हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 94 ☆ आलेख – वेलेंटाइन कहिये या बसन्त पंचमी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक  बसंत पंचमी पर्व पर एक विशेष आलेख   ‘वेलेंटाइन कहिये या बसन्त पंचमी इस सार्थक सामयिक एवं विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 94 ☆

? वेलेंटाइन कहिये या बसन्त पंचमी ?

दार्शनिक चिंतन  वेलेंटाइन डे को प्रकृति के बासन्ती परिवर्तन से प्राणियो के मनोभावों पर प्रभाव  मानता है, बसंत पंचमी व वेलेंटाइन लगभग आस पास ही होते हैं, प्रतिवर्ष। स्पष्ट है सभ्यताओं के वैभिन्य में प्राकृतिक बदलाव को अभिव्यक्त करने की तिथियां किंचित भिन्न हो सकती हैं, प्रसन्नता व्यक्त करने का तरीका सभ्यता व संसाधनों के अनुसार कुछ अलग अलग हो सकता है, पर परिवेश के अनुकूल व्यवहार मनुष्य ही नही सभी प्राणियों में सामान्य है।

आज के युवा पश्चिम के प्रभाव में  सारे आवरण फाड़कर अपनी समस्त प्रतिभा के साथ दुनिया में  छा जाना चाहते है। इंटरनेट पर एक क्लिक पर अनावृत  होती सनी लिओने सी बसंतियां स्वेच्छा से ही तो यह सब कर रही हैं।बसंत प्रकृति पुरुष है।वह अपने इर्द गिर्द रगीनियां सजाना चाहता है, पर प्रगति की कांक्रीट से बनी गगनचुम्बी चुनौतियां, कारखानो के हूटर और धुंआ उगलती चिमनियां बसंत के इस प्रयास को रोकना चाहती है।

भारत ने प्रेम की नैसर्गिक भावना को हमेशा एक मर्यादा में सुसभ्य तरीके से आध्यात्मिक स्वरूप में पहचाना है। राधा कृष्ण इस एटर्नल लव के प्रतीक के रूप में वैश्विक रूप में स्थापित हैं।

बसंत पंचमी कहें या वेलेंटाइन डे  नारी सुलभ  सौंदर्य, परिधान, नृत्य, रोमांटिक गायन में प्रकृति के साथ मानवीय तादात्म्य ही है। आज स्त्री के कोमल हाथो में फूल नहीं कार की स्टियरिंग थमाकर, जीन्स और टाप पहनाकर उसे जो चैलेंज  वेलेंटाइन वाला जमाना दे रहा है, उसके जबाब में किसी नेचर्स एनक्लेव बिल्डिंग के आठवें माले के फ्लैट की बालकनी में लटके गमले में गेंदे के फूल के साथ सैल्फी लेती पीढ़ी ने दे दिया है, हमारी  नई पीढ़ी जानती है कि  उसे बसंत और वेलेंटाइन  के साथ सामंजस्य बनाते हुये कैसे बजरंग दलीय मानसिकता से जीतते हुये अपना पिंक झंडा लहराना है। पुरुष और नारी के सहयोग से ही प्रकृति बढ़ रही है, उसे वेलेंटाइन कहे या बसन्त पंचमी।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 85 ☆ ढाई आखर…☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 85 ☆ ढाई आखर… ☆ 
? वैलेंटाइन दिवस पर श्री संजय भारद्वाज जी का एक विचारणीय एवं सामायिक आलेख ?

प्रेम अबूझ, प्रेम अपरिभाषित…, प्रेम अनुभूत, प्रेम अनभिव्यक्त..। प्रेम ऐसा मोहपाश जो बंधनों से मुक्त कर दे, प्रेम क्षितिज का ऐसा आभास जो धरती और आकाश को पाश में आबद्ध कर दे। प्रेम द्वैत का ऐसा डाहिया भाव कि किसीकी दृष्टि अपनी सृष्टि में देख न सके, प्रेम अद्वैत का ऐसा अनन्य भाव कि अपनी दृष्टि में हरेक की सृष्टि देखने लगे।

ब्रजपर्व पूर्ण हुआ। कर्तव्य और जीवन के उद्देश्य ने पुकारा। गोविंद द्वारिका चले। ब्रज छोड़कर जाते कान्हा को पुकारती सुधबुध भूली राधारानी ऐसी कृष्णमय हुई कि ‘कान्हा, कान्हा’ पुकारने के बजाय ‘राधे, राधे’ की टेर लगाने लगी। अद्वैत जब अनन्य हो जाता है राधा और कृष्ण, राधेकृष्ण हो जाते हैं। योगेश्वर स्वयं कहते हैं, नंदलाल और वृषभानुजा एक ही हैं। उनमें अंतर नहीं है।

रासरचैया से रासेश्वरी राधिका ने पूछा, “कान्हा, बताओ, मैं कहाँ-कहाँ हूँ?” गोपाल ने कहा, “राधे, तुम मेरे हृदय में हो।” विराट रूपधारी के हृदय में होना अर्थात अखिल ब्रह्मांड में होना।..”तुम मेरे प्राण में हो, तुम मेरे श्वास में हो।”  जगदीश के प्राण और श्वास में होना अर्थात पंचतत्व में होना, क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर में होना।..”तुम मेरे सामर्थ्य में हो।” स्रष्टा के सामर्थ्य में होना अर्थात मुरलीधर को गिरिधर करने की प्रेरणा होना। कृष्ण ने नश्वर अवतार लिया हो या सनातन ईश्वर होकर विराजें हों, राधारानी साथ रहीं सो कृष्ण की बात रही।

“लघुत्तम से लेकर महत्तम चराचर में हो। राधे तुम यत्र, तत्र, सर्वत्र हो।”

श्रीराधे ने इठलाकर पूछा, “अच्छा अब बताओ, मैं कहाँ नहीं हूँ?” योगेश्वर ने गंभीर स्वर में कहा, “राधे, तुम मेरे भाग्य में नहीं हो।”

प्रेम का भाग्य मिलन है या प्रेम का सौभाग्य बिछोह है? प्रेम की परिधि देह है या देहातीत होना प्रेम का व्यास है?

परिभाषित हो न हो, बूझा जाय या न जाय, प्रेम ऐसी भावना है जिसमें अनंत संभावना है।कर्तव्य ने कृष्ण को द्वारिकाधीश के रूप में आसीन किया तो प्रेम ने राधारानी को वृंदावन की पटरानी घोषित किया। ब्रज की हर धारा, राधा है। ब्रज की रज राधा है, ब्रज का कण-कण राधा है, तभी तो मीरा ने गोस्वामी जी से पूछा  था, “ठाकुर जी के सिवा क्या ब्रज में कोई अन्य पुरुष भी है?”

प्रेमरस के बिना जीवनघट रीता है।  जिसके जीवन में प्रेम अंतर्भूत है, उसका जीवन अभिभूत है। विशेष बात यह कि अभिभूत करनेवाली यह अनुभूति न उपजाई न जा सकती है न खरीदी जा सकती है।

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय

राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।

इस ढाई आखर को मापने के लिए वामन अवतार  के तीन कदम भी कम पड़ जाएँ!

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 73 – हिंदूधर्माचरण एक संस्कारित भारतीय जीवनशैली ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी का विशेष आलेख  “हिंदूधर्माचरण एक संस्कारित भारतीय जीवनशैली। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य#73 ☆ हिंदूधर्माचरण एक संस्कारित भारतीय जीवनशैली ☆

हमारा देश भारतवर्ष पौराणिक कथाओं तथा मतों के अध्ययन के अनुसार आर्यावर्त के जंबूद्वीप के एक खंड का हिस्सा है जिसे अखंडभारत के नाम से पहचाना जाता है। राजा दुष्यंत के महाप्रतापी पुत्र भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। लेकिन हमारे अध्ययन के अनुसार देश में तीन भरत चरित्र हमारे सामने है जो सामूहिक रूप से हमारे देश हमारी संस्कृति तथा हमारे समाज  के आचार विचार व्यवहार तथा मानवीय गुणों की आदर्श तथा अद्भुतछवि विश्व फलक पर प्रस्तुत करता है।

