हिंदी साहित्य – आलेख ☆ बढ़ती आत्महत्याएं करती आत्मविश्लेष की गुहार… ☆ श्री संजय आरजू “बड़ौतवी” ☆

श्री संजय आरजू “बड़ौतवी” 

☆ आलेख ☆ बढ़ती आत्महत्याएं करती आत्मविश्लेष की गुहार…  ☆ श्री संजय आरजू “बड़ौतवी” ☆

मध्य प्रदेश के सागर जिले के कस्बा बरीना (पर्वर्तित नाम) में डा.दंपति की कर्ज के दबाव में आत्महत्या की घटना मेरे लिए एक आश्चर्यचकित करने वाली घटना थी। ये आश्चर्य उस समय और बढ़ गया है जब पता चला, दोनों दंपति डा. होने के साथ-साथ राज्य सरकार में पदस्थ है। जहां उनकी अच्छी खासी नियमित तनख्वाह भी है।

आंखें तब विस्मित रह गई जब मालूम हुआ उनका बेटा पहले ही पटना से एम. बी. बी.एस. की पढ़ाई भी कर रहा है।

सामाजिक सरोकार की दृष्टि से देखा जाए तो डा.दंपति (कपूरिया परिवार नाम परिवर्तित) देश के एक प्रतिशत से भी कम भाग्यशालीधनी परिवारों में से एक है।

भाग्यशाली और धनी इसलिए कि घर के तीन लोग, में से दो की अच्छी तनख्वाह, शहर में खुद का घर जमीन, जायदाद सबकुछ होने के साथ साथ घर का एक मात्र शेष सदस्य उनका इकलौता बेटा भी सफलता की राह पर उम्र का इंतजार करता हुआ दिखाई पड़ता है।

मगर फिर भी  डा. दंपती द्वारा आत्महत्या कर ली गई हालांकि अभी विस्तृत अन्वेषण बाकी है, परंतु फिर भी यदि आरंभिक जानकारियों एवम छपी रिपोर्ट का विश्लेषण किया जाए तो आधुनिक समाज की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं एवं एकल परिवार होने के चलते विचारों के प्रवाह में किसी प्रकार के समायोजन की कमी के साथ ही, एक पीढ़ी द्वारा सब कुछ अगली पीढ़ी के लिए तैयार करके देने की अंतहीन प्रवृत्ति बढ़ती हुई दिखाई देती है।

कुछ घटनाएं ऐसी होती है जिनकी क्षति पूर्ति संभव नहीं परंतु इसकी पुनर्वृति तो रोकी जा सकती है।  आत्महत्या  की इस घटना में  जो लोग असमय इस दुनिया से चले गए के प्रति सम्मान सहित परिवार में  बचे इकलौते बेटे पर बीत रही मानसिक पीड़ा को समझते हुए ऐसी पुनरावृत्ति को रोकने के लिए  शेष समाज को कुछ सीखने की आवश्यकता है।

परिवार में “सुविधाओं को सुख की गारंटी” मानने वालों के लिए यह  घटना एक विचारणीय प्रश्न के रूप में  होनी चाहिए।

कपूरिया दंपति जैसी सोच रखने वाले समाज में अभी भी अनेक लोगों के लिए एक सबक हो सकता है की अगली पीढ़ी के बारे में स्वयं ही सारे निर्णय लेने से पहले एक बार उनसे भी पूछ लिया जाए कि उन्हें क्या चाहिए और किसी कीमत पर?

अगर आज कपुरिया परिवार के पीछे बचे एकमात्र वारिस उनके बेटे से पूछा जाए की क्या उसने चाहा था इस कीमत पर उसे एक बना हुआ बड़ा हॉस्पिटल या तीन  करोड़ का बंगला मिले तो यकीनन  वो मना ही करेगा।

ऐसे में  वो आत्मघाती महत्वाकांक्षा किसकी थी?

यदि दोनों विवेकशील दंपति ने लोन लेकर अस्पताल बनाने का निर्णय जो लिया था उस समय क्या भविष्य के खतरों एवं विपरीत परिस्थितियों का संपूर्ण आकलन किया  था? 

यदि किया था तो क्या उसमें अपने वर्तमान जीवन  को प्राथमिकता देते हुए अपने लिए कुछ संभावना रखी थी?

मैं माता-पिता को स्वार्थी न होने की सलाह नहीं देना चाहता मगर अगली पीढ़ी के लिए, जो लोग अपनी  कीमत पर उनका भविष्य उज्जवल करना चाहते हैं? उन्हे  एक बार खुद से भी पूछ लेना चाहिए क्या इसमें उस अगली पीढ़ी की इच्छा भी शामिल है ? यदि हां तो क्या सब संभावित खतरों से उसे अवगत कराया गया है? 

संभवत नहीं।

यहां एक पक्ष और उभर कर आता है वह है लोन मिलने की सरलता, विशेष रूप से प्राइवेट बैंकों द्वारा दिए जाने वाले आकर्षक ऑफर एवं लोन लेने के लिए प्रेरित करना। लोन  देना, बैंकों का काम है इसके लिए प्रेरणा  देना भी उनके कार्य का हिस्सा  हो सकता है, मगर जहां बाजारवाद की इस प्रक्रिया में सब अपना अपना रोल निभा रहे है, बैंक व्यवस्था जो की वृहत आर्थिक नीतियों का हिस्सा है, यही बैंक व्यवस्था कई बार तात्कालिक रूप से लोन देने के लिए, छोटे मोटे नियमों का उल्लघंन करने को प्रेरित भी करती है जबकि  बाद  में उसी वजह से उत्पन  जटिलता, इस तरह की घटनाओं का कारण बनती है।  ऐसे  में  नियमों को क्षणिक उल्लंघन  कितना दुःशकर हो सकता है ये आकलन भी हमें ही करना है।  

यहां यह भी विचारणीय है कि, क्या हमें अपनी सीमा और महत्वाकांक्षाओं को पहचाना नहीं चाहिए? 

