हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 26 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 26 ??

पुस्तक मेला- वाचन संस्कृति के प्रचार में  राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की बड़ी भूमिका है। पाठकों तक स्तरीय पुस्तकें पहुँचाने के लिए न्यास, देश के विभिन्न शहरों में पुस्तक मेला का आयोजन करता है। इन मेलों के माध्यम से लेखक, प्रकाशक और पाठक के बीच एक सेतु बनाता है।

हरेला मेला- उत्तराखंड के कुमाऊँ मंडल में हरेला मेला वर्ष में  तीन बार क्रमश: चैत्र, श्रावण एवं अश्विन में लगता है। इनमें श्रावण माह में ‘भीमताल’ नामक स्थान पर लगने वाले  मेले का विशेष महत्व है। इस मेला में सहभागियों द्वारा  पौधारोपण भी किया जाता है। पर्यावरण संरक्षण-संवर्धन में सक्रिय जनसहभागिता का ऐसा उदाहरण शायद ही विश्व के किसी मेले में देखने को मिलता हो।

कृषि मेला- भारत कृषि प्रधान देश है। विशेषकर ग्रामीण अंचलों में कृषि मेला का विशेष महत्व है। इन मेलों का आयोजन प्राय: सरकार द्वारा किया जाता है। किसान को स्थानीय मिट्टी की वैज्ञानिक जानकारी देना, इस तरह की मिट्टी में किस तरह की फसल अधिक हो सकती है, फसल के लिए कौनसे बाजार उपलब्ध हैं, इन सब की जानकारी सामान्यतः इनमें दी जाती है।  किसानों को उनके खेत के लिए मृदाकार्ड या सॉइलकार्ड देना इन मेलों का एक महत्वपूर्ण उपक्रम है।

पोषण मेला- सरकारी मेला आयोजन के अंतर्गत गाँवों, कस्बों या छोटे शहरों में  समुचित पोषण और स्वास्थ्य के प्रति जागृति के लिए लघु मेलों का आयोजन किया जाता है। राष्ट्रीय पोषण मिशन के अंतर्गत गर्भवती, धात्री, शिशु व किशोरियों में पोषण के महत्व के प्रति जागृति के लिए पोषण मेला लगाया जाता है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 128 ☆ स्टैच्यू…(2) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 128 ☆ स्टैच्यू…(2) ?

आलस्य रोदनं वापि भयं कर्मफलोद्भवम्।
त्वयीमानि न शोभन्ते जहि मनोबलैः॥

अर्थात अपनी इच्छाशक्ति की सहायता से आलस्य और रुदन छोड़ो, प्रारब्ध से मत डरो- ये सब तुम्हें शोभा नहीं देते।… इच्छाशक्ति सीधी परमात्मा के पास से आती है। तुम अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर जो चाहो, कर सकते हो।

‘स्टैच्यू’ शृंखला में आज इच्छाशक्ति के धनी एक और अनन्य व्यक्तित्व की चर्चा करेंगे। नाम है, स्टीफन विलियम हॉकिंग, प्रसिद्ध भौतिकी एवं ब्रह्मांड विज्ञानी। इक्कीस वर्ष की आयु में स्टीफन मोटर न्यूरॉन नामक असाध्य बीमारी के शिकार हुए। इस रोग में मनुष्य के सारे अवयव शनै:- शनै: काम करना बंद कर देते हैं। आगे चलकर श्वसन-नलिका भी बंद पड़ जाती है और व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। अलबत्ता मस्तिष्क को यह रोग नुकसान नहीं पहुँचा पाता।

स्टीफन के इस रोग से ग्रसित होने के बाद डॉक्टरों के अनुसार उनके पास जीवन के थोड़े ही वर्ष शेष बचे थे। अपार मेधा और अजेय इच्छाशक्ति के धनी स्टीफन बुदबुदाये,” मैं अभी 50 साल और जीऊँगा।”

इक्कीस वर्ष की अवस्था में कहे इस वाक्य को स्टीफन की जिजीविषा ने प्रमाणित कर दिया। उनका देहांत 76 वर्ष की आयु में हुआ।

