(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का समसामयिक विषय पर आधारित एक विचारणीय आलेख ‘पब्लिक सेक्टर को बचाना जरूरी ।‘इस सार्थक सामयिक एवं विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 95 ☆
पब्लिक सेक्टर को बचाना जरूरी
वर्तमान युग वैश्विक सोच व ग्लोबल बाजार का हो चला है. सारी दुनियां में विश्व बैंक तथा समानांतर वैश्विक वित्तीय संस्थायें अधिकांश देशों की सरकारों पर अपनी सोच का दबाव बना रही हैं. स्पष्टतः इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थानो के निर्देशानुसार सरकारें नियम बनाती दिखती हैं. पाकिस्तान जैसे छोटे मोटे देशों की आर्थिक बदहाली के कारणों में उनकी स्वयं की कोई वित्तीय सुढ़ृड़ता न होना व पूरी तरह उधार की इकानामी होना है जिसके चलते वे इन वैश्विक संस्थानो के सम्मुख विवश हैं. किंतु भारत एक स्वनिर्मित सुढ़ृड़ आर्थिक व्यवस्था का मालिक रहा है. २००८ की वैश्विक मंदी या आज २०२० की कोविड मंदी के समय में भी यदि भारत की इकानामी नही टूटी तो इसका कारण यह है कि ” है अपना हिंदुस्तान कहां ?, वह बसा हमारे गांवों में “.
हमारे गांव अपनी खेती व ग्रामोद्योग के कारण आत्मनिर्भर बने रहे हैं. नकारात्मकता में सकारात्मकता ढ़ूंढ़ें तो शायद विकास की शहरी चकाचौंध न पहुंच पाने के चलते भी अप्रत्यक्षतः गांव अपनी गरीबी में भी आत्मनिर्भर रहे हैं. इस दृष्टि से किसानो को निजी हाथों में सौंपने से बचने की जरूरत है.
हमारे शहरों की इकानामी की आत्मनिर्भरता में बहुत बड़ा हाथ पब्लिक सेक्टर नवरत्न सरकारी कंपनियों का है. इसी तरह यदि शहरी इकानामी में नकारात्मकता में सकारात्मकता ढ़ूंढ़ी जाये तो शायद समानांतर ब्लैक मनी की कैश इकानामी भी शहरी आर्थिक आत्मनिर्भरता के कारणो में एक हो सकती है.
हमारा संविधान देश को जन कल्याणकारी राज्य घोषित करता है. बिजली, रेल, हवाई यात्रा, पेट्रोलियम, गैस, कोयला, संचार, फर्टिलाइजर, सीमेंट, एल्युमिनियम, भंडारण, ट्रांस्पोरटेशन, इलेक्ट्रानिक्स, हैवी विद्युत उपकरण, हमारे जीवन के लगभग हर क्षेत्र में आजादी के बाद से पब्लिक सेक्टर ने हमारे देश में ही नही पडोसी देशो में भी एक महत्वपूर्ण संरचना कर दिखाई है. बिजली यदि पब्लिक सेक्टर में न होती तो गांव गांव रोशनी पहुंचना नामुमकिन था. हर व्यक्ति के बैंक खाते की जो गर्वोक्ति देश दुनियां भर में करता है, यदि बैंक केवल निजी क्षेत्र में होते तो यह कार्य असंभव था.
विगत दशको में सरकारें किसी भी पार्टी की हों, वे शनैः शनैः इस बरसों की मेहनत से रची गई इमारत को किसी न किसी बहाने मिटा देना चाहती हैं. जिस पब्लिक सेक्टर ने स्वयं के लाभ से जन सरोकारों को हमेशा ज्यादा महत्व दिया है, उसे मिटने से बचाना, देश के व्यापक हित में आम भारतीय के लिये जरूरी है. तकनीकी संस्थानो में आईएएस अधिकारियो के नेतृत्व पर प्रधानमंत्री जी ने तर्क संगत सवाल उठाया है. यह पब्लिक सेक्टर की कथित अवनति का एक कारण हो सकता है.
पब्लिक सेक्टर देश के नैसर्गिक संसाधनो पर जनता के अधिकार के संरक्षक रहे हैं. जबकि पब्लिक सेक्टर की जगह निजी क्षेत्र का प्रवेश देश के बने बनायें संसाधनो को, कौड़ियो में व्यक्तिगत संपत्ति में बदल देंगे. इससे संविधान की ” जनता का, जनता के लिये, जनता के द्वारा ” आधारभूत भावना का हनन होगा. चुनी गई सरकारें पांच वर्षो के निश्चित कार्यकाल के लिये होती हैं, किन्तु निजीकरण के ये निर्णय पांच वर्षो से बहुत दूर तक देश के भविष्य को प्रभावित करने वाले हैं. कोई भी बाद की सरकार इस कदम की वापसी नही कर पायेगी. प्रिविपर्स बंद करना, बैंको का सार्वजिककरण, जैसे कदमो का यू टर्न स्पष्ट रूप से भारतीय संविधान की मूल लोकहितकारी भावना के विपरीत परिलक्षित होता है. हमें वैश्विक परिस्थितियों में अपनी अलग जनहितकारी साख बनाये रखनी चाहिये, तभी हम सचमुच आत्मनिर्भर होकर स्वयं को विश्वगुरू प्रमाणित कर सकेंगे.
क्या उपभोक्ता अधिकार निजी क्षेत्र में सुरक्षित रहेंगे ? पब्लिक सेक्टर की जगह लाया जा रहा निजी क्षेत्र महिला आरक्षण, विकलांग आरक्षण, अनुसूचित जन जातियो का वर्षो से बार बार बढ़ाया जाता आरक्षण तुरंत बंद कर देगा. निजी क्षेत्र में कर्मचारी हितों, पेंशन का संरक्षण कौन करेगा ? ऐसे सवालों के उत्तर हर भारतीय को स्वयं ही सोचने हैं, क्योंकि सरकारें राजनैतिक हितों के चलते दूरदर्शिता से कुछ नही सोच रही हैं.
सरल भाषा में समझें कि यदि सरकार के तर्को के अनुसार व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा ही सारे आदर्श मानक हैं और मां, बहन या पत्नी के हाथों के स्वाद, त्वरित उपलब्धता, आत्मीयता, का कोई महत्व नहीं है, हर कुछ का व्यवसायीकरण ही करना है, तब तो सब के घरों की रसोई बंद कर दी जानी चाहिये और हम सबको होटलों से टेंडर बुलवाने चाहिये. स्पष्ट समझ आता है कि यह व्यापक हित में नही है.
अतः संविधान के पक्ष में, जनता और राष्ट्र के व्यापक हित में एवं विश्व में भारत की श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिये आवश्यक है कि किसानो को निजी हाथों में सौंपने से बचा जाये व पब्लिक सेक्टर को तोड़ने के आत्मघाती कदमो को तुरंत रोका जाये. बजट में जन हितकारी धन आबंटन हो न कि यह बताया जाये कि सार्वजनिक क्षेत्र को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिये उसका निजीकरण किया जावेगा. सार्वजनिक क्षेत्र के सुधार और सुढ़ृड़ीकरण की तरकीब ढ़ूंढ़ना जरूरी है न कि उसका निजीकरण कर उसे समाप्त करना.
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक बसंत पंचमी पर्व पर एक विशेष आलेख ‘वेलेंटाइन कहिये या बसन्त पंचमी।‘इस सार्थक सामयिक एवं विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 94 ☆
? वेलेंटाइन कहिये या बसन्त पंचमी ?