संभावनाओं के आधार पर बड़े आर्थिक लाभ के लिए वर्तमान में सब कुछ दांव पर लगा देना ही  तो जुआ है। क्या ऐसी बुराई की परिणति  जो एक युद्ध के रूप में हमारे इतिहास में  महाभारत जैसी विध्वंशक घटना के रूप में दर्ज है, से हमने कुछ नहीं सीखा?

शिक्षा का अभिप्राय केवल गणित के हिसाब लगाकर अच्छे भविष्य को देखना मात्र नही है।

शिक्षा महज आर्थिक गणना का नाम भी नहीं है। शिक्षा एक सार्वभौमिक सत्य की तरह है जो आदमी के सामाजिक, पारिवारिक, एवं वैचारिक मूल्यों के साथ विकसित होती है या यूं कहें कि होनी चाहिए। इन सामाजिक, एवं वैचारिक मूल्य की कमी का ही  भयावह परिणाम  इस तरह की घटनाएं है, जहां वर्तमान में सब कुछ अच्छा होने के बावजूद, एक और अच्छे कल के लिए, अक्सर अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया जाता है।

आज के समय में बढ़ती  प्रतिस्पर्धा, एवम येन केन प्रकारेन आगे बढ़ने की  मानसिकता के साथ साथ श्रेष्ठ  से भी आगे सर्वश्रेष्ठ के लिए दौड़ते रहना ही विकास एवं आर्थिक संबलता का पैमाना बनाता जा रहा है, जिसकी परिणीति यदा-कदा  हमारे समाज में होने वाली  इस तरह की विभत्स घटनाओं के रूप में सामने आती है।

प्रश्न यह है कि इसका हल क्या है?

कैसे रुकेंगी ये आत्महत्याऐं? क्या एक और घटना के साथ अखबार में एक और खबर छपकर रह जाएगी?

बढ़ती आत्महत्याएं, हमारे लिए सामाजिक सरोकार की आवश्यकता के साथ-साथ व्यक्तिगत मंथन और  भविष्य के प्रति जागरूक होने के साथ, अपने सपनों के प्रति थोड़ा और उदार होने की मांग भी कर रही है।

साथ ही एक सोच कि  “हम  जिम्मेदार मां बाप अपने रहते ही l सबकुछ कर दें, ताकि अगली पीढ़ी को कुछ ना करना पड़े या अगली पीढ़ी खुश रहे, ” ऐसे विचारों के साथ एक विचार  और जोड़ने की  आवश्यकता है। जो की 

एक सर्वविदित सत्य कि तरह हमारे आस पास ही है बस उसे आत्मसात करने की आवश्यकता है जिसके अनुसार “कोई भी जीवन अपने जन्म के साथ ही अनेकों संभावना एवं घटनाओं के एक क्रम के साथ जन्म लेता है जिसमें उस नव जीवन को कुछ सौभाग्य परिवार से, कुछ समाज से, तो कुछ  उसके जीवन में “खुद के  पुरुषार्थ” से मिलता है। इसमें “खुद का पुरुषार्थ” का हिस्सा उस जीवन विशेष  के प्रयास एवं विवेक पर छोड़ना होगा, जिसकी चिंता में हम तथाकथित विचारशील लोग, अपना सबकुछ दांव पर लगा देते हैं, वो भी उस व्यक्ति सहमती – असहमति पूछे बिना।

©  श्री संजय आरजू “बड़ौतवी”

ईमेल –  [email protected]

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 664 ⇒ कारीगर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कारीगर।)

?अभी अभी # 664 ⇒ कारीगर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कर्म की कुशलता ही कौशल है ! मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है और प्रकृति उसकी सर्वोत्कृष्ट कलाकृति। कुछ लोगों के लिए कला ही जीवन है तो कुछ के लिए कला उनकी आजीविका है, जहां कर्म और कौशल का सुंदर समावेश है।

कोई कर्म बड़ा छोटा नहीं होता, अगर वह कुशलता, समर्पण और मनोयोग से किया जाए। एक नींव का पत्थर किसी बुलंद इमारत का हिस्सा हो सकता है तो कोई हीरा किसी के सर का ताज। हैं दोनों ही पत्थर। दोनों की अपनी अपनी नियति, अपना अपना काज।।

ज्ञान, अनुभव और अभ्यास का, मिला जुला स्वरूप है। कहीं इसे इल्म कहा जाता है तो कहीं सृजन का सोपान। इस संसार में कोई बाजीगर है तो कोई जादूगर। कोई बाजीगर किसी करिश्मे से अगर हारी हुई बाजी जीत लेता है तो कोई छलिया अपनी जादुई बांसुरी की धुन से न केवल गोकुल की गैयों और गोप गोपियों की सुध बुध छीन लेता है, वही नटवर कन्हैया, द्वापर में योगिराज श्रीकृष्ण बन कुरुक्षेत्र में अर्जुन को गीता के रूप में अनासक्त कर्म का अमर संदेश देता है तो त्रेता युग में वही मर्यादा पुरुषोत्तम बन सबके मन मंदिर में सदा के लिए प्रतिष्ठित हो जाता है।

इस दुनिया में सौदागर भी हैं और कारीगर भी। कुछ सौदागर सच्चाई से सौदा बेचते हैं, और अपनी आजीविका चलाते हैं तो कुछ सच्चाई का सौदा करने के लिए डेरे की आड़ में डाका डालकर इंसानियत को शर्मसार करते हैं। हमने सच्चे सौदागरों को अपनी पोटली में हींग और सूखे मेवे लाते देखा है। जिनमें कोई कल का काबुलीवाला है और कोई आज का बेचारा फेरी वाला, जो दिन भर की मेहनत के बाद भी बड़ी मुश्किल से अपना और अपने बच्चों का पेट पाल पाता है।।

