(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
☆ संजय दृष्टि – प्रेम ☆
“वी आर इन रिलेशन.., आई लव हर डैड,” होस्टल में रहनेवाले बेटे ने फोन पर ऐलान किया था। वह चुप रहा। यहाँ-वहाँ की बातें कर कुछ देर बाद फोन रख दिया।
ज़्यादा समय नहीं बीता। शायद छह महीने बाद ही उसने घोषणा कर दी, ” हमारा ब्रेकअप हो गया है। आई डोंट लव हर एनीमोर।” कुछ देर के संवाद के बाद पिता ने फिर फोन रख दिया।
‘लव हर.., डोंट लव हर..??’ देह तक पहुँचने का रास्ता कितना छोटा होता है! मन तक पहुँचने का रास्ता कहीं ठहरने का नाम ही नहीं लेता बल्कि हर कदम के बाद पीछे लौटने का रास्ता बंद होता जाता है। न रास्ता ठहरता है, न पीछे लौट सकने की गुंजाइश का खत्म होना रुकता है। प्रेम और वापस लौटना विलोम हैं। लव में ‘अन-डू’ का ऑप्शन नहीं होता। जो खुद को लौटा हुआ घोषित करते हैं, वे भी केवल देह लेकर ही लौट पाते हैं। मन तो बींधा पड़ा होता है वहीं। काँटा चुभने की पीर, गुमशुदा के गुमशुदा रहने की दुआ, खोने की टीस, पाने की भी टीस, पराये का अपना होने की प्रीत, अपने का पराया होने की रीत, थोड़ा अपना पर थोड़ा पराया दिखता मीत.., किसी से भी, कहीं से भी वापस नहीं लौट पाता मनुष्य।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक आलेख जिसमें उन्होंने समाज की एक हृदयविदारक परंपरा ऑनर किलिंग पर अपनी बेबाक राय रखी है. साथ ही उन्होंने आह्वान किया है कि कैसे समाज में इस बुराई को दूर कर एक सकारात्मक समाज की स्थापना की जा सकती है. आदरणीया डॉ मुक्त जी का आभार एवं उनकी कलम को इस पहल के लिए नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 15 ☆
☆ ऑनर किलिंग ☆
‘ऑनर किलिंग’ विपरीतार्थक शब्द… सम्मान-पूर्वक मृत्यु, अर्थात् समाज का एक घिनौना सत्य…जो सदियों से हर जाति, हर मज़हब के लोगों में प्रचलित है। प्रश्न उठता है, ‘आखिर यह प्रथा आई कहां से?’ शायद इसका जन्म हुआ मानव में निहित सर्वश्रेष्ठता के भाव से, उसके अहं से, उसके ग़ुरूर से। यह वह दुर्भाव अर्थात् दूषित भाव है, जो मानव को मानवता से कोसों दूर ले जाता है। उसकी संवेदनाएं मर जाती हैं और वह ठूंठ मात्र रह जाता है, क्योंकि संवेदन- शून्य व्यक्ति हृदयहीन, दैवीय गुणों से विहीन…स्नेह, सौहार्द, ममता,त्याग, सहानुभूति आदि की भावनाओं से बहुत दूर…अहंलीन मानव दूसरों के अस्तित्व को नगण्य समझता है।
वह घर-परिवार में एकछत्र साम्राज्य चाहता है, यहां तक कि वह अपने आत्मजों को भी अपनी सम्पत्ति- धरोहर स्वीकारता है तथा आशा करता है कि वे कठपुतली की भांति उसका हर हुक्म बजा लाएं… उसके हर आदेश की अनुपालना तुरंत करें।’ नो’ व ‘असंभव’ शब्द उसके शब्दकोश से नदारद होते हैं। उसमें प्रत्युत्तर सुनने का सामर्थ्य नहीं होता। वह शख्स अजीब होता है…जो अपने से अधिक बुद्धिमान, सामर्थ्यवान व शक्तिशाली किसी दूसरे को नहीं समझता।
सब परिवारजन उसकी अमुक प्रवृत्ति से सदैव परेशान रहते हैं। उसके घर आते ही बच्चे इधर-उधर छिप जाते हैं और पत्नी का चेहरा भी भय से कुम्हला जाता है क्योंकि वह नहीं जानती कब वह उस पर अकारण बरसने लगे?और उसके माता-पिता भी उसके व्यवहार के प्रति आशंकित रहते हैं क्योंकि वह किसी भी पल सीमाओं को लांघ सकता है। वह किसी भी पल, किसी को कटघरे में खड़ा कर सकता है।
चलिये! अब बच्चों की नियति पर चर्चा करते हैं… किस मन:स्थिति में वे उस घर में रहते हैं, जहां पिता, पिता नहीं, एक हिटलर की मानिंद सदैव व्यवहार करता है। बच्चों को वह अपनी संपत्ति समझता है और उन्हें अपने अंकुश में रखना चाहता है। बच्चों को उसकी हर गलत बात को सही कहना पड़ता है क्योंकि दूसरे पक्ष की बात सुनने का धैर्य उसमें होता ही नहीं। बच्चे उसे अपनी नियति स्वीकार, सुंदर कल की कल्पना में खोए रहते हैं कि आत्मनिर्भर होने के पश्चात् उन्हें वह सब नहीं सहना पड़ेगा…वे निरंकुश व स्वछंद हो जाएंगे तथा अपनी इच्छानुसार निर्णय लेने में स्वतंत्र होंगे।
परंतु वह समय आने से पूर्व, यदि बेटा या बेटी,किसी को चाहने लगते हैं, प्रेम करने लगते हैं, तो सुनामी की गगनचुंबी लहरें उस घर की शांति व सुख चैन को समाप्त कर देती हैं, लील जाती हैं। उसका तीसरा नेत्र खुल जाता है और वह लातों व घूसों पर उतर आता है। बेटी को तो वह घर की चारदीवारी में कैद कर लेता है और उससे मोबाइल आदि भी छीन लिया जाता है। वह मासूम दीवारों से सिर टकराती, आंसू बहाती, बार-बार ग़ुहार लगाती रहती है कि वह उसके साथ अपना जीवन बसर करना चाहती है। वह दिल की गहराईयों से उसे पसंद करती है और उसके बिना ज़िन्दा नहीं रह सकती।
परंतु उसकी आवाज़ उसके कानों से टकरा कर लौट आती है। यदि वह कभी उससे जिरह करने का साहस जुटाती है, तो उस पर पाबंदियां बढ़ा दी जाती हैं और कुलनाशिनी, कुलक्षिणी कहकर उसे ही नहीं, उसकी मां को भी लताड़ा जाता है। जब जुल्म की इंतहा हो जाती है तो अक्सर वह उन ज़ंजीरों को तोड़ कर भाग निकलती है,जहां वे स्वतंत्रता से सुख की सांस ले सके।
इसके पश्चात् अक्सर उस घर में हंगामा व गाली- ग़लौच होता रहता है और वह ज़ालिम हर पल आसमान को सिर पर उठाए डोलता रहता है। उसके मन में यही ख़लिश रहती है कि यदि वह एक बार उसके सामने आ जाए, तो वह उसे अपनी ताकत का एहसास दिला कर सुक़ून पा सके। पिता होने से पहले वह हिटलर है। वह किसी भी सीमा तक जा सकता है और यही ‘शक्ति-प्रदर्शन’ है ऑनर किलिंग।
लड़की का पिता व परिवारजन अपने-अपने मान- सम्मान की दुहाई देते हुए उन दोनों की हत्या पर अपनी पीठ ठोंकते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि उन्होंने बच्चों को जन्म देकर कोई एहसान नहीं किया और न ही वे गुलाम हैं उनकी सल्तनत में…सो! वे उससे मनमाने व्यवहार की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं?