जिसमें समस्त मानवीय मूल्यों आदर्शों की छटा समाहित है जो हमें हमारे सांस्कृतिक संस्कारों की याद दिलाता रहता है, जो इंगित करता है कि बिना संस्कारों के संरक्षण के कोई समाज उन्नति नहीं कर सकता। संस्कार विहीन समाज टूटकर बिखर जाता है और अपने मानवीय मूल्य को खो देता है। वैसे तो हर धर्म और संस्कृति के लोग अपने देश काल परिस्थिति के अनुसार अपने अपने संस्कारों के अनुसार व्यवहार करते है, किन्तु, हमारा समाज  षोडश संस्कारों की आचार संहिता से आच्छादित है। इसमें मुख्य हैं 1-गर्भाधान संस्कार 2-पुंशवन संस्कार 3-सीमंतोन्नयन संस्कार 4-जातकर्म संस्कार 5-नामकरण संस्कार 6-निष्क्रमण संस्कार 7- अन्नप्राश्न संस्कार 8-मुण्डन संस्कार 9-कर्णवेधन संस्कार 10-विद्यारंभ संस्कार 11-उपनयन संस्कार 12-वेदारंभ संस्कार 13-केशांत संस्कार 14-संवर्तन संस्कार 15-पाणिग्रहण अथवा विवाह संस्कार 16-अंतेष्टि संस्कार।

इनमें से हर संस्कार का‌ मूलाधार आदर्श कर्मकांड पर टिका हुआ है। हमारे आदर्श ही हमारी संस्कृति की जमा-पूंजी है, यही तो हर भरत चरित्र हम भारतवंशियो की आचार-संहिता की चीख चीख कर दुहाई देता है जिसका आज पतन होता दीख रहा है। आज जहां भाई ही भाई के खून का प्यासा है। वहीं त्रेता युगीन भरत चरित भ्रातृप्रेम तथा स्नेह की अनूठी मिसाल प्रस्तुत करता है, तो द्वापरयुगीन भरत चरित शूर वीरता शौर्य तथा साहस की भारतीय परम्परा की गौरवगाथा की जीवंत झांकी दिखाता है।

वहीं जडभरत का चरित्र हमारी आध्यात्मिक ज्ञान की पराकाष्ठा को स्पर्श करता दीखता है ये नाम हर भारतीय से आदर्श आचार संहिता की अपेक्षा रखता है जो हमारे समाज की आन बान शान के मर्यादित आचरण की कसौटी है।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 82 ☆ साधन नहीं साधना ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  स्त्री विमर्श साधन नहीं साधना।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 82 ☆

☆ साधन नहीं साधना ☆

‘आदमी साधन नहीं, साधना से श्रेष्ठ बनता है। आदमी उच्चारण से नहीं, उच्च-आचरण से अपनी पहचान बनाता है’… जिससे तात्पर्य है, मानव धन-दौलत व पद-प्रतिष्ठा से श्रेष्ठ नहीं बनता, क्योंकि साधन तो सुख-सुविधाएं प्रदान कर सकते हैं, श्रेष्ठता नहीं। सुख, शांति व संतोष तो मानव को साधना से प्राप्त होती है और तपस्या व आत्म-नियंत्रण इसके प्रमुख साधन हैं। संसार में वही व्यक्ति श्रेष्ठ कहलाता है, अथवा अमर हो जाता है, जिसने अपने मन की इच्छाओं पर अंकुश लगा लिया है। वास्तव में इच्छाएं ही हमारे दु:खों का कारण हैं। इसके साथ ही हमारी वाणी भी हमें सबकी नज़रों में गिरा कर तमाशा देखती है। इसलिए केवल बोल नहीं, उनके कहने का अंदाज़ भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। वास्तव में उच्चारण अर्थात् हमारे कहने का ढंग ही, हमारे व्यक्तित्व का आईना होता है, जो हमारे आचरण को पल-भर में सबके सम्मुख उजागर कर देता है। सो! व्यक्ति अपने आचरण व व्यवहार से पहचाना जाता है। इसलिए ही उसे विनम्र बनने की सलाह दी गई है, क्योंकि फूलों-फलों से लदा वृक्ष सदैव झुक कर रहता है; सबके आकर्षण का केंद्र बनता है और लोग उसका हृदय से सम्मान करते हैं।

‘इसलिए सिर्फ़ उतना विनम्र बनो; जितना ज़रूरी हो, क्योंकि बेवजह की विनम्रता दूसरों के अहं को बढ़ावा देती है।’ दूसरे शब्दों में उस स्थिति में लोग आपको अयोग्य व कायर समझ, आपका उपयोग करना प्रारंभ कर देते हैं। आपको दूसरों को हीन दर्शाने हेतु निंदा करना, उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है अथवा आदत में शुमार हो जाता है। यह तो सर्वविदित है कि आवश्यकता से अधिक किसी वस्तु का सेवन मानव को सदैव हानि पहुंचाता है। इसलिए उतना झुको; जितना आवश्यक हो ताकि आपका अस्तित्व कायम रह सके। ‘हां! सलाह हारे हुए की, तज़ुर्बा जीते हुए का और दिमाग़ खुद का… इंसान को ज़िंदगी में कभी हारने नहीं देता।’ सो! दूसरों की सलाह तो मानिए,परंतु अपने मनोमस्तिष्क का प्रयोग अवश्य कीजिए और परिस्थितियों का बखूबी अवलोकन कीजिए। सो! ‘सुनिए सबकी, कीजिए मन की’ अर्थात् समय व अवसरानुकूलता का ध्यान रखते हुए निर्णय लीजिए। ग़लत समय पर लिया गया निर्णय, आपको कटघरे में खड़ा कर सकता है… अर्श से फ़र्श पर लाकर पटक सकता है। वास्तव में सुलझा हुआ व्यक्ति अपने निर्णय खुद लेता है तथा उसके परिणाम के लिए दूसरों को कभी भी दोषी नहीं ठहराता। इसलिए जो भी करें, आत्म- विश्वास से करें…पूरे जोशो-ख़रोश से करें। बीच राह से लौटें नहीं और अपनी मंज़िल पर पहुंचने के पश्चात् ही पीछे मुड़कर देखें, अन्यथा आप अपने लक्ष्य की प्राप्ति कभी भी नहीं कर पाएंगे।

‘इंतज़ार करने वालों को बस उतना ही मिलता है, जितना कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं।’ अब्दुल कलाम जी का यह संदेश मानव को निरंतर कर्मशील बने रहने का संदेश देता है। परंतु जो मनुष्य हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाता है, परिश्रम करना छोड़ देता है और प्रतीक्षा करने लग जाता है कि जो भाग्य में लिखा है अवश्य मिल कर रहेगा। सो! उन लोगों के हिस्से में वही आता है, जो कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं। दूसरे शब्दों में आप इसे जूठन की संज्ञा भी दे सकते हैं। ‘इसलिए जहां भी रहो, लोगों की ज़रूरत बन कर रहो, बोझ बन कर नहीं’ और ज़रूरत वही बन सकता है, जो सत्यवादी हो, शक्तिशाली हो, परोपकारी हो, क्योंकि स्वार्थी इंसान तो मात्र बोझ है, जो केवल अपने बारे में सोचता है। वह उचित- अनुचित को नकार, दूसरों की भावनाओं को रौंद, उनके प्राण तक लेने में भी संकोच नहीं करता और सबसे अलग-थलग रहना पसंद करता है।

‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते और कभी हम समझा नहीं पाते।’ इसलिए सदैव उस सलाह पर काम कीजिए, जो आप दूसरों को देते हैं अर्थात् दूसरों से ऐसा व्यवहार कीजिए, जिसकी आप दूसरों से अपेक्षा करते हैं। सो! अपनी सोच सदैव सकारात्मक रखिए, क्योंकि जैसी आपकी सोच होगी, वैसा ही आपका व्यवहार होगा। अनुभूति और अभिव्यक्ति एक सिक्के के दो पहलू हैं। सो! जैसा आप सोचेंगे अथवा चिंतन-मनन करेंगे, वैसी आपकी अभिव्यक्ति होगी, क्योंकि शब्द व सोच मन में संदेह व शंका को जन्म देकर दूरियों को बढ़ा देते हैं। ग़लतफ़हमी मानव मन में एक-दूसरे के प्रति कटुता को बढ़ाती है और संदेह व भ्रम हमेशा रिश्तों को बिखेरते हैं। प्रेम से तो अजनबी भी अपने बन जाते हैं। इसलिए तुलना के खेल में न उलझने की सीख दी गई है, क्योंकि यह कदापि उपयोगी व लाभकारी नहीं होती। जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहीं आनंद व अपनत्व अपना प्रभाव खो देते हैं। इसलिए स्पर्द्धा भाव रखना अधिक कारग़र है,क्योंकि छोटी लाइन को मिटाने से बेहतर है, लंबी लाइन को खींच देना… यह भाव मन में तनाव को नहीं पनपने देता; न ही यह फ़ासलों को बढ़ाता है।