कुछ पेशे पुश्तैनी होते हैं। बढ़ई, जुलाहा, सुनार, सुतार, ठठेरा, धोबी, हलवाई और रंगरेज। आज की भाषा में कहें तो टेक्नीशियन, इलेक्ट्रीशियन और प्लंबर। जिनके बिना हमारा पत्ता भी नहीं हिलता। शादियों के मौसम में हम भी कभी हलवाई और धर्मशाला तलाशा करते थे। आज सब कुछ मैरिज गार्डन और कैटरर के जिम्मे। इसे कहते हैं सच्चा सौदा।

अच्छे कारीगर की तलाश किसे नहीं ! अर्जुन युद्ध कर, शस्त्र उठा, कुरुक्षेत्र के यही श्रीकृष्ण जब जरासंध के पागलपन और हिंसा से मथुरावासियों को बचाने के लिए रणछोड़ बनते हैं, तो समुद्र में सुंदर द्वारिका के निर्माण के लिए वे भी वास्तु के देवता विश्वकर्मा का आव्हान करते हैं। जिसका काम उसी को साजे।।

अच्छे कारीगर बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। होते हैं कुछ मूढ मति, जिन्हें कला और कलाकार की कद्र नहीं होती। सुनते हैं शाहजहां ने उस कारीगर के हाथ कटवा दिए थे, जिसने ताजमहल बनवाया था। जिस मां ने तुम्हें जन्म दिया, तुम उसके साथ भी शायद यही सलूक करते। तुमने उस कारीगर के हाथ नहीं काटे, मुगल सल्तनत का ही सफाया कर दिया। इतिहास ऐसे लोगों को कभी माफ नहीं करता।

जो अन्नपूर्णा घर का भोजन बनाती है, हम उसके हाथ चूमते हैं। दामू अण्णा, रवि अल्पाहार और लाल बाल्टी वाले रानडे की कचोरी बड़े चाव से खाते हैं, क्योंकि उनके कारीगरों के हाथ में स्वाद है। नागौरी की शिकंजी कभी घर पर बनाकर देखें।।

अब जरा उस कारीगर के बारे में सोचें, जिसने यह दुनिया बनाई। हम आपको बनाया। आज की परिस्थिति में भी दोष दें, या तारीफ करें। बस नतमस्तक हो इतना ही कह सकते हैं ;

अजब तेरी कारीगरी रे करतार

समझ ना आए, माया तेरी

बदले रंग हज़ार

अरे वाह रे पालनहार !

अजब तेरी कारीगरी रे करतार…

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विश्व पुस्तक दिवस विशेष – पुस्तक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – विश्व पुस्तक दिवस – पुस्तक ? ? 

तैलाद्रक्षेत् जलाद्रक्षेत् रक्षेत् शिथिलबंधनात।

मूर्खहस्ते न दातव्यमेवं वदति पुस्तकम्।।

पुस्तक की गुहार है, ‘तेल से मेरी रक्षा करो, जल से मेरी रक्षा करो, मेरे बंधन (बाइंडिंग)  शिथिल मत होने दो। मुझे मूर्ख के हाथ मत पड़ने दो।

संदेश स्पष्ट है, पुस्तक संरक्षण के योग्य है।  पुस्तक को बाँचना, गुनना, चिंतन करना, चैतन्य उत्पन्न करता है। यही कारण है कि हमारे पूर्वज पुस्तकों को लेकर सदा जागरूक रहे। नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय इसका अनुपम उदाहरण रहा। पुस्तकों को जाग्रत देवता में बदलने के लिए  पूर्वजों ने ग्रंथों के पारायण की परंपरा आरंभ की। कालांतर में पराधीनता के चलते समुदाय में हीनभावना घर करती गई। यही कारण है कि पठनीयता के संकट पर चर्चा करते हुए आधुनिक समाज धार्मिक पुस्तकों का पारायण करने वाले पाठक को गौण कर देता है। कहा जाता है, जब पग-पग पर  होटलें हों किंतु ढूँढ़े से भी पुस्तकालय न मिले तो पेट फैलने लगता है और मस्तिष्क सिकुड़ने लगता है। वस्तुस्थिति यह है कि  भारत के घर-घर में धार्मिक पुस्तकों का पारायण करने वाले जनसामान्य ने  इस कहावत को धरातल पर उतरने नहीं दिया।

पुस्तकों के महत्व पर भाष्य करते हुए अमेरिकी इतिहासकार बारबरा तुचमैन ने लिखा,’पुस्तकों के बिना इतिहास मौन है, साहित्य गूंगा है,  विज्ञान अपंग है,  विचार स्थिर है।’ बारबारा ने पुस्तक को  समय के समुद्र में खड़ा दीपस्तम्भ भी कहा। समय साक्षी है कि  पुस्तकरूपी  दीपस्तंभ ने जाने कितने सामान्य जनो को महापुरुषों में बदल दिया। सफ़दर हाशमी के शब्दों में,

किताबें कुछ कहना चाहती हैं,

किताबें तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।

पुस्तकों के संग्रह में रुचि जगाएँ, पुस्तकों के अध्ययन का स्वभाव बनाएँ।

 ?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 663 ⇒ स्टेनो-टाइपिस्ट ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्टेनो-टाइपिस्ट ।)

?अभी अभी # 663 ⇒ स्टेनो-टाइपिस्ट  ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

