के रहस्य छुपे हैं। कहीं कोई रहबर, तो कहीं किसी सदगुरु का इशारा ही काफी होता है कश्ती को किनारे लाने में और जीवन नैया को पार लगाने में।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 241 ☆ आलेख – साहित्य का विभाजन कितना उचित ?? ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख साहित्य का विभाजन कितना उचित ??)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 241 ☆

? आलेख – साहित्य का विभाजन कितना उचित ?? ?

हम तरह-तरह की साहित्य खंड या धाराएँ देखते हैं, जैसे स्त्री-विमर्श, दलित साहित्य (संयोग से आभिजात्य साहित्य नहीं), प्रवासी साहित्य, आदि। साहित्य को विभिन्न खेमों में विभाजित करने की क्या सार्थकता है?

 समग्रता में साहित्य बहुत विशाल परिदृश्य है। जिस तरह विधा अनुसार काव्य, व्यंग्य कहानी एकाग्र है, उसी तरह अन्य उपवर्ग अध्ययन की दृष्टि से ही देखे जाने चाहिए। युवा लेखक, या वरिष्ठ कवि अथवा अभियंता रचनाकारों को एक जगह एकीकृत कर देने से वे साहित्य की मूल धारा से अलग नही हो जाते।

यह सब कुछ ऐसा ही है मानो देश के बच्चों को स्कूलों में, कक्षाओ में, पी टी ड्रेस के रंगों में, उम्र के अनुसार, रुचि के अनुसार अलग अलग क्लब में, या शिक्षा के भाषाई माध्यम अथवा सी बी एस ई, आई एस सी, या प्रादेशिक बोर्ड के खेमों में वर्गीकृत किया गया हो।

यह सब समग्रता में साहित्य को नए अवसर और विकसित ही कर रहा है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 201 ⇒ गोद भराई… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गोद भराई “।)

?अभी अभी # 201 ⇒ गोद भराई… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

गोद भराई ~ Baby Shower

बच्चे तो खैर प्यारे होते ही हैं,कुछ शब्द भी बड़े प्यारे होते हैं। अब भुट्टे को ही ले लीजिए,भले ही देसी हो या अमरीकन,बड़ा कड़क शब्द है,स्वाद भले ही भला हो,बोलने में तो मिठास झलकनी चाहिए। भाटे और भुट्टे में ज्यादा अंतर नहीं,सुनने में भी एक जैसे लगते हैं। वैसे भुट्टे और भुट्टो,और खांसी और फांसी में कितनी समानता नजर आती है। मुझे सुन सुन आए हांसी।

इसी भुट्टे को अंग्रेजी में कॉर्न कहते हैं,हमें तो किसी ने maize पढ़ाया था। क्या भुट्टे का बच्चा भी होता है,जी हां,इसे baby corn कहते हैं। कितना मुलायम होता है,baby corn, बिल्कुल baby जैसा। हर बच्चा,ईश्वर की देन होता है,आशीष,आशीर्वाद और ईश्वर कृपा से ही एक स्वस्थ शिशु का जन्म हो पाता है ;

अब तक छुपा है वो ऐसे

सीपी में मोती हो जैसे।

चंदा से होगा वो प्यारा फूलों से होगा वो न्यारा,

नाचेगा आंगन में छमछम

नन्हा सा मुन्ना हमारा।।

शिशु के जन्म लेने से पहले होने वाले उत्सव को गोद भराई कहा जाता है। हमारी माता वसुंधरा की गोद में कितने मोती छुपे हैं, और जितने माटी के लाल हैं, सभी तो उसकी संतान हैं वन, वनस्पति, जंगल, सोना चांदी और हीरे मोती, किस बात की कमी है उसके पास।