दार्शनिक चिंतन वेलेंटाइन डे को प्रकृति के बासन्ती परिवर्तन से प्राणियो के मनोभावों पर प्रभाव मानता है, बसंत पंचमी व वेलेंटाइन लगभग आस पास ही होते हैं, प्रतिवर्ष। स्पष्ट है सभ्यताओं के वैभिन्य में प्राकृतिक बदलाव को अभिव्यक्त करने की तिथियां किंचित भिन्न हो सकती हैं, प्रसन्नता व्यक्त करने का तरीका सभ्यता व संसाधनों के अनुसार कुछ अलग अलग हो सकता है, पर परिवेश के अनुकूल व्यवहार मनुष्य ही नही सभी प्राणियों में सामान्य है।
आज के युवा पश्चिम के प्रभाव में सारे आवरण फाड़कर अपनी समस्त प्रतिभा के साथ दुनिया में छा जाना चाहते है। इंटरनेट पर एक क्लिक पर अनावृत होती सनी लिओने सी बसंतियां स्वेच्छा से ही तो यह सब कर रही हैं।बसंत प्रकृति पुरुष है।वह अपने इर्द गिर्द रगीनियां सजाना चाहता है, पर प्रगति की कांक्रीट से बनी गगनचुम्बी चुनौतियां, कारखानो के हूटर और धुंआ उगलती चिमनियां बसंत के इस प्रयास को रोकना चाहती है।
भारत ने प्रेम की नैसर्गिक भावना को हमेशा एक मर्यादा में सुसभ्य तरीके से आध्यात्मिक स्वरूप में पहचाना है। राधा कृष्ण इस एटर्नल लव के प्रतीक के रूप में वैश्विक रूप में स्थापित हैं।
बसंत पंचमी कहें या वेलेंटाइन डे नारी सुलभ सौंदर्य, परिधान, नृत्य, रोमांटिक गायन में प्रकृति के साथ मानवीय तादात्म्य ही है। आज स्त्री के कोमल हाथो में फूल नहीं कार की स्टियरिंग थमाकर, जीन्स और टाप पहनाकर उसे जो चैलेंज वेलेंटाइन वाला जमाना दे रहा है, उसके जबाब में किसी नेचर्स एनक्लेव बिल्डिंग के आठवें माले के फ्लैट की बालकनी में लटके गमले में गेंदे के फूल के साथ सैल्फी लेती पीढ़ी ने दे दिया है, हमारी नई पीढ़ी जानती है कि उसे बसंत और वेलेंटाइन के साथ सामंजस्य बनाते हुये कैसे बजरंग दलीय मानसिकता से जीतते हुये अपना पिंक झंडा लहराना है। पुरुष और नारी के सहयोग से ही प्रकृति बढ़ रही है, उसे वेलेंटाइन कहे या बसन्त पंचमी।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 85 ☆ ढाई आखर… ☆
वैलेंटाइन दिवस पर श्री संजय भारद्वाज जी का एक विचारणीय एवं सामायिक आलेख
प्रेम अबूझ, प्रेम अपरिभाषित…, प्रेम अनुभूत, प्रेम अनभिव्यक्त..। प्रेम ऐसा मोहपाश जो बंधनों से मुक्त कर दे, प्रेम क्षितिज का ऐसा आभास जो धरती और आकाश को पाश में आबद्ध कर दे। प्रेम द्वैत का ऐसा डाहिया भाव कि किसीकी दृष्टि अपनी सृष्टि में देख न सके, प्रेम अद्वैत का ऐसा अनन्य भाव कि अपनी दृष्टि में हरेक की सृष्टि देखने लगे।
ब्रजपर्व पूर्ण हुआ। कर्तव्य और जीवन के उद्देश्य ने पुकारा। गोविंद द्वारिका चले। ब्रज छोड़कर जाते कान्हा को पुकारती सुधबुध भूली राधारानी ऐसी कृष्णमय हुई कि ‘कान्हा, कान्हा’ पुकारने के बजाय ‘राधे, राधे’ की टेर लगाने लगी। अद्वैत जब अनन्य हो जाता है राधा और कृष्ण, राधेकृष्ण हो जाते हैं। योगेश्वर स्वयं कहते हैं, नंदलाल और वृषभानुजा एक ही हैं। उनमें अंतर नहीं है।
रासरचैया से रासेश्वरी राधिका ने पूछा, “कान्हा, बताओ, मैं कहाँ-कहाँ हूँ?” गोपाल ने कहा, “राधे, तुम मेरे हृदय में हो।” विराट रूपधारी के हृदय में होना अर्थात अखिल ब्रह्मांड में होना।..”तुम मेरे प्राण में हो, तुम मेरे श्वास में हो।” जगदीश के प्राण और श्वास में होना अर्थात पंचतत्व में होना, क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर में होना।..”तुम मेरे सामर्थ्य में हो।” स्रष्टा के सामर्थ्य में होना अर्थात मुरलीधर को गिरिधर करने की प्रेरणा होना। कृष्ण ने नश्वर अवतार लिया हो या सनातन ईश्वर होकर विराजें हों, राधारानी साथ रहीं सो कृष्ण की बात रही।
“लघुत्तम से लेकर महत्तम चराचर में हो। राधे तुम यत्र, तत्र, सर्वत्र हो।”
श्रीराधे ने इठलाकर पूछा, “अच्छा अब बताओ, मैं कहाँ नहीं हूँ?” योगेश्वर ने गंभीर स्वर में कहा, “राधे, तुम मेरे भाग्य में नहीं हो।”
प्रेम का भाग्य मिलन है या प्रेम का सौभाग्य बिछोह है? प्रेम की परिधि देह है या देहातीत होना प्रेम का व्यास है?
परिभाषित हो न हो, बूझा जाय या न जाय, प्रेम ऐसी भावना है जिसमें अनंत संभावना है।कर्तव्य ने कृष्ण को द्वारिकाधीश के रूप में आसीन किया तो प्रेम ने राधारानी को वृंदावन की पटरानी घोषित किया। ब्रज की हर धारा, राधा है। ब्रज की रज राधा है, ब्रज का कण-कण राधा है, तभी तो मीरा ने गोस्वामी जी से पूछा था, “ठाकुर जी के सिवा क्या ब्रज में कोई अन्य पुरुष भी है?”
प्रेमरस के बिना जीवनघट रीता है। जिसके जीवन में प्रेम अंतर्भूत है, उसका जीवन अभिभूत है। विशेष बात यह कि अभिभूत करनेवाली यह अनुभूति न उपजाई न जा सकती है न खरीदी जा सकती है।
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।
इस ढाई आखर को मापने के लिए वामन अवतार के तीन कदम भी कम पड़ जाएँ!
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय जी का विशेष आलेख “हिंदूधर्माचरण एक संस्कारित भारतीय जीवनशैली”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य#73 ☆ हिंदूधर्माचरण एक संस्कारित भारतीय जीवनशैली ☆
हमारा देश भारतवर्ष पौराणिक कथाओं तथा मतों के अध्ययन के अनुसार आर्यावर्त के जंबूद्वीप के एक खंड का हिस्सा है जिसे अखंडभारत के नाम से पहचाना जाता है। राजा दुष्यंत के महाप्रतापी पुत्र भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। लेकिन हमारे अध्ययन के अनुसार देश में तीन भरत चरित्र हमारे सामने है जो सामूहिक रूप से हमारे देश हमारी संस्कृति तथा हमारे समाज के आचार विचार व्यवहार तथा मानवीय गुणों की आदर्श तथा अद्भुतछवि विश्व फलक पर प्रस्तुत करता है।
जिसमें समस्त मानवीय मूल्यों आदर्शों की छटा समाहित है जो हमें हमारे सांस्कृतिक संस्कारों की याद दिलाता रहता है, जो इंगित करता है कि बिना संस्कारों के संरक्षण के कोई समाज उन्नति नहीं कर सकता। संस्कार विहीन समाज टूटकर बिखर जाता है और अपने मानवीय मूल्य को खो देता है। वैसे तो हर धर्म और संस्कृति के लोग अपने देश काल परिस्थिति के अनुसार अपने अपने संस्कारों के अनुसार व्यवहार करते है, किन्तु, हमारा समाज षोडश संस्कारों की आचार संहिता से आच्छादित है। इसमें मुख्य हैं 1-गर्भाधान संस्कार 2-पुंशवन संस्कार 3-सीमंतोन्नयन संस्कार 4-जातकर्म संस्कार 5-नामकरण संस्कार 6-निष्क्रमण संस्कार 7- अन्नप्राश्न संस्कार 8-मुण्डन संस्कार 9-कर्णवेधन संस्कार 10-विद्यारंभ संस्कार 11-उपनयन संस्कार 12-वेदारंभ संस्कार 13-केशांत संस्कार 14-संवर्तन संस्कार 15-पाणिग्रहण अथवा विवाह संस्कार 16-अंतेष्टि संस्कार।
इनमें से हर संस्कार का मूलाधार आदर्श कर्मकांड पर टिका हुआ है। हमारे आदर्श ही हमारी संस्कृति की जमा-पूंजी है, यही तो हर भरत चरित्र हम भारतवंशियो की आचार-संहिता की चीख चीख कर दुहाई देता है जिसका आज पतन होता दीख रहा है। आज जहां भाई ही भाई के खून का प्यासा है। वहीं त्रेता युगीन भरत चरित भ्रातृप्रेम तथा स्नेह की अनूठी मिसाल प्रस्तुत करता है, तो द्वापरयुगीन भरत चरित शूर वीरता शौर्य तथा साहस की भारतीय परम्परा की गौरवगाथा की जीवंत झांकी दिखाता है।
वहीं जडभरत का चरित्र हमारी आध्यात्मिक ज्ञान की पराकाष्ठा को स्पर्श करता दीखता है ये नाम हर भारतीय से आदर्श आचार संहिता की अपेक्षा रखता है जो हमारे समाज की आन बान शान के मर्यादित आचरण की कसौटी है।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय स्त्री विमर्श साधन नहीं साधना। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 82 ☆
☆ साधन नहीं साधना ☆
‘आदमी साधन नहीं, साधना से श्रेष्ठ बनता है। आदमी उच्चारण से नहीं, उच्च-आचरण से अपनी पहचान बनाता है’… जिससे तात्पर्य है, मानव धन-दौलत व पद-प्रतिष्ठा से श्रेष्ठ नहीं बनता, क्योंकि साधन तो सुख-सुविधाएं प्रदान कर सकते हैं, श्रेष्ठता नहीं। सुख, शांति व संतोष तो मानव को साधना से प्राप्त होती है और तपस्या व आत्म-नियंत्रण इसके प्रमुख साधन हैं। संसार में वही व्यक्ति श्रेष्ठ कहलाता है, अथवा अमर हो जाता है, जिसने अपने मन की इच्छाओं पर अंकुश लगा लिया है। वास्तव में इच्छाएं ही हमारे दु:खों का कारण हैं। इसके साथ ही हमारी वाणी भी हमें सबकी नज़रों में गिरा कर तमाशा देखती है। इसलिए केवल बोल नहीं, उनके कहने का अंदाज़ भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। वास्तव में उच्चारण अर्थात् हमारे कहने का ढंग ही, हमारे व्यक्तित्व का आईना होता है, जो हमारे आचरण को पल-भर में सबके सम्मुख उजागर कर देता है। सो! व्यक्ति अपने आचरण व व्यवहार से पहचाना जाता है। इसलिए ही उसे विनम्र बनने की सलाह दी गई है, क्योंकि फूलों-फलों से लदा वृक्ष सदैव झुक कर रहता है; सबके आकर्षण का केंद्र बनता है और लोग उसका हृदय से सम्मान करते हैं।