मोटर न्यूरॉन के चलते उनके शरीर के सभी अवयव निष्क्रिय होने लगे। धीरे-धीरे पक्षाघात ने देह को जकड़ लिया। एक विशेष व्हीलचेयर पर उनका जीवन बीता। अपने सक्रिय मस्तिष्क की सहायता और व्हील चेयर पर लगाए विभिन्न बटनों के माध्यम से उन्होंने न केवल प्रकृति प्रदत्त शारीरिक पंगुता का सामना किया अपितु भौतिकी और ब्रह्मांड विज्ञान में अनेक अनुसंधान भी किए। अपनी आवाज़ खोने के बाद उन्होंने हस्तचालित स्विच से चलाये जा सकने वाले स्पीच जेनेरेटिंग डिवाइस के माध्यम से संवाद बनाये रखा। बीमारी के बढ़ते प्रभाव के कारण इस उपकरण को बाद में गाल की माँसपेशी की सहायता से सक्रिय किया गया।

स्टीफन हॉकिंग द्वारा विशेषकर ब्रह्मांड विज्ञान के क्षेत्र में प्रतिपादित सिद्धांतों को व्यापक स्वीकृति मिली। वैश्विक स्तर पर उन्हें अनेक सम्मान और पुरस्कार मिले। इनमें अमेरिका का सर्वोच्च सम्मान, ‘प्रेसेडेंशियल मेडल ऑफ फ्रीडम’ भी सम्मिलित है।

स्टीफन के संघर्ष के मूल में थी, उनकी जिजीविषा। स्टैच्यू बनी देह के भीतर बसी इस प्रवहमान जिजीविषा ने इतिहास रच दिया। उन्होंने जीवन ऐसा जिया कि समीप आकर खड़ी मृत्यु को उनकी देह ग्रसने के लिए 56 वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ी।

शायद ऐसे ही बिरले लोगों के लिए कन्हैयालाल नंदन जी ने लिखा था,

जीवन के साथ थोड़ा बहुत / मृत्यु भी मरती है, इसलिए मृत्यु / जिजीविषा से बहुत डरती है..!

जीवन परमात्मा की देन है। जिजीविषा भी परमात्मा की दी हुई है। अपने जिजीविषा का उपयोग ना करना परमात्मा के प्रति कृतघ्न होना है। वैदिक दर्शन ने जिजीविषा को सर्वोच्च स्थान इसीलिए तो दिया है। आलेख के आरम्भ में उल्लेखित ‘आलस्य रोदनं…’ जैसा उद्घोष इसीके अनुरूप है।

ऐसे ही उद्घोष किसी स्टीफन हॉकिंग को बनाते हैं जो उद्घोष में प्राण संचारित कर शब्दों को जीवित कर देता है। मानवजाति का अनुभव जानता है कि जिसने शब्दों में प्राण फूँककर प्रेरणा को साकार कर लिया हो, उस को किसी तरह का कोई ‘स्टैच्यू’ बांध नहीं सकता।..इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #112 ☆ वसंत/मधुमास ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 112 ☆

☆ ‌आलेख – आत्मानंद साहित्य #112 ☆ ‌वसंत /मधुमास ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

इस धरती पर अनेक सभ्यता अनेक संस्कृति अनेक प्रकार के आहार विहार , तथा रहन सहन देश काल प्राकृतिक परिस्थितियों के अनुसार, व्यवहार में प्रयुक्त होते है, कहीं कहीं बारहों मास एक जैसा प्राकृतिक  मौसम रहता है, इसी धरती पर कहीं  बारहों मास बरसात होती है तो कहीं भयानक  ठंड पड़ती है, तो कहीं मरूस्थलीय इलाके बिना बरसात के सूखे रहते हैं , लेकिन एक मात्र भारत वर्ष ही एकमात्र ऐसा देश है जहां  जाड़ा, गर्मी, बरसात, चार चार महीने के तीन मौसम है तो, दो दो महीने की छः ऋतुएं है जिसमें उष्म, ग्रीष्म,  शरद,  शिशिर, हेमंत, वसंत है ,यहां हमारी परिचर्चा का विषय वसंत/मधुमास है इस लिए चर्चा की विषय वस्तु  भी यही है।

हेमंत ऋतु की अवसान बेला के अंत में बसंत ऋतु का आगमन होता है ,उसका धरती पर प्राकट्योत्सव  हिंदू पंचांग के अनुसार माघ मास की  शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को, मनाया जाता है, बसंत के आगमन का संदेश खेतों में खिले सरसों के पीले पीले फूल मटर के सफेद गुलाबी फूल तथा अलसी के नीले रंग के फूल देते हैं, वृक्ष में  फूटती हुई कोंपले तथा उनके भीतर से निकले नव पल्लव  प्रकृति के सम्मोहक स्वरूप का दर्शन कराते है और मानव जीवन को नव चेतना तथा उमंग उत्साह से भर देते है। वसंत पंचमी, महाशिवरात्रि तथा होली बासंती पर्व है,इनका बड़ा ही गहरा नाता प्राकृतिक रूप भारतीय  जीवन पद्धति से जुड़ा है। वहीं पर मधु मास का आरंभ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम तिथि एकम से आरंभ होता है,इसी पक्ष के प्रथम तिथि से