ढाई आखर स्टेनो का, पढ़े सो स्टेनोग्राफर होय ! आप इसे शॉर्ट हैंड अथवा आशु लिपि भी कह सकते हैं। कुछ विद्याएं बड़ी तेजी से आती हैं, हलचल मचाती हैं, और सुपर फास्ट ट्रैन की तरह गुजर जाती हैं। वह लिपि, जो रुकती ही नहीं, सरपट निकल जाती है। कितना प्यारा शब्द है, stay no ! रुको मत, सबसे आगे निकल जाओ। उधर मुंह से

कुछ शब्द निकले, और इधर कलम ने कुछ संकेत बनाए, और काम हो गया।

आजादी के बाद देश का विकास नेहरू जी के कंधों पर था, क्योंकि तब नेहरू जी ही कांग्रेस को कंधा दे रहे थे। अंग्रेज चले गए थे, अंग्रेजियत छोड़ गए थे। देश की युवा पीढ़ी कॉलेज में पढ़ने जाती थी, डॉक्टर इंजीनियर और आय. ए .एस . के सपने देखती थी, और दफ्तरों में बाबुओं की फ़ौज खड़ी हो जाती थी। जिन्होंने आजादी के सात दशक देखे हैं, उनमें से अधिकतर लोग तब लोअर और मिडिल क्लास के लोग थे। मोदीजी का बचपन उसका गवाह है। चिमनी और लालटेन में किसने पढ़ाई नहीं की। तब टाट पट्टी पर पट्टी पेम से ही पढ़ाई होती थी। हम आप सब एक जैसे थे। जैसे भी थे, हम एक थे।।

स्टेनो शब्द सुनते ही, एक सुंदर लड़की का चेहरा सामने आ जाता है, जो किसी शानदार दफ्तर में अपने बॉस से पहले डिक्टेशन लेती थी, और फिर बाद में, अपनी नाजुक उंगलियों से उसे टाइप करती थी। एयर होस्टेस और स्टेनो का दर्जा हमारी निगाह में तब एक जैसा था। पूत के पांव मां बाप को पालने में ही दिख जाते हैं। पढ़ाई के साथ बच्चों को टाइपिंग क्लास भी ज्वाइन करवा देते हैं, और कुछ नहीं तो बाबू तो बन ही जायेगा। बाद में अगर मेहनती होगा तो बड़ा बाबू और अफसर भी बन ही जाएगा। तब पंद्रह से तीस रुपए महीने में, हिंदी अथवा अंग्रेजी टाइपिंग के लिए खर्च करना इतना आसान भी नहीं था। शॉर्ट हैंड सीखना सबके बस की बात नहीं थी।

आज जिसके हाथ में मोबाइल है उसने एक स्टेनो टाइपिस्ट खरीद रखा है। वह इधर बोलता है, उधर टाइप ही नहीं होता, प्रिंट हो जाता है। अब अखबारों में, वांटेड में, विज्ञापन प्रकाशित नहीं होते, टाइपिस्ट चाहिए अथवा एक व्यवसायिक प्रतिष्ठान के लिए महिला स्टेनो टाइपिस्ट की तत्काल आवश्यकता है। सभी दफ्तरों के टाइपराइटर कब के रिटायर हो गए। अब कौन शॉर्ट हैंड सीखता और सिखाता है। Say no to Steno. Say yes to Air Hostess.

कितना अंतर आ गया इन सात दशकों में ! हमारी पीढ़ी टाइपिंग क्लास जाती थी, आज की पीढ़ी कोचिंग क्लास जाती है। हम बी.ए., एम.ए. ही करते रह गए और वे एम.बी.ए. हो गए। अगर कहीं P.R.O., यानी पब्लिक रिलेशन ऑफिसर बन गए, तो सीना छप्पन हो जाता था, आजकल तो बाबा लोग भी C.E.O., चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर यानी मैनेजिंग डायरेक्टर रखने लग गए हैं। आशु लिपि छोड़ें, द्रुत गति अपनाएं। आज की कन्याएं, होटल मैनेजमेंट की ओर नजरें घुमाएं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 347 ☆ “22 अप्रैल – पृथ्वी दिवस विशेष – हरियाली और जल संरक्षण” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 347 ☆

? 22 अप्रैल – पृथ्वी दिवस विशेष – हरियाली और जल संरक्षण ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

प्रतिवर्ष 22 अप्रैल को मनाया जाने वाला अंतरराष्ट्रीय पृथ्वी दिवस हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर जीवन जीने की प्रेरणा देता है। इस वर्ष की थीम “पृथ्वी बचाओ” (Planet vs. Plastics) के साथ-साथ पर्यावरण के दो मूलभूत आधार हरियाली और जल संरक्षण पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है। ये दोनों ही तत्व न केवल मानव जीवन, बल्कि समस्त जैव विविधता के अस्तित्व की कुंजी हैं।

हरियाली, प्रकृति का हरा सोना कही जा सकती है।

वृक्ष और वनस्पतियाँ पृथ्वी के फेफड़े हैं। समुद्र पृथ्वी के सारे अपशिष्ट नैसर्गिक रूप से साफ करने का सबसे बड़ा संयत्र कहा जा सकता है। वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित कर ऑक्सीजन प्रदान करने के साथ-साथ वृक्ष मिट्टी के कटाव को रोकते हैं, जलवायु को संतुलित करते हैं, और जीव-जंतुओं को आश्रय देते हैं।

भारत में वनों का क्षेत्रफल लगभग 21.71%, भारतीय वन सर्वेक्षण 2021के अनुसार है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार आवश्यक 33% से कम है। शहरीकरण, अंधाधुंध निर्माण, और औद्योगिकीकरण के कारण हरियाली का ह्रास एक गंभीर समस्या बन चुका है।

– वनों की कटाई से मरुस्थलीकरण बढ़ रहा है।

– प्रदूषण के कारण पेड़ों का जीवनकाल घटा है।

– जैव विविधता पर संकट।

समाधान:

– सामुदायिक स्तर पर वृक्षारोपण अभियान चलाना।

– सरकारी योजनाओं जैसे ग्रीन इंडिया मिशन को सक्रियता से लागू करना।

– शहरी क्षेत्रों में छतों पर बगीचे (टेरेस गार्डनिंग) को बढ़ावा देना।

– – – जल संरक्षण:

जल ही जीवन है, यह वाक्य भारत जैसे देश में और भी प्रासंगिक है,NITI आयोग, 2018 के अनुसार 60 करोड़ लोग पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं । नदियों का प्रदूषण, भूजल स्तर का गिरना, और वर्षा जल का अपव्यय जल संकट को गहरा कर रहे हैं।

चुनौतियाँ:

– कृषि और उद्योगों में जल की अत्यधिक खपत।

– वर्षा जल संचयन की पारंपरिक प्रणालियों (जैसे कुएँ, तालाब) का विलोपन।

– नदियों में प्लास्टिक और रासायनिक कचरे के निपटान को रोकना।

समाधान:

– वर्षा जल संचयन (रेनवाटर हार्वेस्टिंग) को अनिवार्य बनाना।

– नदियों की सफाई के लिए नमामि गंगे जैसे अभियानों को व्यापक स्तर पर लागू करना।

– किसानों को ड्रिप सिंचाई और फसल चक्र अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना।

हरियाली और जल संरक्षण: दोनों का अटूट नाता है। ये दोनों पहलू एक-दूसरे के पूरक हैं। वृक्ष भूजल स्तर बढ़ाने में मदद करते हैं, जबकि जल के बिना हरियाली संभव नहीं। हरियाली के बिना शुद्ध वातावरण संभव नहीं होता। उदाहरण के लिए, राजस्थान के तरुण भारत संघ ने जल संरक्षण और वनीकरण के माध्यम से अलवर क्षेत्र को हरा-भरा बनाने का वृहद कार्य किया है। इसी प्रकार, केरल की “हरित क्रांति” ने वर्षा जल प्रबंधन को प्राथमिकता देकर कृषि उत्पादन बढ़ाया।

हम क्या कर सकते हैं?

1. व्यक्तिगत स्तर पर:

– घर में पौधे लगाएँ और पानी की बर्बादी रोकें।

– प्लास्टिक का उपयोग कम करके मिट्टी और जल को प्रदूषण से बचाएँ।

– वर्षा जल संग्रह प्रारंभ करें।

2. सामुदायिक स्तर पर:

– गली-मोहल्ले में जागरूकता अभियान चलाएँ।

– स्कूलों और कॉलेजों में “इको-क्लब” बनाएँ।

3. राष्ट्रीय स्तर पर:

– सरकार को जल शक्ति अभियान और राष्ट्रीय हरित न्यायालय के निर्देशों को कड़ाई से लागू करना चाहिए।

पृथ्वी दिवस केवल एक दिन का आयोजन नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रति हमारी सतत प्रतिबद्धता दोहराने का प्रतीक है। हरियाली और जल संरक्षण के बिना, मानवता का भविष्य अंधकारमय है। हम सब को”थिंक ग्लोबली, एक्ट लोकली” के सिद्धांत पर चलते हुए, अपनी धरती को सुरक्षित रखने की शपथ लेने का समय है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 128 – देश-परदेश – चलती ट्रेन में सुविधाएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 128 ☆ देश-परदेश – चलती ट्रेन में सुविधाएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विगत 16 अप्रैल के दिन ही वर्षों पूर्व, पहली भारतीय रेल यात्रा आरंभ हुई थी। उसी को यादगार बनाने के लिए मुम्बई और मनमाड़ के मध्य चलने वाली “पंचवटी एक्सप्रेस” के अंदर बैंक ने ATM सुविधा भी आरंभ कर दी हैं। यात्रियों के लिए एक बहुत बड़ी सुविधा और स्टेशन पर कार्यरत स्टाफ भी इस सुविधा का लाभ ले पाएगा।

ट्रेन में यात्रियों को खरीदारी करने या जुआ खेलने के लिए धन राशि की आवश्यकता की आपूर्ति के लिए ये सुविधा एक मील का पत्थर साबित होगी।

सबसे पहले चलती ट्रेन में आप क्या क्या खरीद सकते है, इस पर चर्चा कर लेनी चाहिए। चलती ट्रेन में खान पान की सुविधा का लाभ उठाने के लिए लोगों को अब धन की कमी आड़े नहीं आएगी। यात्रा में बीच के स्टेशन पर अनेक बार स्थानीय पदार्थ जिसमें फल और सब्जी मुख्य है, सस्ते भाव पर उपलब्ध होते हैं। स्थानीय कलाकार हस्त निर्मित वस्तुएं भी चलती ट्रेन में या बीच के स्टेशंस पर मिल जाती हैं।

मुम्बई की लोकल ट्रेन में इतनी अधिक भीड़ होती है, कि, कई बार चींटी भी नहीं घुस पाती है, फिर भी विक्रेता आप को स्टेशनरी, फल, किताबें आदि बेच कर चला जाता हैं। महिलाओं के कोच में भी सिलाई, बुनाई, मेकअप आदि से लेकर पूरी रेंज लोकल ट्रेन में मिल जाती हैं। महिलाओं से ठसाठस भरी हुई ट्रेन में पुरुष विक्रेता अपना रास्ता वैसे बना लेता है, जैसे पहाड़ों के मध्य से जल अपनी निकासी का मार्ग बना लेता हैं।

चलती ट्रेन में प्रतिबंधित मदिरा भी खाद्य पदार्थ विक्रेता प्रीमियम पर उपलब्ध करवाने की क्षमता रखते हैं। इसका भुगतान वो नगद राशि में ही स्वीकार करते हैं। ऐ टी एम सुविधा आरंभ हो जाने से इस व्यवसाय में भी वृद्धि होगी।