‘इसलिए सिर्फ़ उतना विनम्र बनो; जितना ज़रूरी हो, क्योंकि बेवजह की विनम्रता दूसरों के अहं को बढ़ावा देती है।’ दूसरे शब्दों में उस स्थिति में लोग आपको अयोग्य व कायर समझ, आपका उपयोग करना प्रारंभ कर देते हैं। आपको दूसरों को हीन दर्शाने हेतु निंदा करना, उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है अथवा आदत में शुमार हो जाता है। यह तो सर्वविदित है कि आवश्यकता से अधिक किसी वस्तु का सेवन मानव को सदैव हानि पहुंचाता है। इसलिए उतना झुको; जितना आवश्यक हो ताकि आपका अस्तित्व कायम रह सके। ‘हां! सलाह हारे हुए की, तज़ुर्बा जीते हुए का और दिमाग़ खुद का… इंसान को ज़िंदगी में कभी हारने नहीं देता।’ सो! दूसरों की सलाह तो मानिए,परंतु अपने मनोमस्तिष्क का प्रयोग अवश्य कीजिए और परिस्थितियों का बखूबी अवलोकन कीजिए। सो! ‘सुनिए सबकी, कीजिए मन की’ अर्थात् समय व अवसरानुकूलता का ध्यान रखते हुए निर्णय लीजिए। ग़लत समय पर लिया गया निर्णय, आपको कटघरे में खड़ा कर सकता है… अर्श से फ़र्श पर लाकर पटक सकता है। वास्तव में सुलझा हुआ व्यक्ति अपने निर्णय खुद लेता है तथा उसके परिणाम के लिए दूसरों को कभी भी दोषी नहीं ठहराता। इसलिए जो भी करें, आत्म- विश्वास से करें…पूरे जोशो-ख़रोश से करें। बीच राह से लौटें नहीं और अपनी मंज़िल पर पहुंचने के पश्चात् ही पीछे मुड़कर देखें, अन्यथा आप अपने लक्ष्य की प्राप्ति कभी भी नहीं कर पाएंगे।
‘इंतज़ार करने वालों को बस उतना ही मिलता है, जितना कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं।’ अब्दुल कलाम जी का यह संदेश मानव को निरंतर कर्मशील बने रहने का संदेश देता है। परंतु जो मनुष्य हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाता है, परिश्रम करना छोड़ देता है और प्रतीक्षा करने लग जाता है कि जो भाग्य में लिखा है अवश्य मिल कर रहेगा। सो! उन लोगों के हिस्से में वही आता है, जो कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं। दूसरे शब्दों में आप इसे जूठन की संज्ञा भी दे सकते हैं। ‘इसलिए जहां भी रहो, लोगों की ज़रूरत बन कर रहो, बोझ बन कर नहीं’ और ज़रूरत वही बन सकता है, जो सत्यवादी हो, शक्तिशाली हो, परोपकारी हो, क्योंकि स्वार्थी इंसान तो मात्र बोझ है, जो केवल अपने बारे में सोचता है। वह उचित- अनुचित को नकार, दूसरों की भावनाओं को रौंद, उनके प्राण तक लेने में भी संकोच नहीं करता और सबसे अलग-थलग रहना पसंद करता है।
‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते और कभी हम समझा नहीं पाते।’ इसलिए सदैव उस सलाह पर काम कीजिए, जो आप दूसरों को देते हैं अर्थात् दूसरों से ऐसा व्यवहार कीजिए, जिसकी आप दूसरों से अपेक्षा करते हैं। सो! अपनी सोच सदैव सकारात्मक रखिए, क्योंकि जैसी आपकी सोच होगी, वैसा ही आपका व्यवहार होगा। अनुभूति और अभिव्यक्ति एक सिक्के के दो पहलू हैं। सो! जैसा आप सोचेंगे अथवा चिंतन-मनन करेंगे, वैसी आपकी अभिव्यक्ति होगी, क्योंकि शब्द व सोच मन में संदेह व शंका को जन्म देकर दूरियों को बढ़ा देते हैं। ग़लतफ़हमी मानव मन में एक-दूसरे के प्रति कटुता को बढ़ाती है और संदेह व भ्रम हमेशा रिश्तों को बिखेरते हैं। प्रेम से तो अजनबी भी अपने बन जाते हैं। इसलिए तुलना के खेल में न उलझने की सीख दी गई है, क्योंकि यह कदापि उपयोगी व लाभकारी नहीं होती। जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहीं आनंद व अपनत्व अपना प्रभाव खो देते हैं। इसलिए स्पर्द्धा भाव रखना अधिक कारग़र है,क्योंकि छोटी लाइन को मिटाने से बेहतर है, लंबी लाइन को खींच देना… यह भाव मन में तनाव को नहीं पनपने देता; न ही यह फ़ासलों को बढ़ाता है।
परमात्मा ने सब को पूर्ण बनाया है तथा उसकी हर कृति अर्थात् जीव दूसरे से अलग है। सो! समानता व तुलना का प्रश्न ही कहां उठता है? तुलना भाव प्राणी-मात्र में ईर्ष्या जाग्रत कर, द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न करता है, जो स्नेह, सौहार्द व अपनत्व को लील जाता है। प्रेम से तो अजनबी भी परस्पर बंधन में बंध जाते हैं। सो! जहां त्याग, समर्पण व एक- दूसरे के लिए मर-मिटने का भाव होता है, वहां आनंद का साम्राज्य होता है। संदेह व भ्रम अलगाव की स्थिति का जनक है। इसलिए शक़ को दोस्ती का दुश्मन स्वीकारा गया है। भ्रम की स्थिति में रिश्तों में बिखराव आ जाता है और उनकी असामयिक मृत्यु हो जाती है। इसलिए समय रहते चेत जाना मानव के लिए उपयोगी है, हितकारी है, क्योंकि अवसर व सूर्य में एक ही समानता है। देर करने वाले इन्हें हमेशा के लिए खो देते हैं। इसलिए गलतफ़हमियों को शीघ्रता से संवाद द्वारा मिटा देना चाहिए ताकि ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’ वाली भयावह स्थिति उत्पन्न न हो जाए।
‘ज़िंदगी में कुछ लोग दुआओं के रूप में आते हैं और कुछ आपको सीख देकर अथवा पाठ पढ़ा कर चले जाते हैं।’ मदर टेरेसा की यह उक्ति अत्यंत सार्थक व अनुकरणीय है। इसलिए अच्छे लोगों की संगति प्राप्त कर, स्वयं को सौभाग्यशाली समझो व उन्हें जीवन में दुआ के रूप में स्वीकार करो। दुष्ट लोगों से घृणा मत करो, क्योंकि वे अपना अमूल्य समय नष्ट कर, आपको सचेत कर अपने दायित्व का निर्वहन करते हैं, ताकि आपका जीवन सुचारु रुप से चल सके। यदि कोई आप से उम्मीद करता है, तो यह उसकी मजबूरी नहीं…आप के साथ लगाव व विश्वास है। अच्छे लोग स्नेह-वश आप से संबंध बनाने में विश्वास रखते हैं … इसमें उनका स्वार्थ व विवशता नहीं होती। इसलिए अहं रूपी चश्मे को उतार कर जहान को देखिए…सब अच्छा ही अच्छा नज़र आएगा, जो आपके लिए शुभ व मंगलमय होगा, क्योंकि दुआओं में दवाओं से अधिक प्रभाव- क्षमता होती है। सो! ‘किसी पर विश्वास इतना करो, कि वह तुमसे छल करते हुए भी खुद को दोषी समझे और प्रेम इतना करो कि उसके मन में तुम्हें खोने का डर हमेशा बना रहे।’ यह है, प्रेम की पराकाष्ठा व समर्पण का सर्वोत्तम रूप, जिसमें विश्वास की महत्ता को दर्शाते हुए, उसे मुख्य उपादान स्वीकारा गया है।
अच्छे लोगों की पहचान बुरे वक्त में होती है, क्योंकि वक्त हमें आईना दिखलाता है और हक़ीक़त बयान करता हैं। हम सदैव अपनों पर विश्वास करते हैं तथा उनके साथ रहना पसंद करते हैं। परंतु जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो बड़ी तकलीफ़ होती है। परंतु उससे भी अधिक पीड़ा तब होती है, जब कोई अपना पास रहकर भी दूरियां बना लेता है… यही है आधुनिक मानव की त्रासदी। इस स्थिति में वह भीड़ में भी स्वयं को अकेला अनुभव करता है और एक छत के नीचे रहते हुए भी उसे अजनबीपन का अहसास होता है। पति-पत्नी और बच्चे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं और नितांत अकेलापन अनुभव करते-करते टूट जाते हैं। परंतु आजकल हर इंसान इस असामान्य स्थिति में रहने को विवश है, जिसका परिणाम हम वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या के रूप में स्पष्ट देख रहे हैं। पति-पत्नी में अलगाव की परिणति तलाक़ के रूप में पनप रही है, जो बच्चों के जीवन को नरक बना देती है। हर इंसान अपने-अपने द्वीप में क़ैद है। परंतु फिर भी वह धन-संपदा व पद-प्रतिष्ठा के उन्माद में पागल अथवा अत्यंत प्रसन्न है, क्योंकि वह उसके अहं की पुष्टि करता है।
अतिव्यस्तता के कारण वह सोच भी नहीं पाता कि उसके कदम गलत दिशा की ओर अग्रसर हैं। उसे भौतिक सुख-सुविधाओं से असीम आनंद की प्राप्ति होती है। इन परिस्थितियों ने उसे जीवन क्षणभंगुर नहीं लगता, बल्कि माया के कारण सत्य भासता है और वह मृगतृष्णा में उलझा रहता है। और… और …और अर्थात् अधिक पाने के लोभ में वह अपना हीरे-सा अनमोल जीवन नष्ट कर देता है, परंतु वह सृष्टि-नियंता को आजीवन स्मरण नहीं करता, जिसने उसे जन्म दिया है। वह जप-तप व साधना में विश्वास नहीं करता… दूसरे शब्दों में वह ईश्वर की सत्ता को नकार, स्वयं को भाग्य-विधाता समझने लग जाता है।