प्रेम सात्विक भाव है…प्रेम सामीप्य का प्रतिरूप है …एक-दूसरे की भावनाओं को समझते हुए क़रीब लाने का उपादान है। प्रेम संगीत है…प्रेम उच्छ्वास है … प्रेम वह पावन भाव है, जो मलय वायु के झोंकों सम शीतलता प्रदान करता है। परंतु जन्मदाता ही बच्चों में प्रेम का भाव प्रकट होते ही उनके दुश्मन क्यों बन जाते हैं? क्या झूठा अहं व मान-सम्मान बच्चों की ज़िन्दगी से अधिक अहमियत रखता है? शायद उनकी नज़रों में प्रेम करना ग़ुनाह है, जिसका मूल्य उनके आत्मजों को अपने प्राणों की बलि देकर ही चुकाना पड़ता है।
चलिए! इन कट्टरपंथी विचारधारा वाले माता-पिता के व्यवहार पर दृष्टिपात कर लें…आजकल तो वे स्वयं को ख़ुदा स्वीकारने लगे हैं क्योंकि वे अपनी इच्छानुसार बच्चों को जन्म देते हैं, अन्यथा भ्रूण हत्या करवा देते हैं और बच्चों के युवा होने पर उनकी भावनाओं को न समझते हुए उनकी हत्या तक कर डालते हैं। क्या आप ऐसे सिरफिरे लोगों को ख़ुदा से कम आंकेंगे?
यह कहावत आजकल मान्य नहीं है कि जन्म व मृत्यु तो सृष्टि-नियंता के हाथ में है। मानव उसके हाथों का खिलौना मात्र हैं। वह जितनी सांसें लिखवा कर इस संसार में जन्म लेता है, उससे एक सांस भी अधिक नहीं ले सकता। अरे! यह इक्कीसवीं सदी है… परंपरागत मान्यताएं बदल गई हैं… सोच भी पहले सी कहां है? शायद! वह ज़ालिम पिता यह सोचकर फूला नहीं समाता कि उसने ही उसे जन्म दिया था, तो उसे मार कर, उसकी जान लेकर उसने कोई गुनाह नहीं किया।
विभिन्न प्रदेशों में खापें इस विचारधारा की पक्षधर हैं, पोषक हैं। युवाओं को अपनी इच्छानुसार विवाह करने का अधिकार प्रदत्त नहीं है। वे कुल-गोत्र, जात-बिरादरी की मर्यादा पर अधिक ध्यान देती हैं और उनकी हत्या करने को उचित ठहराती हैं। आश्चर्य होता है यह देख कर कि अनेक वर्ष तक साथ, एक छत के नीचे ज़िन्दगी बसर कर रहे पति- पत्नी को, भाई-बहन के रूप में राखी बांधने का फरमॉन स्वीकारना पड़ता है। तभी उन्हें व उनके माता-पिता को जात-बिरादरी व गांव से निष्कासित कर दिया जाता है, तो कभी उन्हें अमानवीय यातनाएं दी जातीं हैं।
परन्तु आज कल कुछ सुखद परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। चंद खापों का मृत्यु-भोज की परंपरा का विरोध करना या विवाह पर डी•जे• आदि न चलाने की पेशकश, दहेज न लेने-देने की मुहिम आदि उन की सकारात्मक सोच की ओर संकेत करते हैं। परंतु आवश्यकता है… खापें व समाज के ठेकेदार, बच्चों को अपनी इच्छानुसार जीवनसाथी चयन करने की स्वतंत्रता प्रदान कर, उदार हृदयता का परिचय दें। उनके विरुद्ध मनमाने निर्णय ले, बेतुके व विचित्र फरमान जारी न करें।
ऑनर किलिंग यदि एक की होती है, तो दोनों परिवार सकते में आ जाते हैं… उनमें मातम पसर जाता है…. क्योंकि वे एक-दूसरे के अभाव में जीने की कल्पना भी नहीं कर पाते। यह आघात दोनों परिवारों की खुशियों को समूल नष्ट कर देता है, सुनामी की लहरों की भांति लील जाता है। प्रेम प्रतिदान का दूसरा रूप है। यह देने का नाम है। सो! यदि समाज के रसूख-दार लोग बच्चों को निर्णय लेने की स्वतंत्रता प्रदान करें तथा मनचाहे जीवनसाथी को वरण करने का अधिकार प्रदान करें ताकि वे प्रसन्नता से अपना जीवन बसर कर सकें। वे उनकी भावनाओं का तिरस्कार न करें, यही जीवन की सार्थकता है। आइए! मिलकर जीवन में नया उजाला लाएं। एक स्वर्णिम सुबह तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। सारी सृष्टि उपवन की भांति महक रही है,जहां चिर वसन्त है। हम भी मनोमालिन्य मिटाकर, प्रेम भाव से एक नए युग का सूत्रपात करें, जहां सम्बन्धों की गरिमा व अहमियत हो…स्व-पर व राग-द्वेष की भावनाओं के स्थान पर हम अलौकिक प्रेम व अनहद नाद की मस्ती में खो जाएं।
(श्री सदानंद आंबेकरजी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।गायत्री तीर्थशांतिकुंज, हरिद्वारके निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 सेनिरंतर प्रवास।
हम श्री सदानंद आंबेकर जीके आभारी हैं जिन्होंने श्री गणेश विसर्जन से सम्बंधित हमारी परम्पराओं के साथ ही पर्यावरण पर अपनी पैनी दृष्टी डालते हुए इस विचारात्मक आलेख की रचना की है. )
☆ अथ श्री गणेश व्यथा ☆
भाद्रपद पूर्णिमा की सुबह, मंगलमूर्ति गणपतिजी कैलाश पर महाकाल शंकर जी के समक्ष बैठे हुये थे। चेहरा म्लान, शरीर क्लांत दिखाई दे रहा था। पास ही मूषकराज भी शरीर को झटक झटक कर सुखाने का उपक्रम करते दीख रहे थे।
भगवान आशुतोष ने माता पार्वती की ओर गहरी दृष्टि से देखा और गणपतिजी से पूछा- क्या बात है वत्स ? उल्लासित नहीं दिख रहे हो ?
वे आगे कुछ और पूछते इतने में मंगलमूर्ति व्यग्रता से बोल उठे- पिताजी मुझे यह हर वर्ष धरती पर कब तक जाना होगा?
भोलेनाथ- क्यों क्या हो गया? धरती पर तो तुम्हारा बड़ा स्वागत सत्कार होता है। फिर ?
गणनाथ – स्वागत और सत्कार ? पिताश्री अब आज धरती पर झांक कर देखिये, मेरी प्रतिमायें सिरविहीन, भुजाविहीन, भग्रावस्था में जलाशयों के किनारों पर पैरों तले पड़ी मिलेंगी।
भोलेनाथ – अच्छा … ऐसी अवमानना . . . मैं अभी डमरू बजा दूँ तो चहुँ ओर प्रलय आ जायेगी।
गणपति- रहने दीजिये पिताजी, धरती पर मेरी प्रतिमाओं की स्थापना के पास मानव निर्मित वृहदाकार ध्वनि विस्तारक यंत्रों का शोर आप दस दिनों तक अहर्निश सुनेंगे तो अपने डमरू और शंख रुद्र की ध्वनि को भूल जायेंगे। कुछ दिन तक तो आपको बधिरता लगेगी। उफ्फ, आप स्वागत-सत्कार की बात कह रहे थे, पहले दिन तो खूब धूमधाम से मेरा स्वागत होता है, भजन, आरती, नारे लगते हैं पर अगले दिन से मानव न मालूम कौन सी वाणी में गीत बजाता है, मुझे तो कुछ समझ नहीं आता है। सायंकाल में महिला पुरुष भक्त दर्शनों को आते हैं, तो मेरे स्थापना करने वाले भी एकदम संत प्रकृति के हो जाते हैं, पर रात्रि बढने पर वे ही आपकी सेना के भूत पिशाचों की श्रेणी में आकर मदिरापान करने लगते हैं और आपके महाप्रलय की शैली में अबूझ नृत्य करते हैं।
मुझे अर्पित किया गया प्रसाद भी न मालूम किस पदार्थ का होता है, बड़ा अप्रिय लगता है, और दान का धन भी न जाने कहाँ चला जाता है। धरती पर विद्युत ऊर्जा अतिशय अपव्यय मैं देखता हूँ। पिताश्री, यह यंत्रणा दस दिनों तक मैं सहता हूँ।
दसवें दिन फिर मुझे बड़े आदर के साथ विसर्जन हेतु जुलूस में ले जाया जाता है और किसी जलाशय, समुद्र के तट पर ले जाकर जयकारों के साथ अत्यंत गंदे जल में विसर्जित किया जाता है। जल में मैं देखता हूँ, नाना प्रकार के जलचर बड़े घबराये हुये से भागते दिखाई पड़ते हैं और वह जल भी, उफ्फ . . कितना गंदा होता है। पिताजी , उनके जयकारों में वे कहते हैं- अगले बरस तू जल्दी आ, आप ही बताईये मैं फिर क्या करने जाऊँ? कहाँ है भक्ति, श्रद्धा, समर्पण एवं आदर्श के प्रति प्रेम? मुझे बताईये पिताजी, क्या पुण्यात्मा लोकमान्य तिलक जी से स्वर्ग में मेरी भेंट हो पायेगी ?? मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि उन्होंने किन पवित्र उद्देश्यों को लेकर मोहल्ले में सार्वजनिक गणेश उत्सव की परम्परा आरम्भ की थी?