जेब कतरे भी अब ट्रेन के अंदर ही अपने कारोबार को अंजाम दे सकेंगे। वो लोग मंथली पास बनवाकर यात्रा करेंगे, ताकि व्यापार करने की लागत कम की जा सकें।

आने वाले समय में ट्रेन के अंदर “नाई का सैलून” भी खुल सकने की प्रबल संभावना हैं। आगे आगे देखिए रेलवे नई नई सौगातों की झड़ी लगा देगा, बस सिर्फ भीड़ होने के कारण, बैठने के लिए उचित स्थान नहीं उपलब्ध हो पायेगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 661 ⇒ मुझे तुम याद आए ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुझे तुम याद आए।)

?अभी अभी # 661 ⇒ मुझे तुम याद आए ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कोई हमें याद कब आता है, जब वह हमसे दूर होता है, लेकिन दिल के करीब होता है। वैसे याद आने के लिए किसी का होना भी जरूरी नहीं, जो चला गया अतीत हो गया, उसकी भी हमें याद आ सकती है। याद किसी की दया पर निर्भर नहीं, याद आने की कोई शर्त नहीं, कोई तिथि, तारीख, मुहूर्त नहीं। वो जब याद आए, बहुत याद आए।

यादों के दायरे में केवल परिचित स्वजन, मित्र, स्नेही, स्त्री पुरुष, अथवा छोटे बड़े ही नहीं आते, याद तो याद होती है, अपनी पालतू बिल्ली की भी कभी आपको याद आ सकती है।।

आपकी याद, आती रही रात भर ! जी हां, आपकी ही तो बात हो रही है। आखिर आप भी तो अपने ही हैं। किसी की याद आना, केवल स्मरण मात्र नहीं होता। याद में तुम, आप अथवा तू का भेद नहीं होता। यह मन की तरंगों का खेल है, याद आ गई, तो बस आ गई।

यादों का मामला एकांगी नहीं होता। ताली दो हाथ से बजती है। जहां प्रेम है, लगाव है, आसक्ति है, वहां अपेक्षा भी है। प्यार उपेक्षा बर्दाश्त नहीं कर सकता। घबराकर आखिर वह चीख उठता है। बेदर्दी बालमा तुझको, मेरा मन याद करता है।।

कहीं कहीं तो याद सिर्फ आती ही नहीं, सताती भी है। सारी सारी रात, तेरी याद सताए। नींद ना आए, और जी भी घबराए। अच्छे भले बैठे हैं, और हिचकी आना शुरू हो जाती है।

हिचकी का अपना विज्ञान है, पानी पी लें, हिचकी बंद हो जाएगी। लेकिन हमारी मान्यता तो आज भी यही है, जरूर किसी अपने ने याद किया होगा, और कमाल देखिए, आपका नाम लिया और हिचकी बंद हो गई।

यादों का सहारा ना होता, हम छोड़ के दुनिया चल देते। खट्टी मीठी यादें ही तो हमारे जीवन की पूंजी है, धरोहर है। जो हमसे बिछड़े उन्हें केवल हम ही याद कर सकते हैं, लेकिन हम जिनसे जनम जनम से बिछड़े हैं, क्या कभी हमें उनकी भी याद आती है।।

हम कभी परमेश्वर के अंश थे और उसी परमेश्वर का कुछ अंश आज हममें भी विद्यमान है, लेकिन हम उसे पूरी तरह से भुला चुके हैं।

सुबह शाम गमलों में पानी देने के समान उसे भी याद कर लिया करते हैं। जब ज्यादा याद आई तो साधन, भजन, कीर्तन। इतने व्रत, त्योहार हैं याद करने के लिए।

हर प्राणी में उसी ईश्वर का अंश है। अपने कल्याण के साथ सबके कल्याण की कामना करना भी एक तरह से उन्हें याद करना ही है। एक प्रेम की डोर ही हम सबको आपस में जोड़े रखती है। यह कड़ी ही हम सबको ईश्वर से भी जोड़ती है। हम सबका ईश्वर भी तो एक है :

जब जब बहार आई

और फूल मुस्कुराए

मुझे तुम याद आए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 285 – शेष.. विशेष…अशेष! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 285 शेष.. विशेष…अशेष! ?

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,

तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।

संत कबीर का यह दोहा अपने अर्थ में सरल और भावार्थ में असीम विस्तार लिए हुए है। जैसे वृक्ष से झड़ा पत्ता दोबारा डाल पर नहीं लगता, वैसे ही मनुष्य देह बार-बार नहीं मिलती। मनुष्य देह बार-बार नहीं मिलती अर्थात दुर्लभ है। जिसे पाना कठिन हो, स्वाभाविक है कि उसका जतन किया जाए। देह नश्वर है, अत: जतन का तात्पर्य सदुपयोग से है।

ऐसा भी नहीं कि मनुष्य इस सच को जानता नहीं पर जानते-बूझते भी अधिकांश का जीवन पल-पल रीत रहा है, निरर्थक-सा क्षण-क्षण  बीत रहा है।

कोई हमारे निर्रथक समय का बोध करा दे या आत्मबोध उत्पन्न हो जाए तो प्राय: हम अतीत का पश्चाताप करने लगते हैं। जीवन में जो समय व्यतीत हो चुका, उसके लिए दुख मनाने लगते हैं। पत्थर की लकीर तो यह है कि जब हम अतीत का पश्चाताप कर रहे होते हैं, उसी समय   तात्कालिक वर्तमान अतीत हो रहा होता है।

अतीतजीवी भूतकाल से बाहर नहीं आ पाता, वर्तमान तक आ नहीं पाता, भविष्य में पहुँचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अपनी एक कविता स्मरण हो आ रही है,

हमेशा वर्तमान में जिया,

इसलिए अतीत से लड़ पाया,

तुम जीते रहे अतीत में,

खोया वर्तमान,

हारा अतीत

और भविष्य तो

तुमसे नितांत अपरिचित है,

क्योंकि भविष्य के खाते में

केवल वर्तमान तक पहुँचे

लोगों की नाम दर्ज़ होते हैं..!