परमात्मा ने सब को पूर्ण बनाया है तथा उसकी हर कृति अर्थात् जीव दूसरे से अलग है। सो! समानता व तुलना का प्रश्न ही कहां उठता है? तुलना भाव प्राणी-मात्र में ईर्ष्या जाग्रत कर, द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न करता है, जो स्नेह, सौहार्द व अपनत्व को लील जाता है। प्रेम से तो अजनबी भी परस्पर बंधन में बंध जाते हैं। सो! जहां त्याग, समर्पण व एक- दूसरे के लिए मर-मिटने का भाव होता है, वहां आनंद का साम्राज्य होता है। संदेह व भ्रम अलगाव की स्थिति का जनक है। इसलिए शक़ को दोस्ती का दुश्मन स्वीकारा गया है। भ्रम की स्थिति में रिश्तों में बिखराव आ जाता है और उनकी असामयिक मृत्यु हो जाती है। इसलिए समय रहते चेत जाना मानव के लिए उपयोगी है, हितकारी है, क्योंकि अवसर व सूर्य में एक ही समानता है। देर करने वाले इन्हें हमेशा के लिए खो देते हैं। इसलिए गलतफ़हमियों को शीघ्रता से संवाद द्वारा मिटा देना चाहिए ताकि ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’ वाली भयावह स्थिति उत्पन्न न हो जाए।

‘ज़िंदगी में कुछ लोग दुआओं के रूप में आते हैं और कुछ आपको सीख देकर अथवा पाठ पढ़ा कर चले जाते हैं।’ मदर टेरेसा की यह उक्ति अत्यंत सार्थक व अनुकरणीय है। इसलिए अच्छे लोगों की संगति प्राप्त कर, स्वयं को सौभाग्यशाली समझो व उन्हें जीवन में दुआ के रूप में स्वीकार करो। दुष्ट लोगों से घृणा मत करो, क्योंकि वे अपना अमूल्य समय नष्ट कर, आपको सचेत कर अपने दायित्व का निर्वहन करते हैं, ताकि आपका जीवन सुचारु रुप से चल सके। यदि कोई आप से उम्मीद करता है, तो यह उसकी मजबूरी नहीं…आप के साथ लगाव व विश्वास है। अच्छे लोग स्नेह-वश आप से संबंध बनाने में विश्वास रखते हैं … इसमें उनका स्वार्थ व विवशता नहीं होती। इसलिए अहं रूपी चश्मे को उतार कर जहान को देखिए…सब अच्छा ही अच्छा नज़र आएगा, जो आपके लिए शुभ व मंगलमय होगा, क्योंकि दुआओं में दवाओं से अधिक प्रभाव- क्षमता होती है। सो! ‘किसी पर विश्वास इतना करो, कि वह तुमसे छल करते हुए भी खुद को दोषी समझे और प्रेम इतना करो कि उसके मन में तुम्हें खोने का डर हमेशा बना रहे।’ यह है, प्रेम की पराकाष्ठा व समर्पण का सर्वोत्तम रूप, जिसमें विश्वास की महत्ता को दर्शाते हुए, उसे मुख्य उपादान स्वीकारा गया है।

अच्छे लोगों की पहचान बुरे वक्त में होती है, क्योंकि वक्त हमें आईना दिखलाता है और हक़ीक़त बयान करता हैं। हम सदैव अपनों पर विश्वास करते हैं तथा उनके साथ रहना पसंद करते हैं। परंतु जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो बड़ी तकलीफ़ होती है। परंतु उससे भी अधिक पीड़ा तब होती है, जब कोई अपना पास रहकर भी दूरियां बना लेता है… यही है आधुनिक मानव की त्रासदी। इस स्थिति में वह भीड़ में भी स्वयं को अकेला अनुभव करता है और एक छत के नीचे रहते हुए भी उसे अजनबीपन का अहसास होता है। पति-पत्नी और बच्चे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं और नितांत अकेलापन अनुभव करते-करते टूट जाते हैं। परंतु आजकल हर इंसान इस असामान्य स्थिति में रहने को विवश है, जिसका परिणाम हम वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या के रूप में स्पष्ट देख रहे हैं। पति-पत्नी में अलगाव की परिणति तलाक़ के रूप में पनप रही है, जो बच्चों के जीवन को नरक बना देती है। हर इंसान अपने-अपने द्वीप में क़ैद है। परंतु फिर भी वह धन-संपदा व पद-प्रतिष्ठा के उन्माद में पागल अथवा अत्यंत प्रसन्न है, क्योंकि वह उसके अहं की पुष्टि करता है।

अतिव्यस्तता के कारण वह सोच भी नहीं पाता कि उसके कदम गलत दिशा की ओर अग्रसर हैं। उसे भौतिक सुख-सुविधाओं से असीम आनंद की प्राप्ति होती है। इन परिस्थितियों ने उसे जीवन क्षणभंगुर नहीं लगता, बल्कि माया के कारण सत्य भासता है और वह मृगतृष्णा में उलझा रहता है। और… और …और अर्थात् अधिक पाने के लोभ में वह अपना हीरे-सा अनमोल जीवन नष्ट कर देता है, परंतु वह सृष्टि-नियंता को आजीवन स्मरण नहीं करता, जिसने उसे जन्म दिया है। वह जप-तप व साधना में विश्वास नहीं करता… दूसरे शब्दों में वह ईश्वर की सत्ता को नकार, स्वयं को भाग्य-विधाता समझने लग जाता है।

वास्तव में जो मस्त है, उसके पास सर्वस्व है अर्थात् जो व्यक्ति अपने ‘अहं’ अथवा ‘मैं ‘ को मार लेता है और स्वयं को परम-सत्ता के सम्मुख समर्पित कर देता है…वह जीते-जी मुक्ति प्राप्त कर लेता है। दूसरे शब्दों में ‘सबके प्रति सम भाव रखना व सर्वस्व समर्पण कर देना साधना है; सच्ची तपस्या है…यही मानव जीवन का लक्ष्य है।’ इस स्थिति में उसे केवल ‘तू ही तू’ नज़र आता है और मैं का अस्तित्व शेष नहीं रहता। यही है तादात्मय व निरहंकार की मन:स्थिति …जिसमें स्व-पर व राग- द्वेष की भावना का लोप हो जाता है। इसके साथ ही धन को हाथ का मैल कहा गया है, जिसका त्याग कर देना ही श्रेयस्कर है।

जहां साधन के प्रति आकर्षण रहता है, वहां साधना  दस्तक देने का साहस नहीं जुटा पाती। वास्तव में धन-संपदा हमें गलत दिशा की ओर ले जाती है…जो सभी बुराइयों की जड़ है और साधना हमें कैवल्य की स्थिति तक पहुंचाने का सहज मार्ग है, जहां मैं और तुम का भाव शेष नहीं रहता। अलौकिक आनंद की मनोदशा में, कानों में अनहद-नाद के स्वर सुनाई पड़ते हैं, जिसे सुन कर मानव अपनी सुध-बुध खो बैठता है और इस क़दर तल्लीन हो जाता है कि उसे सृष्टि के कण-कण में परमात्मा की सूरत नज़र आने लगती है। ऐसी स्थिति में लोग आप को अहंनिष्ठ समझ, आपसे खफ़ा रहने लगते हैं और व्यर्थ के इल्ज़ाम लगाने लगते हैं। परंतु इससे आपको हताश-निराश नहीं, बल्कि आश्वस्त होना चाहिए कि आप ठीक दिशा की ओर अग्रसर हैं; सही कार्यों को अंजाम दे रहे हैं। इसलिए साधना को जीवन में उत्कृष्ट स्थान देना चाहिए, क्योंकि यही वह सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम मार्ग है, जो आपको मोक्ष के द्वार तक ले जाता है।

सो! साधनों का त्याग कर, साधना को अपनाइए। जीवन में लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है… ‘जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकारिए और दूसरों को संतुष्ट करने के लिए जीवन में समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चलते रहिए’ विवेकानंद जी की यह उक्ति बहुत कारग़र है। समय, सत्ता, धन व शरीर  जीवन में हर समय काम नहीं आते, सहयोग नहीं देते… परंतु अच्छा स्वभाव, समझ, अध्यात्म व सच्ची भावना जीवन में सदा सहयोग देते हैं। सो! जीवन में तीन सूत्रों को जीवन में धारण कीजिए… शुक़्राना, मुस्कुराना व किसी का दिल न दु:खाना। हर वक्त ग़िले-शिक़वे करना ठीक नहीं… ‘कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्तियों को लहरों के सहारे/’ अर्थात् सहज भाव से जीवन जिएं, क्योंकि इज़्ज़त व तारीफ़ खरीदी नहीं जाती, कमाई जाती है। इसलिए प्रशंसा व निंदा में सम-भाव से रहने का संदेश दिया गया है। सो! प्रशंसा में गर्व मत करें व आलोचना में तनाव-ग्रस्त मत रहें… सदैव अच्छे कर्म करते रहें, क्योंकि ईश्वर की लाठी कभी आवाज़ नहीं करती। समय जब निर्णय करता है; ग़वाहों की दरक़ार नहीं होती। तुम्हारे कर्म ही तुम्हारा आईना होते हैं; जो तुम्हें हक़ीक़त से रू-ब-रू कराते हैं। इसलिए कभी भी किसी के प्रति ग़लत सोच मत रखिए, क्योंकि सकारात्मक सोच का परिणाम सदैव अच्छा ही होगा और प्राणी-मात्र के लिए मंगलमय होगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 34 ☆ महिला-पुरुष समानता का आलोक ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “महिला-पुरुष समानता का आलोक”.)