बासंतिक नवरात्र आरंभ होता है, तथा नवमी तिथि को रामनवमी के दिन  रामजन्म के त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। और उसी दिन शारदीय नवरात्र का समापन होता है।

मधुमास के बारे में राम जन्म के प्रसंग में मधुमास का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं कि—–

नवमी तिथि मधुमास पुनीता।

सुखद पक्ष अभिजित हरि प्रीता।।

मध्यदिवस अति शीत न घामा।

पावन काल लोक विश्रामा।।

(रा०च०मा०बा०का०)

यह बसंत ऋतु के शैशव तथा युवा से प्रौढ़ावस्था में प्रवेश कर मधुमास के आगमन का संकेत देता है। इस समय बहुत तेजी के साथ प्राकृतिक परिवर्तन होता है। खेतों में फसलों की बालियां दानों से लद जाती है। बाग बगीचों अमराई में आम्र मंजरियों  कटहल तथा महुआ के फूलों और मधुमक्खियों के छत्तों से मधुरस टपकने लगता है, बगीचों से होकर गुजरने वाली भोर की ठंडी हवा के झोंको पर सवार  हो मादक सुगंध लेकर  सैर को निकलने वाली हवा मानव मन तथा जीवन को एक

अलग ही मस्ती से भर देती है, रामनवमी तथा बैसाखी का उत्सव मधुमास के त्योहार है , जिसमें पकने वाली फसलें खेत खलिहानों को समृद्ध कर देते हैं बगीचों में आम के टिकोरे, तथा  बगीचों की कर्मचारियों में खिलने वाले  गेंदा बेला गुलाब डहेलिया के पुष्प आकर्षक नजारों के मोह पास में मानव को जकड़ देते हैं ।  तभी तो ऋतु राज वसंत को कामदेव का प्रतिनिधि कहा जाता है ,और काम के प्रहार से नवयुवा मन त्राहि-त्राहि कर उठता है, और बिरहिनि का मन आकुल व्याकुल हो उठता है।

जिसमें संयोग जहां सुखद अनुभूति कराता है वहीं बियोग चैता तथा होली गीतों के सुर के साथ मुखरित हो उठता है।

– सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 25 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 25 ??

गया मेला- श्राद्धकर्म के महत्व पर इस लेख में पहले चर्चा हो चुकी है। गयाश्राद्ध पर वैदिक परंपरा में विशेष श्रद्धा रखती है। तभी तो कहा गया है, ‘श्रद्धया इदं श्राद्धं’ अर्थात जो श्रद्धा से किया जाय,  वही श्राद्ध है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक 16 दिन का गया मेला होता है। वैदिक दर्शन दशगात्र और षोडशी संपीड़न तक मृतात्मा को प्रेत की संज्ञा देता है। संपीड़न पश्चात इस आत्मा को पितर के रूप में जाना जाता है।

रामायण मेला-  वैदिक होना अर्थात हर विचार को अभिव्यक्त  होने की स्वतंत्रता देना, हर मत को समाहित करने की उदारता होना, अनेकता से एकात्मता की विराट सदाशयता होना।

ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 164वें सूत्र की 46वीं ऋचा का एक अंश कहता है,

‘एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति।’

सत्य एक है जिसे ज्ञानी भाँति-भाँति प्रकार से कहते हैं।

इस ऋचा की प्रत्यक्ष प्रतीति है चित्रकूट और अयोध्या में लगनेवाला रामायण मेला। सुदूर के संत-महात्मा, धर्माचार्य,  रामकथा मर्मज्ञ इस में सम्मिलित होते हैं। रामलीला होती है, प्रवचन होते हैं, सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं।