वास्तव में जो मस्त है, उसके पास सर्वस्व है अर्थात् जो व्यक्ति अपने ‘अहं’ अथवा ‘मैं ‘ को मार लेता है और स्वयं को परम-सत्ता के सम्मुख समर्पित कर देता है…वह जीते-जी मुक्ति प्राप्त कर लेता है। दूसरे शब्दों में ‘सबके प्रति सम भाव रखना व सर्वस्व समर्पण कर देना साधना है; सच्ची तपस्या है…यही मानव जीवन का लक्ष्य है।’ इस स्थिति में उसे केवल ‘तू ही तू’ नज़र आता है और मैं का अस्तित्व शेष नहीं रहता। यही है तादात्मय व निरहंकार की मन:स्थिति …जिसमें स्व-पर व राग- द्वेष की भावना का लोप हो जाता है। इसके साथ ही धन को हाथ का मैल कहा गया है, जिसका त्याग कर देना ही श्रेयस्कर है।
जहां साधन के प्रति आकर्षण रहता है, वहां साधना दस्तक देने का साहस नहीं जुटा पाती। वास्तव में धन-संपदा हमें गलत दिशा की ओर ले जाती है…जो सभी बुराइयों की जड़ है और साधना हमें कैवल्य की स्थिति तक पहुंचाने का सहज मार्ग है, जहां मैं और तुम का भाव शेष नहीं रहता। अलौकिक आनंद की मनोदशा में, कानों में अनहद-नाद के स्वर सुनाई पड़ते हैं, जिसे सुन कर मानव अपनी सुध-बुध खो बैठता है और इस क़दर तल्लीन हो जाता है कि उसे सृष्टि के कण-कण में परमात्मा की सूरत नज़र आने लगती है। ऐसी स्थिति में लोग आप को अहंनिष्ठ समझ, आपसे खफ़ा रहने लगते हैं और व्यर्थ के इल्ज़ाम लगाने लगते हैं। परंतु इससे आपको हताश-निराश नहीं, बल्कि आश्वस्त होना चाहिए कि आप ठीक दिशा की ओर अग्रसर हैं; सही कार्यों को अंजाम दे रहे हैं। इसलिए साधना को जीवन में उत्कृष्ट स्थान देना चाहिए, क्योंकि यही वह सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम मार्ग है, जो आपको मोक्ष के द्वार तक ले जाता है।
सो! साधनों का त्याग कर, साधना को अपनाइए। जीवन में लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है… ‘जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकारिए और दूसरों को संतुष्ट करने के लिए जीवन में समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चलते रहिए’ विवेकानंद जी की यह उक्ति बहुत कारग़र है। समय, सत्ता, धन व शरीर जीवन में हर समय काम नहीं आते, सहयोग नहीं देते… परंतु अच्छा स्वभाव, समझ, अध्यात्म व सच्ची भावना जीवन में सदा सहयोग देते हैं। सो! जीवन में तीन सूत्रों को जीवन में धारण कीजिए… शुक़्राना, मुस्कुराना व किसी का दिल न दु:खाना। हर वक्त ग़िले-शिक़वे करना ठीक नहीं… ‘कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्तियों को लहरों के सहारे/’ अर्थात् सहज भाव से जीवन जिएं, क्योंकि इज़्ज़त व तारीफ़ खरीदी नहीं जाती, कमाई जाती है। इसलिए प्रशंसा व निंदा में सम-भाव से रहने का संदेश दिया गया है। सो! प्रशंसा में गर्व मत करें व आलोचना में तनाव-ग्रस्त मत रहें… सदैव अच्छे कर्म करते रहें, क्योंकि ईश्वर की लाठी कभी आवाज़ नहीं करती। समय जब निर्णय करता है; ग़वाहों की दरक़ार नहीं होती। तुम्हारे कर्म ही तुम्हारा आईना होते हैं; जो तुम्हें हक़ीक़त से रू-ब-रू कराते हैं। इसलिए कभी भी किसी के प्रति ग़लत सोच मत रखिए, क्योंकि सकारात्मक सोच का परिणाम सदैव अच्छा ही होगा और प्राणी-मात्र के लिए मंगलमय होगा।
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “महिला-पुरुष समानता का आलोक”.)
☆ किसलय की कलम से # 34 ☆
☆ महिला-पुरुष समानता का आलोक ☆
भारतीय जनमानस में परपराएँ एवं रीति-रिवाज अव्यवस्थाओं के नियंत्रण हेतु ही बनाई गई हैं। समाज में इनकी अनदेखी करना असामाजिक कृत्य समझा जाता है। प्राचीन काल से वर्तमान तक देखने में आया है कि तात्कालिक सामाजिक व्यवस्थाओं को ध्यान में रखकर ही परम्पराएँ बनाई गई हैं और समय-समय पर उनमें बदलाव भी होते आए हैं। इसका कारण बदलता सामाजिक ढाँचा तथा बदलती परिस्थितियाँ ही रही हैं।
आवश्यकतानुसार जिस तरह महिलाएँ घर और घूँघट से बाहर आई हैं । जातिबंधन शिथिल हुए हैं, बढ़ती शैक्षिक योग्यता से छोटे और बड़े की खाई पटती जा रही है। धर्म-कर्म की मान्यताएँ बदल रही हैं। लोक-परलोक का भय कम होता जा रहा है । इन सब को देखते हुए एवं पौराणिक खोजबीन के पश्चात ऐसे अनेक कारणों एवं प्रतिबंधों के मूल तक पहुँचने में हमने सफलता पाई है।
यही कारण है कि अब वर्तमान में अनेक अवांछित बंदिशें कमजोर पड़ती जा रही हैं। हम रिश्ते-नातों की बात करें, पति-पत्नी की बात करें, परिवार और समाज की बात करें। अब वह पुराना माहौल कम ही दिखता है। अब कमजोर पक्ष सुदृढ़ हो चुका है। समाज में स्त्री पुरुष के समान अधिकारों से वाकई क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है। आज ढोंग, दकियानूसी एवं अंधविश्वास जैसी बातों पर विराम लगता जा रहा है। आज केवल उन्हीं परम्पराओं का निर्वहन किया जा रहा है, जो यथार्थ में समाज के लिए उपयोगी हैं।
आज हम देखते हैं कि महिलाएँ वे सारे कार्य सम्पन्न कर रही हैं जिन्हें पहले पुरुष वर्ग किया करता था। यह बताने की कोई आवश्यकता नहीं है कि चूल्हा-चौका से लेकर अंतरिक्ष तक महिलाएँ कहीं पीछे नहीं हैं। तकनीकि, विज्ञान, राजनीति, उद्योग, समाजसेवा एवं खेलकूद में भी महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व देखा जा सकता है।
अब यह स्थिति है कि प्राचीन अनुपयुक्त परपराओं एवं रीति रिवाजों के अनुगामी स्वयं पिछड़ों की श्रेणी में गिने जाने लगे हैं। यह बात इंसानों को काफी देर से समझ में आई कि जब भगवान ने स्त्री-पुरुष में अंतर नहीं किया तो हम अंतर क्यों करें? जब हमने इस अंतर को पाटना प्रारंभ कर ही दिया है तो कुछेक विरोधी स्वर उठेंगे ही। यह भी एक सामाजिक प्रवृत्ति है कि प्रत्येक अच्छे कार्य का विरोध लोग अपनी अपनी तरह से शुरू कर ही देते हैं, लेकिन समय का बहाव विरोध को आखिर बहाकर ले ही जाता है, यह बात भी सच है।
समाज में तानाशाही भला कैसे चल सकती है। यहाँ एक अकेला नहीं पूरा का पूरा इन्सानी समूह है जिसमें सर्वसम्मति या बहुमत की मान्यता है। झुके हुए पलड़े का वजन भारी होता है और भारी का वर्चस्व ही होता है। इसलिए आज नहीं तो कल हमें इस बहाव के साथ बहना ही होता है। पहले महिलाओं पर प्रतिबंध कुछ ज्यादा ही हुआ करते थे और वे इन प्रतिबंधों के चलते घर तक ही सीमित रहती थीं, लेकिन आज आप हम बदलते परिवेश के स्वयं साक्षी हैं। आज जब एक लड़की अपने पिता की अर्थी को कंधा दे सकती है। अंतिम संस्कार कर सकती है। सैनिक, पायलट, ड्राइवर, उद्योग-धंधे एवं व्यवसाय कर सकती है। राजनीति के शिखर पर पहुँच सकती है, तब ऐसा कौन सा कार्य है जिसकी जिम्मेदारी से महिला कताराये या संकोच करे।
जब हमारे इसी समाज ने उसे उपरोक्त अनुमति दी है तब कुछ कुतार्किक परपराओं, रीति-रिवाजों से दूर रखकर क्या हम उन्हें इन सारी सहूलियतों और लाभों से वंचित तो नहीं कर रहे हैं, जो पुरुष वर्ग को प्राप्त हैं। पुरुष वर्ग को जिन कर्मों से पुण्य मिलता है, उसी कर्म से महिला वर्ग पाप की भागीदार कैसे हो सकता है? आप हम स्वयं सोचें एवं अपनी आत्मा से पूछें तब आपकी आत्मा स्वमेव महिलाओं का पक्ष लेगी।
वैसे तो भारतीय समाज में महिलाओं को लेकर अनेक मतभेद एवं विवाद होते रहे हैं। वर्षों पूर्व शनि शिंगणापुर में एक महिला द्वारा शनिदेव की पूजा करने और मूर्ति पर तेल चढ़ाने के मामले पर भी विवाद खड़ा हो गया था। तब वहाँ एक साथ दोनों पक्ष अपनी अपनी बात को उचित बतला रहे थे । एक ओर पुजारी, स्थानीय लोग एवं परम्परावादी प्राचीन प्रथा को आगे बढ़ाना चाहते थे, वहीं अंध श्रद्धा निर्मूलन समिति सहित दूसरे पक्ष ने शनिदेव की पूजा में महिलाओं को शामिल करना गलत नहीं माना था। तब उस विवाद का क्या परिणाम हुआ? भारतीय मानस पटल पर इसका क्या प्रभाव पड़ा या जीत किसकी हुई ? परपराओं की या बदलती परिस्थितियों की, इन बातों पर प्रबुद्धों द्वारा विशेष चिंतन किया जाना चाहिए।
मेरी मान्यता है कि आस्थावादी मानव चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष दोनों ही अपनी पूजा-भक्ति एवं किए गए कर्मों से पुण्य कमाकर तथाकथित बैकुंठ या स्वर्ग जाना चाहता है, फिर पूजन-अर्चन में प्रतिबंध या बंदिशें क्यों?
हमारे वेदों में कहा गया है कि जहाँ नारियों की पूजा होती है वहाँ देवताओं का वास होता है। अतः वर्तमान में भी जब महिलाएँ अंतरिक्ष तक जा रही हैं, तब इनको प्रात्साहित करना एक तरह से पुरुषवर्ग का दायित्व ही है। समाज बदल रहा है, यह सबको समझना होगा। आईये, हम महिला-पुरुष समानता का आलोक फैलाएँ और ईश्वर की प्रत्येक सन्तान हेतु पवित्र वातावरण बनाएँ।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं एक विचारणीय आलेख “दाँतों की आत्मकथा”.)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 61 ☆
☆ बाल साहित्य – दाँतों की आत्मकथा ☆
मित्रो मैं दाँत हूँ, बल्कि आज मैं अपनी ही नहीं, बल्कि सभी बत्तीस साथियों की आत्मकथा इसलिए लिख रहा हूँ कि बच्चों से लेकर बड़े तक हमारे प्रति सचेत नहीं रहते। मुँह में साफ सुथरे सुंदर – सुंदर खिलखिलाते हम दाँत सभी को अच्छे लगते हैं। हम दाँतों की सुंदरता से ही चेहरे की आभा और कांति बढ़ जाती है। लोग बात करना और मिलना – जुलना भी पसंद करते हैं। प्रायः हम मनुष्य के मुख में बत्तीस होते हैं। सोलह ऊपर और सोलह नीचे के जबड़े में। हम दाँतों की सरंचना कैल्शियम के द्वारा ही हुई है, इसलिए जो बच्चे बचपन से ही साफ – सफाई और बिना नाक मुँह बनाएअर्थात मन से दूध , पनीर, दही आदि कैल्शियम वाली खाने- पीने की चीजें अपने भोजन में सम्मिलित करते हैं तथा खूब चबा- चबा कर भोजन आदि करते हैं तो हम जीवन भर उनका साथ निभाते हैं। क्योंकि ईश्वर ने बत्तीस दाँत इसलिए दिए हैं ताकि हम दाँतों से एक कौर को बत्तीस बार चबा चबा कर ही खाएँ, ऐसा करने से जीभ से निकलनेवाला अमृत तत्व लार भोजन में सुचारू से रूप से मिल जाता है और भोजन पचाने की प्रक्रिया आसान हो जाती है। हड्डियां मजबूत रहती हैं। हम दाँत भी हड्डी ही हैं।
हम जब बच्चा एक वर्ष का लगभग हो जाता है तो हम आना शुरू हो जाते हैं। फिर धीरे-धीरे हम निकलते रहते हैं। बचपन में हमको दूध के दाँत कहते हैं। जब बच्चा छह वर्ष का लगभग हो जाता है तब हम दूध के दाँत धीरे – धीरे उखड़ने लगते हैं और हम नए रूप रँग में आने लग जाते हैं।
हम दाँत कई प्रकार के होते हैं। हमें अग्रचवर्णक, छेदक, भेदक, चवर्णक कहते हैं। अर्थात इनमें हमारे कुछ साथी काटकर खाने वाले खाद्य पदार्थ को काटने का काम करते हैं, कुछ चबाने का, कुछ पीसने आदि का काम करते हैं।
मुझे अपनी और साथियों की आत्मकथा इसलिए लिखनी पड़ रही है कि मनुष्य जाति बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक हमारे प्रति घोर लापरवाही बरतती है। और हमें बहुत सारी बीमारियाँ मुफ्त में दे देती है या हमारी असमय मृत्यु तक करा देती है। हमारे बीमार रहने या हमारी असमय मृत्यु होने से बच्चा या बड़ा भी बहुत दुख और कष्ट उठाता है, डॉक्टर के पास भागता है। अपना कीमती समय और धन बर्बाद करता है। असहनीय दर्द से चिल्लाता है, दवाएँ खाता है।
एक हमारे जाननेवाले दादाजी हैं, जो बालकपन और किशोरावस्था में हम दाँतों के प्रति बहुत लापरवाह थे। जब उनकी युवावस्था आई तो वे कुछ सचेत हुए, लेकिन तब तक बहुत देर हो गई थी, वे इस बीच हम दाँतों के कारण बहुत पीड़ाएँ झेलते रहे। और इस बीच हमारे चार साथियों में असहनीय दर्द होने के कारण मुँह से ही निकलवाना पड़ा अर्थात हमारे चार साथियों की मृत्यु हो गई। फिर तो वे कष्ट पर कष्ट उठाते रहे। चार साथी खोने से हम भी असंतुलित हो गए और हमारे घिसने की रफ्तार भी बढ़ती गई। जब दादा जी की उम्र पचास रही होगी, तब तक हम बहुत घिस गए थे, उन्हें भोजन चबाने में बहुत दिक्कत होती गई और दादाजी को हमारे कुछ साथियों में आरसीटी करवाकर अर्थात हम दाँतों की नसों का इलाज कराकर कई कैप लगवाईं। फिर भी आए दिन ही दादाजी को बहुत कष्ट झेलना पड़ा। क्योंकि यह सब तो कामचलाऊ दिखावटी ही था। प्राकृतिक दाँतों अर्थात ईश्वर के दिए हुए हम दाँतों की बात कुछ और ही होती है। अर्थात मजबूत होते हैं। दादाजी ने कहा कि मनुष्य जाति को बताओ कि उसे बचपन से बड़े होने तक किस तरह हम दाँतों की देखभाल और साफ सफाई रखनी चाहिए।
दादाजी अब हमारी बहुत देखभाल करते हैं। दादाजी ने हमारे जीवन के ऊपर बहुत सुंदर कविता भी लिखी है। जो भी पढ़ेगा वह खुश हो जाएगा———– क्योंकि उनके मन की शुभ इच्छा है कि जो दाँतों की पीड़ा उन्हें हुई है, साथ ही समय और जो धन नष्ट हुआ है, वह उनकी आनेवाली पीढ़ी को बिल्कुल न हो।
बाल कविता – ” मोती जैसे दाँत चमकते “
हमको पाठ पढ़ाया करते
प्यारे अपने टीचर जी
दाँतों की नित रखें सफाई
कहते हमसे टीचर जी।।
दाँत हमारे यदि ना होते
हो जाता मुश्किल भी खाना
स्वाद दाँत के कारण लेते
इनको बच्चो सभी बचाना।।
जब- जब खाओ कुल्ला करना
नहीं भूल प्रिय बच्चो जाना
रात को सोना मंजन करके
भोर जगे भी यह अपनाना।।
चार तरह के दाँत हमारे
प्यारे बच्चो हैं होते
कुछ को हम छेदक हैं कहते
कुछ अपने भेदक होते।।
कुछ होते हैं अग्र चवर्णक
कुछ अपने भोजन को पीसें
खूब चबाकर भोजन खाएँ
कभी नहीं उस पर हम खीजें।।
सोलह ऊपर, सोलह नीचे
दाँत हमारे बच्चो होते
करें सफाई, दाँत- जीभ की
दर्द के कारण हम न रोते।।
मोती जैसे दाँत चमकते
जो उनकी रक्षा करते हैं
प्यारे वे सबके बन जाते
जीवन भर ही वे हँसते हैं।।
तन को स्वस्थ बनाना है तो
साफ – सफाई नित ही रखना,
योग, सैर भी अपनाना तुम
अपनी मंजिल चढ़ते रहना।।
दादाजी ने अपनी कविता में बहुत सुंदर ढंग से समझाने का प्रयास किया है, लेकिन हम दाँत आपको पुनः सचेत कर रहे हैं तथा हमारी बातों को सभी बच्चे और बड़े ध्यान से सुन लेना कि जो कष्ट और पीड़ा दादाजी ने उठाई है वह आपको न उठानी पड़े। समय और धन की बचत हो, डॉक्टर के की क्लिनिक के चक्कर न लगाने पड़ें, इसलिए हमें स्वस्थ रखने के लिए नित्य ही वह कर लेना जो मैं दाँत आपसे कह रहा हूँ —-
बच्चे और बड़े सभी लोग अधिक ठंडा और अधिक गर्म कभी नहीं खाना। न ही अधिक ठंडे के ऊपर अधिक गर्म खाना और न ही गर्म के बाद ठंडा। ऐसा करने से हम दाँत बहुत जल्दी कमजोर पड़ जाते हैं। साथ ही पाचनतंत्र भी बिगड़ जाता है। भोजन के बाद ठंडा पानी कभी न पीना । अगर पीना ही पड़ जाए तो थोड़ा निबाया अर्थात हल्का गर्म ही पीना। जो लोग भोजन के तुरंत बाद ठंडा पानी पीते हैं उनका भी पाचनतंत्र बिगड़ जाता है। पान, तम्बाकू, गुटका खाने वाले तथा रात्रि के समय टॉफी, चॉकलेट या चीनी से बनी मिठाई खानेवाले भी सावधान हो जाना। अर्थात खाते हो तो जल्दी छोड़ देना, नहीं तो हम दाँतों की बीमारियों के साथ ही अन्य भयंकर बीमारियों को भी जीवन में झेलना पड़ेगा।
भोजन के बाद और कुछ भी खाने के बाद कुल्ला अवश्य करना। रात्रि को सोने से पहले मंजन या टूथपेस्ट से ब्रश करके अवश्य सोना। अच्छा तो यह रहेगा कि साथ में गर्म पानी में सेंधा नमक डालकर कुल्ला और गरारे भी कर लेना। ऐसा करने से हम भी जीवन भर स्वस्थ और मस्त रहेंगे और हमारे स्वस्थ रहने से आप भी। साथ में हमारी जीवनसंगिनी जीभ की भी जिव्ही से धीरे-धीरे सफाई अवश्य कर लेना। क्योंकि बहुत सारा मैल भोजन करने के बाद जीभ पर भी लगा रह जाता है। जब ब्रश करना तो आराम से ही करना, जल्दबाजी कभी न करना। दोस्तो जल्दबाजी करना शैतान काम होता है। सुबह जगकर दो तीन गिलास हल्का गर्म पानी बिना ब्रश किए ही पी लेना। ऐसा करने से आपको जीवन में कभी कब्ज नहीं होगा। शौचक्रिया ठीक से सम्पन्न हो जाएगी। बाद में ब्रश या मंजन कर लेना या गर्म पानी में सेंधा नमक डालकर कुल्ला और गरारे कर लेना। थोड़ा मसूड़ों की मालिश भी कर लेना। ये सब करने हम हमेशा स्वस्थ और सुंदर बने रहेंगे तथा जीवनपर्यन्त आपका साथ निभाते रहेंगे। नींद भी अच्छी आएगी । जो लोग हमारा ठीक से ध्यान और सफाई आदि नहीं करते हैं उनके दाँतों में कीड़े लग जाते हैं, अर्थात कैविटी बन जाती है या पायरिया आदि भयंकर बीमारियाँ हो जाती हैं।
दोस्तो आपने अर्थात सभी बच्चे और बड़ों ने हम दाँतों का कहना मान लिया तो जान लीजिए कि आप हमेशा तरोताजा और मुस्कारते रहेंगे। हर कार्य में मन लगेगा। पूरा जीवन मस्ती से व्यतीत होता जाएगा।
मैं दाँत आत्मकथा समाप्त करते- करते एक संदेश और दे रहा हूँ कि अपने डॉक्टर खुद ही बनना और ये भी सदा याद रखना—-
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 84 ☆ गाली के विरुद्ध ☆
रात चढ़ रही है। एक मकान में घनघोर कलह जारी है। सास-बहू के ऊँचे कर्कश स्वर गूँज रहे हैं, साथ ही किसी जंगली पशु की तरह पुरुष स्वर की गुर्राहट कान के पर्दे से बार-बार टकरा रही है। अनुमान लगाता हूँ कि घर के बच्चे किसी कोने में सुन्न खड़े होंगे। संभव है कि डर से रो रहे हों जिनकी आवाज़ कर्कश स्वरों का मुकाबला नहीं कर पा रही हो। बच्चों की मनोदशा और उनके मन पर अंकित होते प्रभाव को नज़रअंदाज़ कर असभ्यता का तांडव जारी है।
‘थिअरी ऑफ इवोल्युशन’ या क्रमिक विकास का सिद्धांत आदमी के सभ्य और सुसंस्कृत होने की यात्रा को परिभाषित करता है। यह केवल एक कोशिकीय से बहु कोशिकीय होने की यात्रा भर नहीं है। संरचना के संदर्भ में विज्ञान की दृष्टि से यह सरल से जटिल की यात्रा भी है। ज्ञान या अनुभूति की दृष्टि से देखें तो संवेदना के स्तर पर यह नादानी से परिपक्वता की यात्रा है। विकास गलत सिद्ध हुआ है या उसे पुनर्परिभाषित करना है, इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है।
लेकिन यहाँ चीखने-चिल्लाने के अस्पष्ट शब्दों में सबसे ज़्यादा स्पष्ट हैं पुरुष द्वारा बेतहाशा दी जा रही वीभत्स गालियाँ। माँ, पत्नी, बेटी की उपस्थिति में गालियों की बरसात। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह बरसात निम्न से लेकर उच्चवर्ग तक अधिकांश घरों में परंपरा बन चुकी है।
क्रोध के पारावार में दी जा रही गाली के अर्थ पर गाली देनेवाले के स्तर पर विचार न किया जाए, यह तो समझा जा सकता है। उससे अधिक यह समझने की आवश्यकता है कि घट चुकने के बाद भी उसी घटना की बार-बार, अनेक बार पुनरावृत्ति करनेवाले का बौद्धिक स्तर इतना होता ही नहीं कि वह विचार के उस स्तर तक पहुँचे।
वस्तुतः क्रोध में पगलाते, बौराते लोग मुझे कभी क्रोध नहीं दिलाते। ये सब मुझे मनोरोगी लगते हैं, दया के पात्र। बीमार, जिनका खुद पर नियंत्रण नहीं होता।
अलबत्ता गाली को परंपरा बनानेवालों के खिलाफ ‘मी टू’ की तरह एक अभियान चलाने की आवश्यकता है। स्त्रियाँ (और पुरुष भी) सामने आएँ और कहें कि फलां रिश्तेदार ने, पति ने, अपवादस्वरूप बेटे ने भी गाली दी थी। अपने सार्वजनिक अपमान से इन गालीबाज पुरुषों को वही तिलमिलाहट हो सकती है जो अकेले में ही सही गाली की शिकार किसी महिला की होती होगी।
गाली शाब्दिक अश्लीलता है, गाली वाचा द्वारा किया गया यौन अत्याचार और लैंगिक अपमान है। सरकार ने जैसे ‘नो स्मोकिंग जोन’ कर दिये हैं, उसी तरह गालियों को घरों से बाहर करने, बाहर से भी सीमापार करने के लिए एक मुहिम की आवश्यकता है।
आइए, ‘नो एब्यूसिंग’ की शपथ लें। गाली न दें, गाली न सुनें। गाली का सम्पूर्ण निषेध करें। व्यक्तिगत स्तर पर # No Abusing आरंभ कर रहा हूँ। आप भी साथ दें, इस अभियान से जुड़ें।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हेमचन्द्र सकलानी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप उत्तराखंड जल विद्युत् निगम से सेवानिवृत्त हैं। अभियांत्रिक पृष्ठभूमि के साथ साहित्य सृजन स्वयं में एक अभूतपूर्व उपलब्धि है। आपके साहित्य संसार की उपलब्धियों की कल्पना आपके निम्नलिखित संक्षिप्त परिचय से की जा सकती है।)
संक्षिप्त परिचय
शिक्षा – एम.ए.राजनीति विज्ञान और इतिहस।
प्रकाशन –1-विरासत को खोजते हुए (उत्तराखंड के यात्रा वृतांत) 2- शब्दों के पंछी (कविता संग्रह) 3- इस सिलसिले में (कहानी संग्रह) 4- विरासत को खोजते हुए (यात्रा वृतांत -भाग – 2) 5- एक युद्ध अपनों से (कहानी संग्रह) 6- विरासत को खोजते हुए – (भाग -3) 7- उत्तराखंड की जल धाराएं और उनके तट पर ऊर्जा के मन्दिर 8- डूबती टिहरी की आखरी कविताएं (कविता संग्रह का संपादन) 9- अंतर्मन की अनुभूतियां (कहानी संग्रह) 10-विरासत की यात्राएं ( यात्रा वृतांत भाग -४) 11- दुनिया घूमते हुए ( विदेशों के यात्रा संस्मरण, यात्रा वृतांत भाग 5) 12- विरासत की यात्राएं (देश के यात्रा वृतांत भाग 6) इसके अतिरिक्त 1- उत्तराखंड महोत्सव की.
पुरस्कार / सम्मान – देश भर की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा हिमालय गौरव, उत्तराखंड रत्न, भारतेन्दु साहित्य शिरोमणि, हिंदी गौरव सम्मान, यात्रा साहित्य पर भारत सरकार से प्रथम पुरस्कार, मुंबई कहानी प्रतियोगिता में प्रथम स्थान सहित 94 सम्मान प्राप्त। देश भक्ति के गीतों की सीडी “देश को समर्पित वंदना के स्वर” जारी जिसको अपने मधुर स्वरों से सजाया “सारेगामापा” की 2019 की विजेता ईशिता विश्वकर्मा और साथियों ने। 2002, 2004, 2008, 2012, 2014 का तथा पावर जूनियर इंजीनियर एसोशिएसन की वर्ष 2008, 2010, 2012 की स्मारिकाओं का संपादन।
(आज प्रस्तुत है उत्तराखंड की जलधाराओं के तट पर ऊर्जा के मंदिर की गाथा – ऊर्जा के मन्दिरों की घाटी )
☆ आलेख ☆ ऊर्जा के मन्दिरों की घाटी ☆ श्री हेमचंद्र सकलानी ☆
उत्तरकाशी देश का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल, पर्यटक स्थल, अपनी प्राकृति सुन्दरता के कारण तो जाना ही जाता है, साथ ही अनेक पवित्र नदियों, जैसे गंगा, जाड़गंगा, यमुना, तमसा, केदार गंगा जैसी नदियों का उदगम स्थल भी है। यह जलधारांए अपने अन्दर अनेक पैराणिक कथांए समेटे हैं। जिससे प्राचीन काल से ही ये हमारी असीम आस्था, श्रद्धा का पात्र बनी हुई हैं। उत्तरकाशी की हिमच्छादित पर्वत श्रंखला भागीरथी शिखर से यदि गंगा प्रवाहित होती है। तो गंगोत्री ग्लेशियर के दूसरे छोर बंदरपुंछ अर्थात कालिन्दी शिखर से यमुना उदगमित होती है। पुराणों में यमुना को कालिन्दी के साथ एक हजार नामों से सुशोभित किया गया है। इसी से इस पवित्र नदी का महत्व पता चलता है।
दूसरी ओर हर की दून नामक स्थान से नीचे उतरने पर सांकरी नामक स्थान के पास सुपिन नदी तथा सियान गाड़ नामक जलधाराएं मिलकर तमसा नदी का निर्माण करती हैं। नैटवार, नालगल घाटी, सिंगला घाटी की जलधाराएं रूपिन नदी का रूप लेकर तमसा से मिलती हैं। गलामुंड, कुलनी से आकर कुछ जलधाराएं मोरी के पास तथा जरमोला, पुरोला से, चिरधार से आ रही जलधाराएं पब्बर नदी, मीनस नदी और दिबन खैरा की दो जलधाराएं अपनी जलराशि से तमसा को समद्ध करती हैं।
आगे चलकर तमसा और यमुना, प्रसिद्ध यमुना घाटी का निर्माण करती हैं। यह जल धाराएं अनेक पौराणिक कथाओं के साथ अपने अन्दर असीम विद्युत शक्ति का भण्डार तथा सिंचाई की क्षमता समेटे हुये हैं। यमुना अपनी सहायक तमसा नदी के साथ उत्तरी क्षेत्र की सर्वाधिक विद्युुत उत्पादन क्षमताओं वाली नदियों में से एक है। इनकी अनुमानित विद्युत क्षमता 1960-70 के दशक में लगभग 55 लाख किलोवाट आंकी गयी थी, तथा इसमें लगभग 3 लाख हैक्टेयर भूमि सिंचाई के लिये 19,000 लाख घनमीटर अतिरिक्त जल प्रदान करने की भी क्षमता है। स्वतन्त्रता के बाद तमसा, यमुना के तट पर कुछ ऊर्जा के मन्दिरों का निर्माण कर इनकी जलशक्ति का उपयोग कर जनजीवन के उपयोग हेतु सिंचाई जल तथा विद्युत शक्ति उत्पन्न करना लक्ष्य रखा गया। जिनमें कुछ एक उददेशीय परियोजनाए थी तो कुछ बहुउददेशीय परियोजनाए थी। एक उददेशीय परियोजना का लक्ष्य विद्युत उत्पादन था तो बहुउददेशीय परियोजना का विद्युत के साथ सिंचाई के लिए जल उपलब्ध कराने के साथ बाढ़ से होने वाली जन-धन हानि से सुरक्षा प्रदान करना था।
यमुना जल विद्युत परियोजना के प्रथम चरण में देहरादून से 50 कि0मी0 दूर डाकपत्थर में एक बांध बनाया गया । सन 1949 में प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने इस बांध की आधारशिला रखी थी। इस बांध से शक्ति नहर निकाल कर 9 कि0मी0 दूर ढकरानी नामक गांव के समीप ढकरानी पावर हाउस से (11.25MW x 3) अर्थात 33.75 मेगावाट तथा ढालीपुर गांव के समीप ढालीपुर जल विद्युत परियोजना से (17 MW x 3) अर्थात 51 मेगावाट की परियोजनाओं से नवम्बर-दिसम्बर 1965 में विद्युत उत्पादन प्राप्त होने लगा था।
यमुना जल विद्युत परियोजना के द्वितीय चरण में डाकपत्थर से 40 कि0मी0 दूर इच्छाड़ी नामक गांव के समीप तमसा नदी पर एक बांध बनाया गया । जहां पर एशिया का उच्चतम टेंटर गेट 16.5 मीटर ऊंचाई के हैं। इस बांध की जलराशी को 7 मीटर व्यास की 6.174 कि0मी0 लम्बी भूमिगत सुरंग (पहाडों के अन्दर) को छिबरो गांव के समीप सर्ज टैंक से जोड़ा गया। यह सर्ज टैंक 20 मीटर व्यास का तथा 92 मीटर ऊंचाई का है। इस परियोजना में विश्व में अपने ढंग की सर्व प्रथम सैन्डीमेन्टेशन तथा इनटेक प्रणाली अपनायी गयी है। छिबरो गांव में तमसा के समीप पर्वत के गर्भ में 113 मीटर लम्बे, 18.2 मीटर चौड़े, 32 मीटर व्यास के भू गर्भित जल विद्युत गह, जिसमें चार 60 मेगावाट, की टरबाईनों वाला 240 मेगावाट का विद्युत गह निर्मित हुआ। वर्ष 1974-75 में इस विद्युत गह से विद्युत उत्पादन प्राप्त होने लगा।
छिबरो पावर हाउस के उपरान्त तमसा नदी के पानी के उपयोग के लिए यमुना जल विद्युत परियोजना के द्वितीय चरण में हिमाचल प्रदेश के खोदरी नामक गांव मे, डाकपत्थर के समीप खोदरी जल विद्युत गह का निर्माण हुआ। वर्ष 1984 से जिसकी 4 टरबाईनों से (30MW x 4) अर्थात 120 मेगावाट विद्युत का उत्पादन प्राप्त हुआ। इन दोनों विद्युत गृह के मध्य विश्व में सर्वप्रथम टैण्डम प्रणाली अपनायी गयी। छिबरो पावर हाउस से खोदरी पावर हाउस तक विश्व की प्रथम ”एक्टिव इन्ट्रा थ्रस्ट” क्षेत्रों से गुजरने वाली 5.9 कि0मी0 लम्बी भूमिगत सुरंग बनायी गयी। खोदरी पावर हाउस का सर्ज टैंक 21 मीटर व्यास तथा 57.5 मीटर ऊंचाई का है। उपर्युक्त दोनों परियोजनाओं में तमसा की जलराशी का उपयोग हुआ। डाकपत्थर बांध में यमुना-तमसा आपस में मिल जाती हैं। यमुना की यह सहायक नदी तमसा लगभग 4900 वर्ग कि0मी0 के विशाल जल ग्रहण क्षेत्र से निरन्तर प्रवाह हेतु जल ग्रहण करती हुई, संकीर्ण घाटी से प्रवाहित होती है। जिस कारण इसमें सिंचाई तथा विद्युत उत्पादन के लिए पर्याप्त डिस्चार्ज तथा उचित हैड मिल जाता है। इच्छाड़ी बांध तथा छिबरो पावर हाउस के निर्माण की परिकल्पना तो स्वतन्त्रता से पूर्व कर ली गई थी। परन्तु इस परियोजना पर अमल सन 1966 से प्रारम्भ हुआ।
यमुना जल विद्युत परियोजना के चौथे चरण में शक्ति नहर से प्रवाहित होने वाली जलराशी के उपयोग के लिए कुल्हाल नामक गांव के समीप ढालीपुर से 5 किलोमीटर दूर कुल्हाल विद्युत गह का निर्माण हुआ जिसकी 10 मेगावाट की 3 टरबाईनों से सन 1975में 30 मेगावाट विद्युत उत्पादन प्राप्त होने लगा। यहां से निकली जलराशी का उपयोग बादशाही बाग नामक स्थान पर खारा जलविधुत परियोजना का निर्माण कर किया गया। सन 1986 में इस परियोजना से 78.75 मेगावाट विद्युत उत्पादन प्राप्त होने लगा।
इनके अतिरिक्त तमसा-यमुना की घाटी में कुछ ऐसी परियोजनाएं हैं जो अपने निर्माण की प्रतीक्षा में हैं। इनमे से यमुना जलविधुत परियोजना के ततीय चरण में जौनसार के किशाऊ नामक गांव के समीप तमसा पर बांध बनाकर 750 मेगावाट (बाद में इसे 600 मेगावाट) की जल विद्युत परियोजना प्रस्तावित है। ऐसे ही यमुना नदी पर लखवाड़ गांव के समीप एक बांध बनाया जाना है, तथा एक भूगर्भित विद्युत गृह बनाया जाना है, जिससे 300 मेगावाट विद्युत उत्पादन प्राप्त होगा। इसी जलराशी का उपयोग कर व्यासी गांव के समीप व्यासी बांध तथा यमुना पर 120 मेगावाट का विद्युत गृह बनाया जाना है। तथा हत्यारी गांव के समीप 19 मेगावाट की क्षमता का विद्युत गृह भी प्रस्तावित है।
यदि सभी परियोजनाएं पूरी होकर आस्तित्व मे आ जायें तो यमुना घाटी में तमसा यमुना की जलराशी से 1723.750 मेगावाट विद्युत का उत्पादन उत्तराखण्ड को प्राप्त होगा। जो सम्पूर्ण उत्तराखण्ड की ही नही देश के, अनेक स्थानों की सुखः समृद्धि में अहम भूमिका निभायेगा। यद्यिपि अभी मात्र 553.500 मेगावाट विद्युत उत्पादन ही प्राप्त हो पा रहा है। इनके अतिरिक्त भी कई दशक पूर्व यमुना घाटी की तमसा यमुना पर कई जल विद्युत् परियोजनाओं के लिए सर्वेक्षण हुए, तथा निर्माण हेतु प्रास्तावित हुई जिनके नाम निम्न प्रकार हैं तालुका सांकरी हाइड्रोस्कीम 60 मेगावाट, जखोल सांकरी 60 मेगावाट, सिडरी डियोरा 80 मेगावाट, डिपरोमोरी 34 मेगावाट, छाताडैम 225 मेंगावाट, आराकोट त्यूणी 62 मेगावाट, त्यूणी प्लासू 50 मेगावाट, हनोल न्यूणी 26 मेगावाट। बाद मे किशाऊ बांध जल विधुत परियोजना की विद्युत क्षमता 750 मेगावाट से घटाकर 600 मेगावाट कर दी गई। ये सारी परियोजनाएं तमसा पर निर्मित होनी थीं जबकि यमुना पर हनुमानचटटी 33 मेगावाट, सियानचटटी 46 मेगावाट, बड़कोट कुआ 25 मेगावाट, कुआ डामटा 126 मेगावाट की परियोजनाए थीं। इस पर भी ऊर्जा के मन्दिरों, छिबरो, खोदरी, ढकरानी, ढालीपूर, कुल्हाल, ने तमसा यमुना धाटी को अपने विद्युत् रूपी आशीर्वाद से जगमग तो किया ही है साथ ही उन्नति, विकास, समद्वि से भरपूर भी किया। आज जो विकास तमसा-यमुना घाटी में हमें दिखाई पड़ता है उसमें निसंदेह तमसा-यमुना के ऊर्जा मन्दिरों के योगदान को कभी भुलाया नही जा सकेगा।
(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन)हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं। इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख ‘बिन इंटरनेट सब सून!’। हम आपसे आपके अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)
☆ आलेख ☆ बिन इंटरनेट सब सून! ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆
तीन दिन इंटरनेट बंद क्या हुआ, सब कुछ फीका फीका सा लग रहा था। व्हाटसएप पर देश भर से जुड़ने वाले दोस्तों से मुलाकात ही नहीं हुई। बार बार चैक कर रहे हैं कि नेट आया कि नहीं।
सुबह सुबह मिलने वाले दोस्तों के गुड मॉर्निंग संदेश नहीं मिल रहे थे। जब मिलते थे तो कहते थे, इनकी रोज़ रोज़ क्या ज़रूरत है। सारी मेमोरी खा जाते हैं। ज़्यादातर वक्त तो फ़िज़ूल से लगने वाले मेसेज डिलीट करने में ही लग जाता था। नेटबंदी में नहीं आए तो इनका इंतजार सा हो रहा था। कुछ मित्र सुबह प्रेरक संदेश भेजते थे, वो भी नहीं मिले। एक मित्र रंग बिरंगे पक्षियों के चित्र भेज कर मन खुश कर देते थे। अब बस उनकी यादें हैं।
ज़िन्दगी की गति जैसे ढीली पड़ गई थी। हम अपने मनपसंद साइट टेड टाक्स से भी नहीं जुड़ सके। जो मेसेज आते हैं हम उनमें से कुछ सेव करके रख लेते हैं। उन्हे दोबारा पढ़ कर कुछ चैन मिला।
वक्त जैसे पांच साल पीछे चला गया था जब हमने स्मार्टफोन लिया था और इसके साथ ही हम वॉट्सएप और फेसबुक से जुड़ गए थे।
इसी के सहारे हम एक ऐसे ग्रुप से जुड़ गए जहां सर्विस के दौरान साथ रहे मित्र फिर आन मिले थे अपनी वे कहानियां और किस्से लेकर जिन्हे हमने सर्विस कैरियर में भी नहीं सुना था। खूब जन्मदिन व शादी की साल गिरह मनाते थे। तीन दिन से कुछ नहीं मनाया था।
सर्विस वाले ही क्यूं, कुछ कॉलेज व यूनिवर्सिटी के दोस्त भी करीबन 50 साल बाद ढूंढ लिए थे हमने। हां एक स्कूल वाला दोस्त भी मिल गया 60 साल पुराना। लंबे समय से परिचित इन दोस्तों से असली पहचान तो अब हुई थी। उनकी विचारधारा और छुपे गुणों का पता तो अब चला। कई छुपे रुस्तम निकले तो कई बस फॉरवर्ड करने वाले ही थे। पर सभी प्यारे थे। मैं कुछ मित्रों से इतना प्रभावित हुआ कि मैंने उन पर लेख भी लिख दिए। स्मार्टफोन और इंटरनेट ने मेरे लेखन को बहुत तराशा है। मित्रों से मिली प्रशंसा उत्साहवर्धन करती है।
पांच साल पहले मैं साहित्यकारों के एक ग्रुप से जुड़ा। मैं शाम को सोने से पहले और सुबह उठते ही मैं साहित्यिक रचनाएं ही पढ़ता था।
अखबार तो बासी से लगने लगे थे। हर ताज़ा समाचार अलर्ट के साथ वॉट्सएप पर मिल जाता था।
इंटरनेट हमारे जीवन का अभिन्न अंग बनता जा रहा है। इसीलिए लगता है, बिन इंटरनेट सब सून। इंटरनेट अलग किस्म का जनसंचार, मास मीडिया, है। अखबार, रेडियो, टेलीविजन बहुत हद तक एक तरफ साधन है। आपको संदेश सुनाए, पढ़ाए, दिखाए जाते हैं। दर्शक, पाठक, श्रोता की कोई खास सुनवाई नहीं होती। इंटरनेट पर आप जो चाहें उसे गूगल से ढूंढ कर पा सकते हैं, अपनी पसंद के मुताबिक। जिससे चाहें उससे बात करें, या फिर ग्रुप छोड़ दें। पर यहां भी विवेक की ज़रूरत है, वर्ना लुभावने संदेश आपके मन मस्तिष्क को काबू कर लेंगे। आपकी पसंद नापसंद का पता लगा कर आपकी सोच और जेब दोनों खाली कर देंगे। आपकी स्वतंत्रता छीन लेंगे, आपको भीडतंत्र का हिस्सा बना देंगे, केवल नारे लगाने के लिए।
करीबन दस साल पहले जब अरब देशों में अरब बसंत नाम के आंदोलन चल रहे थे और सरकारों ने इंटरनेट की सुविधा बंद कर दी थी तो उस वक्त अमेरिका की तत्कालीन विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन का बयान आया था कि संपर्क करने का अधिकार संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में मूलाधिकार के रूप में शामिल किया जाना चाहिए। इंटरनेट किसी खास मुद्दे को लेकर समर्थकों के विशाल समुदाय खड़े कर सकता है। ये समुदाय किसी भी सरकार के लिए उसकी किसी नीति या उसके अस्तित्व तक पर सवाल खड़े कर सकता है।
टेक्नोलॉजी के विस्तार के साथ अब दुनिया की हर घटना की जानकारी लाइव सभी के पास पहुंच जाती है। भारत में लालकिले पर किसानों के एक गुट द्वारा उपद्रव हो या अमेरिका में ट्रंप समर्थकों द्वारा वहां की संसद में घुसकर तोड़फोड़, सबकुछ दुनिया भर में उसी समय पहुंच जाता है जिस समय यह घटित हो रहा होता है। इस स्थिति में आंदोलन और भी भड़क सकता है या फिर यहीं से इसका पतन भी शुरू हो सकता है।
प्रजातंत्र एक धीमी प्रक्रिया है। पूर्ण बहुमत की सरकार भी अपने चुनाव पूर्व घोषित कार्यक्रम को फिर से जनमत बनाए बिना लागू नहीं कर सकती। विपक्ष चाहे वह किसी भी दल का हो, वह सत्तारूढ़ दल के खिलाफ हर मुद्दे पर विरोध करता ही रहता है। प्रजातंत्र में यह नैतिक अभाव रहता ही है, विरोध केवल विरोध के लिए। अत: पूर्ण बहुमत के बावजूद सत्ता दल को विपक्ष को साथ लेकर चलना ही पड़ता है।
पिछली सदी में साम्यवादी व्यवस्था से दुनिया के अनेक देशों ने भारी तरक्की की पर मानवीय मूल्यों और स्वतंत्रता के मुद्दों की अनदेखी के कारण सोवियत संघ के विघटन के बाद आज दुनिया के लगभग दो तिहाई देशों में प्रजातंत्र व्यवस्था काम कर रही है हालांकि इसका स्वरूप एक समान नहीं है। पूंजीवादी व्यवस्था प्रजातांत्रिक व्यवस्था का अभिन्न अंग है। अमेरिका व यूरोपीय देशों ने इसी व्यवस्था के तहत तेज़ तरक्की की है। पर इस व्यवस्था का भी एक गंभीर दोष सामने आ रहा है। समाज की पूंजी कुछ एक अमीर घरानों के पास इकट्ठी हो रही है। अमीर अधिक अमीर होता जा रहा है और गरीब अधिक गरीब। लगता है दोनों ही व्यवस्थाएं फेल हो रही हैं और कोई नया विकल्प भी नहीं सूझ रहा। विभिन्न देशों में उभरे आंदोलन इसी विफलता की निशानी हैं।
नागरिक स्वतंत्रता भी बनी रहे और तेज तरक्की भी हो जिसके लाभ सभी तक समान रूप से पहुंच सकें, ऐसी व्यवस्था की ज़रूरत है पर यह कैसे संभव होगी यही लाख टके का सवाल है। मेरी निजी राय है कि अनेक अन्य देशों की तुलना में भारत कुल मिलाकर विकास और नागरिक आज़ादी की व्यवस्था का एक अच्छा उदाहरण है पर राजनैतिक दलों में पारस्परिक सद्भाव की कमी अक्सर खेल बिगाड़ देती है।