☆ किसलय की कलम से # 34 ☆

☆ महिला-पुरुष समानता का आलोक ☆

भारतीय जनमानस में परपराएँ एवं रीति-रिवाज अव्यवस्थाओं के नियंत्रण हेतु ही बनाई गई हैं। समाज में इनकी अनदेखी करना असामाजिक कृत्य समझा जाता है। प्राचीन काल से वर्तमान तक देखने में आया है कि तात्कालिक सामाजिक व्यवस्थाओं को ध्यान में रखकर ही परम्पराएँ बनाई गई हैं और समय-समय पर उनमें बदलाव भी होते आए हैं। इसका कारण बदलता सामाजिक ढाँचा तथा बदलती परिस्थितियाँ ही रही हैं।

आवश्यकतानुसार जिस तरह महिलाएँ घर और घूँघट से बाहर आई हैं । जातिबंधन शिथिल हुए हैं, बढ़ती शैक्षिक योग्यता से छोटे और बड़े की खाई पटती जा रही है। धर्म-कर्म की मान्यताएँ बदल रही हैं। लोक-परलोक का भय कम होता जा रहा है । इन सब को देखते हुए एवं पौराणिक खोजबीन के पश्चात ऐसे अनेक कारणों एवं प्रतिबंधों के मूल तक पहुँचने में हमने सफलता पाई है।

यही कारण है कि अब वर्तमान में अनेक अवांछित बंदिशें कमजोर पड़ती जा रही हैं। हम रिश्ते-नातों की बात करें, पति-पत्नी की बात करें, परिवार और समाज की बात करें। अब वह पुराना माहौल कम ही दिखता है। अब कमजोर पक्ष सुदृढ़ हो चुका है। समाज में स्त्री पुरुष के समान अधिकारों से वाकई क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है। आज ढोंग, दकियानूसी एवं अंधविश्वास जैसी बातों पर विराम लगता जा रहा है। आज केवल उन्हीं परम्पराओं का निर्वहन किया जा रहा है, जो यथार्थ में समाज के लिए उपयोगी हैं।

आज हम देखते हैं कि महिलाएँ वे सारे कार्य सम्पन्न कर रही हैं जिन्हें पहले पुरुष वर्ग किया करता था। यह बताने की कोई आवश्यकता नहीं है कि चूल्हा-चौका से लेकर अंतरिक्ष तक महिलाएँ कहीं पीछे नहीं हैं। तकनीकि, विज्ञान, राजनीति, उद्योग, समाजसेवा एवं खेलकूद में भी महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व देखा जा सकता है।

अब यह स्थिति है कि प्राचीन अनुपयुक्त परपराओं एवं रीति रिवाजों के अनुगामी स्वयं पिछड़ों की श्रेणी में गिने जाने लगे हैं। यह बात इंसानों को काफी देर से समझ में आई कि जब भगवान ने स्त्री-पुरुष में अंतर नहीं किया तो हम अंतर क्यों करें? जब हमने इस अंतर को पाटना प्रारंभ कर ही दिया है तो कुछेक विरोधी स्वर उठेंगे ही। यह भी एक सामाजिक प्रवृत्ति है कि प्रत्येक अच्छे कार्य का विरोध लोग अपनी अपनी तरह से शुरू कर ही देते हैं, लेकिन समय का बहाव विरोध को आखिर बहाकर ले ही जाता है, यह बात भी सच है।

समाज में तानाशाही भला कैसे चल सकती है। यहाँ एक अकेला नहीं पूरा का पूरा इन्सानी समूह है जिसमें सर्वसम्मति या बहुमत की मान्यता है। झुके हुए पलड़े का वजन भारी होता है और भारी का वर्चस्व ही होता है। इसलिए आज नहीं तो कल हमें इस बहाव के साथ बहना ही होता है। पहले महिलाओं पर प्रतिबंध कुछ ज्यादा ही हुआ करते थे और वे इन प्रतिबंधों के चलते घर तक ही सीमित रहती थीं, लेकिन आज आप हम बदलते परिवेश के स्वयं साक्षी हैं। आज जब एक लड़की अपने पिता की अर्थी को कंधा दे सकती है। अंतिम संस्कार कर सकती है। सैनिक, पायलट, ड्राइवर, उद्योग-धंधे एवं व्यवसाय कर सकती है। राजनीति के शिखर पर पहुँच सकती है, तब ऐसा कौन सा कार्य है जिसकी जिम्मेदारी से महिला कताराये या संकोच करे।

जब हमारे इसी समाज ने उसे उपरोक्त अनुमति दी है तब कुछ कुतार्किक परपराओं, रीति-रिवाजों से दूर रखकर क्या हम उन्हें इन सारी सहूलियतों और लाभों से वंचित तो नहीं कर रहे हैं, जो पुरुष वर्ग को प्राप्त हैं। पुरुष वर्ग को जिन कर्मों से पुण्य मिलता है, उसी कर्म से महिला वर्ग पाप की भागीदार कैसे हो सकता है? आप हम स्वयं सोचें एवं अपनी आत्मा से पूछें तब आपकी आत्मा स्वमेव महिलाओं का पक्ष लेगी।

वैसे तो भारतीय समाज में महिलाओं को लेकर अनेक मतभेद एवं विवाद होते रहे हैं। वर्षों पूर्व शनि शिंगणापुर में एक महिला द्वारा शनिदेव की पूजा करने और मूर्ति पर तेल चढ़ाने के मामले पर भी विवाद खड़ा हो गया था। तब वहाँ एक साथ दोनों पक्ष अपनी अपनी बात को उचित बतला रहे थे । एक ओर पुजारी, स्थानीय लोग एवं परम्परावादी प्राचीन प्रथा को आगे बढ़ाना चाहते थे, वहीं अंध श्रद्धा निर्मूलन समिति सहित दूसरे पक्ष ने शनिदेव की पूजा में महिलाओं को शामिल करना गलत नहीं माना था। तब उस विवाद का क्या परिणाम हुआ? भारतीय मानस पटल पर इसका क्या प्रभाव पड़ा या जीत किसकी हुई ? परपराओं की या बदलती परिस्थितियों की, इन बातों पर प्रबुद्धों द्वारा विशेष चिंतन किया जाना चाहिए।

मेरी मान्यता है कि आस्थावादी मानव चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष दोनों ही अपनी पूजा-भक्ति एवं किए गए कर्मों से पुण्य कमाकर तथाकथित बैकुंठ या स्वर्ग जाना चाहता है, फिर पूजन-अर्चन में प्रतिबंध या बंदिशें क्यों?