रामायण मेला का विचार  1961 में सर्वप्रथम डॉ राम मनोहर लोहिया ने दिया था। 1973 में तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी ने चित्रकूट से इसका आरंभ किया। बाद में 80 के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीपति मिश्र ने अयोध्या में भी इसका आरंभ करवाया। डॉ. लोहिया के विचारसूत्र के अनुसार विश्व की सारी रामायण इस मेले में हों। केंद्र में तुलसीकृत रामचरितमानस हो। विभिन्न भाषाओं की रामायण का पाठ और पारायण भी हो। विषय के मर्मज्ञ इस पर चर्चा करें। संस्कृत में  महर्षि वाल्मीकि की रामायण, तमिल की कंबरामायण, असमिया में कथा रामायण, बांग्ला में कृत्तिवास रामायण,  मराठी में भावार्थ रामायण, गुजराती में राम बालकिया, पंजाबी में गोबिन्द रामायण, कश्मीरी में रामावतार चरित, मलयालम में रामचरितम् और ऐसी असंख्य रामायण के एक छत के नीचे होने की कल्पना ही रोमांचित कर देती है।

पनी विशिष्ट दृष्टि के चलते रामायण मेला, देश का अद्भुत मेला है। साथ ही इसमें अनुभव की जाती एकात्मता भी अद्भुत है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 24 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? त्रिकाल ?

कालजयी होने की लिप्सा में,

बूँद भर अमृत के लिए,

वे लड़ते-मरते रहे,

उधर हलाहल पीकर,

महादेव, त्रिकाल भये! 

हलाहल की आशंका को पचाना, अमृत होने की संभावना को जगाना है। 

आप सभी मित्रों को महाशिवरात्रि की हार्दिक बधाई। महादेव की अनुकंपा आप सब पर बनी रहे। ? नम: शिवाय!

 – संजय भारद्वाज

 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 24 ??

श्री हरिगंगा मेला अधिकांश छोटे-बड़े मंदिरों में वार्षिक मेले की प्रथा और परंपरा है। तीर्थ क्षेत्र शूकरक्षेत्र सोरों कासगंज में भगवान का वराह अवतार लिया हुआ था। यहीं श्री हरिगंगा कुंड है। इस कुंड में डाली गई अस्थियाँ तीन दिन में जल में पूर्णत: विलीन हो जाती हैं। इस विषय को लेकर कुछ वैज्ञानिक अनुसंधान भी हुए हैं किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सका है। वराह विग्रह ने अपनी काया भी यहीं तजी थी।

पुष्कर मेला- अजमेर से 11 किलोमीटर दूर स्थित पुष्कर में कार्तिक पूर्णिमा को यह मेला लगता है। मेले में पुष्कर झील में स्नान किया जाता है। श्रीरंग जी और अन्य मंदिरों के दर्शन की परंपरा है। इस अवसर पर लगने वाला पशु मेला विश्व भर में प्रसिद्ध है। इन पशुओं में भी विशेषकर ऊँट मेला खास आकर्षण का केंद्र होता है। इसी क्रम में अन्य अनेक स्थानों पर पशु मेला लगता है। इसी संदर्भ में कार्तिक पूर्णिमा से लगनेवाले पशु मेला उल्लेखनीय है। चीनी यात्री फाहियान ने चौथी सदी में की अपनी भारत यात्रा के संस्मरणों में इसका उल्लेख किया है। इनके अलावा भी देशभर में अनेक पशु मेला लगते हैं।

सूरजकुंड मेला-  समयानुकूल परिवर्तन एवं   मेले का आधुनिक रूप है हरियाणा का ‘सूरजकुंड मेला।’ यहाँ  शिल्पियों की हस्तकला के लिए पंद्रह  दिन हस्तशिल्प मेला लगाया जाता है।  यह मेला पिछले लगभग चार दशक से चल रहा है। हस्तशिल्पी, हथकरघा कारीगरों के लिए यह मेला एक अवसर होता है। विविध अंचलों के हस्तशिल्प, वस्त्रपरंपरा,  लोककला में रुचि रखनेवाले इस मेले में बड़ी संख्या में जुटते हैं।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆☆”तीसरा विश्वयुद्ध!” ☆☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आलेख – तीसरा विश्वयुद्ध!.)

☆ आलेख ☆ “तीसरा विश्वयुद्ध!☆ श्री राकेश कुमार ☆

(समसामयिक)

तीसरा विश्वयुद्ध! विगत अनेक वर्षों से इस शब्द को सुनते आ रहे हैं। कब होगा ?