पिताश्री, मेरी पीड़ा आप स्वयं भी समझ सकते हैं, जब श्रावण में कांवड यात्रा रूपी हुडदंग में आपकी घोर अवमानना होती है। अगले माह मेरी स्नेहमयी माताजी को भी नवरात्रि में धरती पर जाना होता है, मैं तो कहूँगा कि वे भी इस विषय में एक बार सोच लें।
यह सब सुनकर भगवान पशुपतिनाथ को अतिशय क्रोध आ गया और वे आवेश में खड़े होकर गर्जना करने लगे- जाग, जाग, जाग, मानव जाग।
दूर कहीं से आवाज आ रही थी उठो, उठो, उठो और अचानक जोर का धक्का लगा तो मेरी नींद झटके से खुल गई और देखा, पिताजी मुझे झकझोर कर कह रहे थे- अरे निकम्मे, विसर्जन करके रात देर में आया, अब कब तक सोयेगा, चल उठ और काम पर लग जा।
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
☆ संजय दृष्टि – समुद्र मंथन ☆
…समुद्र मंथन क्या एक बार ही हुआ था?
…. फिर ये नित, निरंतर, अखण्डित रूप से मन में जो मथा जा रहा होता है, वह क्या है?… विष भी अपना, अमृत भी अपना! राक्षस भी भीतर, देवता भी भीतर!… और मोहिनी बनकर जग को भरमाये रखने की चाह भी भीतर!
(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर के राष्ट्रीय सुविख्यात साहित्यकार -कवि श्री मनीष तिवारी जी का छंद शास्त्र के प्रकांड विद्वान कविवर गुरु सक्सेना जी के जन्म दिन 7 सितंबर पर यह विशेष आलेख. ई-अभिव्यक्ति की ओर से कविवर गुरु सक्सेना जी जी को उनके समर्पित साहित्यिक एवं स्वस्थ जीवन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं. )
☆ छंद शास्त्र के प्रकांड विद्वान –कविवर गुरु सक्सेना जी के जन्म दिन 7 सितंबर पर शब्दार्चन ☆
धर्म, अध्यात्म, कवित्त, छंद के प्रकार और लेखन में इतना सहज प्रयोग कि पाठक से श्रोता तक एक ही बार मे पहुंच जाए कविता की बारीकियां, कविता का प्रवाह, कविता का उद्देश्य जिनकी लेखनी में सहज समाहित है ऐसे गुरुवर गुरु सक्सेना जी का आज 7 सितंबर को जन्मदिन है। मुझ जैसे अनेक कवियों के मार्गदर्शक साहित्यिक छंद शास्त्र के शास्त्रोक्त विद्वान का सानिध्य जिनको मिला उनका जीवन धन्य है। मेरा सौभाग्य कि गुरु जी की सहज कृपा मुझ पर है। मेरे लेखन पर सदैव उनकी बारीक दृष्टि रहती है कभी कभी तो ऐसे प्रश्न खड़े करते हैं जिसका उत्तर भी उन्हीं के पास होता है अनेकों बार तो सिर्फ फेसबुक पर मेरी पोस्ट पढ़कर फोन आ जाता है कि यह तुमने किस उद्देश्य से लिखा इसका हेतु समझाओ फिर सविस्तार चर्चा में समय का पता नहीं चलता और अंततः मुझमें गर्वोक्ति का संचार होता है कि मुझे कितने सहज सरल साहित्यिक गुरु जी मिले।
हिंदी कवि सम्मेलन के देश के लगभग सभी कवि सम्मेलन में गुरु जी बहुत प्रभावी भागीदारी हुई उन्होंने काव्यपाठ की मौलिक कहन को विकसित किया आरोह अवरोह उतार चढ़ाव की शैली के वे अनूठे जादूगर है वे वाचिक परम्परा के बेमिसाल कवि हैं। शब्दों से खेलने में उन्हें महारत हासिल है। उनके प्रस्तुतिकरण की अनुगूंज झंकृत करती है तात्कालिक विषय पर लेखन उन्हें सुख देता है अनेक बार वे सटीक समाधान की ओर ध्यानाकर्षित करते हैं। उनकी कृति आदर्श की फ़ज़ीहत, सूर्पनखा, सीता वनवास, पाकिस्तान को गुरु सक्सेना की चुनौती काव्य फलक पर साहित्यिक ऊष्मा बिखेर रही हैं।
हास्य व्यंग्य का प्रतिष्ठित काका हाथरसी पुरस्कार, व्यंग्य शिल्पी श्री श्रीबाल पांडेय सम्मान एवम बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव द्वारा 50000/- रुपये का विशिष्ट सम्मान प्रदान किया जा चुका है। इसी के साथ नित्य कवि सम्मेलनों के सम्मान की बहुत लंबी फेहरिस्त है जो गुरु जी की काव्य साधना का सच्चा सम्मान है। देश के लगभग सभी प्रान्तों में हिंदी की सच्ची सेवा का शुभ संकल्प आज भी उनमें ऊर्जा का संचार करता है। विषम परिस्थितियों में कवि सम्मेलन को पटरी पर लाकर श्रोताओं तक शुध्द शास्त्रोक्त छंद पहुंचाने में उनका कोई सानी नहीं है।
गुरु जी ने वह दौर देखा जब मंच पर सिर्फ कविता की ही पूजा होती थी आजकल के मंचों की मिलावट से वे दुखी है शुद्ध कविता से स्टैंड अप कॉमेडी तक पहुंचे मंचों का कैसा इतिहास लिखा जाएगा इसे लेकर वे सदैव चिंतित रहे और हैं उनके मन में मंचों के अवमूल्यन की पीड़ा है वे मुझसे और सुरेंद्र यादवेंद्र जी से हमेशा कहते हैं कि 21 सदी के दो दशकों ने पचास प्रतिशत कवि सम्मेलनों को नचैया गवैया और जोकरों के हवाले कर दिया है। कविता के भाव विभाव उद्दीपन आलम्बन से नए कवि कोसों दूर हैं ग्लैमर की चकाचौंध में कविता विलुप्त हो रही है।
आज हम सब बेहद प्रसन्न हैं मंच पर कविता के संस्कार को जीने वाले सच्चे रचनाकारों की गुरु कृपा से वृद्धि हो रही है। एक दिन यह कुंहासा छटेगा और कविता कीर्ति के कलश गढ़ते हुए मंच पर प्रतिष्ठित होगी गुरु सक्सेना काव्य गौरव सम्मान की स्थापना का उद्देश्य भी यही की सच्चे मौलिक रचनाकारों को गुरु जी का आशीष मिले वर्ष 2017 से यह सिलसिला आगे बढा प्रथम सम्मान देश के यशस्वी कवि भाई सुरेंद्र यादवेंद्र जी कोटा राजस्थान को प्रदान किया गया वर्ष 2018 का सम्मान संस्कारधानी के हिस्से में आया और इस सम्मान से मुझे मनीष तिवारी को सम्मानित किया गया। वर्ष 2019 के गुरु सक्सेना काव्य गौरव सम्मान से वीर रस के सिद्ध कवि श्रेष्ठ मंच संचालक शशिकान्त यादव देवास को 9 सितंबर को नरसिंहपुर के काव्य प्रेमियों की उपस्थिति में प्रदान किया गया।
मेरा मानना है कि यह भी वागेश्वरी की ही कृपा है जिनने मुझे उन तक पहुंचाया गुरु जी आप शतायु हों आपका सानिध्य वर्षो बरस मिलता रहा आप हमें कसते रहें और हम आपके समीप बैठकर लिखते रहें, पढ़ते रहें, बढ़ते रहें, अट्टहास कर हँसते रहें, प्रगति की सीढ़ियां चढ़ते रहें और इस जीवन को सार्थक करते रहें जन्मदिवस पर अनन्त मंगल कामनाएं। बारम्बार नमन।
(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर के राष्ट्रीय सुविख्यात साहित्यकार -कवि श्री मनीष तिवारी जी का मूर्धन्य साहित्यकार एवं सुप्रसिद्ध शिक्षाविद प्रो राजेंद्र ऋषि जी के ७५वें जन्म दिवस पर यह विशेष आलेख.
ई-अभिव्यक्ति की और से प्रो राजेंद्र ऋषि जी को उनके समर्पित साहित्यिक एवं स्वस्थ जीवन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं. )
☆ प्रो राजेन्द्र ऋषि के 75 वर्ष पूर्ण होने पर विशेष ☆
सरहद पर सैनिक चीन की फौज से जूझ रहे थे, विकट परिस्थियां सामने थीं देश के नागरिकों में भयंकर आक्रोश था, कैसे भी हो चीन को सबक सिखाना है अपने अपने ढंग से लोग सैनिकों का हौसला बढ़ा रहे थे ऐसी विकट परिस्थिति में संस्कारधानी से राष्ट्रवादी स्वर फूटा जिसकी कविताएं सैनिकों में जोश भर रही थीं वह नित नए प्रतीकों से सैनिकों में साहस भरता और मातृभूमि के लिए सर्वस्व निछावर करने की प्रेरणा देता वही स्वर आगे चलकर कवि सम्मेलन और कवि गोष्ठियों का सिरमौर हुआ। सामाजिक और राजनैतिक विचारधारा का स्वर बनकर मंचों से रात रात भर कविताओं को उलीचता, राष्ट्रभक्ति के साथ रसिकों की प्यास बुझाता। 1962 से जिन युवा गीतकारों ने मंचों पर धूम मचाई उनमें मेरे पूज्य पिता गीतकार स्व ओंकार तिवारी चाचा जनकवि स्व सुरेंद्र तिवारी के साथ प्रो राजेन्द्र ऋषि का नाम तात्कालिक कवि सम्मेलनों की अनिवार्यता बन गए थे। अपने फक्कड़पन और औदार्य के कारण कवि राजेन्द्र तिवारी, अब राजेंद्र ऋषि हो गए। उन दिनों हिंदी कवि सम्मेलन के सशक्त हस्ताक्षर संस्कारधानी के ख्यातिलब्ध कवि व्यंग्य शिल्पी स्व श्रीबाल पांडेय जी का तीनों पर वरद हस्त था 1961 में कमानिया गेट पर आयोजित कवि सम्मेलन में श्रीबाल जी ने इन तीनों युवा कवियों का प्रथम बार बड़े मंच से काव्यपाठ करवाया ये कवि उनकी कसौटी पर खरे उतरे और वर्षों बरस मंचों पर प्रतिष्ठित रहे।
सरकारी नीतियां हों समाज सेवा हो शिक्षा का दान हो या मित्रों की आवश्यकता ऋषि जी सदैव तत्पर रहे और संकट के क्षणों में कंधे से कंधा मिलाकर अपना मित्र धर्म निभाया। उन दिनों के कवि सम्मेलन आज की तरह ग्लैमरस नहीं थे मंच पर शुद्ध कविताएं होती थीं उस्ताद कवि बराबर काव्यपाठ पर अपनी प्रतिक्रियाएं देते थे। कवि सम्मेलन रोजगार नहीं था साहित्य सेवा ही उसके मूल में थी अतः ऋषि जी ने जीवकोपार्जन हेतु हितकारिणी बीएड कालेज को कर्मभूमि बनाया। कविता का धर्म और शिक्षा का कर्म जीवन पर्यन्त चलता रहा शैक्षणिक जगत में ऐसी धाक बनी की जबलपुर विश्व विद्यालय ने उन्हें ससम्मान डीन की कुर्सी लगातार 3 बार सौंपी उल्लेखनीय है कि यह पहला अवसर था जब अशासकीय शिक्षा महाविद्यालयों से कोई प्रोफेसर विश्व विद्यालय का डीन हुआ। ऋषि जी ने डीन की आसन्दी पर बैठकर शिक्षा को नए आयाम दिए इसका जीत जागता प्रमाण विश्व विद्यालय में बीएड विभाग की स्थापना है। इस स्थापना पीछे उनका उद्देश्य यह भी था कि महाकौशल क्षेत्र और शहर की प्रतिभाएं विश्व विद्यालय में अपनी सेवा दे सकें किन्तु उनका यह सपना आज भी अधूरा है। तथापि उनका कार्यकाल विश्व विद्यालय के लिए बहुत प्रेरक और मार्गदर्शक रहा। शनैः शनैः सेवानिवृत्ति के समय आया मित्रों ने बड़ा जलसा कर उन्हें कार्यमुक्त किया।
नौकरी के दौरान ही उनका प्रथम काव्य संग्रह आपा सहित्याकाश में बहुत तेज़ी से चर्चित हुआ संग्रह की अनेक रचनाओं में रुपयों का झाड़, अंधेरे की आज़ादी और सब कुछ बदल गया है मगर कुछ नहीं बदला ने लोकप्रियता के कीर्तिमान गढ़े। द्वतीय काव्य संग्रह “इक्कीसवी सदी को चलें” का विमोचन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने किया था। तेजी से बदलते राजनैतिक परिदृश्य में आम आदमी की व्यथा कथा और देश की किस्मत में लिखे राजनैतिक छलावे को उन्होंने अपनी रचनाओं में खूब लताड़ा। यथा-
“दिल्ली बनी हैं झांसी झांसे नहीं बदले।
नटवर बदल गए हैं तमाशे नहीं बदले”।
अमीरी और गरीबी, फ़र्ज़ी जनसेवा के छलावे को भी उन्होंने आड़े हाथों लेकर लिखा
प्रगति पंथ के निर्माता हैं कड़ी धूप में,
रथ पर चलने वालों को रिमझिम बरसातें,
देश देखनेवाली आंखें धूल भरी हैं
स्वार्थ भारी आंखों को सपनों की सौगातें।
जब जब भी देश जाती धर्म की आग में झुलसा तब तब ऋषि जी ने जनता के बीच सकारात्मक पैगाम पहुंचाया-
इंसानी रिश्तों से बढ़कर मज़हब नहीं बड़े रहते हैं।
बढ़ जाता इंसान राह पर मज़हब वहीं खड़े रहते हैं।
ऋषि जी जब कवि सम्मेलन में काव्य पाठ करते तो अपनी सशक्त प्रस्तुति और सम्प्रेषणीयता के कारण पूरे वातावरण को अपने पक्ष में कर लेते हैं लोग उनकी सम्मोहनी के कायल हो जाते हैं। उनकी कविताएं सहज सरल भाषा में बड़ा पैगाम देते हुए समाधान की यात्रा करती हैं।
चूंकि ऋषि जी जीवन भर अक्खड़ फक्कड़ निरदुंद रहे प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समय के साक्षी रहकर काव्य लेखन में लगे रहे चुनौतियों को सदा स्वीकार किया सच को सच लिखा गलत को आड़े हाथों लिया इसलिए सरकारी सम्मानों से सदैव वंचित रहे, सरकार की जन विरोधी नीतियों पर हमेशा कटाक्ष करते रहे इसलिए सरकारी कार्यक्रम, वजनदार लिफाफा और सुविधाएं उनसे कोसो दूर रहीं। वे राज दरबारी न होकर जनपीड़ा के गायक हैं उनकी कविता आम आदमी और गांव चौपालों में जिंदा है और हमेशा रहेगी।
ऋषि जी अलमस्त फकीर और ठठ्ठा मारकर हंसने वाले जिंदादिल इंसान हैं उनके पास समय का पाबंद होकर नहीं बैठा जा सकता किसी भी विषय की तह तक जाने की उनमें विलक्षण प्रतिभा है। किसी कार्य के दूरगामी परिणाम क्या होंगे वे पहले ही घोषणा कर देते हैं। साहित्य के गिरते स्तर और कवि सम्मेलन के दूषित माहौल से वे बहुत क्षुब्ध हैं और समय समय अपने शिष्यों को आगाह करते रहते हैं।
एक समय आया जब पारम्परिक कविता को साहित्य न मानकर उल जुलूल बेतुकी कविता और कवियों की विरुदावली गायी जाने लगी तब उन्होनें सजग रचनाकार की भूमिका का निर्वहन करते हुए आंचलिक साहित्यकार परिषद का गठन कर पूरे मध्यप्रदेश में कविता की प्रतिष्ठा हेतु वृहद अभियान चलाकर अनेक रचनाकार खड़े करते हुए बहुत मजबूत सारगर्भित सारस्वत अभियान का श्रीगणेश किया।मुझे गर्व है में भी आंचलिक साहित्यकार परिषद का सिपाही रहकर अभियान में शामिल हुआ।
यहां यह जिक्र करना बहुत आवश्यक है कि 90 के दशक में सरकारी मंच पूर्णतः वामपंथियो की गिरफ्त में आ चुके थे दूरदर्शन और आकाशवाणी से वही रचनाएँ प्रसारित होती जिनके सिर पैर, ओर छोर नहीं होता ऐसी विकट स्थिति में सरकार से लड़ाई लड़कर पारम्परिक यथार्थ कविताओं का आकशवाणी से प्रसारण करवाने का श्रेय सिर्फ राजेन्द्र ऋषि को जाता है। इस दौर में आंचलिक साहित्यकार परिषद के नीचे प्रदेश के समर्थ और सच्चे रचनाकार स्वाभिमान से काव्यपाठ कर सके। यह लिखते हुए मुझे गर्व हो रहा है कि इस दौर में गुमनामी के अंधेरे में खोए रचनाकारों की सुषुप्त चेतना जागृत हुई और आंचलिक साहित्यकार परिषद के अधिवेशनों से उन्हें देश व्यापी पहिचान मिली।
ऋषि जी का व्यक्तित्व सर्वग्राही और सर्व स्वीकार है जिस तरह उनकी लेखनी को सार्वभौम सर्वस्वीकृति है उसी तरह उनका निश्छल व्यवहार मौलिक रचनाकारों के प्रति सदैव प्रेरक रहा। अध्यक्षीय और मुख्यातिथ्य की मंचीय लिप्सा से दूर कविता के प्रति प्रतिबध्दता प्रणम्य है। अनेको बार मैंने ऋषि जी को श्रोता समुदाय में बैठकर मौलिक रचनाकारों की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते देखा है।
परमप्रभु परमात्मा श्रीकृष्ण जी और राधा रानी ने ऋषि जी पर अनुपम कृपा बरसायी उनकी कलम से प्रस्फुटित कृष्ण काव्य के छंदों को श्रखला बढ़ते बढ़ते 1000 हो गई अब वे कृष्ण काव्य के ऋषि हैं वे कृष्ण भक्ति में इस कदरलीन हैं कि उन्होंने कृष्ण के साथ खुद को एकाकार कर लिया है। प्रत्येक छंद में नए प्रतीक नए सम्बोधन नया भाव नया द्रष्टिकोण दृष्टिगोचर होता है। हिंदी साहित्य के लिए कृष्ण काव्य वरदान है। ऋषि जी जब डूबकर सुनाते हैं तो लगता है एक छंद और सुन लेते अद्भुत अद्वतीय कृति का शब्द शब्द अनमोल है। छंदों का लालित्य सहज भाषा मन में भक्ति का बीजारोपण करती है बानगी के 2 छंदों का आप आनन्द लीजिये-
प्रेम के मीठे दो बोल कहो, बढ़ के सत्कार करो न करो,
दधि गागर को कम भार करो, दूजो उपकार करो न करो,
ये जन्म में प्रीति प्रगाढ़ रखो ओ जन्म में प्यार करो ने करो
अब पार कराओ हमें जमुना भव सागर पार करो न करो।
और
नज़रों पे चढ़ी ज्यों नटखट की खटकी खटकी फिरती ललिता,
कछु जादूगरी श्यामल लट की लटकी लटकी फिरती ललिता,
भई कुंजन में झुमा झटकी ,झटकी झटकी फिरती ललिता,
सिर पे धर के दधि की मटकी मटकी मटकी फिरती ललिता।
आज ऋषि जी ने अपने यशस्वी जीवन के 75 वर्ष पूर्ण किये गत वर्ष राष्ट्रीय कवि सङ्गम, मप्र आंचलिक साहित्यकार परिषद, जानकीरमण महाविद्यालय ने ऋषिजी का अमृत महोत्सव बहुत धूमधाम से द्विपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपनन्द जी सरस्वती महाराज के निज सचिव ब्रह्मचारी सुबुध्दानन्द जी के पावन सानिध्य में मनाया था जिसमें नगर के कवि पत्रकार, लेखक, नेता, समाजसेवी, शिक्षाविद, किसानों ने बड़ी संख्या में उपस्थित होकर ऋषि जी को अपना शुभाशीष दिया । रसखान, अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध , जगन्नाथ दास रतनाकर की परंपरा के संवाहक ऋषि जी अपने ढंग से अपनी शैली अपनी भावाभिव्यक्ति से जनमानस तक पहुंचने का महनीय कार्य कर रहे हैं । ऋषि जी के सृजन में जिन तीन भाषाओं का समन्वय मिलता है उनमें बुंदेली भाषा, ब्रजभाषा और खड़ी बोली प्रमुख हैं।एक महाकवि, भक्त कवि और पथ प्रदर्शक के 75 वर्ष पूर्ण होने पर उनके स्वस्थ, दीर्घायु जीवन की कामना के साथ बहुत बहुत बधाई।
(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति कोम. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “धार्मिक पर्यटन की विरासत” इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)
भारतीय संस्कृति वैज्ञानिक दृष्टि तथा एक विचार के साथ विकसित हुई है. भगवान शंकर के उपासक शैव भक्तो के देशाटन का एक प्रयोजन देश भर में यत्र तत्र स्थापित द्वादश ज्योतिर्लिंग हैं. प्रत्येक हिंदू जीवन में कम से कम एक बार इन ज्योतिर्लिंगो के दर्शन को लालायित रहता है. और इस तरह वह शुद्ध धार्मिक मनो भाव से जीवन काल में कभी न कभी इन तीर्थ स्थलो का पर्यटन करता है.द्वादश ज्योतिर्लिंगो के अतिरिक्त भी मानसरोवर यात्रा, नेपाल में पशुपतिनाथ, व अन्य स्वप्रस्फुटित शिवलिंगो की श्रंखला देश व्यापी है.
इसी तरह शक्ति के उपासक देवी भक्तो सहित सभी हिन्दुओ के लिये ५१ शक्तिपीठ भारत भूमि पर यत्र तत्र फैले हुये हैं.मान्यता है कि जब भगवान शंकर को यज्ञ में निमंत्रित न करने के कारण सती देवी माँ ने यज्ञ अग्नि में स्वयं की आहुति दे दी थी तो क्रुद्ध भगवान शंकर उनके शरीर को लेकर घूमने लगे और सती माँ के शरीर के विभिन्न हिस्से भारतीय उपमहाद्वीप पर जिन विभिन्न स्थानो पर गिरे वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना हुई. प्रत्येक स्थान पर भगवान शंकर के भैरव स्वरूप की भी स्थापना है.शक्ति का अर्थ माता का वह रूप है जिसकी पूजा की जाती है तथा भैरव का मतलब है शिवजी का वह अवतार जो माता के इस रूप के स्वांगी है.
भारत की चारों दिशाओ के चार महत्वपूर्ण मंदिर, पूर्व में सागर तट पर भगवान जगन्नाथ का मंदिर पुरी, दक्षिण में रामेश्वरम, पश्चिम में भगवान कृष्ण की द्वारिका और उत्तर में बद्रीनाथ की चारधाम यात्रा भी धार्मिक पर्यटन का अनोखा उदाहरण है.जो देश को सांस्कृतिक धरातल पर एक सूत्र में पिरोती है. इन मंदिरों को 8 वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने चारधाम यात्रा के रूप में महिमामण्डित किया था। इसके अतिरिक्त हिमालय पर स्थित छोटा चार धाम में बद्रीनाथ के अलावा केदारनाथ शिव मंदिर, यमुनोत्री एवं गंगोत्री देवी मंदिर शामिल हैं। ये चारों धाम हिंदू धर्म में अपना अलग और महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। राम कथा व कृष्ण कथा के आधार पर सारे भारत भूभाग में जगह जगह भगवान राम की वन गमन यात्रा व पाण्डवों के अज्ञात वास की यात्रा पर आधारित अनेक धार्मिक स्थल आम जन को पर्यटन के लिये आमंत्रित करते हैं.
इन देव स्थलो के अतिरिक्त हमारी संस्कृति में नदियो के संगम स्थलो पर मकर संक्रांति पर, चंद्र ग्रहण व सूर्यग्रहण के अवसरो पर व कार्तिक मास में नदियो में पवित्र स्नान की भी परम्परायें हैं.चित्रकूट व गिरिराज पर्वतों की परिक्रमा, नर्मदा नदी की परिक्रमा, जैसे अद्भुत उदाहरण हमारी धार्मिक आस्था की विविधता के साथ पर्यटन को बढ़ावा देने के प्रामाणिक द्योतक हैं. हरिद्वार, प्रयाग, नासिक तथा उज्जैन में १२ वर्षो के अंतराल पर आयोजित होते कुंभ के मेले तो मूलतः स्नान से मिलने वाली शारीरिक तथा मानसिक शुचिता को ही केंद्र में रखकर निर्धारित किये गये हैं,एवं पर्यटन को धार्मिकता से जोड़े जाने के विलक्षण उदाहरण हैं. आज देश में राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन चलाया जा रहा है, स्वयं प्रधानमंत्री जी बार बार नागरिको में स्वच्छता के संस्कार, जीवन शैली में जोड़ने का कार्य, विशाल स्तर पर करते दिख रहे हैं. ऐसे समय में स्नान को केंद्र में रखकर ही सिंहस्थ कुंभ जैसा महा पर्व मनाया जा रहा है, जो हजारो वर्षो से हमारी संस्कृति का हिस्सा है. पीढ़ीयों से जनमानस की धार्मिक भावनायें और आस्था कुंभ स्नान से जुड़ी हुई हैं. सिंहस्थ उज्जैन में संपन्न होता है. उज्जैन का खगोलीय महत्व, महाकाल शिवलिंग, हरसिद्धि की देवी पीठ तथा कालभैरव के मंदिर के कारण उज्जैन कुंभ सदैव विशिष्ट ही रहा है.
प्रश्न है कि क्या कुंभ स्नान को मेले का स्वरूप देने के पीछे केवल नदी में डुबकी लगाना ही हमारे मनीषियो का उद्देश्य रहा होगा ? इस तरह के आयोजनो को नियमित अंतराल पर निर्ंतर स्वस्फूर्त आयोजन करने की व्यवस्था बनाने का निहितार्थ समझने की आवश्यकता है. आज तो लोकतांत्रिक शासन है हमारी ही चुनी हुई सरकारें हैं जो जनहितकारी व्यवस्था सिंहस्थ हेतु कर रही है पर कुंभ के मेलो ने तो पराधीनता के युग भी देखे हैं, आक्रांता बादशाहों के समय में भी कुंभ संपन्न हुये हैं और इतिहास गवाह है कि तब भी तत्कालीन प्रशासनिक तंत्र को इन भव्य आयोजनो का व्यवस्था पक्ष देखना ही पड़ा.समाज और शासन को जोड़ने का यह उदाहरण शोधार्थियो की रुचि का विषय हो सकता है. वास्तव में कुंभ स्नान शुचिता का प्रतीक है, शारीरिक और मानसिक शुचिता का. जो साधु संतो के अखाड़े इन मेलो में एकत्रित होते हैं वहां सत्संग होता है, गुरु दीक्षायें दी जाती हैं. इन मेलों के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नयन के लिये जनमानस तरह तरह के व्रत, संकल्प और प्रयास करता है. धार्मिक यात्रायें होती हैं. लोगों का मिलना जुलना, वैचारिक आदान प्रदान हो पाता है. धार्मिक पर्यटन हमारी संस्कृति की विशिष्टता है. पर्यटन नये अनुभव देता है साहित्य तथा नव विचारो को जन्म देता है, हजारो वर्षो से अनेक आक्रांताओ के हस्तक्षेप के बाद भी भारतीय संस्कृति अपने मूल्यो के साथ इन्ही मेलों समागमो से उत्पन्न अमृत उर्जा से ही अक्षुण्य बनी हुई है.
जब ऐसे विशाल, महीने भर से अधिक अवधि तक चलने वाले भव्य आयोजन संपन्न होते हैं तो जन सैलाब जुटता है स्वाभाविक रूप से वहां धार्मिक सांस्कृतिक नृत्य, नाटक मण्डलियो के आयोजन भी होते हैं,कला विकसित होती है. प्रिंट मीडिया, व आभासी दुनिया के संचार संसाधनो में आज इस आयोज की व्यापक चर्चा हो रही है. लगभग हर अखबार प्रतिदिन सिंहस्थ की खबरो तथा संबंधित साहित्य के परिशिष्ट से भरा दिखता है. अनेक पत्रिकाओ ने तो सिंहस्थ के विशेषांक ही निकाले हैं. सिंहस्थ पर केंद्रित वैचारिक संगोष्ठियां हुई हैं, जिनमें साधु संतो, मनीषियो और जन सामान्य की, साहित्यकारो, लेखको तथा कवियो की भागीदारी से विकीपीडिया और साहित्य संसार लाभांवित हुआ है. सिंहस्थ के बहाने साहित्यकारो, चिंतको को पिछले १२ वर्षो में आंचलिक सामाजिक परिवर्तनो की समीक्षा का अवसर मिलता है. विगत के अच्छे बुरे के आकलन के साथ साथ भविष्य की योजनायें प्रस्तुत करने तथा देश व समाज के विकास की रणनीति तय करने, समय के साक्षी विद्वानो साधु संतो मठाधीशो के परस्पर शास्त्रार्थो के निचोड़ से समाज को लाभांवित करने का मौका यह आयोजन सुलभ करवाता है. क्षेत्र का विकास होता है, व्यापार के अवसर बढ़ते हैं. जैसे इस बार ही सिंहस्थ में क्षिप्रा नदी में नर्मदा के पानी को छोड़ने की तकनीकी व्यवस्था ने सिंहस्थ स्नान को नव चेतना दी है.
हिंदी के साहित्य संसार को समृद्ध करने के हमारे मनीषियो और चिंतको के उस अव्यक्त उद्देश्य की पूर्ति में अपना योगदान हमें अवश्य योगदान करना चाहिये जिसको लेकर ही कुंभ जैसे महा पर्व की संरचना की गई है, क्योकि मेरे अभिमत में कुंभ धार्मिक ही नहीं एक साहित्यिक और पर्यटन का सांस्कृतिक आयोजन रहा है, और भविष्य में तकनीक के विकास के साथ और भी बृहद बनता जायेगा.
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 11 ☆
☆ नया पर्व ☆
दृश्य और अदृश्य की बात अध्यात्म और मनोविज्ञान, दोनों करते हैं। यों देखा जाये तो मनोविज्ञान, अध्यात्म को समझने की भावभूमि तैयार करता है जबकि अध्यात्म, उदात्त मनोविज्ञान का विस्तार है। अदृश्य को देखने के लिए दर्शन, अध्यात्म और मनोविज्ञान को छोड़कर सीधे-सीधे आँखों से दिखते विज्ञान पर आते हैं।
जब कभी घर पर होते हैं या कहीं से थक कर घर पहुँचते हैं तो घर की स्त्री प्रायः सब्जी छील रही होती है। पति से बातें करते हुए कपड़ों की कॉलर या कफ पर जमे मैल को हटाने के लिए उस पर क्लिनर लगा रही होती है। टीवी देखते हुए वह खाना बनाती है। पति काम पर जा रहा हो या शहर से बाहर, उसके लिए टिफिन, पानी की बोतल, दवा, कपड़े सजा रही होती है। उसकी फुरसत का अर्थ हरी सब्जियाँ ठीक करना या कपड़े तह करना होता है।
पुरुष की थकावट का दृश्य, स्त्री के निरंतर श्रम को अदृश्य कर देता है। अदृश्य को देखने के लिए मनोभाव की पृष्ठभूमि तैयार करनी चाहिए। मनोभाव की भूमि के लिए अध्यात्म का आह्वान करना होगा। परम आत्मा के अंश आत्मा की प्रचिति जब अपनी देह के साथ हर देह में होगी तो ‘माताभूमि पुत्रोऽहम् पृथ्विया’ की अनुभूति होगी।
जगत में जो अदृश्य है, उसे देखने की प्रक्रिया शुरू हो गई तो भूत और भविष्य के रहस्य भी खुलने लगेंगे। मृत्यु और उसके दूत भी बालसखा-से प्रिय लगेंगे। आँख से विभाजन की रेखा मिट जायेगी और समानता तथा ‘लव बियाँड बॉर्डर्स’ का आनंद हिलोरे लेने लगेगा।
जिनके जीवन में यह आनंद है, वे ही सच्चे भाग्यवान हैं। जो इससे वंचित हैं, वे आज जब घर पहुँचें तो इस अदृश्य को देखने से आरंभ करें। यकीन मानिये, जीवन का दैदीप्यमान नया पर्व आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
☆ आईना ☆
आईना कभी झूठ नहीं बोलता, उसने सुन रखा था। दिन में कई बार आईना देखता। हर बार खुद को लम्बा-चौड़ा, बलिष्ठ, सिक्स पैक, स्मार्ट और हैंडसम पाता। हर बार खुश हो उठता।
आज उसने एक प्रयोग करने की ठानी। आईने की जगह, अपनी गवाही में अपने मन का आईना रख दिया। इस बार उसने खुद को वीभत्स, विकृत, स्वार्थी, लोलुप और घृणित पाया। उसे यकीन हो गया कि आईना कभी झूठ नहीं बोलता।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनके स्थायी स्तम्भ “आशीष साहित्य”में उनकी पुस्तक पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है “मिलन आत्मा और प्राण का”।)
असल में जब भगवान राम और भगवान हनुमान आमने सामने आये , तो वे दोनों एक दूसरे को पहचान गए । तो दोनों जानते थे कि कौन कौन है? अथार्त भगवान राम जानते थे कि उनके सामने हनुमान या भगवान शिव के अवतार स्वयं खड़े हैं और भगवान हनुमान को पता था कि वह भगवान राम के सामने खड़े हैं, लेकिन दोनों ऐसा दिखा रहे थे कि वो एक दूसरे को नहीं पहचानते हैं । असल में वे दोनों एक दुसरे की जाँच कर रहे थे कि मेरे भगवान मुझे पहचानेंगे या नहीं? भगवान राम इंतजार कर रहे थे की कब उनके भगवान शिव, हनुमान के रूप में उनकी पहचान करेंगे । दूसरी ओर, भगवान हनुमान इंतज़ार कर रहे थे की कब उनके भगवान राम, भगवान विष्णु के अवतार उन्हें पहचानेंगे । तो इस समय दोनों के बीच बहुत ही अद्भुत वार्तालाप शुरू हो गया ।
भगवान हनुमान ने कहा, “यह हमारा निवास स्थान है और आप यहाँ अतिथि हैं, इसलिए कृपया पहले आप मुझे बताइये कि आप कौन हैं?”
उत्तर में भगवान राम ने मुस्कुराते हुए कहा, “तो आप आतिथेय हैं और हम अतिथि हैं, अच्छी बात है । पर यह अद्भुत बात है कि हम नहीं जानते कि हम किसके घर आये हैं या हम किसके अतिथि हैं”
तब लक्ष्मण ने कहा, “भाईया यह समय की बर्बादी है हम इनसे इनका परिचय पूछ रहे हैं और उत्तर में वह हमारी पहचान पूछ रहे है । मेरे पास एक विचार है चलो प्रतिस्पर्धा करें, प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे से पाँच प्रश्न पूछेगा । जो भी अधिक प्रश्नो के ज्यादा सटीक उत्तर देगा उसे दूसरे की पहचान पूछने का प्रथम अधिकार होगा । चलो इन ज्ञानी ब्राह्मण से शुरू करते हैं”
भगवान राम और भगवान हनुमान दोनों सहमत हो गए, एक-दूसरे के साथ वार्तालाप के खेल का आनंद लेने के लिए । तो पहले भगवान हनुमान ने भगवान राम से पाँच प्रश्न पूछे ।
भगवान हनुमान का प्रथम प्रश्न था, “सर्वोच्च ध्यान क्या है?”
भगवान राम ने उत्तर दिया, “सर्वोच्च ध्यान मन का खालीपन है । अगर हम किसी वस्तु पर ध्यान लगाते हैं तो हमारा उस वस्तु के प्रति आकर्षण उत्पन्न होता हैं, और आकर्षण वासना को उत्पन्न करता है जिसने हम इस दुनिया में फिर से बंध जाते है । बेशक शुरुआती चरणों में जब हमारा मस्तिष्क बाह्य मुखी (बाहरी संसार की ओर आकर्षित) होता है, तो हम बाहरी वस्तुओ पर ध्यान लगा सकते हैं और भगवन की प्रतिमाओं की ओर ध्यान लगा सकते हैं पर हमें आगे बढ़ना होगा, अथार्त बाह्य वस्तु पर लगे ध्यान से आगे के चरणों में आंतरिक ध्यान पर या सगुण पर ध्यान की अवस्था से निर्गुण पर ध्यान तक ।
भगवान हनुमान ने कहा, “अति उत्तम ! एकदम सही उत्तर , मेरा दूसरा प्रश्न है “कि किस धर्म या जात के मनुष्य ज़िंदगी ज्ञान प्राप्ति में आगे बढ़ने के लिए बेहतर है?”
भगवान राम ने उत्तर दिया, “यह इस बात पर निर्भर नहीं करता है की आपका जन्म धनवान परिवार में हुआ है या निर्धन परिवार में, आप गृहस्थ आश्रम में रहते है या सन्यासी हैं, और तो और इस बात पर भी नहीं की आप मानव योनि में जन्मे है या पशु के रूप में पैदा हुए है । बल्कि यह तो व्यक्ति की असीम ईश्वर की ओर बढ़ने की अपनी निजी इच्छा पर निर्भर करता है, और वह इच्छा और कुछ भी नहीं है, बल्कि आपके पिछले जन्मो और इस जन्म के कर्मों का कुल परिणाम है । कर्म कुछ और नहीं है, बल्कि किसी मनुष्य के जन्म, जाति, स्थान, पृष्ठभूमि, संस्कृति और पर्यावरण के अनुसार सही धर्म का पालन करना ही कर्म है”
भगवान हनुमान ने कहा, “फिर से बिलकुल सही उत्तर, मैं संतुष्ट हूँ । मेरा तीसरा प्रश्न यह है कि एक व्यक्ति का लिए धर्म क्या है इसे विस्तार से समझाए?”
भगवान राम ने कहा, “जैसा कि मैंने आपको बताया था कि धर्म हमारे अस्तित्व पर निर्भर करता है की हमारा जन्म ब्रह्मांड में किस स्थान और किस समय में हुआ है । उदाहरण के लिए मान लीजिए कि दो हिंदू ब्राह्मण हैं जो वेदों में वर्णित कर्मकांड (वेदों के अनुसार हिंदू धार्मिक अनुष्ठान) के पूर्णतय अनुयायी हैं । अब मान लीजिए कि ऐसी स्थिति है कि ये दो ब्राह्मण एक ऐसे स्थान पर फंस गए हैं जहाँ माँस को छोड़कर खाने के लिए कुछ नहीं बचा है । अब, यदि इनमें से एक भूख से मरने वाला है, और यदि वह केवल माँस खता है , तो ही जीवित रह सकता है लेकिन वह नहीं खाएगा,और दूसरा ब्राह्मण उसे खाने की अनुमति नहीं देगा । यहाँ तक कि अगर उनकी मृत्यु हो जायगी तब भी वह दोनों संतुष्ट रहेंगे कि वे जीवन की कीमत पर भी अपने धर्म का पालन करते रहे । अब एक और लगभग समान स्थिति ले लो लेकिन इस बार दो राक्षस हैं- एक भूख से मरने वाला है और केवल माँस ही खाने का विकल्प है । तो दूसरा राक्षस उसे माँस खाने को देगा और संतुष्ट होगा कि उसने अपने साथी को खाने की लिए माँस दिया और उसका जीवन बचा लिया । वह यही सोचेगा की उसने अपने राक्षस धर्म का पालन करके अपने साथी के प्राण बचा लिए । तो आपने देखा है कि एक स्थिति में जब कोई व्यक्ति दूसरे को माँस खाने की अनुमति दे रहा है तो वह अपने धर्म का पालन कर रहा है और दूसरी स्थिति में एक व्यक्ति दूसरे को माँस खाने नहीं देने की स्थिति में अपने धर्म का पालन कर रहा है । तो धर्म इस तथ्य पर निर्भर करता है कि किस जाति, देश, पृष्ठभूमि या पर्यावरण में हम पैदा हुए थे और जुड़े हुए हैं । उपर्युक्त उदाहरण में एक ब्राह्मण मर जाता है, लेकिन माँस नहीं खाता, जिसका अर्थ है कि उसने अपने धर्म का पालन करने के लिए अपना जीवन त्याग दिया है । इसलिए वास्तविकता में भी बलिदान ही ब्राह्मण का मुख्य धर्म है”
भगवान हनुमान इस उत्तर से खुश थे और कहा, “मेरे भगवान आप वास्तव में एक ज्ञानी व्यक्ति हैं। मेरा चौथा प्रश्न यह है कि यदि आप युद्ध में सब कुछ खो देते हैं और कुछ भी नहीं बचता है तो भी वो आखिरी हथियार क्या है जो आपको जीत दिला सकता है ?”
भगवान राम ने उत्तर दिया, “वह ‘आशा या उम्मीद है’ क्योंकि यदि आपके दिल में आशा है तो आप हारे हुए युद्ध का परिणाम भी अपने पक्ष में बदल सकते हैं ।
भगवान हनुमान ने कहा, “मेरा आखिरी प्रसन्न यह है कि एक शब्द में प्रेम की परिभाषा क्या है?”
भगवान राम ने कहा, “वह ‘बलिदान’ है । बलिदान के बिना दिल में कोई प्रेम नहीं हो सकता है । सच्चा प्यार अपनी इच्छाओ का त्याग है ताकि वह अपने प्रेमी के चेहरे पर एक पल की मुस्कान ला सके ”
भगवान हनुमान, भगवान राम के चरणों की ओर झुकते हुए कहते है, “भगवान! कृपया मुझे बताइये कि आप मुझे पहचान क्यों नहीं रहे है?”
भगवान राम ने मुस्कुराते हुए भगवान हनुमान के कंधो को पकड़ा और कहा, “मित्र अब पाँच प्रश्न पूछने की मेरी बारी है । क्या आप तैयार है?”
भगवान हनुमान ने कहा, “मेरे भगवान आप पहले से ही विजेता हैं, लेकिन ठीक है, मैं आपके प्रश्नो का उत्तर देने का प्रयत्न करूँगा । कृपया पूछें”
भगवान राम ने कहा, “मेरा पहला प्रश्न यह है कि सबसे बड़ा त्याग क्या है?”
भगवान हनुमान ने कहा, “अहंकार का त्याग ही सबसे बड़ा त्याग है और करने में सबसे कठिन है”
भगवान राम ने कहा, “ठीक है, मेरा दूसरा प्रश्न है सफलता क्या है?”
भगवान हनुमान ने उत्तर दिया, “जिस दिन आप संतुष्ट हैं, वह आपकी सफलता को परिभाषित करता है । यदि आप हर रात्रि संतुष्टि के साथ सोते हैं तो आप सफल हैं, लेकिन यदि किसी रात्रि आपके कारण अधिक से अधिक लोग संतुष्ट सोते हैं, तो आप जीवन में और भी ज्यादा सफल हैं”
भगवान राम ने उत्तर दिया, “हाँ बहुत अच्छा उत्तर , मेरा तीसरा प्रश्न, सच्चाई क्या है?
भगवान हनुमान ने कहा, “जो कुछ भी आपको किसी भी परिस्थिति में अपना धर्म करने के करीब ले जाता है वह ही सच है”
भगवान राम ने कहा, “ठीक है, मैं आपके उत्तर से संतुष्ट हूँ, अब मेरा चौथा प्रन्न यह है कि वास्तविक धन क्या है?”
भगवान हनुमान ने उत्तर दिया, “परिवार और मित्र ही मनुष्य की असली संपत्ति हैं”
भगवान राम ने कहा, “ठीक है, फिर से सही उत्तर, तो मेरा आखिरी प्रश्न है जिसका उत्तर आप सही नहीं दे पाओगे, और वह प्रश्न है कौन बड़े भगवान है, भगवान विष्णु या भगवान शिव?”
भगवान राम ने वार्तालाप समाप्त करने और जल्द सुग्रीव से मिलने के लिए इस प्रश्न को पूछा, क्योंकि उन्हें पता था कि हनुमान भगवान शिव के अवतार है, इसलिए उनका उत्तर भगवान विष्णु होगा और दूसरी ओर भगवान राम का मानना है कि शिव महानतम हैं । असल में यह भगवान या किसी अन्य महान व्यक्ति का एक महान गुण है कि वह कभी नहीं कहता कि वह खुद सबसे अच्छा या महान है । भगवान राम जो भगवान विष्णु के अवतार हैं, विष्णु को महानतम नहीं बता सकते, और इसी प्रकार भगवान हनुमान जो भगवान शिव के अवतार है, वो शिव को कभी भी महानतम नहीं बतायंगे ।
भगवान हनुमान जानते थे कि भगवान राम उनके साथ चाल चल रहे है । वह आँखों में आँसूो के साथ मुस्कुराते हुए कहते है, “मुझे नहीं पता कि कौन सबसे महान है, लेकिन मेरे लिए सबसे बड़े भगवान मेरा श्री राम है”
भगवान हनुमान भगवान राम के चरणों में गिर जाते हैं । लक्ष्मण भी भगवान और उनके भक्त के इस महान मिलन को देख रहे थे ।
इस प्रतिस्पर्धा में भगवान राम जीत गए थे पर वो भगवन हनुमान की भक्ति से हार गए थे । भगवान राम भगवान हनुमान की बाहों को पकड़ते हैं और उन्हें गले लगा लेते हैं ।