(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
💥 माँ सरस्वती साधना संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी से हम आपको शीघ्र ही अवगत कराएँगे। 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
☆ संजय उवाच # 173☆ शेष.. विशेष…अशेष!
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
संत कबीर का यह दोहा अपने अर्थ में सरल और भावार्थ में असीम विस्तार लिए हुए है। जैसे वृक्ष से झड़ा पत्ता दोबारा डाल पर नहीं लगता, वैसे ही मनुष्य देह बार-बार नहीं मिलती। मनुष्य देह बार-बार नहीं मिलती अर्थात दुर्लभ है। जिसे पाना कठिन हो, स्वाभाविक है कि उसका जतन किया जाए। देह नश्वर है, अत: जतन का तात्पर्य सदुपयोग से है।
ऐसा भी नहीं कि मनुष्य इस सच को जानता नहीं पर जानते-बूझते भी अधिकांश का जीवन पल-पल रीत रहा है, निरर्थक-सा क्षण-क्षण बीत रहा है।
कोई हमारे निर्रथक समय का बोध करा दे या आत्मबोध उत्पन्न हो जाए तो प्राय: हम अतीत का पश्चाताप करने लगते हैं। जीवन में जो समय व्यतीत हो चुका, उसके लिए दुख मनाने लगते हैं। पत्थर की लकीर तो यह है कि जब हम अतीत का पश्चाताप कर रहे होते हैं, उसी समय तात्कालिक वर्तमान अतीत हो रहा होता है।
अतीतजीवी भूतकाल से बाहर नहीं आ पाता, वर्तमान तक आ नहीं पाता, भविष्य में पहुँचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अपनी एक कविता स्मरण हो आ रही है,
हमेशा वर्तमान में जिया,
इसलिए अतीत से लड़ पाया,
तुम जीते रहे अतीत में,
खोया वर्तमान,
हारा अतीत
और भविष्य तो
तुमसे नितांत अपरिचित है,
क्योंकि भविष्य के खाते में
केवल वर्तमान तक पहुँचे
लोगों की नाम दर्ज़ होते हैं..!
अपने आप से दुखी एक अतीतजीवी के मन में बार-बार आत्महत्या का विचार आने लगा था। अपनी समस्या लेकर वह महर्षि रमण के पास पहुँचा। आश्रम में आनेवाले अतिथियों के लिए पत्तल बनाने में महर्षि और उनके शिष्य व्यस्त थे। पत्तल बनाते-बनाते महर्षि रमण ने उस व्यक्ति की समस्या सुनी और चुपचाप पत्तल बनाते रहे। उत्तर की प्रतीक्षा करते-करते व्यक्ति खीझ गया। मनुष्य की विशेषता है जिन प्रश्नों का उत्तर स्वयं वर्षों नहीं खोज पाता, किसी अन्य से उनका उत्तर क्षण भर में पाने की अपेक्षा करता है।
वह चिढ़कर महर्षि से बोला, ‘आप पत्तल बनाने में मग्न हैं। एक बार इन पर भोजन परोस दिया गया, उसके बाद तो इन्हें फेंक ही दिया जाएगा न। फिर क्यों इन्हें इतनी बारीकी से बना रहे हैं, क्यों इसके लिए इतना समय दे रहे हैं?’
महर्षि मुस्कराकर शांत भाव से बोले, ‘यह सत्य है कि पत्तल उपयोग के बाद नष्ट हो जाएगी। मर्त्यलोक में नश्वरता अवश्यंभावी है तथापि मृत्यु से पहले जन्म का सदुपयोग करना ही जीवात्मा का लक्ष्य होना चाहिए। सदुपयोग क्षण-क्षण का। अतीत बीत चुका, भविष्य आया नहीं। वर्तमान को जीने से ही जीवन को जिया जा सकता है, जन्म को सार्थक किया जा सकता है, दुर्लभ मनुज जन्म को भवसागर पार करने का माध्यम बनाया जा सकता है। इसका एक ही तरीका है, हर पल जियो, हर पल वर्तमान जियो।’
स्मरण रहे, व्यतीत हो गया, सो अतीत हो गया। अब जो शेष है, वही विशेष है। विशेष पर ध्यान दिया जाए, जीवन को सार्थक जिया जाए तो देह के जाने के बाद भी मनुष्य रहता अशेष है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ आलेख – उधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
अगर सच कहा जाय तो सूर दास जी द्वारा रचित कृष्ण-चरित पर आधारित सूर सागर में जितना सुंदर कथानक प्रेम में संयोग श्रृंगार का है, उससे भी कहीं अनंत गुना अधिक आत्मस्पर्शी वर्णन उन्होंने वियोग श्रृंगार का किया है। कृष्ण जी की ब्रजमंडल में की गई बाल लीलाएं जहां मन को मुदित करती है, एक एक रचना का सौंदर्य, बाल लीला की घटनाएं जहां आनंदातिरेक में प्रवाहित कर देती है, वहीं प्रेम के वियोग श्रृंगार श्रृंखला की रचनाएं बहाती नहीं बल्कि पाठक वर्ग को करूणा रस में डुबा देती है। कृष्ण की स्मृतियों ने जहां ब्रज मंडल की गोपिकाओं तथा राधा को विक्षिप्तता की स्थिति में ला खड़ा किया है, वो कृष्ण की स्मृतियों में खोई कृष्णमयी हो गई है, जिसे पढ़ते हुए समस्त पाठक वर्ग को आत्मविभोरता की स्थिति में ला के खड़ा कर देती है।
इसका जीवंत उदाहरण कृष्ण उधव तथा उधव गोपियों के संवाद में दिखाई देता है तो वहीं दूसरी ओर कृष्ण जी मात्र गोपियों को ही नहीं याद करते बल्कि उनके स्मृतियों में तो पूरा का पूरा ब्रजमंडल ही समाया हुआ है, जो ईश्वरीय चिंतन के असीमित विस्तार को दिखाता है। जब कृष्ण जी कहते हैं कि – “उधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं”।
तब- कालिंदी कुंज की यादें, यशोदा के साथ की गई बाल लीला प्रसंग ,गायों तथा गोपसमूहो के साथ बिताए गए दिन, तथा गोपियों और राधिका के साथ बिताए पलों को तथा ब्रज मंडल के महारास लीला को भूल नहीं पाते–
बिहारी जी के शब्दों में वे अनोखी घटनाएं –
बतरस लालच लाल की,
मुरली धरी लुकाय।
सौंह करै, भौंहन हँसे,
देन कहै नटि जाय॥
तथा छछिया भर छांछ पर नाचना आज भी नहीं भूला है कृष्ण को साथ ही याद है मइया यशोदा के हाथ का माखन याद है ब्रज की गलियां। तभी तो अपने हृदय की बात कहते हुए अपने सखा उधव से अपने मन की बात कह ही देते हैं- “उधव मोहि ब्रज बिसरत नाही”।
ऐसा भी नहीं है कि कृष्ण को ही मात्र ब्रज की यादें व्यथित किए हुए हो, बल्कि सारा ब्रजमंडल ही कृष्ण वियोग की यादों में पगलाया हुआ है। जिसकी झांकी जब ऊधव ब्रज की गोपियों को निराकार ब्रह्म का उपदेश देने जाते हैं तब रास्ते के कांटे भी ऊधव जी को प्रेम का अर्थ समझाते हुए प्रतीत होते हैं जिसका यथार्थ चित्रण बिंदु जी की रचनाओं में दृष्टि गोचर होता है।
चले मथुरा से दूर कुछ जब दूर वृन्दावन नज़र आया,
वहीं से प्रेम ने अपना अनोखा रंग दिखलाया,
उलझकर वस्त्र में काँटें लगे उधौ को समझाने,
तुम्हारे ज्ञान का पर्दा फाड़ देंगे यहाँ दीवाने।
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं॥
यह प्रेम की गहन अनुभूति ही नहीं कराता अपितु ऊधव को मजबूर कर प्रेम के सागर में डुबो देता है। फिर तो एक हाथ यशोदा का माखन तथा दूसरे में राधा द्वारा दी गई मुरली लिए राधे राधे गा उठते है। और लौट आते हैं अपने बाल सखा के पास। भला प्रेम के वियोग श्रृंगार का ऐसा उत्कृष्ट और अनूठा चित्रण सूरसागर के अलावा कहां मिलेगा।
(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)
☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 1 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
दोहा :
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनऊं रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।।
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार।।
अर्थ :- श्री गुरु के चरण कमल की पराग रूपी धूल से अपने मन रूपी दर्पण को निर्मल करके रघुवर की विमल यश गाथा का वृतांत कह रहा हूँ, जो चार प्रकार के फल देने वाला है।
बुद्धिहीन मैं, हनुमान जी का सुमिरन कर रहा हूँ। हनुमान जी से प्रार्थना है कि वे मुझे बल बुद्धि एवं विद्या प्रदान कर मेरे सारे क्लेश एवं विकारों का हरण करें।
भावार्थ :- मेरा मन एक मैले दर्पण की तरह है। इसके ऊपर माया मोह, मत्सर, लोभ, विषय वासना आदि की मैल लगी हुई है। यह साधारण साबुन और पानी से साफ होने वाली नहीं है। इसको साफ करने के लिए मैंने अपने गुरुदेव के चरण कमलों के पराग रूपी कणों को लिया है और उससे मैंने अब अपने मन को साफ कर लिया है।
अपने मन को साफ करने के उपरांत अब मैं भगवान शंकर और गुरुदेव की कृपा से रघुवर के सुयश का वर्णन करूंगा जो चारों प्रकार के फल अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष को देने वाली है।
संदेश – यह दोहा यही संदेश देता है कि जब आप हनुमान चालीसा का पाठ करने बैठें तो पहले अपने गुरुदेव को स्मरण कर मन को पूरी तरह से पवित्र कर लें। अपने इष्ट का स्मरण करें और मन को साफ रखें। भगवान श्री राम की महिमा का वर्णन करने पर आपको शुभ फल की प्राप्ति होगी, इसलिए खुद को राम भक्त हनुमान जी को समर्पित करते हुए उनकी कृपा से बल, बुद्धि और विद्या पाएं और अपने जीवन के हर कष्ट से मुक्ति पा लें।
दोहे को बार-बार पढ़ने से होने वाला लाभ:-
दोहा क्र.-1
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनऊं रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।।
हनुमान चालीसा के इस दोहे के पाठ से गुरु कृपा प्राप्त होती है।
दोहा क्र.- 2
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार।।
हनुमान चालीसा के इस दोहे के बार-बार पाठ से बुद्धि और विद्या की प्राप्ति होती है।
विवेचना:-
इस दोहे की सबसे पहली पंक्ति में महाकवि तुलसीदास जी ने सबसे पहले अपने गुरुवर की वंदना की है। तुलसीदास जी की इस कृति के अतिरिक्त उनकी किसी भी अन्य कृति के आरंभ में गुरु वंदना का उल्लेख नहीं मिलता है। उदाहरण स्वरूप रामचरितमानस के प्रारंभ में कवि ने सबसे पहले वाणी की देवी सरस्वती और गणेश जी की वंदना की है। उसके उपरांत शिव और पार्वती की वंदना की है। कवितावली दोहावली आदि अन्य ग्रंथों में भी सबसे पहले गुरु की वंदना नहीं है। प्रायः अन्य कवियों ने भी अपने ग्रंथों में सर्वप्रथम गणेश जी की वंदना की है। गुरु की सबसे पहले वंदना यह भी दर्शाती है कि हनुमान चालीसा लिखते समय तुलसीदास जी पर सबसे ज्यादा प्रभाव उनके गुरु का था। यह छात्र जीवन में ही संभव है। प्रथम पंक्ति से ही हम हनुमान चालीसा लिखने के समय के बारे में अनुमान लगा सकते हैं। इस पंक्ति से यह स्पष्ट है कि गोस्वामी जी ने यह रचना अपने छात्र जीवन अर्थात किशोरावस्था में की थी।
तुलसीदास जी लिखते हैं रघुवर के विमल यश के गायन से हमें चार फलों की प्राप्ति होगी। यह चार फल कौन से हैं उन्होंने यह नहीं बताया है। ऐसा मानना है कि सृष्टि के निर्माण में संख्या चार का बहुत योगदान है। आप ध्यान दें भगवान विष्णु की चार भुजाएं हैं, ब्रह्मा जी भी चतुर्भुज है। उनके चार मुख हैं जिससे चार वेदों की उत्पत्ति हुई है। विश्व के सभी प्राणियों को 4 वर्ग अंडज, जरायुज, स्वेदज एवं उद्भिज्ज में बांटा गया है। प्राणियों की जीवन की चार अवस्थाएं हैं जिन्हें जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीय कहा जाता है। काल अर्थात समय को भी चार भागों में बांटा गया है, सतयुग, त्रेता, युग द्वापर युग और कलियुग। हमारे चार धाम है बद्रीनाथ, रामेश्वरम, द्वारका धाम और जगन्नाथ। उत्तराखंड में भी चार ही धाम कहे जाते हैं यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ। कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने चतुर्भुज रूप धारण कर भक्तों को चार तत्व धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारे सनातन धर्म में चार का बड़ा महत्व है।
गुरुवाणी में भी इसी प्रकार का कुछ लिखा हुआ है।
चारि पदारथ लै जगि जनमिया सिव सकती घरि वासु धरे।
(गुरूवाणी-1/1013)
जिस समय एक बच्चा माता के उदर में आता है तो उसे चार पदार्थों का ज्ञान होता है किन्तु जन्म के पश्चात् वह ज्ञान भूल जाता है। पूर्ण सद्गुरु की कृपा से उसे पुनः ज्ञान की प्राप्ति होती है।
चार पदार्थों का वर्णन हमें कई स्थानों पर मिलता है परंतु वे चार पदार्थ कौन-से हैं इससे हम अनभिज्ञ हैं।
चार पदार्थों के बारे में कहा गया है-
संसार में जब जन्म लिया तो चारों पदार्थों को साथ लेकर आए तो विचार करना है कि क्या धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को साथ लाए हैं? वे कौन से चार पदार्थ हैं जिन्हें लेकर संसार में जन्म लिया है। और यदि धर्म, अर्थ, काम या मोक्ष को ही हम चार पदार्थ मान लें तो इसका भाव है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हमारे साथ ही आए हैं। लेकिन फिर इनकी प्राप्ति के लिए क्यों कहा है कि-
सतिगुरु कै वसि चारि पदारथ। तीनि समाए एक क्रितारथ।
(गुरूवाणी-1/1345).
चारों पदार्थ सतगुरु के वश में हैं। जब यदि हम चारों पदार्थ साथ लेकर आए हैं तो वे सतगुरु के पास कैसे हैं? यही जानना है कि वे चारों पदार्थ वास्तव में कौन से हैं जिन्हें मीरा ने कहा-
गली तो चारों बंद हुई, मैं हरि से मिलु कैसे जाय।
गलियाँ तो चारों ही बंद पड़ी हैं, मैं प्रभु से कैसे मिलूँ?
वास्तव में, ये तो- अभिव्यक्तिकराणि योगे – पूर्ण योग (ब्रह्मज्ञान) के सूचक और लक्षण हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि वहाँ प्रभु प्रकट हुए और उन्होंने ब्रह्मा जी को ‘चतुष्पदी भागवत’ का ज्ञान प्रदान किया।
बौद्ध धर्म में महात्मा गौतम बुद्ध ने जिन्हें ‘चार आर्य सत्य’ कहा है एवं महावीर ने जिन्हें ‘चार घाट’ कहा है, इस प्रकार ये कौन-सी चार उपलब्धियाँ हैं जिनकी चर्चा संत, महापुरुषों, ऋषि, गुरु, अवतारों ने अपनी वाणी में की है।
सभी धार्मिक ग्रंथ भी चार पदार्थों की महिमा गाते है। इन मुक्ति प्रदान करने वाले चारों पदार्थों को भक्त गुरु कृपा से ही प्राप्त कर पाते हैं, इसलिए हमें ज़रूरत है ऐसे सतगुरु की जो हमें ब्रह्मज्ञान प्रदान कर चार पदार्थों का बोध करवा दें।
एक :-
क्या पहला पदार्थ ब्रह्म ज्ञान का प्रकाश है, दूसरा अनहद नाद है, तीसरा ईश्वर का नाम और और चौथा ब्रह्म ज्ञान का अमृत है। आइए इस पर भी विचार कर लेते हैं।
हम जो दीपक मंदिरों में प्रज्वलित करते है, वह इसी अर्थात ब्रह्म ज्ञान के प्रकाश की अभिव्यक्ति है। जिसे कोई बिना आँख वाला व्यक्ति भी देख सकता है।
गुरु वाणी में कहा गया है :-
कासट महि जिउ है बैसंतरु मथि संजमि काढि कढीजै।
राम नामु है जोति सबाई ततु गुरमति काढि लईजै।।
(गुरवाणी-1/1323)
जिस प्रकार लकड़ी में आग छिपी हुई है जो युक्ति के द्वारा प्रकट होती है। ठीक उसी प्रकार सभी जीवों में प्रभु के नाम की ज्योति समाई हुई है। जरूरत है गुरु के द्वारा उस युक्ति को जानने की, जिससे हम परम् ज्योति (Divine Light) का दर्शन कर सकें।
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते है-
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्मतस: परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्।।
अर्थात् परमात्मा जो कि ज्योतियों की भी परम् ज्योति है जिसे अंधकार से परे कहा जाता है। वह परम ज्ञान (Divine Knowledge) के द्वारा ही जानने योग्य है। यह ज्ञान केवल गुरु ही प्रदान कर सकता है।
दो :-
क्या दूसरा फल या पदार्थ अनहद नाद है। हम मंदिरों में घंटियाँ बजाते है, वह इसी अनहद नाद की अभिव्यक्ति है। जिसे कोई बधिर भी सुन सकता है। जब अनहद नाद सुषुम्ना में प्रवेश कर ऊपर की ओर उठता है, तो इस प्रक्रिया में अनहद नाद का प्रकटीकरण होता है। इससे पहले साधक इस नाद को सुन या प्राप्त नहीं कर सकता। जिसे बजाया नहीं जाता, जो स्वतः अपने आप ही बजता है। लेकिन उस संगीत की प्राप्ति गुरु के द्वारा ही सम्भव है। उसके लिए गुरु वाणी में कहा गया है-
निरभउ कै घरि बजावहि तुर। अनहद बजहि सदा भरपूर।
(गुरूवाणी-971)
उस प्रभु के घर में अर्थात् इस मानव शरीर में वह संगीत बज रहा है जो अनहद है। जिसकी कोई सीमा नहीं है, वही अनहद है।
सत्य को जगाने वाली देदीप्यमान ध्वनि बधिर को भी सुनाई देती है। इसी प्रकार जैसे हम शिव के हाथों में डमरू देखते हैं, बिष्णु के हाथ में शंख और सरस्वती के हाथ में वीणा है। यह सब कुछ अनहद नाद के लिए ही है।
तीन:-
तीसरा पदार्थ है ईश्वर का नाम और उसका जाप करना। शास्त्रों में कहा गया है- जब एक शिशु माँ के गर्भ में होता है तो वह ईश्वर नाम का जाप करता है। फिर क्या है नाम-सुमिरन? जिससे मन वश में आए। कबीर जी कहते हैं –
सुमिरन सूरत लगाई के मुख से कछु न बोल।।
बाहर के पट देइ के अन्तर के पट खोल।।
सुमिरन ऐसा कीजिये कि शरीर के बाहरी पट या द्वार बंद कर मन के द्वार खुल जाएँ।
कबीर दास जी कहते है-
सतगुरु ऐसा कीजिए पड़े निशाने चोट।
सुमिरन ऐसा कीजिए जीभ हिले न होठ।।
सुमिरन वही करना है जिसे करने के लिए न जुबान हिलानी पड़े न ही होंठ।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका।
भए नाम जपि जीव बिसोका।
(रा.च.मा.-1/27/1)
चारों युगों में, तीनों लोकों में और तीनों कालों में केवल ईश नाम का सुमिरन करने से ही जीव शोक से रहित हो जाता है।
जब पूर्ण सतगुरु मिलते हैं तो उस अव्यक्त अक्षर को बता देते हैं जो मनुष्य के ह्रदय में पहले से ही रमा हुआ है।
चार:-
क्या चौथा पदार्थ या फल अमृत है। सभी शास्त्रों में अमृत की चर्चा की गई है। यह अमृत कहां है। क्या यह चरणामृत में है। परंतु चरणामृत को हम अमृत कैसे कह सकते हैं। चरणामृत तो हमारे अधरों पर लगने के उपरांत अपवित्र हो जाता है। अमृत को तो सदैव पवित्र रहना चाहिए। शिवलिंग पर कलश से बूँद-बूँद जल निरंतर बरसता रहता है। यह एक गूढ़ आध्यात्मिक मर्म को समेटे हुए है। हमारे सूक्ष्म जगत में सिर के ऊपरी भाग याने शिरोभाग में एक स्थल है, जिसे सहस्त्रार चक्र, ब्रह्मरंध्र या सहस्त्रदल कमल कहते हैं।
गगन मंडल अमृत का कुआ तहाँ ब्रह्मा का वासा।
सगुरा होवे भर भर पीवे निगुरा मरत प्यासा।।
गगन में उल्टा कुँआ है, जहाँ वह परमात्मा स्वयं विराजमान है। अब यदि हम आकाश में खोजने लग जाएँ तो सारी जिंदगी यह कुआं नहीं मिलेगा। क्योंकि यहाँ सांसारिक कुएँ की नहीं बल्कि उस ‘कुएँ’ की बात की गई है जो शरीर के अंदर ही है।
उपनिषद् में इस स्थल की स्पष्ट व्याख्या की गई है-
अब्जपत्रमधः पुष्पमुर्ध्वनालमधोमुखम्।
अर्थात् ऊपर की ओर नाल वाला तथा अधोभाग (नीचे) की ओर मुख किए पुष्पित एक कमल ब्रह्मरंध्र में स्थित है।
एक अन्य सरस वाणी में संत दरिया ने गाया- ‘बुन्द अखंडा सो ब्रह्मंडा’ – हमारे सिर में व्याप्त अन्तर्गगन या ब्रह्माण्ड से निरंतर, अखण्ड रूप में अमृत की बूँदे टपकती रहती हैं।
पर इस अमृत की अनुभूति केवल ब्रह्मज्ञान की दीक्षा और उसकी साधना के द्वारा ही की जा सकती है। अमृत का यह रसमय पान ही जीवात्मा की जन्म-जन्मांतर की प्यास बुझाता है।
इस प्रकार इन चार फल का अर्थ अत्यंत गूढ़ है जो कि बगैर गुरु के द्वारा दिए गए ज्ञान के प्राप्त नहीं हो सकता है।
अंत में यह कहना उचित होगा कि आपको सबसे पहले गुरु का महत्व समझना है फिर गुरुवर की ही आज्ञा से उनके ही आशीर्वाद से आपको आगे बढ़ना है और ताकि हनुमान जी का स्मरण करने से आपको बल, बुद्धि और विद्या प्रदान करेंगे और सभी कष्टों को दूर करेंगे।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 167 ☆
☆ शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा ☆
‘शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा कर देते हैं वह काम/ हो जाता है जिससे इंसान का जग में नाम/ और ज़िंदगी हो जाती आसान।’ जी हां! यही सत्य है जीवन का– शिकायत स्वयं से हो या दूसरों से; दोनों का परिणाम विनाशकारी होता है। यदि आप दूसरों से शिकायत करते हैं, तो उनका नाराज़ होना लाज़िमी है और यदि शिकायत आपको ख़ुद से है, तो उसके अनापेक्षित प्रतिक्रिया व परिणाम कल्पनातीत घातक हैं। अक्सर ऐसा व्यक्ति तुरंत प्रतिक्रिया देकर अपने मन की भड़ास निकाल लेता है, जिससे आपके हृदय को ठेस ही नहीं लगती; आत्मसम्मान भी आहत होता है। कई बार अकारण राई का पहाड़ बन जाता है। तलवारें तक खिंच जाती हैं और दोनों एक-दूसरे की जान तक लेने को उतारू हो जाते हैं। यदि हम विपरीत स्थिति पर दृष्टिपात करें, तो आपको शिकायत स्वयं रहती है और आप अकारण स्वयं को ही दोषी समझना प्रारंभ कर देते हैं उस कर्म या अपराध के लिए, जो आपने सायास या अनायास किया ही नहीं होता। परंतु आप वह सब सोचते रहते हैं और उसी उधेड़बुन में मग्न रहते हैं।
परंतु जिस व्यक्ति को शिक़ायतें कम होती हैं से तात्पर्य है कि वह आत्मकेंद्रित व आत्मसंतोषी प्राणी है तथा अपने इतर किसी के बारे में सोचता ही नहीं; आत्मलीन रहता है। ऐसा व्यक्ति हर बात का श्रेय दूसरों को देता है तथा विजय का सेहरा दूसरों के सिर पर बाँधता है। सो! उसके सब कार्य संपन्न हो जाते हैं और जग में उसके नाम का ही डंका बजता है। सब लोग उसके पीछे भी उसकी तारीफ़ करते हैं। वास्तव में प्रशंसा वही होती है, जो मानव की अनुपस्थिति में भी की जाए और वह सब आपके मित्र, स्नेही, सुहृद व दोस्त ही कर सकते हैं, क्योंकि वे आपके सबसे बड़े हितैषी होते हैं। ऐसे लोग बहुत कठिनाई से मिलते हैं और उन्हें तलाशना पड़ता है। इतना ही नहीं, उन्हें सहेजना पड़ता है तथा उन पर ख़ुद से बढ़कर विश्वास करना पड़ता है, क्योंकि दोस्ती में शक़, संदेह, संशय व शंका का स्थान नहीं होता।
‘हालात सिखाते हैं बातें सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह ही होता है’ गुलज़ार का यह कथन संतुलित मानव की वैयक्तिक विशेषताओं पर प्रकाश डालता है कि परिस्थितियाँ ही मन:स्थितियों को निर्मित करती हैं। हालात ही मानव को सुनना व सहना सिखाते हैं, परंतु ऐसा विपरीत परिस्थितियों में होता है। यदि समय अनुकूल है, तो दुश्मन भी दोस्त बन जाते हैं, अन्यथा अपने भी अकारण पराए बनकर दुश्मनी निभाते हैं। अक्सर अपने ही अपनों की पीठ में छुरा घोंपते हैं, क्योंकि वे उनके हर रहस्य से अवगत होते हैं और उनके क्रियाकलापों से परिचित होते हैं।
इसलिए हमें दूसरों से नहीं, अपनों से भयभीत रहना चाहिए। अपने ही, अपनों को सबसे अधिक हानि पहुंचाते हैं, क्योंकि दूसरों से आपसे कुछ भी लेना-देना नहीं होता। सो! मानव को शिकायतें नहीं, शुक्रिया अदा करना चाहिए। ऐसे लोग विनम्र व संवेदनशील होते हैं। वे स्व-पर से ऊपर होते हैं; सबको समान दृष्टि से देखते हैं और उनके सब कार्य स्वत: संपन्न हो जाते हैं, क्योंकि सबकी डोर सृष्टि-नियंता के हाथ में होती है। हम सब तो उसके हाथों की कठपुतलियाँ हैं। ‘वही करता है, वही कराता है/ मूर्ख इंसान तो व्यर्थ ही स्वयं पर इतराता है।’ उस सृष्टि-नियंता की करुणा-कृपा के बिना तो पत्ता तक भी नहीं हिल सकता। सो! मानव को उसकी सत्ता के सम्मुख सदैव नतमस्तक होना पड़ता है, क्योंकि शिकायत करने व दूसरों पर दोषारोपण करने का कोई लाभ व औचित्य नहीं होता; वह निष्प्रयोजन होता है।
‘मोहे तो एक भरोसो राम’ और ‘क्यों देर लगा दी कान्हा, कब से राह निहारूँ’ अर्थात् जो व्यक्ति उस परम सत्ता में विश्वास कर निष्काम कर्म करता है, उसके सब कार्य स्वत: संपन्न हो जाते हैं। आस्था, विश्वास व निष्ठा मानव का सर्वोत्कृष्ट गुण है। ‘तुलसी साथी विपद के, विद्या, विनय, विवेक’ अर्थात् जो व्यक्ति विपत्ति में विवेक से काम करता है; संतुलन बनाए रखता है; विनम्रता को धारण किए रखता है; निर्णय लेने से पहले उसके पक्ष-विपक्ष, उपयोगिता-अनुपयोगिता व लाभ-हानि के बारे में सोच-विचार करता है, उसे कभी भी पराजय का मुख नहीं देखना पड़ता। दूसरे शब्दों में जो व्यक्ति अपने अहम् का त्याग कर देता है, वही व्यक्ति संसार में श्रद्धेय व पूजनीय हो जाता है व संसार में उसका नाम हो जाता है। सो! मानव को अहम् अर्थात् मैं, मैं और सिर्फ़ मैं के व्यूह से बाहर निकलना अपेक्षित है, क्योंकि व्यक्ति का अहम् ही सभी दु:खों का मूल कारण है। सुख की स्थिति में वह उसे सबसे अलग-थलग और कर देता है और दु:ख में कोई भी उसके निकट नहीं आना चाहता। इसलिए यह दोनों स्थितियाँ बहुत भयावह व घातक हैं।
चाणक्य के मतानुसार ‘ईश्वर चित्र में नहीं, चरित्र में बसता है। इसलिए अपनी आत्मा को मंदिर बनाओ।’ युधिष्ठर जीवन में काम, क्रोध व लोभ छोड़ने पर बल देते हुए कहते हैं कि ‘अहंकार का त्याग कर देने से मनुष्य सबका प्रिय हो जाता है; क्रोध छोड़ देने से शोक रहित हो जाता है; काम का त्याग कर देने पर धनवान और लोभ छोड़ देने पर सुखी हो जाता है।’ परंतु यदि हम आसन्न तूफ़ानों के प्रति सचेत रहते हैं, तो हम शांत, सुखी व सुरक्षित जीवन जी सकते हैं। सो! मानव को अपना व्यवहार सागर की भांति नहीं रखना चाहिए, क्योंकि सागर में भले ही अथाह जल का भंडार होता है, परंतु उसका खारा जल किसी के काम नहीं आता। उसका व्यक्तित्व व व्यवहार नदी के शीतल जल की भांति होना चाहिए, जो दूसरों के काम आता है तथा नदी में अहम् नहीं होता; वह निरंतर बहती रहती है और अंत में सागर में विलीन हो जाती है। मानव को अहंनिष्ठ नहीं होना चाहिए, ताकि वह विषम परिस्थितियों का सामना कर सके और सबके साथ मिलजुल कर रह सके।
‘आओ! मिल जाएं हम सुगंध और सुमन की तरह,’ मेरे गीत की पंक्तियाँ इस भाव को अभिव्यक्त करती हैं कि मानव का व्यवहार भी कोमल, विनम्र, मधुर व हर दिल अज़ीज़ होना चाहिए। वह जब तक वहाँ रहे, लोग उससे प्रेम करें और उसके जाने के पश्चात् उसका स्मरण करें। आप ऐसा क़िरदार प्रस्तुत करें कि आपके जाने के पश्चात् भी मंच पर तालियाँ बजती रहें अर्थात् आप जहाँ भी हैं–अपनी महक से सारे वातावरण को सुवासित करते रहें। सो! जीवन में विवाद नहीं; संवाद में विश्वास रखिए– सब आपके प्रिय बने रहेंगे। मानव को जीवन में सामंजस्यता की राह को अपनाना चाहिए; समन्वय रखना चाहिए। ज्ञान व क्रिया में समन्वय होने पर ही इच्छाओं की पूर्ति संभव है, अन्यथा जीवन कुरुक्षेत्र बन जाएगा। जहां स्नेह, त्याग व समर्पण ‘होता है, वहां समभाव अर्थात् रामायण होती है और जहां इच्छाओं की लंबी फेहरिस्त होती है, संघर्ष व महाभारत होता है।
मानव के लिए बढ़ती इच्छाओं पर अंकुश लगाना आवश्यक है, ताकि जीवन में आत्मसंतोष बना रहे, क्योंकि उससे जीवन में आत्म-नियंत्रण होगा। फलत: आत्म-संतोष स्वत: आ जाएगा और जीवन में न संघर्ष न होगा; न ही ऊहापोह की स्थिति होगी। मानव अपेक्षा और उपेक्षा के न रहने पर स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठ जाएगा। यही है जीने की सही राह व सर्वोत्तम कला। सो! मानव को चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए; सुख-दु:ख में सम रहना चाहिए क्योंकि इनका चोली दामन का साथ है। मानव को हर परिस्थिति में सम रहना चाहिए। समय सदैव एक-सा नहीं रहता। प्रकृति भी पल-पल रंग बदलती है। जो इस संसार में आया है; उसका अंत अवश्यंभावी है। इंसान आया भी अकेला है और उसे अकेले ही जाना है। इसलिए ग़िले-शिक़वे व शिकायतों का अंबार लगाने से बेहतर है– जो मिला है मालिक का शुक्रिया अदा कीजिए तथा जीवन में सब के प्रति आभार व्यक्त कीजिए; ज़िंदगी खुशी से कटेगी, अन्यथा आप जीवन-भर दु:खी रहेंगे। कोई आपके सान्निध्य में रहना भी पसंद नहीं करेगा। इसलिए ‘जीओ और जीने दो’ के सिद्धांत का अनुसरण कीजिए, ज़िंदगी उत्सव बन जाएगी।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
मकर संक्रांति रविवार 15 जनवरी को है। इस दिन सूर्योपासना अवश्य करें। साथ ही यथासंभव दान भी करें।
💥 माँ सरस्वती साधना संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी से हम आपको शीघ्र ही अवगत कराएँगे। 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
संजय दृष्टि – साथी हाथ बढ़ाना
सात वर्ष पूर्व की बात है। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर गण की रक्षा के लिए कश्मीर के गांदरबल में भारी हिमपात के बीच आतंकियों से जूझते सैनिकों के चित्र देखे थे।
विचार उठा, चौबीस घंटे पल-पल चौकन्ना सुरक्षातंत्र और उनकी कीमत पर राष्ट्रीय पर्व की छुट्टी मनाता गण अर्थात आप और हम।
विचार का विस्तार हुआ कि क्यों न राष्ट्रीय पर्वो की छुट्टी रद्द कर उन्हें सामूहिक योगदान से जोड़ें!
बुजुर्गों तथा बच्चों को छोड़कर देश की आधी जनसंख्या लगभग पैंसठ करोड़ लोगों के एक सौ तीस करोड़ हाथ एक ही समय एक साथ आएँ तो कायाकल्प हो सकता है।
देश की सामूहिकता केवल डेढ़ घंटे में एक सौ तीस करोड़ पौधे लगा सकती है, लाखों टन कचरा हटा सकती है, कृषकों के साथ मिलकर अन्न उगाने में हाथ बँटा सकती है।
हो तो बहुत कुछ सकता है। ‘या क्रियावान स पंडितः’..।पूरे मन से साथी साथ आएँ तो ‘असंभव’ से ‘अ’ भी हटाया जा सकता है।
इन पंक्तियों को लिखनेवाला यानी मैं एवं पढ़नेवाले यानी आप, हम अपने स्तर पर ही पहला पग उठा लें तो यह शुभारंभ होगा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – गणतंत्र के संदेश।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 192 ☆
आलेख – गणतंत्र के संदेश
गणतंत्र दिवस सामूहिकता में व्यक्ति की शक्ति का प्रतीक है। आज अपना देश दुनियां में प्रत्येक क्षेत्र में यश अर्चन कर रहा है । ऐसे समय में देश में हमारा परस्पर सहयोग तथा व्यवहार विश्व देखता है और उसकी व्यापक स्तर पर चर्चा होती है । भारतीय रुपए की ही नहीं, योग, ज्योतिष, ज्ञान, विज्ञान और जीवन मूल्यों की वैश्विक स्थापना हेतु हमारी पीढ़ी की सजग लोकचेतना जरूरी है।
गणतंत्र दिवस पर यही कामना है कि भारतीय जन मानस की मूल राष्ट्र प्रेमी जीवन शैली और आपसी सद्भाव देश की ताकत बने। संकुचित मानसिकता का प्रदर्शन, धर्म के नाम पर राजनैतिक ध्रुवीकरण देश हित में नहीं है। देश संविधान से चलते हैं, संविधान का राष्ट्रीय पर्व ही गणतंत्र दिवस है। भारतीय संविधान दुनिया भर के संविधानो का श्रेष्ठ मिलाकर निर्मित किया गया है। समय के साथ इसमें आवश्यक संशोधन किए गए है।
वर्तमान वैश्विक परिस्तिथियो के अनुरूप भारतीय नागरिकों के सम्मान की सुरक्षा का वादा हमारा संविधान देता है। हमने देखा है कि यूक्रेन की लड़ाई सहित कई अवसरों पर देश के तिरंगे ने भारतीयों की ही नहीं अन्य देशों के नागरिकों को भी दिशा दर्शन करवाया है, यह ताकत ही गणतंत्र की शक्ति है।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – वैश्विक वितरण का ई कामर्स।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 191 ☆
आलेख – वैश्विक वितरण का ई कामर्स
भारतीय तथा एशियन डायसपोरा सारी दुनिया में फैला हुआ है । पिछले लंबे समय से मैं अमेरिका में हूं , मैने पाया है की यहां अनेक लोग भारत में मिलने वाली वस्तुएं लेना चाहते हैं पर वे चीजें अमेजन यू एस में उपलब्ध नहीं हैं । अमेजन द्वारा या अन्य किसी के द्वारा वैश्विक वितरण का ई कामर्स शुरू हो सकता है , लोग फ्राइट चार्ज सहज ही दे सकते हैं । इस तरह की सेवा शुरू हो तो लोगों की जिंदगी आसान हो सकेगी । अभी भी ये वस्तुएं अमेरिका में मिल तो जाती हैं पर उसके लिए किसी इंडियन या पाकिस्तानी , बांग्लादेशी स्टोर्स में जाना होता है । अमेजन का अमेरिका सहित प्रायः विभिन्न देशों में बड़ा वितरण , तथा वेयर हाउस नेटवर्क है ही , केवल उन्हे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर डिलीवरी प्रारंभ करनी है ।
मुझे स्मरण है की पिछले कोरोना काल में मैने अपने बच्चों को बड़े बड़े पार्सल सामान्य घरेलू खाने पीने के सामानों की भेजी थी , जिसमे मकर संक्रांति पर तिल के लड्डू भी थे । सात दिन में पार्सल हांगकांग , अमेरिका , लंदन , दुबई पहुंच गए थे ।
नए स्टार्ट अप हेतु भी मेरा यह सुझाव एक बड़ा अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय बन सकता है , जो अच्छा खासा निर्यात कर सकता है ।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 18 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
परदेश: बेतार के तार
विगत दिन यहां विदेश में एक समुद्र तट पर जाना हुआ जिसका नाम “मारकोनी” हैं। मानस पटल पर पच्चास वर्ष पुरानी यादें ताज़ा हो गई।
बात सन अस्सी से पूर्व की है, भोपाल सर्कल में एक प्रोबेशनरी अधिकारी श्री विजय मोहन तिवारी जी ने बैंक की नौकरी से त्यागपत्र देकर कोचिंग कक्षा केंद्र आरंभ किया था।
प्रथम दिन उन्होंने बताया की किसी पुरानी बात को याद रखने के लिए उसको किसी अन्य वस्तु / स्थान आदि से जोड़ कर याद रखा जा सकता हैं। उद्धरण देते हुए उनका प्रश्न था कि “रेडियो” का अविष्कार किसने किया था? हमने उत्तर में “मारकोनी” बताने पर उनका अगला प्रश्न था, कि इसको कैसे लिंक करेंगें? जवाब में हमने बताया की घर में रेडियो अधिकतर “कोने” में रखे जाते है, जोकि मारकोनी से मिलता हुआ सा हैं।
बोस्टन शहर से करीब एक सौ मील की दूरी पर मारकोनी बीच (चौपाटी) के नामकरण के लिए भी एक महत्वपूर्ण कारण था। इसी स्थान से अटलांटिक महासागर पार यूरोप में पहला “बेतार का तार” भेजा गया था। जिसका अविष्कार मारकोनी द्वारा ही किया गया था। विश्व प्रसिद्ध टाइटैनिक समुद्री जहाज़ ने भी इसी प्रणाली का प्रयोग कर बहुत सारे यात्रियों की जान बचाई थी।
संचार क्रांति के पश्चात “तार” (टेलीग्राम) का युग अब अवश्य समाप्त हो गया हैं, परंतु मारकोनी के रेडियो का उपयोग अभी भी जारी हैं।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
मकर संक्रांति रविवार 15 जनवरी को है। इस दिन सूर्योपासना अवश्य करें। साथ ही यथासंभव दान भी करें।
💥 माँ सरस्वती साधना 💥
सोमवार 16 जनवरी से माँ सरस्वती साधना आरंभ होगी। इसका बीज मंत्र है,
।। ॐ सरस्वत्यै नम:।।
यह साधना गुरुवार 26 जनवरी तक चलेगी। इस साधना के साथ साधक प्रतिदिन कम से कम एक बार शारदा वंदना भी करें। यह इस प्रकार है,
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता। या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना। या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता। सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
☆ संजय उवाच # 172☆ शारदीयता
रोटी, कपड़ा और मकान, मनुष्य की स्थूल अथवा प्रत्यक्ष मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। अभिव्यक्ति सूक्ष्म या परोक्ष आवश्यकता है। जिस प्रकार सूक्ष्म देह के बिना स्थूल का अस्तित्व नहीं होता, उसी प्रकार अभिव्यक्ति या मानसिक विरेचन के बिना मनुष्य जी नहीं सकता। अक्षर की इकाई को शब्द, वाक्य एवं भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति का, सूक्ष्म का सर्वाधिक सशक्त साधन बनाने वाली वागीश्वरी हैं माँ सरस्वती।
वसंतपंचमी सन्निकट है। यह माँ सरस्वती का अवतरण दिवस है। पौराणिक आख्यान है कि ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना तो कर चुके थे पर सर्वव्यापी मौन का कोई हल ब्रह्मा जी के पास नहीं था। तब माँ शारदा प्रकट हुईं। निनाद, वाणी एवं कलाओं का जन्म हुआ। जल के प्रवाह और पवन के बहाव में स्वर प्रस्फुटित हुआ। मौन की अनुगूँज भी सुनाई देने लगी। आहद एवं अनहद नाद गुंजायमान हुए। चराचर ‘नादब्रह्म’ है।
अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतवायदक्षरम् ।
विवर्तते अर्थभावेन प्रक्रिया जगतोयतः॥
अर्थात् शब्द रूपी ब्रह्म अनादि, विनाश रहित और अक्षर है तथा उसकी विवर्त प्रक्रिया से ही यह जगत भासित होता है।
शब्द और रस का अबाध संचार ही सरस्वती है। शब्द और रस के प्रभाव का एकात्म भाव से अनन्य संबंध है। इसका एक उदाहरण संगीत है। आत्म और परमात्म का एकात्म रूप संगीत है। संगीत को मोक्ष की सीढ़ियाँ माना गया है। महर्षि याज्ञवल्क्य इसकी पुष्टि करते हैं-
वीणावादनतत्वज्ञः श्रुतिजातिविशारदः।तालश्रह्नाप्रयासेन मोक्षमार्ग च गच्छति।
वैदिक संस्कृति के नेत्रों में समग्रता का भाव है। कोई पक्ष उपेक्षित नहीं है। यही कारण है कि वसंतपंचमी, रति और कामदेव का उत्सव भी है। इस ऋतु में सर्वत्र विशेषकर खिली सरसों का पीला रंग दृष्टिगोचर होता है। प्रकृति का चटक पीला रंग आकर्षित करता है पुरुष को। प्रकृति और पुरुष का एकात्म होना मदनोत्सव है।
इस संदर्भ में अपनी एक कविता का स्मरण हो आया,
मौसम तो वही था,
यह बात अलग है;
तुमने एकटक निहारा
स्याह पतझड़,
मेरी आँखों ने चितेरे
रंग-बिरंगे वसंत,
बुजुर्ग कहते हैं-
देखने में और
दृष्टि में
अंतर होता है..!
माँ सरस्वती का अनुग्रह, हम सबमें देखने को दृष्टि में बदलने वाली शारदीयता सदा जाग्रत रखे।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अपेक्षा व उपेक्षा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 166 ☆
☆ अपेक्षा व उपेक्षा ☆
‘अत्यधिक अपेक्षा मानव के जीवन को वास्तविक लक्ष्य से भ्रमित कर मानसिक रूप से दरिद्र बना देती है।’ महात्मा बुद्ध मन में पलने वाली अत्यधिक अपेक्षा की कामना को इच्छा की परिभाषा देते हैं। विलियम शेक्सपीयर के मतानुसार ‘अधिकतर लोगों के दु:ख एवं मानसिक अवसाद का कारण दूसरों से अत्यधिक अपेक्षा करना है। यह पारस्परिक रिश्तों में दरार पैदा कर देती है।’ वास्तव में हमारे दु:ख व मानसिक तनाव हमारी ग़लत अपेक्षाओं के परिणाम होते हैं। सो! दूसरों से अपेक्षा करना हमारे दु:खों का मूल कारण होता है, जब हम दूसरों की सोच को अपने अनुसार बदलना चाहते हैं। यदि वे उससे सहमत नहीं होते, तो हम तनाव में आ जाते हैं और हमारा मानसिक संतुलन बिगड़ सकता है; जो हमारे विघटन का मूल कारण बनता है। इससे पारिवारिक संबंधों में खटास आ जाती है और हमारे जीवन से शांति व आनंद सदा के लिए नदारद हो जाते हैं। सो! मानव को अपेक्षा दूसरों से नहीं; ख़ुद से रखनी चाहिए।
अपेक्षा व उपेक्षा एक सिक्के के दो पहलू हैं। यह दोनों हमें अवसाद के गहरे सागर में भटकने को छोड़ देते हैं और मानव उसमें डूबता-उतराता व हिचकोले खाता रहता है। उपेक्षा अर्थात् प्रतिपक्ष की भावनाओं की अवहेलना करना; उसकी ओर तवज्जो व अपेक्षित ध्यान न देना दिलों में दरार पैदा करने के लिए काफी है। यह सभी दु:खों का कारण है। अहंनिष्ठ मानव को अपने सम्मुख सब हेय नज़र आते हैं और इसीलिए पूरा समाज विखंडित हो जाता है।
मनुष्य इच्छाओं, अपेक्षाओं व कामनाओं का दास है तथा इनके इर्द-गिर्द चक्कर लगाता रहता है। अक्सर हम दूसरों से अधिक अपेक्षा व उम्मीद रखकर अपने मन की शांति व सुक़ून उनके आधीन कर देते हैं। अपेक्षा भिक्षाटन का दूसरा रूप है। हम उसके लिए कुछ करने के बदले में प्रतिदान की अपेक्षा रखते हैं और बदले में अपेक्षित उपहार न मिलने पर उसके चक्रव्यूह में फंस कर रह जाते हैं। वास्तव में यह एक सौदा है, जो हम भगवान से करने में भी संकोच नहीं करते। यदि मेरा अमुक कार्य सम्पन्न हो गया, तो मैं प्रसाद चढ़ाऊंगा या तीर्थ-यात्रा कर उनके दर्शन करने जाऊंगा। उस स्थिति में हम भूल जाते हैं कि वह सृष्टि-नियंता सबका पालनहार है; उसे हमसे किसी वस्तु की दरक़ार नहीं। हम पारिवारिक संबंधों से अपेक्षा कर उनकी बलि चढ़ा देते हैं, जिसका प्रमाण हम अलगाव अथवा तलाक़ों की बढ़ती संख्या को देखकर लगा सकते हैं। पति-पत्नी की एक-दूसरे से अपेक्षाओं की पूर्ति ना होने के कारण उनमें अजनबीपन का एहसास इस क़दर हावी हो जाता है कि वे एक-दूसरे का चेहरा तक देखना पसंद नहीं करते और तलाक़ ले लेते हैं। परिणामत: बच्चों को एकांत की त्रासदी को झेलना पड़ता है। सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हुए अपने-अपने हिस्से का दर्द महसूसते हैं, जो धीरे-धीरे लाइलाज हो जाता है। इसका मूल कारण अपेक्षा के साथ-साथ हमारा अहं है, जो हमें झुकने नहीं देता। एक अंतराल के पश्चात् हमारी मानसिक शांति समाप्त हो जाती है और हम अवसाद के शिकार हो जाते हैं।
मानव को अपेक्षा अथवा उम्मीद ख़ुद से करनी चाहिए, दूसरों से नहीं। यदि हम उम्मीद ख़ुद से रखते हैं, तो हम निरंतर प्रयासरत रहते हैं और स्वयं को लक्ष्य की पूर्ति हेतू झोंक देते हैं। हम असफलता प्राप्त होने पर भी निराश नहीं होते, बल्कि उसे सफलता की सीढ़ी स्वीकारते हैं। विवेकशील पुरुष अपेक्षा की उपेक्षा करके अपना जीवन जीता है। अपेक्षाओं का गुलाम होकर दूसरों से उम्मीद ना रखकर आत्मविश्वास से अपने लक्ष्य की प्राप्ति करना चाहता है। वास्तव में आत्मविश्वास आत्मनिर्भरता का सोपान है।
क्षमा से बढ़ कर और किसी बात में पाप को पुण्य बनाने की शक्ति नहीं है। ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात्’ अर्थात् क्षमा सबसे बड़ा धन है, जो पाप को पुण्य में परिवर्तित करने की क्षमता रखता है। क्षमा अपेक्षा और उपेक्षा दोनों से बहुत ऊपर होती है। यह जीने का सर्वोत्तम अंदाज़ है। हमारे संतजन व सद्ग्रंथ इच्छाओं पर अंकुश लगाने की बात कहते हैं। जब हम अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण कर लेंगे, तो हमें किसी से अपेक्षा भी नहीं रहेगी और ना ही नकारात्मकता का हमारे जीवन में कोई स्थान होगा। नकारात्मकता का भाव हमारे मन में निराशा व दु:ख का सबब जगाता है और सकारात्मक दृष्टिकोण हमारे जीवन को सुख-शांति व आनंद से आप्लावित करता है। सो! हमें इन दोनों मन:स्थितियों से ऊपर उठना होगा, क्योंकि हम अपना सारा जीवन लगा कर भी आशाओं का पेट नहीं भर सकते। इसलिए हमें अपने दृष्टिकोण व नज़रिए को बदलना होगा; चिंतन-मनन ही नहीं, मंथन करना होगा। वर्तमान स्थिति पर विभिन्न आयामों से दृष्टिपात करना होगा, ताकि हम अपनी संकीर्ण मनोवृत्तियों से ऊपर उठ सकें तथा अपेक्षा उपेक्षा के जंजाल से मुक्ति प्राप्त कर सकें। हर परिस्थिति में प्रसन्न रहें तथा निराशा को अपने हृदय मंदिर में प्रवेश ने पाने दें तथा प्रभु कृपा की प्रतीक्षा नहीं, समीक्षा करें, क्योंकि परमात्मा हमें वह देता है, जो हमारे लिए हितकर होता है। सो! हमें उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला देनी चाहिए और सदा उसका शुक्रगुज़ार होना चाहिए। हमें हर घटना को एक नई सीख के रूप में लेना चाहिए, तभी हम मुक्तावस्था में रहते हुए जीते जी मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे। इस स्थिति में हम केवल अपने ही नहीं, दूसरों के जीवन को भी सुख-शांति व अलौकिक आनंद से भर सकेंगे। ‘संत पुरुष दूसरों को दु:खों से बचाने के लिए दु:ख सहते हैं और दुष्ट लोग दूसरों को दु:ख में डालने का हर उपक्रम करते हैं।’ बाल्मीकि जी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। सो! अपेक्षा व उपेक्षा का त्याग कर जीवन जीएं। आपके जीवन में दु:ख भूले से भी दस्तक नहीं देगा। आपका मन सदा प्रभु नाम की मस्ती में खोया रहेगा–मैं और तुम का भेद समाप्त हो जाएगा और जीवन उत्सव बन जाएगा।