अपने आप से दुखी एक अतीतजीवी के मन में बार-बार आत्महत्या का विचार आने लगा था। अपनी समस्या लेकर वह महर्षि रमण के पास पहुँचा। आश्रम में आनेवाले अतिथियों के लिए पत्तल बनाने में महर्षि और उनके शिष्य व्यस्त थे। पत्तल बनाते-बनाते  महर्षि रमण ने उस व्यक्ति की समस्या सुनी और चुपचाप पत्तल बनाते रहे। उत्तर की प्रतीक्षा करते-करते व्यक्ति खीझ गया। मनुष्य की विशेषता है  जिन प्रश्नों का उत्तर स्वयं वर्षों नहीं खोज पाता, किसी अन्य से उनका उत्तर क्षण भर में पाने की अपेक्षा करता है।

वह  चिढ़कर महर्षि से बोला, ‘आप पत्तल बनाने में मग्न हैं।  एक बार इन पर भोजन परोस दिया गया, उसके बाद तो इन्हें फेंक ही दिया जाएगा न। फिर क्यों इन्हें इतनी बारीकी से बना रहे हैं, क्यों इसके लिए इतना समय दे रहे हैं?’

महर्षि मुस्कराकर शांत भाव से बोले, ‘यह सत्य है कि पत्तल उपयोग के बाद नष्ट हो जाएगी। मर्त्यलोक में नश्वरता अवश्यंभावी है तथापि मृत्यु से पहले जन्म का सदुपयोग करना ही जीवात्मा का लक्ष्य होना चाहिए। सदुपयोग क्षण-क्षण का। अतीत बीत चुका, भविष्य आया नहीं। वर्तमान को जीने से ही जीवन को जिया जा सकता है, जन्म को सार्थक किया जा सकता है, दुर्लभ मनुज जन्म को भवसागर पार करने का माध्यम बनाया जा सकता है। इसका एक ही तरीका है, हर पल जियो, हर पल वर्तमान जियो।’

स्मरण रहे, व्यतीत हो गया, सो अतीत हो गया। अब जो शेष है, वही विशेष है। विशेष पर ध्यान दिया जाए, जीवन को सार्थक जिया जाए तो देह के जाने के बाद भी मनुष्य रहता अशेष है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 660 ⇒ ब्रांडेड उत्पाद ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ब्रांडेड उत्पाद।)

?अभी अभी # 660 ब्रांडेड उत्पाद ? श्री प्रदीप शर्मा  ? °°°

ऊंचे लोग, ऊंची पसंद। जो शौकीन किस्म के रईस होते हैं, उनकी दुनिया एक आम आदमी से अलग ही होती है। इनका हर चीज का अपना विशेष ब्रांड होता है। ब्रांडेड शूज, ब्रांडेड परिधान, ब्रांडेड कार और ब्रांडेड ज्वैलरी।

आज के प्रचार प्रसार और विज्ञापन की दुनिया में एक आम आदमी पर भी इसका प्रभाव पड़ता है और उसका भी झुकाव ब्रांडेड चीजों की ओर होने लगता है। वैसे भी सस्ता रोये बार बार और महंगा रोये एक बार। तो जो बार बार सस्ता खरीदकर रोता है, क्या वह एक बार महंगा खरीदकर नहीं रो सकता।

हमारी औसत मानसिकता सस्ता, सुंदर और टिकाऊ माल खरीदने की होती है।

इसीलिए कभी कभी जब ब्रांडेड सामान की सेल लगती है, तो दौड़ पड़ते हैं, २०% से ५० % तक के डिस्काउंट, यानी विशेष छूट की ओर। स्वदेशी का गर्व अपनी जगह है, लेकिन ब्रांडेड सामान की चाहत अपनी जगह।।

हम तब अपने आपको गर्व से मध्यम श्रेणी यानी मिडिल क्लास नागरिक मानते थे। फिलिप्स का रेडियो, उषा का पंखा, बाटा का जूता, कोलगेट पेेस्ट, एटलस साइकिल और कलाई घड़ी जैसी उपयोगी वस्तुएं

हमारी पहुंच के अंदर ही तो थी। सरकारी स्कूल में पढ़ लिखकर, सन् इकहत्तर में पहली तनख्वाह ₹ ३०० मिली थी, अभी तक याद है। वे दिन भले ही अच्छे दिन नहीं हों, फिर भी, न जाने क्यूं, बार बार यही गीत गाने का मन करता है, कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन।

हमने बंगला देश का युद्ध भी देखा और आपातकाल भी। आदमी महीने में तीन सौ कमाए अथवा तीन हजार, वह मिडिल क्लास ही कहलाता था। इंपोर्टेड यानी आयातित सामान का क्रेज़ हमें भी था। विदेश पढ़ने भी इक्के दुक्के लोग ही जाते थे। विदेश यात्रा पर जाने पर अखबार में फोटो सहित विज्ञापन भी दिया जाता था।।

लेकिन सन् १९९० के आसपास ऐसी आर्थिक उदारीकरण की हवा बही, कि पूरब पश्चिम एक हो गया। सभी मल्टीनेशनल कंपनियां अपने उत्पाद भारत ले आई। हैदराबाद, बैंगलुरु, पुणे और मुंबई जैसे महानगर आय. टी. सेक्टर के मुख्य केंद्र बन गए। घर घर बच्चे कंप्यूटर इंजीनियर, चार्टर्ड अकाउंटेंट और डॉक्टर बनने लगे। एक ही शहर में दर्जनों प्राइवेट इंजीनियरिंग और मेडीकल कॉलेज।