पहला और दूसरा तो इतिहास बन चुके हैं। आने वाले विद्यार्थियों को एक विषय और इसकी तारीखें भी याद रखनी पढ़ेगी। हमारे सोशल मीडिया तो हमेशा से मज़े लेने में अग्रणी रहता ही हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी चौबीसों घंटे रक्षा विशेषज्ञों के मुंह में अपने शब्द डालकर उनको भी अपनी विचार-वार्ता का भाग बनाने में गुरेज़ नही करते। नए नए विश्व के राजनैतिक समीकरण और ना जाने अपनी कल्पना की उड़ान से सामरिक महत्व की बातों से मीडिया प्रतिदिन नई सामग्री परोस का अपनी टीआरपी को बढ़ा कर विज्ञापन की दरों से अपनी आय में वृद्धि कर रहे हैं।

केन्द्रीय सरकार के कुछ मंत्री यूक्रेन के पड़ोसी देश रवाना हो गए हैं। इसी प्रकार अनेक राज्य सरकारों ने भी अपने आला अधिकारियों को दिल्ली और मुंबई में वापिस आए हुए छात्राओं के स्वागत के लिए तैनात कर दिया हैं। संभवतः ……! 

हॉलीवुड और बॉलीवुड के फिल्म निर्माताओं को भी एक विषय मिल गया है। उन्होंने भी अपने फिल्मी लेखकों को इस कार्य के लिए बयाना भी दे दिया होगा।सुनने में आया है,कुछ फिल्मों के टाइटल भी इस बाबत रजिस्टर्ड करवा लिए हैं।

हमारे भविष्य वक्ता अपनी पंचांग में छपी हुई भविष्य वाणी सच साबित बता कर अपने पंचांग की वृद्धि करने में लग गए हैं।हर कोई अपनी दुकान / व्यापार में यूक्रेन युद्ध को भंजा रहा हैं। दूसरों के घर में लगी हुई आग पर हर कोई रोटियां सेकने की कोशिश कर रहा हैं। टेंशन और खोफ का वातावरण बनाए जाने के प्रयास चारो दिशाओं में हो रहे हैं।

क्या यह आपदा में अवसर नहीं है?  

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 23 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 23 ??

नौचंदी मेला-  मेरठ में प्रतिवर्ष लगने वाला नौचंदी मेला हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतीक है। नवचंडी का अपभ्रंश कालांतर में नौचंदी हो गया।  नौचंदी देवी  एवं हजरत बाले मियाँ की दरगाह एक दूसरे के पास हैं। मंदिर में भजन और दरगाह पर कव्वाली का अद्भुत दृश्य इस मेले में देखने को मिलता है। घंटी और शंख के बीच अजान की आवाज़ और मंत्रों के उच्चारण का इंद्रधनुष इस मेले में खिलता है। नौचंदी मेला सामासिकता और एकात्मता का जीता जागता उदाहरण है। यह मेला चैत्र मास की नवरात्रि से एक सप्ताह पहले आरंभ होता है तथा एक माह तक चलता है।

शहीद मेला-  1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय की घटना है। 14 अगस्त 1942 को मैनपुरी के बेवर नामक स्थान पर कुछ छात्रों ने ध्वज यात्रा निकाली। छात्रों और देशप्रेमी जनसमुदाय ने थाने पर कब्जा कर लिया। अतिरिक्त पुलिस बल बुलाकर इन्हें वहाँ से हटाया गया। अगले दिन 15 अगस्त 1942 को थाने पर भीड़ ने भारत का झंडा फहरा दिया। पुलिस ने गोलियां चलाईं। इस कांड में 14 वर्षीय कृष्ण कुमार, 42 वर्षीय जमुना प्रसाद त्रिपाठी, 40 वर्षीय सीताराम गुप्त  शहीद हो गए।

शहीद अशफाकउल्ला का एक प्रसिद्ध शेर है,

शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले,

वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।

संभवत: ऐसी ही कोई भावना रही होगी कि इस बलिदान की स्मृति में 1972 में स्वर्गीय जगदीश नारायण त्रिपाठी ने ‘शहीद मेला’ आरंभ किया। स्वाधीनता के युद्ध में शहीद हुए लोगों के स्मृति में यह मेला 19 दिनों तक चलता है। यहाँ शहीद मंदिर भी है। शहीदों की फोटो प्रदर्शनी, शहीदों के परिजनों का सम्मान ,स्वतंत्रता सेनानी सम्मान, रक्तदान , राष्ट्रीय एकता सम्मेलन इसे विशिष्ट बनाते हैं।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 127 ☆ स्टैच्यू..! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 127 ☆ स्टैच्यू..! ?

संध्याकाल है। शब्दों का महात्म्य देखिए कि प्रत्येक व्यक्ति उनका अर्थ अपने संदर्भ से ग्रहण कर सकता है। संध्याकाल, दिन का अवसान हो सकता है तो जीवन की सांझ भी। इसके सिवा भी कई संदर्भ हो सकते हैं। इस महात्म्य की फिर कभी चर्चा करेंगे। संप्रति घटना और उससे घटित चिंतन पर मनन करते हैं।

सो अस्त हुए सूर्य की साक्षी में कुछ सौदा लेने बाज़ार निकला हूँ। बाज़ार सामान्यत: पैदल जाता हूँ। पदभ्रमण, निरीक्षण और तदनुसार अध्ययन का अवसर देता है। यूँ भी मुझे विशेषकर मनुष्य के अध्ययन में ख़ास रुचि है। संभवत: इसी कारण एक कविता ने मुझसे लिखवाया, ‘उसने पढ़ी आदमी पर लिखी किताबें/ मैं आदमी को पढ़ता रहा।’

आदमी को पढ़ने की यात्रा पुराने मकानों के बीच की एक गली से गुज़री। बच्चों का एक झुंड अपने कल्लोल में व्यस्त है। कोई क्या कह रहा है, समझ पाना कठिन है। तभी एक स्पष्ट स्वर सुनाई देता है, ‘गौरव स्टेच्यू!’ देखता हूँ एक लड़का बिना हिले-डुले बुत बनकर खड़ा हो गया है। . ‘ ऐ, जल्दी रिलीज़ कर। हमको खेलना है’, एक आवाज़ आती है। स्टैच्यू देनेवाली बच्ची खिलखिलाती है, रिलीज़ कर देती है और कल्लोल जस का तस।

भीतर कल्लोल करते विचारों को मानो दिशा मिल जाती है। जीवन में कब-कब ऐसा हुआ कि परिस्थितियों ने कहा ‘स्टैच्यू’ और अपनी सारी संभावनाओं को रोककर बुत बनकर खड़ा होना पड़ा! गिरना अपराध नहीं है पर गिरकर उठने का प्रयास न करना अपराध है। वैसे ही नियति के हाथों स्टैच्यू होना यात्रा का पड़ाव हो सकता है पर गंतव्य नहीं। ऐसे स्टैच्यू सबके जीवन में आते हैं। विलक्षण होते हैं जो स्टैच्यू से निकलकर जीवन की मैराथन को नये आयाम और नयी ऊँचाइयाँ देते हैं।

नये आयाम देनेवाला ऐसा एक नाम है अरुणिमा सिन्हा का। अरुणिमा, बॉलीबॉल और फुटबॉल की उदीयमान युवा खिलाड़ी रहीं। दोनों खेलों में अपने राज्य उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व कर चुकी थीं। सन 2011 में रेलयात्रा करते हुए बैग और सोने की चेन लुटेरों के हवाले न करने की एवज़ में उन्हें चलती रेल से नीचे फेंक दिया गया। इस बर्बर घटना में अरुणिमा को अपना एक पैर खोना पड़ा। केवल 23 वर्ष की आयु में नियति ने स्टैच्यू दे दिया।

युवा खिलाड़ी अब न फुटबॉल खेल सकती थी, न बॉलीबॉल। नियति अपना काम कर चुकी थी पर अनेक अवरोधक लगाकर सूर्य के आलोक को रोका जा सकता है क्या? कृत्रिम टांग लगवाकर अरुणिमा ने पर्वतारोहण का अभ्यास आरम्भ किया। नियति दाँतो तले उँगली दबाये देखती रह गयी जब 21 मई 2013 को अरुणिमा ने माउंट एवरेस्ट फतह कर लिया। अरुणिमा सिन्हा स्टैच्यू को झिंझोड़कर दुनिया की सबसे ऊँची चोटी पर पहुँचने वाली पहली भारतीय दिव्यांग महिला पर्वतारोही बनीं।

चकबस्त का एक शेर है,

कमाले बुज़दिली है, पस्त होना अपनी आँखों में
अगर थोड़ी सी हिम्मत हो तो क्या हो सकता नहीं।

स्टैच्यू को अपनी जिजीविषा से, अपने साहस से स्वयं रिलीज़ करके, अपनी ऊर्जा के सकारात्मक प्रवाह से अरुणिमा होनेवालों की अनगिनत अद्भुत कथाएँ हैं। अपनी आँख में विजय संजोने वाले कुछ असाधारण व्यक्तित्वों की प्रतिनिधि कथाओं की चर्चा उवाच के अगले अंकों में करने का यत्न रहेगा। प्रक्रिया तो चलती रहेगी पर कुँवर नारायण की पंक्तियाँ सदा स्मरण रहें, ‘हारा वही जो लड़ा नहीं।’..इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 22 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 22 ??

भारत के प्रसिद्ध प्रतिनिधि मेला-

कुंभ मेला- संस्कृत शब्द ‘कुंभ’ का अर्थ घड़ा होता है। कुंभ विश्व का सबसे बड़ा मेला है। 1989 में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में 5 फरवरी को प्रयागराज के मेले में डेढ़ करोड़ लोगों की उपस्थिति और स्नान की पुष्टि की जो एक उद्देश्य के लिए एकत्रित लोगों की सबसे बड़ी भीड़ थी। 2001 में 24 जनवरी को प्रयागराज में अधिकृत रूप से तीन करोड़ लोग उपस्थित थे। अध्यात्म, संस्कृति, धर्म, व्यापार, परंपरा, हर दृष्टि से इसका अनन्य स्थान है। समय साक्षी है कि मानव ने जलस्रोतों के निकट बस्तियाँ बसाईं। यही कारण है कि कुंभ मेला विशाल जलराशि वाले  प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नाशिक, प्रत्येक नगर में बारह वर्ष के अंतराल से कुंभ होता है। प्रयागराज में छह वर्ष के अंतराल पर अर्द्धकुंभ भी होता है। हमारी परंपरा में नदियाँ अमृतकुंभ कहलाती हैं। अमृतकुंभ के किनारे जनकुंभ की साक्षी हरिद्वार में माँ गंगा बनती हैं। प्रयागराज में गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम इसका साक्षी होता है। उज्जैन और नासिक में क्रमश: क्षिप्रा और गोदावरी यह दायित्व वहन करती हैं।

मान्यता है कि क्षीरसागर मंथन से प्राप्त अमृत कलश को लेकर देवराज इंद्र के पुत्र जयंत नभ में उड़ चले। पीछा करते दानवों ने धावा बोला तो जयंत के हाथ का कलश थोड़ा-सा छलक पड़ा।  इससे पृथ्वी पर उपरोक्त चार स्थानों पर अमृत की बूँदें गिरीं। इसी संदर्भ के कारण इन नगरों में कुंभ का आयोजन होता है।

कुंभ मेला मकर संक्रांति से आरंभ होता है। ज्योतिष के अनुसार इस समय बृहस्पति, कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तथा सूर्य का मेष राशि में प्रवेश होता है। ग्रहों की स्थिति उन दिनों हरिद्वार स्थित  हर की पौड़ी के गंगाजल को औषधीय प्रभाव से युक्त करती है। यही कारण है इस अवधि में यहाँ स्नान करना आरोग्य के लिए लाभदायक  माना गया है। गंगा माँ के तो दर्शनमात्र को मुक्ति का साधन.माना गया है। कहा गया है, ‘गंगे तवदर्शनात् मुक्ति!’

कुंभ में मकर संक्रांति, पौष पूर्णिमा, एकादशी, मौनी अमावस्या के दिन स्नान करना विशेष फलदायी माना जाता है।

कुंभ विश्व का सबसे बड़ा मेला है। जो कारण,  मेले के लिए आधार का काम करते हैं, वे सभी इसमें विस्तृत स्तर पर दृष्टिगोचर होते हैं।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ हमारी संस्कृति हमारी पहचान ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

डॉ निशा अग्रवाल

☆ आलेख ☆ हमारी संस्कृति हमारी पहचान ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

“हमारी संस्कृति हमारी पहचान है।

भारतीय संस्कृति महत्वपूर्ण वरदान है।”

किसी भी राष्ट्र की पहचान के पहलूओं मे उसकी संस्कृति का महत्वपूर्ण योगदान  होता है।भारत सदियों से अपनी संस्कृति और विरासत के लिए विश्व धरातल पर जाना जाता है।परन्तु वर्तमान दौर मे हम इस संबंध मे पिछड़ते जा रहे है। आखिर क्यों?इसका मुख्य कारण है बदलता परिवेश।

भारतीय संस्कृति मे आये कुछ अहितकारी बदलाव इसके स्पष्ट संकेत है।हमारी संस्कृति सदैव “अतिथि देवो भव्” के लिए जानी जाती है परन्तु विगत कुछ वर्षो मे विदेशी सैलानियों मुख्यतः महिलाओ से अत्याचार, घिनौनी एवं शर्मनाक उत्पीड़ना ,यौन हिंसा ने इसे शर्मशार किया है। “वसुधैव कुटुम्बकम” का भाव सदैव से धारण किये हुए भारतीय समाज ने समग्र वसुधा को अपना परिवार माना है।परन्तु वर्तमान मे विश्व तो दूर सामूहिक परिवार मे ही कलह देखने को मिलते है। आखिर क्यों?

क्षेत्र,राज्य और समुदाय के नाम पर हुए बटवारे ने भारत को बाँट दिया है। “अनेकता मे एकता” के लिए विश्व विख्यात भारत आज धर्म के नाम पर विभाजित होता प्रतीत हो रहा है।कबीर दास जी ने कहा था “भारत एक ऐसा राष्ट्र है जहां हिन्दू व मुस्लिम एक ही घाट पर पानी भरते है ऐसे राष्ट्र मे जन्म लेना मेरा सौभाग्य है।

“होली, दिवाली, ईद हो, रमजान या अन्य त्यौहार जहाँ सभी भारतीय एक साथ मनाते थे। त्योहार किसी विशेष धर्म का ना होकर समग्र राष्ट्र का था, जहाँ मुस्लिम फटाके फोड़ते थे व हिन्दू ईद मुबारक कहते थे ऐसे राष्ट्र मे आज धर्म के नाम पर साम्प्रदायिक दंगे हो रहे है! अनेकों निर्दोषो की जानें जा रही है ! जिसका उदाहरण हाल ही मे हुई कुछ घटनाओ से ज्ञात होता है। और तो और ऋषि, मुनियो की इस संस्कृति को कुछ ढोंगी पीर बाबाओ ने शर्मसार  किया है।

हिन्दी भाषा के कारण विश्व धरातल पर पहचान प्राप्त करने वाले भारतीय आज हिन्दी बोलने से कतराने लगे है।आज के समय में रामायण व गीता कुछ ही घरो मे मिलेगी। अगर मिलेगी भी तो धूल से धूमिल या गुम होती हुई।क्या यही है हमारी संस्कृति ?

अगर हम सभी भारतीय है और अपनी संस्कृति का संरक्षण और हिफाजत चाहते है तो प्रेम स्नेह ,सहयोग  सदभावना, बसुधैव कुटुम्बकम की भावना से ओत प्रोत क्यों नही कर देते ? क्यों नही है सभी एक साथ मिलकर भाईचारा ,सौहार्द प्रेम का बीज बो देते ?

क्यों हम पीछे हट जाते है विदेशी ताकत से?

क्यों नही है सभी अपनी भारत माता, अपनी प्रकृति की रक्षा कर सकते?

अगर हम सभी वैचारिक समभाव से आगे बढ़े, अपने देश के प्रति प्रेम, अपनी धरती माता की तड़पती पुकार को सुनें तो निश्चित ही हम सभी एक जुट होकर ये सब कर सकेंगे और महाराज श्री अग्रसेन के लाल कहलाने पर हम गर्व महसूस करेंगे।

धूमिल सी हो गई है वो यादें जब  गाँवो मे चौपालो पर बुजुर्गो की भीड़ मिलती थी, अब कही देखने को नही मिलती। यूं समझिए जैसे  पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त करने की तो रीति रिवाज कही गुम सी हो गयी है।

“अहिंसा परमो धर्म्” के भाव वाले इस राष्ट्र मे विगत कुछ वर्षो मे हुई हिंसा ने समग्र विश्व को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या ये वही देश है जहाँ गांधी जैसे शांतिप्रिय दूत ने अहिंसा का संदेश दिया था? बेशक योग को विश्व धरातल पर लाकर भारत ने ये साबित भी किया कि वो आज भी विश्व गुरु है। हमारी भारतीय संस्कृति सदैव से अमर रही है।क्योंकि यह स्वयं मे सम्पूर्ण को समेटे हुए है। परन्तु इसकी पहचान कही खोती जा रही है।हमारी कुछ कमियों ने ,कुछ ऐसे कृत्यों ने इसे दागदार बना दिया है।भौतिकवादी इस युग मे हम इतना गुम हो गए हैं कि हम भूल गए हैं की अपनी संस्कृति ही अपनी पहचान है।

जरूरत है हमे जरूरत है भारतीय संस्कृति के संरक्षण और हिफाजत की हमें जरूरत है।

संरक्षण और हिफाजत करके इसे आगे बढ़ाने की हमें जरूरत है।

©  डॉ निशा अग्रवाल

(ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका)

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर ,राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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