जगत की हर माता में धरती माता का अंश है और उसमें और जगत माता में रत्ती मात्र भी भेद नहीं। भगवान राम और कृष्ण भी जब इस धरा पर अवतरित होते हैं, तो उन्हें भी देवकी, यशोदा और कौशल्या की गोद नसीब होती है। पुरुष के नसीब में कहां यह मातृत्व सुख ! वह तो बेचारा, बाप बनकर ही खुश हो लेता है।।

जगत जननी की तरह ही होने वाले बच्च की मां की गोद भी सदा हरी भरी रहे, इसी कामना के साथ, सातवें महीने के पश्चात् गोद भराई की रस्म होती है, संसार का सभी सुख,वैभव और नाते रिश्तेदारों के प्यार,दुलार और आशीर्वाद की जब होने वाले बच्चे और उसकी मां पर वर्षा होती है, तो उसे baby shower कहते हैं।

शॉवर का सुख तो बच्चे बूढ़े सभी जानते हैं। सुख और आशीर्वाद की वर्षा बिना छप्पर फाड़े होती है, क्योंकि जच्चा बच्चा दोनों पर माता पिता, दादा दादी, नाना नानी,  बुआ फूफा सहित अन्य सभी छोटे बड़े रिश्तेदार, पड़ौसी और शुभचिंतक इस गोद भराई याने बेबी शॉवर का हिस्सा होते हैं।।

सृजन का सुख संसार का सबसे बड़ा सुख है,हमने उस सरजनहार को नहीं देखा, लेकिन अपनी जन्म देने वाली मां में हमने उसे साक्षात अनुभव किया है।

बड़ा विचित्र सुख है मातृत्व में और शिशु तो सुख का सागर ही है।

सज रही मेरी गली मां, सुनहरी गोटी में..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 89 – प्रमोशन… भाग –7 समापन किश्त ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की शृंखला “प्रमोशन…“ की समापन कड़ी।

☆ आलेख # 89 – प्रमोशन… भाग –7 समापन किश्त ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

रिजल्ट आने वाला है की खबर कुछ दिनों से ब्रांच में चल रही थी या फिर फैलाई जा रही थी. हर खबर पर मि.100% का दिल धक-धक करने लगता. फिर शाखा में उनके एक साथी भी थे जिनका प्रमोशन से कोई लेना देना नहीं था पर इनकी लेग पुलिंग का मज़ा लेने में उनसे कोई भी मौका नहीं छोड़ा जा सकता था. रोज सामना होते ही “मिठाई का आर्डर क्या आज दे दें” सुन-सुन कर 100% बेचैन होते-होते पकने की कगार पर आ गये थे. जो बाकी चार थे उनका जवाब हमेशा यही रहता कि “आर्डर कर दो उसमें क्या पूछना. हम लोग तो पैसे देने वाले नहीं हैं. आखिर वो दिन आ ही गया जब रिजल्ट आने की शत प्रतिशत संभावना थी क्योंकि ये खबर हेड ऑफिस के किसी परिचित ने शाखा प्रबंधक को फोन पर कहा था.

उस दिन जो कि शनिवार था, मि. 100% के घर में बहुत सारी काली चीटियां अचानक न जाने कहाँ से निकल आईं. मिसेज़ 100%की दायीं आंख फड़क रही थी और वो भ्रमित थीं कि दायीं आंख का फड़कना शुभ होता है या बाईं आंख का. उस जमाने में गूगल,  इंटरनेट, कंप्यूटर मोबाइल नहीँ होता था कि कनफर्म किया जाय कि कौन सी आंख का फड़कना शुभ समाचार लाता है. जो भी गूगल थे वो पड़ोसी थे और उनसे ये सब शेयर करना घातक हो सकता था. मि. 100% के पास एक ही दिल था और वही धड़क रहा था जोर जोर से. खैर उनके द्वारा हनुमानजी के दर्शन करते हुये शाखा में उपस्थिति दर्ज की गई.

शनिवार पहले हॉफ डे हुआ करता था तो काउंटर पर भीड भाड़ सामान्य से ज्यादा थी. पर अधिक काम होने के कारण रिजल्ट के तनाव से मन हट गया था. ठीक दो बजे जब हॉल पब्लिक से खाली हुआ तो फोन की लंबी घंटी बजी. सब समझ गये कि ये तो लोकल कॉल नहीं है. शाखा प्रबंधक महोदय ने लोकल सेक्रेटरी को बुलाया और दोनों के बीच गंभीरतापूर्वक वार्तालाप हुआ. सभी प्रत्याशियों सहित सभी की उत्सुकता चरम पर पहुँच गई. ब्रांच का रिजल्ट परफारमेंस 80% था और जो सिलेक्ट लिस्ट में नहीं थे, वो थे मिस्टर 100%.

हॉल में बधाइयों की हलचल से भारी थी मिस्टर 100% के “पास “नहीं होने की खामोशी, आश्चर्य और खबर पर अविश्वास. पर सूचना को चुनौती कोई भी नहीं दे पा रहा था. लोकल सेक्रेटरी का बाहर निकल कर उन्हें बाईपास करते हुये बाकी चारों से मिलकर बधाई देना और स्टाफ की भेदती नजरों से मि.100% समझ गये कि वे यह टेस्ट पास नहीं कर पाये. निराशा से ज्यादा शर्मिंदगी उन्हें खाये जा रही थी और वे भी सोच रहे थे कि काश ये धरती याने शाखा का फ्लोर फट जाये और वे करेंट एकाउंट डेस्क से सीधे धरती में समा जायें. रामायण सीरियल को वह दृश्य उनके मन में चल रहा था जब सिया, अपने राम को छोड़कर धरती में समा गईं थीं. ये पल सम्मान, इमेज़, आत्मविश्वास, कर्तव्य निष्ठा सब कुछ हारने के पल थे.

शाखा में चुप्पी थी, जश्न का माहौल नदारद था, ठिठोली करने वाले खामोश थे और शाखा प्रबंधक गंभीर चिंतन में व्यस्त. शाखा की सारी हलचल हॉल्ट पर आ गई थी. मि. 100% का मन तो कर रहा था शाखा प्रबंधक कक्ष में जाने का पर छाती हुई घोर निराशा उन्हेँ रोक रही थी.

लगभग आधा घंटे बाद हॉल की खामोशी को चीरती फिर लंबी घंटी बजी. शाखा प्रबंधक इस कॉल पर कुछ देर बात करते रहे और फिर उन्होंने इस बार लोकल सेक्रेटरी को नहीं बल्कि मिस्टर 100% को बुलाया. सिलेक्ट लिस्ट में कोई चूक नहीं हुई थी, दरअसल मिस्टर 100%, लीगली रुके हुये प्रशिक्षु अधिकारी के टेस्ट में पास हुये थे. इस जीत का “हार” बड़ा था, पुरस्कार बड़ा था जो उनके 100% को साकार कर रहा था.

और फिर शाखा के मुख्य द्वार से सेठ जी अपने प्रशिक्षु पुत्र के साथ लड्डू लेकर पधारे. इस बार ये लड्डू उनके खुद की नहीं बल्कि शाखा की खुशियों में शामिल होने का संकेत थे.

विक्रम बेताल के इस प्रश्न का उत्तर भी बुद्धिमान पाठक ही दे सकते हैं कि मि. 100% एक टेस्ट में फेल होकर दूसरे टेस्ट में कैसे पास हो गये जबकि दूसरे टेस्ट में प्रतिस्पर्धा कठिन और चयनितों की संख्या कम होती है.

इतिश्री

अरुण श्रीवास्तव

ये मेरी कथा, कौन बनेगा करोड़पति के विज्ञापन से प्रभावित है, जो डब्बा की उपाधि से प्रचलित अभय कुमार की कहानी है. विज्ञापन के विषय में ज्यादा लिखना आवश्यक नहीं है क्योंकि ये तो प्राय: सभी देख चुके हैं. गांव के स्कूल के जीर्णोद्धार के लिये 25 लाख चाहिये तो गांव के मुखिया जी के निर्देशन में सारे मोबाइल धारक KBC में प्रवेश के लिये लग जाते हैं, किसी और का तो नहीं पर कॉल या नंबर कहिये लग जाता है “डब्बा” नाम के हेयर कटिंग सेलून संचालक का जो प्राय: अशिक्षित रहता है. तो पूरे गांववालों द्वारा माने गये इस अज्ञानी को करोड़पति कार्यक्रम के लिये तैयार करने की तैयारी के पीछे पड़ जाता है पूरा गांव. ये तो तय था कि एक अल्पज्ञानी को करोड़पति कार्यक्रम जिताने के लिये असंभव प्रयास किये जा रहे थे, किसी चमत्कार की उम्मीद में, जो हम अधिकांश भारतीयों की आदत है. पर जब परिणाम आशा के अनुरूप नहीं मिला तो सारे गांववालों ने डब्बा को उठाकर कचरे के डब्बे में डाल दिया. ये हमारी आदत है चमत्कारिक सपनों को देखने की और फिर स्वाभाविक रूप से टूटने पर हताशा की पराकाष्ठा में टूटे हुये सपनों को दफन कर देने की. गांव का सपना उनके स्कूल के पुनरुद्धार का था जो वाजिब था, केबीसी में कौन जायेगा, जायेगा भी या नहीं, चला भी गया तो क्या पच्चीस लाख जीत पायेगा, ये सब hypthetical ही तो था. पर यहां से डब्बा के घोर निराशा से भरे जीवन में उम्मीद की एक किरण आती है उसके पुत्र के रूप में जो हारे हुये साधनहीन योद्धा को तैयार करता है नये ज्ञान रूपी युद्ध के लिये. ये चमत्कार बिल्कुल नहीं है क्योंकि अंधेरों के बीच ये रोशनी की किरण हम सब के जीवन में कभी न कभी आती ही है और हम इस उम्मीद की रोशनी को रस्सी की तरह पकड़ कर, असफलता और निराशा के कुयें से बाहर निकल आते हैं. वही चमत्कार इस विज्ञापन में भी दिखाया गया है जब डब्बा जी पचीस लाख के सवाल पर बच्चन जी से फोन ए फ्रेंड की लाईफ लाईन पर मुखिया जी से बात करते हैं सिर्फ यह बतलाने के लिये कि 25 लाख के सवाल का जवाब तो उनको मालुम है पर जो मुखिया जी को मालुम होना चाहिये वो ये कि उनका नाम अभय कुमार है, डब्बा नहीं.

हमारा नाम ही हमारी पहली पहचान होती है और हम सब अपनी असली पहचान बनाने के लिये हमेशा कोशिश करते रहते हैं जो हमें मिल जाने पर बेहद सुकून और खुशियां देती है. सिर्फ हमारे बॉस का शाम को पीठ थपाथपा कर वेल डन डियर कहना इंक्रीमेंट से भी ज्यादा खुशी देता है. लगता है कि इस ऑफिस को हमारी भी जरूरत है. हम उनकी मजबूरी या liability नहीं हैं.

विज्ञापन का अंत बेहद खूबसूरत और भावुक कर देने वाला है जब इस विज्ञापन का नायक अभय कुमार अपने उसी उम्मीद की किरण बने बेटे को जिस स्कूल में छोड़ने आता है उस स्कूल का नाम उसके ही नाम अभय कुमार पर ही होता है. ये अज्ञान के अंधेरे में फेंक दिये गये, उपेक्षित अभयकुमार के सफर की कहानी है जो लगन और सही सहारे के जरिये मंजिल तक पहुंच जाता है जो कि उसके गांव के स्कूल का ही नहीं बल्कि उसका भी पुनरुद्धार करती है. ये चमत्कार की नहीं बल्कि कोशिशों की कहानी है अपनी पहचान पाने की.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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