कोटा जैसा शहर विद्यार्थियों के लिए कोचिंग का तीर्थ स्थान बन गया।

और इस तरह जो नई पीढ़ी तैयार हुई, वह पढ़ने के बाद सीधी विदेश जा बसी। आज जिसका बच्चा, बच्ची, बहू, दामाद देखो, विदेश में ही नजर आता है। घरों में ब्रांडेड सामान का अंबार लगा है। बच्चे मानते ही नहीं, कभी जींस ले आते हैं तो कभी महंगे जूते और चप्पल।।

विदेश में आज की पीढ़ी खूब मेहनत कर रही है, पसीना बहा रही है और इन्कम टैक्स चुकाकर पैसा यहां भारत में रियल एस्टेट में इन्वेस्ट कर रही है। देश समृद्ध हो रहा है, परिवार फल फूल रहे हैं।

एक ओर धर्म की गंगा बह रही है और दूसरी ओर विदेशी गाड़ियां और ब्रांडेड सामानों से घर भरा जा रहा है। हमारा चश्मा तो आज यही देख पा रहा है। जिस सनातन हिन्दू राष्ट्र की हमने कभी कल्पना की थी, वह यही तो है। अगर आपको यह सब दिखाई नहीं पड़ रहा, तो अपनी आंखों और दिमाग का इलाज करें।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 659 ⇒ नेकी कर, यूट्यूब पर डाल ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नेकी कर, यूट्यूब पर डाल।)

?अभी अभी # 659 ⇒ नेकी कर, यूट्यूब पर डाल… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

होते हैं इस संसार में चंद ऐसे नेकचंद, जो नेकी तो करते हैं, लेकिन नेकी की कद्र ना करते हुए उसे दरिया में बहा देते हैं। दरिया के भाग तो देखें, नेकी की गंगा तो दरिया में बह रही है और राम, तेरी गंगा मैली हो रही है, पापियों के पाप धोते धोते। फिर भी देखिए, एक संत का चित्त कितना शुद्ध है, चलो मन, गंगा जमना तीर। हम कब नेकी की कद्र करना जानेंगे।

जिस तरह जल ही जीवन है, उसी तरह अच्छाई, जिसे हम नेकी कहते हैं, वह भी एक लुप्तप्राय सद्गुण हो चला है, इसे सुरक्षित और संरक्षित रखना ही समय की मांग है, इसे यूं ही दरिया में बहाना समझदारी नहीं।।

अच्छाई का जितना प्रचार प्रसार हो, उतना बेहतर। किताबों के ज्ञान की तुलना में व्यवहारिक ज्ञान अधिक श्रेष्ठ है। कहां हैं आजकल ऐसे लोग ;

भला करने वाले,

भलाई किए जा।

बुराई के बदले,

दुआएं दिए जा।।

हमारा आज का सिद्धांत, जैसे को तैसा हो गया है। कोई अगर आपके एक गाल पर चांटा मारे, तो बदले में उसका मुंह तोड़ दो। नेकी गई भाड़ में। देख तेरे नेकी के दरिये की, क्या हालत हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान।

कहते हैं, आज की इस दुनिया में बुराई और पाप बहुत बढ़ गया है। पाप का घड़ा तो कब का भर जाता। कुछ नेकी और कुछ नेकचंद, यानी कुछ अच्छाई और कुछ अच्छे लोग आज भी हमारे बीच हैं, जिनके पुण्य प्रताप से हम अभी तक रसातल में नहीं समाए। लोग भी थोड़े समझदार और जिम्मेदार हो चले हैं। नेकी की कद्र करने लगे हैं। कुछ लोग नेकी को आजकल दरिया में नहीं व्हाट्सएप पर अथवा फेसबुक पर भी डालने लगे हैं।।

व्हाट्सएप पर तो मानो फिर से नेकी का ही दरिया बह निकला है। व्हाट्सएप भी हैरान, परेशान, बार बार संकेत भी देने लगता है, forwarded many times, लेकिन नेकी है, जो बहती चली आ रही है। किसी ने नेकी को व्हाट्सपप से उठाकर फेसबुक पर डाल दिया। खूब लाइक, कमेंट और शेयर करने वाले मिल रहे हैं नेकी को। नेकी की इतनी पूछ परख पहले कभी नहीं हुई, जितनी आज सोशल मीडिया में हो रही है। हाल ही में एक मित्र ने व्हाट्सएप पर एक ग्रुप बनाया, एक बनेंगे, नेक बनेंगे और मुझे बिना मेरी जानकारी के उसमें शामिल भी कर लिया। जब मैंने पूछा, तो यही जवाब मिला, नेकी और पूछ पूछ।

टीवी पर दर्जनों धार्मिक चैनल इस नेक काम में लगे हुए हैं, कितने सामाजिक, धार्मिक और पारमार्थिक संगठन और एन.जी. ओ. नेकी की मशाल से जन जागृति फैला रहे हैं। लोग तो आजकल अपनी प्रकाशित पुस्तकें भी अमेजान पर डालने लगे हैं। हमारे मुकेश भाई अंबानी ने भी जिओ नेटवर्क की ऐसी नेकी की मिसाल पेश की है कि हमारा भी मन करता है, हम भी कुछ नेकी यू ट्यूब पर डाल ही दें। आपसे उम्मीद है आप हमारे चैनल को लाइक, शेयर और सब्सक्राइब अवश्य करेंगे।

आप भी आगे से ध्यान रखें, व्यर्थ दरिया में डालने के बजाए, नेकी करें और यूट्यूब पर बहाएं और दो पैसे भी कमाएं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares