हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में तुलसी के अनुपम उपदेश – भाग – 2॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में तुलसी के अनुपम उपदेश – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

मानस में राम कहते हैं-

शंकर प्रिय मम द्रोही, शिव द्रोही मम दास।

सो नर करहिं कलप भरि घोर नरक महँ बास॥

सीताजी को शक्ति का अवतार बताकर शक्ति की महत्ता प्रतिपादित की है-

श्रुति सेतु पालक राम तुम जगदीश, माया जानकी

जो सृजति पालति हरति नित रुख पाई कृपा निधान की॥

शंकर जी भगवान राम का सदा ध्यान करते हैं। इससे भगवान राम और शंकर में अर्थात् वैष्णव और शैव मतों में कोई भेद नहीं है।

शिव जी कहते हैं-

उमा जे राम चरणरत, विगत काम मद क्रोध।

निज प्रभुमय देखेहिं  जगत केहिसन करहिं विरोध॥

प्रभु के साकार और निराकार रूपों के विषय में भी तुलसी की समन्वयकारी दृष्टि है-

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा, गावहिं मुनि पुरान बुधि वेदा।

अगुन सगुन दुई ब्रह्म-स्वरूपा, अकथ अनादि अगाध अनूपा॥

पार्वती जी ने शंकर जी से पूछा-

जो गुनरहित सगुन सोई कैसे?

शिवजी ने समझाया-

जल हिम उपल विलग नहिं जैसे।

अगुन, अरूप, अलख अज जोई, भगत प्रेमबस सगुन सो होई॥

राम को भक्त का प्रेम प्रिय है। बिना हृदय के अनुराग के वे प्रकट नहीं होते-

रामहि केवल प्रेम पियारा, जानि लेहु जो जानन हारा।

मिलहि न रघुपति बिनु अनुरागा, किये जोग, जप ध्यान विरागा।

कहा है-

हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रकट होहि भगवाना।

जाके हृदय भगति जस प्रीति, प्रभु तहँ प्रकट सदा यह रीति॥

क्रमशः… 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में तुलसी के अनुपम उपदेश – भाग – 1॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में तुलसी के अनुपम उपदेश – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

वीरगाथा काल की समाप्ति पर हिन्दी कविता राजाश्रयी क्षेत्र से हटकर जन जीवन की ओर मुड़ी और भक्ति भावना की ओर प्रवृत्त हुई। विदेशी आक्रमणों की देश में बाढ़ आ गई और जन जीवन दुखी तथा त्रस्त हो गया। दुर्दिनों में सबको ईश्वर की याद आती है। ईश्वर ही कठिन समय में त्राता और संरक्षक के रूप में दिखाई देता है। इसीलिये  ऐसे समय में भक्ति की भावना जागृत हुई। राम और कृष्ण की भक्ति भावना बढ़ी और रामभक्ति तथा कृष्ण भक्ति की धारा प्रवाहित हुई। राम की भक्ति में जिन कवियों ने रचनायें की उनमें महात्मा तुलसीदास और कृष्णभक्ति के कवियों में सूरदास अद्वितीय हैं। तुलसीदास जी ने विक्रम संवत् 1631 में रामनवमीं के दिन से अयोध्या में रामकथा का लिखना प्रारंभ किया जिसे रामचरितमानस नाम दिया गया। साहित्यकार की विचारधारा सदा अपने समय की परिस्थितियों से प्रभावित होती है। उस समय भारत में हिन्दू समाज दीनहीन अवस्था में था। अपनी धार्मिक और आर्थिक कठिनाइयों के कारण निराशा के गर्त में था। आडम्बरों की प्रधानता थी, जाति-पांति का भेदभाव था। सदाचार की समाज में कमी थी। शैव, वैष्णव, शाक्त मतों के प्रभाव से आपसी मतभेद और अलगाव थे। समाज में ढोंगी भक्तो ंकी बहुलता थी। सच्ची ईश्वर भक्ति का अभाव था। शिक्षा की कमी थी, अत: अधिक लोग निरक्षर थे और उन्हें अधिक ज्ञान की कमी थी। इसीलिये तुलसी दास ने अपने मानस में जनसाधारण की सरल भाषा में मानव जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने नई राह दिखाने के लिये आदर्श प्रस्तुत किये। तुलसीदास जी ने अपने गुरु नरहरिदास से रामकथा सुनी थी। वाल्मीकि रामायण में रामकथा विस्तार से दी गई है। इसी में उन्होंने दुखी और निरीह समाज को उठाने अैर उसे जीवन-संबल देने को तेजस्वी मर्यादा पुरुषोत्तम राम की जीवन गाथा को सरल भाषा में प्रस्तुत करने का निश्चय कर रामचरितमानस की रचना की। राम में उन्हें एक चरित्रवान, दुष्टों का नाश करने वाला, सुख-समृद्धि का प्रदाता, नायक व सुयोग्य न्यायप्रिय राजा मिला। परिवार को एक प्रेमल आज्ञाकारी पुत्र, भाई तथा सुयोग्य पति दिखा।

शैव व वैष्णव पंथानुयायियों के मतभेदों को दूर कर समन्वयकर्ता मिला और भक्तों के मन को शांति देने वाला सर्वजन हितकारी देवता मिल गया। इसी दृष्टि से इन्होंने राम को शिव का उपासक  और शिव को राम का उपासक बताया इस रूप में एक समन्वयकर्ता भी मिल गया जो समाज में एक नई चेतना देने में सरलता से मान्य हो गया।

क्रमशः…

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 18 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 18 ??

संस्कृति अंतर्चेतना है, सभ्यता वाह्य व्यवहार। वस्त्र, खानपान, नृत्य, गीत, सब अलग पर भीतर से जुड़ा हुआ है। लोकसभ्यता, संस्कृति से अनुप्रेरित होती है। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि सभ्य आदमी चम्मच से भोजन तो करने लग गया पर स्वाद से वंचित हो गया। संस्कृति को सभ्य/असभ्य नहीं किया जा सकता। संस्कृति स्थिर मूल्य है। परंपराएँ परिवर्तित होती रहती हैं। सतयुग से सत्य बोलना आदर्श या स्थिर मूल्य है। आज भी मूल्य वही है। हाँ कालानुसार नैतिकता बदलती रहती है। जैसे द्वापर में युधिष्ठिर ने ‘अश्वत्थामा मारा गया किंतु हाथी’ कहते समय ‘किंतु हाथी’इतना धीमा कहा कि द्रोणाचार्य तक उनका स्वर न पहुँच सके। यह नैतिकता का अवमूल्यन था, अलबत्ता सत्य कहना तब भी स्थिर मूल्य था। यही कारण रहा कि युधिष्ठिर के भय ने उन्हें प्रत्यक्ष असत्य वचन न कहलाते हुए चालाकी बरतने को विवश किया। यह परोक्ष असत्य परिवर्तित नैतिकता का द्योतक था।

वस्तुत: लोकसाहित्य उतना ही पुराना है, जितना कि मनुष्य। साहित्य पर समाज का प्रभाव होता है, फलत: साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। लोक को जहाँ से जो उदात्त मिलता है, वह उसे ग्रहण कर लेता है। साहित्य, संस्कृति से उपजता है। अध्ययन और अनुसंधान के केंद्र में संस्कृति होनी चाहिए न कि सभ्यता।

शिक्षा और सभ्यता के विकास का प्रत्यक्ष अनुपात का सम्बंध सामान्यत: स्वीकृत है जिसके चलते स्थूल रूप में शिक्षा को अक्षरज्ञान का विकल्प समझ लिया गया है। अक्षर की समझ साक्षर भले ही करे, शिक्षित बनाये, यह आवश्यक नहीं। दीक्षित तो कागज़ी ज्ञान से हुआ ही नहीं जा सकता। हर आदमी का जीवन एक उपन्यास है। इस संदर्भ में देखें तो साक्षर हो या निरक्षर, हर क्षण कुछ नया रच रहा होता है। अत: मात्र अक्षर ज्ञान किसीको सभ्य, असभ्य, शिक्षित जैसे विशेषणों से जोड़े तो यह बेमानी होगा। पढ़ना, बाँचना भी दो तरह का होता है। एक आदमी पर लिखी किताबों को, दूसरा आदमी को। इस सम्बंध में इन पंक्तियों के लेखक की एक कविता प्रासंगिक है-

उसने पढ़ी

आदमी पर लिखी किताबें

मैं आदमी को पढ़ता रहा,

होना ही था

उसके पास लग गया ढेर

कागज़ी डिग्रियों का

मैं रहा खाली हाथ,

पर राज़ की बात बताऊँ

उसे जब कुछ

नया जानना हो

वह, मुझसे मिलने

आता ज़रूर है!

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ राजा और रजवाड़े ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “राजा और रजवाड़े।)

☆ आलेख ☆ राजा और रजवाड़े ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे देश के राजवाड़े तो आज़ादी के बाद से ही समाप्त हो गए थे। उनको मिलने वाला गुजारा भत्ता( प्रिवीपर्स) भी बंद हुए कई दशक हो गए।           

आज़ादी से पूर्व हमारे मालिक इंग्लैंड जिनके राज्य में सूर्यास्त भी नहीं हुआ करता था, अब थोड़े से में सिमट कर रह गए हैं। पुरानी बात है “राज चला गया पर शान नहीं गई”। वहां अभी भी प्रतीक के रूप में राज तंत्र विद्यमान हैं।     

वहां की महारानी एलिजाबेथ की वर्ष 1952 में ताज पोशी हुई थी। उसकी सत्तरवी (डायमंड जुबली) के उपलक्ष्य में कुछ दिन पूर्व भव्य आयोजन हुए।

महारानी ने अपनी बालकनी में आकर सबका अभिवादन स्वीकार किया। उनका स्वास्थ्य नरम रहता है। इसी कारण से वो इस आयोजन में शामिल नहीं हो पाई हैं। उनके एक मात्र पुत्र भी वृद्घावस्था का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वो अभी भी युवराज कहलाते हैं। ऐसा कहा जाता है, इतने लंबे समय तक युवराज रहने का उनका रिकॉर्ड शायद ही कभी टूट पाएं। ईश्वर महारानी को अच्छा स्वास्थ्य देवें। उनके रहन सहन के तरीके/ नियम भी तय शुदा हैं। हमारे देश में आज भी कई लोग अंग्रेजो की तरह जीवन व्यतीत करने के प्रयास करते हैं। मज़ाक में ऐसे लोगों के लिए कहा जाता है कि- “अंग्रेज़ चले गए और औलाद छोड़ गए”।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में भ्रातृ-प्रेम – भाग – 3 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में भ्रातृ-प्रेम – भाग – 3 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

राम के साथ लक्ष्मण वन को गये। चौदह वर्षों तक उनके साथ रह सब कष्ट सहे और बड़े भाई और भाभी की सेवा व रक्षा की। लंका में युद्ध के समय जब लक्ष्मण को मेघनाद ने शक्ति से घायल किया। वे अचेत हो गये तो राम ने उनकी प्राण रक्षा के लिये यत्नकर वैद्यराज सुषेण के कथनानुसार हनुमान जी की योग्यता से हिमालय से संजीवनी बूटी मंगवाई और उन्हें स्वस्थ करने को सबकुछ किया। दुखी राम के इस कथन से उनके हृदय में भाई लक्ष्मण के प्रति गहन प्रेम की झलक स्पष्ट दिखाई देती है जब रुदन करते हुये वे कहते हैं-

सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ, बंधु सदा तुम मृदुल सुभाऊ।

मम हित लागि तजेहु पितु माता, सहेहु विपिन हिम आतप वाता॥

सो अनुराग कहां अब भाई, उठहु न सुनि मम बच बिकलाई।

जो जनतेऊँ वन बंधु बिछोहूं, पिता वचन मनतेहू नहिं ओहू॥

सुत बित नारि भवन परिवारा, होंहिं जाहिं जग बारम्बारा।

अस विचार जिय जागहु ताता, मिलई न जगत सहोदर भ्राता॥

जथा पंख बिन खग अतिदीना मनि बिनु फनि करिबर कर हीना।

अस मम जिवन बंधु बिनु तोही, जौ जड़ दैव जिआवै मोही॥

जैहहुँ अवध कौन मुँह लाई, नारि हेतु प्रिय बंधु गंवाई।

इन समस्त प्रसंगों के प्रकाश में सब भाइयों में आपस में कितना प्रेम था स्पष्ट हो जाता है। आज जब संसार में भाईयों में आपस में छोटी-छोटी बातों में मतभेद और रार होती दिखती है तब मानस में भ्रातृप्रेम का प्रस्तुत आदर्श समाज के लिये अनुकरणीय है और भविष्य में भी संसार के लिये मार्गदर्शी रहेगा।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 17 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 17 ??

प्रकृति के साथ की इसी एकात्मता के चलते महाराष्ट्र में ‘देवराई’ अर्थात संरक्षित वनों की परंपरा बनी। कोंकण और अन्य भागों में देवराई के वृक्षों को हाथ नहीं लगाया जाता। देश के पहाड़ी अंचलों में भी ‘देव-वन’ हैं, जिनमें रसोईघर की तरह चप्पल पहन कर आना वर्जित है।

राजस्थान का बिश्नोई समाज काले मृग के रूप में अपने पूर्वज का पुनर्जन्म देखता है। प्राणी को हत्या से बचाने का यह विश्वास प्रकृति के घटकों के संरक्षण में अद्भुत भूमिका निभाते हैं।

आदिवासियों की अनेक जनजातियाँ, पेड़ की नीचे गिरी सूखी लकड़ी और टपके फल के सिवा पेड़ से कुछ नहीं लेतीं।  कैम्प फायर में पेड़ की हरी डाली तोड़कर डालने वाले और शौकिया शिकार कर किसी भी प्राणी को भूनकर खाने के शौकीन ‘आदिवासी बचाओ’ के कथित प्रणेता इस लोक-संस्कृति की सतह तक भी नहीं पहुँचते, तल तो बहुत दूर की बात है।

मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य के मानसपटल पर जमेे चित्र उसके व्यवहार में दीखते हैं। जैसे लेखक अपने शब्दों या चित्रकार अपने मन के चित्रोेंं को कैनवास पर उतारता है। इसे सीधे लोकवास में देखिए। छोटे-बड़े हर घर के आगे गेरू-चूने से प्रकृति के पात्रों के चित्र बने हैं। जो पिंड में, वही बिरमांड में।

इसी की अगली प्रचिती है कि लोक के व्यवहार में  सकारात्मकता दिखती है। लोकसंवाद में कुछ वाक्यांशों/ वाक्यों का प्रयोग देखिये- दीपक के अस्त होने को ‘दीया बड़ा होना’ कहना, दुकान बंद करने को ‘दुकान बढ़ाना’ कहना, प्रस्थान के समय जाने का उल्लेख न करते हुए ‘ आता हूँ’ कहना आदि।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 143 ☆ चिंतन – मेरी-आपकी कहानी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय एवं विचारणीय आलेख  “चिंतन – मेरी-आपकी कहानी”।)  

☆ आलेख # 143☆ चिंतन – मेरी-आपकी कहानी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

वियतनाम युद्ध से वापस अमेरिका लौटे एक सैनिक के बारे में यह कहानी प्रचलित है। लौटते ही उसने सैन-फ्रांसिस्को से अपने घर फोन किया। “हाँ पापा, मैं वापस अमेरिका आ गया हूँ, थोड़े ही दिनों में घर आ जाऊंगा पर मेरी कुछ समस्या है. मेरा एक दोस्त मेरे साथ है, मैं उसे घर लाना चाहता हूँ। “

“बिलकुल ला सकते हो. अच्छा लगेगा तुम्हारे दोस्त से मिलकर “

“पर इससे पहले की आप हां कहें, आपको उसके बारे में कुछ जान लेना चाहिए, ‘वियतनाम में वह बुरी तरह ज़ख्मी हो गया था, उसका पैर एक बारूदी सुरंग पर पड़ गया और वह एक हाथ और एक पैर गवां बैठा’. अब उसका कोई ठिकाना नहीं है, समझ नही आता की वो अब कहाँ जाए। सोचता हूँ जब उसका कोई आसरा नहीं है तो क्यों ना वह हमारे साथ रहे।””बहुत बुरा लगा सुनकर, चलो कुछ दिनों में उसके रहने का बंदोबस्त भी हो जाएगा, हम लोग इंतजाम कर लेंगे।”

“नहीं, कुछ दिन नहीं, वो हमारे साथ ही रहेगा, हमेशा के लिए।”

“बेटा” पिता ने गंभीर होकर कहा, “तुम नहीं जानते की तुम क्या कह रहे हो। हमारे परिवार पर बहुत बड़ा बोझ पड़ जाएगा अगर इतना ज़्यादा विकलांग इन्सान हमारे साथ रहेगा तो। देखो, हमारा अपना जीवन भी तो है, अपनी जिंदगियाँ भी तो जीनी हैं ना हमें…नहीं, तुम्हारी इस मदद करने की सनक हमारी पूरी ज़िंदगी में बाधा खड़ी कर देगी। तुम बस घर लौटो और भूल जाओ उस लड़के के बारे में। वो अपने दम पे जीने का कोई ना कोई रास्ता खोज ही लेगा।”

लड़के ने फोन रख दिया, इसके बाद उसके माता-पिता से उसकी कोई बात नहीं हुई। बहरहाल, कुछ दिनों बाद ही, सैन-फ्रांसिस्को पुलिस से उनके पास कॉल आया। उन्हें बताया गया की उनके बेटे की एक बहुमंजिला इमारत से गिरकर मृत्यु हो गई है। पुलिस का मानना था की यह आत्महत्या का मामला है। रोते-बिलखते माता पिता ने तुरंत सैन-फ्रांसिस्को की फ्लाईट पकड़ी जहाँ उन्हें मृत शरीर की पहचान करने शवगृह ले जाया गया।

शव उन्ही के बेटे का था, पर उनकी हैरानी की सीमा नहीं रही, जब उन्होंने कुछ ऐसा देखा जिसके बारे में उनके बेटे ने उन्हें नहीं बताया था, उसके शरीर पर एक हाथ और एक पैर नहीं था।

इस बूढे दम्पत्ति की कहानी मेरी-आपकी ही कहानी है। खूबसूरत, खुशनुमा और हँसते-खिलखिलाते लोगों के बीच जीना काफी सरल होता है। पर हम उन्हें पसंद नहीं करते जो हमारे लिए असुविधा पैदा कर सकते हैं या हमें कठिनाई भरी स्थिति में डाल सकते हैं। हम उनसे दूर ही रहते हैं जो इतने सुंदर, स्वस्थ और बुद्धिमान नहीं होते, जितने की हम हैं।पर सौभाग्य से कोई है, जो हमें इस तरह नहीं छोडेगा।

साहस प्रेम प्यार कमजोरी जीवन कोई है, जिसका प्रेम किसी भी शर्त के परे है, उसके परिवार में हर परिस्थिति में हमारे लिए अत है, चाहे हमारी हालत कितनी ही बुरी क्यों ना हो।क्या हम उसी की तरह लोगों को वैसा ही स्वीकार नहीं कर सकते जैसे की वो हैं? उनकी हर कमी, हर कमजोरी के बावजूद?

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में भ्रातृ-प्रेम – भाग – 2 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में भ्रातृ-प्रेम – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

इधर भरत चित्रकूट जाते हुये मन में भाई राम के प्रेम पर अटूट विश्वास था कि मिलने पर वे उन्हें क्षमा कर वापस आकर स्वत: राजा बनेंगे। अपने मन में भरत के लिये किसी प्रकार का बुराभाव नहीं रखेंगे क्योंकि बचपन से ही वे भरत को प्रेम करते हैं। न जाने माता कैकेयी ने किस दुर्बुद्धिवश सारी अयोध्या पर आपत्ति ला खड़ी की है। वे विश्वास रखते हैं-

मैं जानऊं निज नाथ स्वभाऊ, अपराधिहुं पर कोह न काऊ।

मो पर कृपा सनेहु विशेषी, खेलत खुनिस न कबहूं देखी॥

सिसुपन ते परिहरेहु न संगू कबहुं न कीनि मोर मन भंगू।

मैं प्रभु कृपा रीति जियं जोही, हारेहु खेलजिता एहु मोही॥

आन उपाय मोहि नहिं सूझा, को जिय की रघुबर बिन बूझा॥

भरत के दल बल सहित, राम के पास जाने के कारण कईयों को आशंकायें होती हैं। पर राम का पूरा विश्वास है भरत पर-

भरतहिं होई न राजमदु विधि हरिहर पद पाई।

कबहुँ कि काँजी सीकरनि, क्षीर सिंधु विनशाई॥

भरत चित्रकूट तो बड़े भाई राम को वापस लाने का संकल्प लेकर गये थे। उन्हें विश्वास था कि राम के राजा बनने के लिये उनके आग्रह वे मान लेंगे, क्योंकि वे उन्हें बहुत प्यार करते हैं और इससे उनका प्रायश्चित हो जायेगा। उन्हें मन में शांति भी मिलेगी और समस्त अयोध्या का मन प्रसन्न होगा। परन्तु चित्रकूट में राम के मन में उनके लिये अगाध प्रेम ने उनकी मनोभावना ही बदल दी जब राम ने उनपर उनकी शुभ इच्छानुसार ही सही निर्णय कर वापस अयोध्या ले जाकर राज्याभिषेक करने की जिम्मेदारी छोड़ दी। अपने आग्रह पर चलने के लिये दूसरे को बाध्य करने की अपेक्षा यह अधिक उद्दात्त विचार कि कर्तव्य और मर्यादा का उल्लंघन कर किसी को असमंजस में डाल काम कराना कितना सही प्रेम प्रदर्शन होगा, भरत को निर्णय लेना था। राम और भरत का पारस्परिक प्रेम को निभाते हुये दोनों को दोनों पर जिम्मेदारी डालना और निर्णय लेना मानस का अद्भुत मार्मिक प्रेम प्रसंग है। राम को लौटाने का आग्रह त्याग भरत को कहना पड़ा-

अब कृपाल मोहि से मत भावा, सकुच स्वामि मन जाई न पावा।

प्रभुपद सपथ कहऊँ सतभाउ, जग मंगल हित एक उपाऊ॥

प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देव।

सो सिर धरि धरि करिहि सब मिटहि अनट अवरेह॥

तब- दीनबंधु सुन बंधु के वचन दीन छलहीन।

देशकाल अवसर सरिस बोले राम प्रवीण॥

तात तुम्हारि मोरि परिजन की चिंता गुरहि नृपहिं घर वन की।

माथे पर गुरु मुनि मिथलेसू, हमहिं तुम्हहिं सपनेहु न कलेसू॥

पितु आयसु पालहि दुहुँ भाई, लोक वेद भल भूप भलाई।

गुरु पितु मातु स्वामि सिख पाले, चलेहु कुमग पग परहि न खाले।

अस विचार सब सोच विहाई, पालहु अवध अवधि भर जाई॥

इस प्रकार आपसी प्रेम, पिता का वचन और रघुकुल की रीति का मान रख कर राम ने भरत को अयोध्या वापस जाकर राज्य का संचालन और सुरक्षा का भार दे दिया।

भरत और शत्रुघ्न अयोध्या आकर एक सेवक की भांति राम की चरणपादुकाओं को राज सिंहासन पर आसीन कर स्वत: भी राम की ही भांति तापस जीवन बिताते हुए 14 वर्षों तक राम के राज्य का उचित संचालन किया और राम के वापस आने पर उनका राजतिलक कर उन्हें उनका राज्य सौंप दिया।

क्रमशः…

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 144 ☆ वारी – लघुता से प्रभुता की यात्रा – भाग – 1 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 144 ☆ वारी – लघुता से प्रभुता की यात्रा – भाग – 1 ?

श्रीक्षेत्र आलंदी / श्रीक्षेत्र देहू से पंढरपुर तक 260 किलोमीटर की पदयात्रा है महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी। मित्रो, विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि-  वारी की जानकारी पूरे देश तक पहुँचे, इस उद्देश्य से 11 वर्ष पूर्व वारी पर बनाई गई इस फिल्म और लेख ने विशेषकर गैर मराठीभाषी नागरिकों के बीच वारी को पहुँचाने में टिटहरी भूमिका निभाई है। यह लेख पचास से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है। अधिकांश मित्रों ने पढ़ा होगा। अनुरोध है कि महाराष्ट्र की इस सांस्कृतिक परंपरा को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने में सहयोग करें। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। 🙏

डॉक्यूमेंट्री फिल्म का यूट्यूब लिंक (कृपया यहाँ क्लिक करें) 👉  वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा

निर्माण – श्री  प्रभाकर बांदेकर 

लेखन एवं स्वर – श्री संजय भारद्वाज  

भारत की अधिकांश परंपराएँ ऋतुचक्र से जुड़ी हुई एवं वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरने वाली हैं। देवता विशेष के दर्शन के लिए पैदल तीर्थयात्रा करना इसी परंपरा की एक कड़ी है। संस्कृत में तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है-पापों से तारनेवाला। यही कारण है कि  तीर्थयात्रा को मनुष्य के मन पर पड़े पाप के बोझ से मुक्त होने या कुछ हल्का होने का मार्ग माना जाता है। स्कंदपुराण के काशीखण्ड में तीन प्रकार के तीर्थों का उल्लेख मिलता है-जंगम तीर्थ, स्थावर तीर्थ और मानस तीर्थ।

स्थावर तीर्थ की पदयात्रा करने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी इस परंपरा का स्थानीय संस्करण है।

पंढरपुर के विठ्ठल को लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले  महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में मान्यता मिली। तभी से खेतों में बुआई करने के बाद पंढरपुर में विठ्ठल-रखुमाई (श्रीकृष्ण-रुक्मिणी) के दर्शन करने के लिए पैदल तीर्थ यात्रा करने की परंपरा जारी है। श्रीक्षेत्र आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की चरणपादुकाएँ एवं श्रीक्षेत्र देहू से तुकाराम महाराज की चरणपादुकाएँ पालकी में लेकर पंढरपुर के  विठोबा के दर्शन करने जाना महाराष्ट्र की सबसे बड़ी वारी है।

पहले लोग व्यक्तिगत स्तर पर दर्शन करने जाते थे। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, स्वाभाविक था कि संग से संघ बना। 13 वीं शताब्दी आते-आते वारी गाजे-बाजे के साथ समारोह पूर्वक होने लगी।

वारी का शाब्दिक अर्थ है-अपने इष्ट देवता के दर्शन के लिए विशिष्ट दिन,विशिष्ट कालावधि में आना, दर्शन की परंपरा में सातत्य रखना। वारी करनेवाला ‘वारीकर’ कहलाया। कालांतर में वारीकर ‘वारकरी’ के रूप में रुढ़ हो गया। शनैःशनैः वारकरी एक संप्रदाय के रूप में विकसित हुआ।

अपने-अपने गाँव से सीधे पंढरपुर की यात्रा करने वालों को देहू पहुँचकर एक साथ यात्रा पर निकलने की व्यवस्था को जन्म देने का श्रेय संत नारायण महाराज को है। नारायण महाराज संत तुकाराम के सबसे छोटे पुत्र थे। ई.सन 1685 की ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी को वे तुकाराम महाराज की पादुकाएँ पालकी में लेकर देहू से निकले। अष्टमी को वे आलंदी पहुँचे। वहाँ से संत शिरोमणि ज्ञानेश्वर महाराज की चरण पादुकाएँ पालकी में रखीं। इस प्रकार एक ही पालकी में ज्ञानोबा-तुकोबा (ज्ञानेश्वर-तुकाराम) के गगन भेदी उद्घोष के साथ वारी का विशाल समुदाय पंढरपुर की ओर चला।

अन्यान्य कारणों से भविष्य में देहू से तुकाराम महाराज की पालकी एवं आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की पालकी अलग-अलग निकलने लगीं। समय के साथ वारी करने वालों की संख्या में विस्तार हुआ। इतने बड़े समुदाय को अनुशासित रखने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस आवश्यकता को समझकर 19 वीं शताब्दी में वारी की संपूर्ण आकृति रचना हैबतराव बाबा आरफळकर ने की। अपनी विलक्षण दृष्टि एवं अनन्य प्रबंधन क्षमता के चलते हैबतराव बाबा ने वारी की ऐसी संरचना की जिसके चलते आज 21 वीं सदी में 10 लाख लोगों का समुदाय बिना किसी कठिनाई के एक साथ एक लय में चलता दिखाई देता है।

हैबतराव बाबा ने वारकरियों को समूहों में बाँटा। ये समूह ‘दिंडी’ कहलाते हैं। सबसे आगे भगवा पताका लिए पताकाधारी चलता है। तत्पश्चात एक पंक्ति में चार लोग, इस अनुक्रम में चार-चार की पंक्तियों में अभंग (भजन) गाते हुए चलने वाले ‘टाळकरी’ (ळ=ल,टालकरी), इन्हीं टाळकरियों में बीच में उन्हें साज संगत करने वाला ‘मृदंगमणि’, टाळकरियों के पीछे पूरी दिंडी का सूत्र-संचालन करनेवाला विणेकरी, विणेकरी के पीछे सिर पर तुलसी वृंदावन और  कलश लिए मातृशक्ति। दिंडी को अनुशासित रखने के लिए चोपदार। 

क्रमश:…

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #130 ☆ गरूड़ पुराण – एक आत्मकथ्य ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 130 ☆

☆ ‌आलेख – गरूड़ पुराण – एक आत्मकथ्य ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

वैसे तो  भारतीय संस्कृति मे हमारी जीवन शैली संस्कारों से आच्छादित है, जिससे हमारा समाज एक आदर्श समाज के रूप में स्थापित हो जाता है क्योंकि जो समाज संस्कार विहीन होता है, वह पतनोन्मुखी हो जाता है।  

संस्कार ही समाज की आत्मा है, संस्कारित समाज सामाजिक रिश्तों के ताने-बाने को मजबूती प्रदान करता है, अन्यथा यह समाज पशुवत जीवनशैली अपनाता है और सामाजिक आचार संहिता के सारे कायदे कानून तोड़ देता हैं।

ऐसा कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जो हिंदू जीवन पद्धति का मूल है, जिसके कारण हमारे सामाजिक तथा पारिवारिक जीवन में दया करूणा प्रेम सहानुभूति जैसे मानवीय मूल्य विकसित होते हैं। इसी क्रम में हमारे जीवन में कर्म कांडों का महत्व बढ़ जाता है। क्योंकि इन सारे कर्म काण्डों के मूल में हमारे शास्त्रों पुराणों उपनिषदों तथा वेदों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कुल चार वेद, छः शास्त्र, अठ्ठारह पुराण तथा उपनिषद है, और हर पुराण के मूल में कथाएं हैं, जो हमारे आचरण आचार विचार आहार विहार तथा व्यवहार पक्ष को निर्धारित करती है। संरचना के हिसाब से सारे पुराण अध्यायों तथा खंडों में विभाजित है तथा उनके आयोजन का एकमेव उद्देश्य है, मानव का कल्याण।

इस क्रम में श्रीमद्भा गवत कथा को मोक्ष की प्राप्ति कामना से श्रवण किया जाता है, जहां जिसका श्रवण मृत्यु को अवश्यंभावी जानकर प्राणी के मोक्ष हेतु आयोजन का विधान है, तो गरूण पुराण कथा का श्रवण का परिजनों की मृत्यु के बाद लोगों को अपने प्रिय जनों की बिछोह की बेला में दुख और पीड़ा से आकुल व्याकुल परिजनों को कथा श्रवण के माध्यम से दुःख सहने की क्षमता विकसित करता है। और दुखी इंसान को धीरे-धीरे गम और पीड़ा के असह्य दुख से उबार कर सामान्य सामाजिक जीवन धारा में वापस लौटने में मदद करता है। इसके पीछे मन का मनोविज्ञान छुपा है क्योकि जहां जन्म है वहीं मृत्यु भी है। प्राय:इस कथा का आयोजन हिंदू रीति रिवाजों के अनुसार मृत्यु के पश्चात मृतक शरीर की कपाल क्रिया अन्त्येष्टि संस्कार के बाद मृतक के परिजनों द्वारा आयोजित किया जाता है।

तब जब सारे मांगलिक आयोजन वर्जित माने जाते हैं। गरूण पुराण की कथा की बिषय वस्तु पंच तत्व रचित शरीर को मृत्यु के बाद जला देने तथा इसके बाद में इस शरीर में समाहित सूक्ष्म शरीर की परलोक यात्रा के विधान का वर्णन है। हमारे स्थूल शरीर के भीतर एक सूक्ष्म शरीर होता है, जो मन के स्वभाव से आच्छादित होता है क्योकि मृत्यु शैय्या पर पडे़ व्यक्ति में कामनाएं शेष रहती है उस सूक्ष्म शरीर जिसे यमदूत लेकर धर्मराज की नगरी की यात्रा पर निकलते हैं, उसी यात्रा के वृतांत का वर्णन है। गरूण पुराण में जिसमें जिज्ञासु गरूण जी श्री नारायण हरि से प्रश्न करते हैं। और उनकी हर शंका समाधान भगवान विष्णु के द्वारा किया जाता है। उस जीव के भीतर व्याप्त मन जो  दुख और सुख की अनुभूति करता है के कर्मो का पूरा लेखा जोखा प्रस्तुत करते हैं तथा उस यात्रा के दौरान पड़ने वाले पड़ावों का मानव की सूक्ष्म शरीरी यात्रा व शुभ अशुभ कर्मों के परिणाम तथा दंड के विधान की झांकी प्रस्तुत की गई है जिसे देखकर कर सूक्ष्मशरीरी जीव कभी सुखी कभी भयभीत होता है।

इन कथा के श्रवण के पीछे भी लोक कल्याण का भाव समाहित है ताकि हमारा समाज अशुभ कर्मों के अशुभ परिणाम से बच कर, अच्छा कर्म करता हुआ सद्गति को प्राप्त हो अधोगति से बचें। इस कथा में कर्मफल तथा उसके भोग का विधान वर्णित है। इसके साथ ही  साथ ही साथ सामाजिक जीवन आदर्श आचार संहिता के पालन का दिशा निर्देश भी है। शांति पूर्ण ढंग से जीवन जीने की गाइडलाइन भी कह सकते हैं।

# ॐ सर्वे भवन्तु सुखिन: #

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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