हमारे वेदों में कहा गया है कि जहाँ नारियों की पूजा होती है वहाँ देवताओं का वास होता है। अतः वर्तमान में भी जब महिलाएँ अंतरिक्ष तक जा रही हैं, तब इनको प्रात्साहित करना एक तरह से पुरुषवर्ग का दायित्व ही है। समाज बदल रहा है, यह सबको समझना होगा। आईये, हम महिला-पुरुष समानता का आलोक फैलाएँ और ईश्वर की प्रत्येक सन्तान हेतु पवित्र वातावरण बनाएँ।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 61 ☆ बाल साहित्य – दाँतों की आत्मकथा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक विचारणीय आलेख  “दाँतों की आत्मकथा.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 61 ☆

☆ बाल साहित्य – दाँतों की आत्मकथा ☆ 

मित्रो मैं दाँत हूँ, बल्कि आज मैं अपनी ही नहीं, बल्कि सभी बत्तीस साथियों की आत्मकथा इसलिए लिख रहा हूँ कि बच्चों से लेकर बड़े तक हमारे प्रति सचेत नहीं रहते। मुँह में साफ सुथरे सुंदर – सुंदर खिलखिलाते हम दाँत सभी को अच्छे लगते हैं। हम दाँतों की सुंदरता से ही चेहरे की आभा और कांति बढ़ जाती है। लोग बात करना और मिलना – जुलना भी पसंद करते हैं। प्रायः हम मनुष्य के मुख में बत्तीस होते हैं। सोलह ऊपर और सोलह नीचे के जबड़े में। हम दाँतों की सरंचना कैल्शियम के द्वारा ही हुई है, इसलिए जो बच्चे बचपन से ही साफ – सफाई और बिना नाक मुँह बनाएअर्थात मन से दूध , पनीर, दही आदि कैल्शियम वाली खाने- पीने की चीजें अपने भोजन में सम्मिलित करते हैं तथा खूब चबा- चबा कर भोजन आदि करते हैं तो हम जीवन भर उनका साथ निभाते हैं। क्योंकि ईश्वर ने बत्तीस दाँत इसलिए दिए हैं ताकि हम दाँतों से एक कौर को बत्तीस बार चबा चबा कर ही खाएँ, ऐसा करने से जीभ से निकलनेवाला अमृत तत्व लार भोजन में सुचारू से रूप से मिल जाता है और भोजन पचाने की प्रक्रिया आसान हो जाती है। हड्डियां मजबूत रहती हैं। हम दाँत भी हड्डी ही हैं।

हम  जब बच्चा एक वर्ष का लगभग हो जाता है तो हम आना शुरू हो जाते हैं। फिर धीरे-धीरे हम निकलते रहते हैं। बचपन में हमको दूध के दाँत कहते हैं। जब बच्चा छह वर्ष का लगभग हो जाता है तब हम दूध के दाँत धीरे – धीरे उखड़ने लगते हैं और हम नए रूप रँग में आने लग जाते हैं।

हम दाँत कई प्रकार के होते हैं। हमें अग्रचवर्णक, छेदक, भेदक, चवर्णक कहते हैं। अर्थात इनमें हमारे कुछ साथी काटकर खाने वाले खाद्य पदार्थ को काटने का काम करते हैं, कुछ चबाने का, कुछ पीसने आदि का काम करते हैं।

मुझे अपनी और साथियों की आत्मकथा इसलिए लिखनी पड़ रही है कि मनुष्य जाति बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक हमारे प्रति घोर लापरवाही बरतती है। और हमें बहुत सारी बीमारियाँ मुफ्त में दे देती है या हमारी असमय मृत्यु तक करा देती है। हमारे बीमार रहने या हमारी असमय मृत्यु होने से  बच्चा या बड़ा भी बहुत दुख और कष्ट उठाता है, डॉक्टर के पास भागता है। अपना कीमती समय और धन बर्बाद करता है। असहनीय दर्द से चिल्लाता है, दवाएँ खाता है।

एक हमारे जाननेवाले दादाजी हैं, जो बालकपन और किशोरावस्था में हम दाँतों के प्रति बहुत लापरवाह थे। जब उनकी युवावस्था आई तो वे कुछ सचेत हुए, लेकिन तब तक बहुत देर हो गई थी, वे इस बीच हम दाँतों के कारण बहुत पीड़ाएँ झेलते रहे। और इस बीच हमारे चार साथियों में असहनीय दर्द होने के कारण मुँह से ही निकलवाना पड़ा अर्थात हमारे चार साथियों की मृत्यु हो गई। फिर तो वे कष्ट पर कष्ट उठाते रहे। चार साथी खोने से हम भी असंतुलित हो गए और हमारे घिसने की रफ्तार भी बढ़ती गई। जब दादा जी की उम्र पचास रही होगी, तब तक हम बहुत घिस गए थे, उन्हें भोजन चबाने में बहुत दिक्कत होती गई और दादाजी को हमारे कुछ साथियों में आरसीटी करवाकर अर्थात हम दाँतों की नसों का इलाज कराकर कई कैप लगवाईं। फिर भी आए दिन ही दादाजी को बहुत कष्ट झेलना पड़ा। क्योंकि यह सब तो कामचलाऊ दिखावटी ही था। प्राकृतिक दाँतों अर्थात ईश्वर के दिए हुए हम दाँतों की बात कुछ और ही होती है। अर्थात मजबूत होते हैं। दादाजी ने कहा कि मनुष्य जाति को बताओ कि उसे बचपन से बड़े होने तक किस तरह हम दाँतों की देखभाल और साफ सफाई रखनी चाहिए।

दादाजी अब हमारी बहुत देखभाल करते हैं। दादाजी ने हमारे जीवन के ऊपर बहुत सुंदर कविता भी लिखी है। जो भी पढ़ेगा वह खुश हो जाएगा———– क्योंकि उनके मन की शुभ इच्छा है कि जो दाँतों की पीड़ा उन्हें हुई है, साथ ही समय और जो धन नष्ट हुआ है, वह उनकी आनेवाली पीढ़ी को बिल्कुल न हो।

बाल कविता – ” मोती जैसे दाँत चमकते “

हमको पाठ पढ़ाया करते

प्यारे अपने टीचर जी

दाँतों की नित रखें सफाई

कहते हमसे टीचर जी।।

 

दाँत हमारे यदि ना होते

हो जाता मुश्किल भी खाना

स्वाद दाँत के कारण लेते

इनको बच्चो सभी बचाना।।

 

जब- जब खाओ कुल्ला करना

नहीं भूल प्रिय बच्चो जाना

रात को सोना मंजन करके

भोर जगे भी यह अपनाना।।

 

चार तरह के दाँत हमारे

प्यारे बच्चो हैं होते

कुछ को हम छेदक हैं कहते

कुछ अपने भेदक होते।।

 

कुछ होते हैं अग्र चवर्णक

कुछ अपने भोजन को पीसें

खूब चबाकर भोजन खाएँ

कभी नहीं उस पर हम खीजें।।

 

सोलह ऊपर, सोलह नीचे

दाँत हमारे बच्चो होते

करें सफाई, दाँत- जीभ की

दर्द के कारण हम न रोते।।

 

मोती जैसे दाँत चमकते

जो उनकी रक्षा करते हैं

प्यारे वे सबके बन जाते

जीवन भर ही वे हँसते हैं।।

 

तन को स्वस्थ बनाना है तो

साफ – सफाई नित ही रखना,

योग, सैर भी अपनाना तुम

अपनी मंजिल चढ़ते रहना।।

दादाजी ने अपनी कविता में बहुत सुंदर ढंग से समझाने का प्रयास किया है, लेकिन हम दाँत आपको पुनः सचेत कर रहे हैं तथा हमारी बातों को सभी बच्चे और बड़े ध्यान से सुन लेना कि जो कष्ट और पीड़ा दादाजी ने उठाई है वह आपको न उठानी पड़े। समय और धन की बचत हो, डॉक्टर के की क्लिनिक के चक्कर न लगाने पड़ें, इसलिए हमें स्वस्थ रखने के लिए नित्य ही वह कर लेना जो मैं दाँत आपसे कह रहा हूँ —-

बच्चे और बड़े सभी लोग अधिक ठंडा और अधिक गर्म कभी नहीं खाना। न ही अधिक ठंडे के ऊपर अधिक गर्म खाना और न ही गर्म के बाद ठंडा। ऐसा करने से हम दाँत बहुत जल्दी कमजोर पड़ जाते हैं। साथ ही पाचनतंत्र भी बिगड़ जाता है। भोजन के बाद ठंडा पानी कभी न पीना । अगर पीना ही पड़ जाए तो थोड़ा निबाया अर्थात हल्का गर्म ही पीना। जो लोग भोजन के तुरंत बाद ठंडा पानी पीते हैं उनका भी पाचनतंत्र बिगड़ जाता है। पान, तम्बाकू, गुटका खाने वाले तथा रात्रि के समय टॉफी, चॉकलेट या चीनी से बनी मिठाई खानेवाले भी सावधान हो जाना। अर्थात खाते हो तो जल्दी छोड़ देना, नहीं तो हम दाँतों की बीमारियों के साथ ही अन्य भयंकर बीमारियों को भी जीवन में झेलना पड़ेगा।

भोजन के बाद और कुछ भी खाने के बाद कुल्ला अवश्य करना। रात्रि को सोने से पहले मंजन या टूथपेस्ट से ब्रश करके अवश्य सोना। अच्छा तो यह रहेगा कि साथ में गर्म पानी में सेंधा नमक डालकर कुल्ला और गरारे भी कर लेना। ऐसा करने से हम भी जीवन भर  स्वस्थ और मस्त रहेंगे और हमारे स्वस्थ रहने से आप भी। साथ में हमारी जीवनसंगिनी जीभ की भी जिव्ही से धीरे-धीरे सफाई अवश्य कर लेना। क्योंकि बहुत सारा मैल भोजन करने के बाद जीभ पर भी लगा रह जाता है। जब ब्रश करना तो आराम से ही करना, जल्दबाजी कभी न करना। दोस्तो जल्दबाजी करना शैतान काम होता है। सुबह जगकर दो तीन गिलास हल्का गर्म पानी बिना ब्रश किए ही पी लेना। ऐसा करने से आपको जीवन में कभी कब्ज नहीं होगा। शौचक्रिया ठीक से सम्पन्न हो जाएगी। बाद में ब्रश या मंजन कर लेना या गर्म पानी में सेंधा नमक डालकर कुल्ला और गरारे कर लेना। थोड़ा मसूड़ों की मालिश भी कर लेना। ये सब करने हम हमेशा स्वस्थ और सुंदर बने रहेंगे तथा जीवनपर्यन्त आपका साथ निभाते रहेंगे। नींद भी अच्छी आएगी । जो लोग हमारा ठीक से ध्यान और सफाई आदि नहीं करते हैं उनके दाँतों में कीड़े लग जाते हैं, अर्थात कैविटी बन जाती है या पायरिया आदि भयंकर बीमारियाँ हो जाती हैं।

दोस्तो आपने अर्थात सभी बच्चे और बड़ों ने हम दाँतों का कहना मान लिया तो जान लीजिए कि आप हमेशा तरोताजा और मुस्कारते रहेंगे। हर कार्य में मन लगेगा। पूरा जीवन मस्ती से व्यतीत होता जाएगा।

मैं दाँत आत्मकथा समाप्त करते- करते एक संदेश और दे रहा हूँ कि अपने डॉक्टर खुद ही बनना और ये भी सदा याद रखना—-

 “जो भी करते अपने प्रति आलस, लापरवाही।

उनको जीवन में आतीं दुश्वारी और बीमारीं।।”

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 84 ☆ गाली के विरुद्ध ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 84 ☆ गाली के विरुद्ध ☆

रात चढ़ रही है। एक मकान में घनघोर कलह जारी है। सास-बहू के ऊँचे कर्कश स्वर गूँज रहे हैं, साथ ही किसी जंगली पशु की तरह पुरुष स्वर की गुर्राहट कान के पर्दे से बार-बार टकरा रही है। अनुमान लगाता हूँ कि घर के बच्चे किसी कोने में सुन्न खड़े होंगे। संभव है कि डर से रो रहे हों जिनकी आवाज़ कर्कश स्वरों का मुकाबला नहीं कर पा रही हो। बच्चों की मनोदशा और उनके मन पर अंकित होते प्रभाव को नज़रअंदाज़ कर असभ्यता का तांडव जारी है।

‘थिअरी ऑफ इवोल्युशन’ या क्रमिक विकास का सिद्धांत आदमी के सभ्य और सुसंस्कृत होने की यात्रा को परिभाषित करता है। यह केवल एक कोशिकीय से बहु कोशिकीय होने की यात्रा भर नहीं है। संरचना के संदर्भ में विज्ञान की दृष्टि से यह सरल से जटिल की यात्रा भी है। ज्ञान या अनुभूति की दृष्टि से देखें तो संवेदना के स्तर पर यह नादानी से परिपक्वता की यात्रा है। विकास गलत सिद्ध हुआ है या उसे पुनर्परिभाषित करना है, इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है।

लेकिन यहाँ चीखने-चिल्लाने के अस्पष्ट शब्दों में सबसे ज़्यादा स्पष्ट हैं पुरुष द्वारा बेतहाशा दी जा रही वीभत्स गालियाँ। माँ, पत्नी, बेटी की उपस्थिति में गालियों की बरसात। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह बरसात निम्न से लेकर उच्चवर्ग तक अधिकांश घरों में परंपरा बन चुकी है।

क्रोध के पारावार में दी जा रही गाली के अर्थ पर गाली देनेवाले के स्तर पर विचार न किया जाए, यह तो समझा जा सकता है। उससे अधिक यह समझने की आवश्यकता है कि घट चुकने के बाद भी उसी घटना की बार-बार, अनेक बार पुनरावृत्ति करनेवाले का बौद्धिक स्तर इतना होता ही नहीं कि वह विचार के उस स्तर तक पहुँचे।

वस्तुतः क्रोध में पगलाते, बौराते लोग मुझे कभी क्रोध नहीं दिलाते। ये सब मुझे मनोरोगी लगते हैं, दया के पात्र। बीमार, जिनका खुद पर नियंत्रण नहीं होता।

अलबत्ता गाली को परंपरा बनानेवालों के खिलाफ ‘मी टू’ की तरह एक अभियान चलाने की आवश्यकता है। स्त्रियाँ (और पुरुष भी) सामने आएँ और कहें कि फलां रिश्तेदार ने, पति ने, अपवादस्वरूप बेटे ने भी गाली दी थी। अपने सार्वजनिक अपमान से इन गालीबाज पुरुषों को वही तिलमिलाहट हो सकती है जो अकेले में ही सही गाली की शिकार किसी महिला की होती होगी।

गाली शाब्दिक अश्लीलता है, गाली वाचा द्वारा किया गया यौन अत्याचार और लैंगिक अपमान है। सरकार ने जैसे ‘नो स्मोकिंग जोन’ कर दिये हैं, उसी तरह गालियों को घरों से बाहर करने, बाहर से भी सीमापार करने के लिए एक मुहिम की आवश्यकता है।

आइए, ‘नो एब्यूसिंग’ की शपथ लें। गाली न दें, गाली न सुनें। गाली का सम्पूर्ण निषेध करें। व्यक्तिगत स्तर पर # No Abusing आरंभ कर रहा हूँ। आप भी साथ दें, इस अभियान से जुड़ें।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ऊर्जा के मन्दिरों की घाटी ☆ श्री हेमचंद्र सकलानी

श्री हेमचंद्र सकलानी

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हेमचन्द्र सकलानी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप उत्तराखंड जल विद्युत् निगम से सेवानिवृत्त हैं।  अभियांत्रिक पृष्ठभूमि के साथ साहित्य सृजन स्वयं में एक अभूतपूर्व उपलब्धि है। आपके साहित्य संसार की उपलब्धियों की कल्पना आपके निम्नलिखित संक्षिप्त परिचय से की जा सकती है।)

संक्षिप्त परिचय 

शिक्षा  – एम.ए.राजनीति विज्ञान और इतिहस।

प्रकाशन  – 1-विरासत को खोजते हुए (उत्तराखंड के यात्रा वृतांत) 2- शब्दों के पंछी (कविता संग्रह) 3- इस सिलसिले में (कहानी संग्रह) 4- विरासत को खोजते हुए (यात्रा वृतांत -भाग – 2) 5- एक युद्ध  अपनों से (कहानी संग्रह) 6- विरासत को खोजते हुए – (भाग -3) 7- उत्तराखंड की जल धाराएं और उनके तट पर ऊर्जा के मन्दिर 8- डूबती टिहरी की आखरी कविताएं (कविता संग्रह का संपादन) 9- अंतर्मन की अनुभूतियां (कहानी संग्रह) 10-विरासत की यात्राएं ( यात्रा वृतांत भाग -४)  11- दुनिया घूमते हुए ( विदेशों के यात्रा संस्मरण, यात्रा वृतांत भाग 5) 12- विरासत की यात्राएं (देश के यात्रा वृतांत भाग 6) इसके अतिरिक्त 1- उत्तराखंड महोत्सव की.

पुरस्कार / सम्मान – देश भर की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा हिमालय गौरव, उत्तराखंड रत्न, भारतेन्दु साहित्य शिरोमणि, हिंदी गौरव सम्मान, यात्रा साहित्य पर भारत सरकार से प्रथम पुरस्कार, मुंबई कहानी प्रतियोगिता में प्रथम स्थान सहित 94 सम्मान प्राप्त। देश भक्ति के गीतों की सीडी “देश को समर्पित वंदना के स्वर” जारी जिसको अपने मधुर स्वरों से सजाया “सारेगामापा” की 2019 की विजेता ईशिता विश्वकर्मा और साथियों ने। 2002, 2004, 2008, 2012, 2014 का तथा पावर जूनियर इंजीनियर एसोशिएसन की वर्ष 2008, 2010, 2012 की स्मारिकाओं का संपादन।

(आज प्रस्तुत है उत्तराखंड की जलधाराओं के तट पर ऊर्जा के मंदिर की गाथा – ऊर्जा के मन्दिरों की घाटी )

 ☆ आलेख ☆ ऊर्जा के मन्दिरों की घाटी ☆ श्री हेमचंद्र सकलानी ☆ 

उत्तरकाशी देश का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल, पर्यटक स्थल, अपनी प्राकृति सुन्दरता के कारण तो जाना ही जाता है, साथ ही अनेक पवित्र नदियों, जैसे गंगा, जाड़गंगा, यमुना, तमसा, केदार गंगा जैसी नदियों का उदगम स्थल भी है। यह जलधारांए अपने अन्दर अनेक पैराणिक कथांए समेटे हैं। जिससे प्राचीन काल से ही ये हमारी असीम आस्था, श्रद्धा का पात्र बनी हुई हैं। उत्तरकाशी की हिमच्छादित पर्वत श्रंखला भागीरथी शिखर से यदि गंगा प्रवाहित होती है। तो गंगोत्री ग्लेशियर के दूसरे छोर बंदरपुंछ अर्थात कालिन्दी शिखर से यमुना उदगमित होती है। पुराणों में यमुना को कालिन्दी के साथ एक हजार नामों से सुशोभित किया गया है। इसी से इस पवित्र नदी का महत्व पता चलता है।

दूसरी ओर हर की दून नामक स्थान से नीचे उतरने पर सांकरी नामक स्थान के पास सुपिन नदी तथा सियान गाड़ नामक जलधाराएं मिलकर तमसा नदी का निर्माण करती हैं। नैटवार, नालगल घाटी, सिंगला घाटी की जलधाराएं रूपिन नदी का रूप लेकर तमसा से मिलती हैं। गलामुंड, कुलनी से आकर कुछ जलधाराएं मोरी के पास तथा जरमोला, पुरोला से, चिरधार से आ रही जलधाराएं  पब्बर नदी, मीनस नदी और दिबन खैरा की दो जलधाराएं अपनी जलराशि से तमसा को समद्ध करती हैं।

आगे चलकर तमसा और यमुना, प्रसिद्ध यमुना घाटी का निर्माण करती हैं। यह जल धाराएं अनेक पौराणिक कथाओं के साथ अपने अन्दर असीम विद्युत शक्ति का भण्डार तथा सिंचाई की क्षमता समेटे हुये हैं। यमुना अपनी सहायक तमसा नदी के साथ उत्तरी क्षेत्र की सर्वाधिक विद्युुत उत्पादन क्षमताओं वाली नदियों में से एक है। इनकी अनुमानित विद्युत क्षमता 1960-70 के दशक में लगभग 55 लाख किलोवाट आंकी गयी थी, तथा इसमें लगभग 3 लाख हैक्टेयर भूमि सिंचाई के लिये 19,000 लाख घनमीटर अतिरिक्त जल प्रदान करने की भी क्षमता है। स्वतन्त्रता के बाद तमसा, यमुना के तट पर कुछ ऊर्जा के मन्दिरों का निर्माण कर इनकी जलशक्ति का उपयोग कर जनजीवन के उपयोग हेतु सिंचाई जल तथा विद्युत शक्ति उत्पन्न करना लक्ष्य रखा गया। जिनमें कुछ एक उददेशीय  परियोजनाए थी तो कुछ बहुउददेशीय परियोजनाए थी। एक उददेशीय परियोजना का लक्ष्य विद्युत उत्पादन था तो बहुउददेशीय परियोजना का विद्युत के साथ सिंचाई के लिए जल उपलब्ध कराने के साथ बाढ़ से होने वाली जन-धन हानि से सुरक्षा प्रदान करना था।

यमुना जल विद्युत परियोजना के प्रथम चरण में देहरादून से 50 कि0मी0 दूर डाकपत्थर में एक बांध बनाया गया । सन 1949 में प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने इस बांध की आधारशिला रखी थी। इस बांध से शक्ति नहर निकाल कर 9 कि0मी0 दूर ढकरानी नामक गांव के समीप ढकरानी पावर हाउस से (11.25MW x 3) अर्थात 33.75 मेगावाट तथा ढालीपुर गांव के समीप ढालीपुर जल विद्युत परियोजना से  (17 MW x 3) अर्थात 51 मेगावाट की परियोजनाओं से नवम्बर-दिसम्बर 1965 में  विद्युत उत्पादन प्राप्त होने लगा था।

यमुना जल विद्युत परियोजना के द्वितीय चरण में डाकपत्थर से 40 कि0मी0 दूर इच्छाड़ी नामक गांव के समीप तमसा नदी पर एक बांध बनाया गया । जहां पर एशिया का उच्चतम टेंटर गेट  16.5 मीटर ऊंचाई के हैं। इस बांध की जलराशी को 7 मीटर व्यास की 6.174 कि0मी0 लम्बी भूमिगत सुरंग (पहाडों के अन्दर) को छिबरो गांव के समीप सर्ज टैंक से जोड़ा गया। यह सर्ज टैंक 20 मीटर व्यास का तथा 92 मीटर ऊंचाई का है। इस परियोजना में विश्व में अपने ढंग की सर्व प्रथम सैन्डीमेन्टेशन तथा इनटेक प्रणाली अपनायी गयी है। छिबरो गांव में तमसा के समीप पर्वत के गर्भ में 113 मीटर लम्बे, 18.2 मीटर चौड़े, 32 मीटर व्यास के भू गर्भित जल विद्युत गह, जिसमें चार 60 मेगावाट, की टरबाईनों वाला 240 मेगावाट का विद्युत गह निर्मित हुआ। वर्ष 1974-75 में इस विद्युत गह से विद्युत उत्पादन प्राप्त होने लगा।

छिबरो पावर हाउस के उपरान्त तमसा नदी के पानी के उपयोग के लिए यमुना जल विद्युत परियोजना के द्वितीय चरण में हिमाचल प्रदेश के खोदरी नामक गांव मे, डाकपत्थर के समीप खोदरी जल विद्युत गह का निर्माण हुआ। वर्ष 1984 से जिसकी 4 टरबाईनों से (30MW x 4) अर्थात 120 मेगावाट विद्युत का उत्पादन प्राप्त हुआ। इन दोनों विद्युत गृह के मध्य विश्व में सर्वप्रथम टैण्डम प्रणाली अपनायी गयी। छिबरो पावर हाउस से खोदरी पावर हाउस तक विश्व की प्रथम ”एक्टिव इन्ट्रा थ्रस्ट” क्षेत्रों से गुजरने वाली 5.9 कि0मी0 लम्बी भूमिगत सुरंग बनायी गयी। खोदरी पावर हाउस का सर्ज टैंक 21 मीटर व्यास तथा 57.5 मीटर ऊंचाई का है। उपर्युक्त दोनों परियोजनाओं में तमसा की जलराशी का उपयोग हुआ। डाकपत्थर बांध में यमुना-तमसा आपस में मिल जाती हैं। यमुना की यह सहायक नदी तमसा लगभग 4900 वर्ग कि0मी0 के विशाल जल ग्रहण क्षेत्र से निरन्तर प्रवाह हेतु जल ग्रहण करती हुई, संकीर्ण घाटी से प्रवाहित होती है। जिस कारण इसमें सिंचाई तथा विद्युत उत्पादन के लिए पर्याप्त डिस्चार्ज तथा उचित हैड मिल जाता है। इच्छाड़ी बांध तथा छिबरो पावर हाउस के निर्माण की परिकल्पना तो स्वतन्त्रता से पूर्व कर ली गई थी। परन्तु इस परियोजना पर अमल सन 1966 से प्रारम्भ हुआ।

यमुना जल विद्युत परियोजना के चौथे चरण में शक्ति नहर से प्रवाहित होने वाली जलराशी के उपयोग के लिए कुल्हाल नामक गांव के समीप ढालीपुर से 5 किलोमीटर दूर कुल्हाल विद्युत गह का निर्माण हुआ जिसकी 10 मेगावाट की 3 टरबाईनों से सन 1975में 30 मेगावाट विद्युत उत्पादन प्राप्त होने लगा। यहां से निकली जलराशी का उपयोग बादशाही बाग नामक स्थान पर खारा जलविधुत परियोजना का निर्माण कर किया गया। सन 1986 में इस परियोजना से 78.75 मेगावाट विद्युत उत्पादन प्राप्त होने लगा।

इनके अतिरिक्त तमसा-यमुना की घाटी में कुछ ऐसी परियोजनाएं हैं जो अपने निर्माण की प्रतीक्षा में हैं। इनमे से यमुना जलविधुत परियोजना के ततीय चरण में जौनसार के किशाऊ नामक गांव के समीप तमसा पर बांध बनाकर 750 मेगावाट (बाद में इसे 600 मेगावाट) की जल विद्युत परियोजना प्रस्तावित है। ऐसे ही यमुना नदी पर लखवाड़ गांव के समीप एक बांध बनाया जाना है, तथा एक भूगर्भित विद्युत गृह बनाया जाना है, जिससे 300 मेगावाट विद्युत उत्पादन प्राप्त होगा। इसी जलराशी का उपयोग कर व्यासी गांव के समीप व्यासी बांध तथा यमुना पर 120 मेगावाट का विद्युत गृह बनाया जाना है। तथा हत्यारी गांव के समीप 19 मेगावाट की क्षमता का विद्युत गृह भी प्रस्तावित है।

यदि सभी परियोजनाएं पूरी होकर आस्तित्व मे आ जायें तो यमुना घाटी में तमसा यमुना की जलराशी से 1723.750 मेगावाट विद्युत का उत्पादन उत्तराखण्ड को प्राप्त होगा। जो सम्पूर्ण उत्तराखण्ड की ही नही देश के, अनेक स्थानों की सुखः समृद्धि में अहम भूमिका निभायेगा। यद्यिपि अभी मात्र 553.500 मेगावाट विद्युत उत्पादन ही प्राप्त हो पा रहा है। इनके अतिरिक्त भी कई दशक पूर्व यमुना घाटी की तमसा यमुना पर कई जल विद्युत् परियोजनाओं के लिए सर्वेक्षण हुए, तथा निर्माण हेतु प्रास्तावित हुई जिनके नाम निम्न प्रकार हैं तालुका सांकरी हाइड्रोस्कीम 60 मेगावाट, जखोल सांकरी 60 मेगावाट, सिडरी डियोरा 80 मेगावाट, डिपरोमोरी 34 मेगावाट, छाताडैम 225 मेंगावाट, आराकोट त्यूणी 62 मेगावाट, त्यूणी प्लासू 50 मेगावाट, हनोल न्यूणी 26 मेगावाट। बाद मे किशाऊ बांध जल विधुत परियोजना की विद्युत क्षमता 750 मेगावाट से घटाकर 600 मेगावाट कर दी गई। ये सारी परियोजनाएं तमसा पर निर्मित होनी थीं जबकि यमुना पर हनुमानचटटी 33 मेगावाट, सियानचटटी 46 मेगावाट, बड़कोट कुआ 25 मेगावाट, कुआ डामटा 126 मेगावाट की परियोजनाए थीं। इस पर भी ऊर्जा के मन्दिरों, छिबरो, खोदरी, ढकरानी, ढालीपूर, कुल्हाल, ने तमसा यमुना धाटी को अपने विद्युत् रूपी आशीर्वाद से जगमग तो किया ही है साथ ही उन्नति, विकास, समद्वि से भरपूर भी किया। आज जो विकास तमसा-यमुना घाटी में हमें दिखाई पड़ता है उसमें निसंदेह तमसा-यमुना के ऊर्जा मन्दिरों के योगदान को कभी भुलाया नही जा सकेगा।

©  श्री हेमचन्द्र सकलानी 

संपर्क – सकलानी साहित्य सदन,विद्यापीठ मार्ग,विकासनगर देहरादून (उत्तराखंड)

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बिन इंटरनेट सब सून! ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक  विचारणीय आलेख  ‘बिन इंटरनेट सब सून!’। हम आपसे आपके अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

☆ आलेख ☆ बिन इंटरनेट सब सून! ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

तीन दिन इंटरनेट बंद क्या हुआ, सब कुछ फीका फीका सा लग रहा था। व्हाटसएप पर देश भर से जुड़ने वाले दोस्तों से मुलाकात ही नहीं हुई। बार बार चैक कर रहे हैं कि नेट आया कि नहीं।

सुबह सुबह मिलने वाले दोस्तों के गुड मॉर्निंग संदेश नहीं मिल रहे थे। जब मिलते थे तो कहते थे, इनकी रोज़ रोज़ क्या ज़रूरत है। सारी मेमोरी खा जाते हैं। ज़्यादातर वक्त तो फ़िज़ूल से लगने वाले मेसेज डिलीट करने में ही लग जाता था। नेटबंदी में नहीं आए तो इनका इंतजार सा हो रहा था। कुछ मित्र सुबह प्रेरक संदेश भेजते थे, वो भी नहीं मिले। एक मित्र रंग बिरंगे पक्षियों के चित्र भेज कर मन खुश कर देते थे। अब बस उनकी यादें हैं।

ज़िन्दगी की गति जैसे ढीली पड़ गई थी। हम अपने मनपसंद साइट टेड टाक्स से भी नहीं जुड़ सके। जो मेसेज आते हैं हम उनमें से कुछ सेव करके रख लेते हैं। उन्हे दोबारा पढ़ कर कुछ चैन मिला।

वक्त जैसे पांच साल पीछे चला गया था जब हमने स्मार्टफोन लिया था और इसके साथ ही हम वॉट्सएप और फेसबुक से जुड़ गए थे।

इसी के सहारे हम एक ऐसे ग्रुप से जुड़ गए जहां सर्विस के दौरान साथ रहे मित्र फिर आन मिले थे अपनी वे कहानियां और किस्से लेकर जिन्हे हमने सर्विस कैरियर में भी नहीं सुना था। खूब जन्मदिन व शादी की साल गिरह मनाते थे। तीन दिन से कुछ नहीं मनाया था।

सर्विस वाले ही क्यूं, कुछ कॉलेज व यूनिवर्सिटी के दोस्त भी करीबन 50 साल बाद ढूंढ लिए थे हमने। हां एक स्कूल वाला दोस्त भी मिल गया 60 साल पुराना। लंबे समय से परिचित इन दोस्तों से असली पहचान तो अब हुई थी। उनकी विचारधारा और छुपे गुणों का पता तो अब चला। कई छुपे रुस्तम निकले तो कई बस फॉरवर्ड करने वाले ही थे। पर सभी प्यारे थे। मैं कुछ मित्रों से इतना प्रभावित हुआ कि मैंने उन पर लेख भी लिख दिए। स्मार्टफोन और इंटरनेट ने मेरे लेखन को बहुत तराशा है। मित्रों से मिली प्रशंसा उत्साहवर्धन करती है।

पांच साल पहले मैं साहित्यकारों के एक ग्रुप से जुड़ा। मैं शाम को सोने से पहले और सुबह उठते ही मैं साहित्यिक रचनाएं ही पढ़ता था।

अखबार तो बासी से लगने लगे थे। हर ताज़ा समाचार अलर्ट के साथ वॉट्सएप पर मिल जाता था।

इंटरनेट हमारे जीवन का अभिन्न अंग बनता जा रहा है। इसीलिए लगता है, बिन इंटरनेट सब सून। इंटरनेट अलग किस्म का जनसंचार, मास मीडिया, है। अखबार, रेडियो, टेलीविजन बहुत हद तक एक तरफ साधन है। आपको संदेश सुनाए, पढ़ाए, दिखाए जाते हैं। दर्शक, पाठक, श्रोता की कोई खास सुनवाई नहीं होती। इंटरनेट पर आप जो चाहें उसे गूगल से ढूंढ कर पा सकते हैं, अपनी पसंद के मुताबिक। जिससे चाहें उससे बात करें, या फिर ग्रुप छोड़ दें। पर यहां भी विवेक की ज़रूरत है, वर्ना लुभावने संदेश आपके मन मस्तिष्क को काबू कर लेंगे। आपकी पसंद नापसंद का पता लगा कर आपकी सोच और जेब दोनों खाली कर देंगे। आपकी स्वतंत्रता छीन लेंगे, आपको भीडतंत्र का हिस्सा बना देंगे, केवल नारे लगाने के लिए।

करीबन दस साल पहले जब अरब देशों में अरब बसंत नाम के आंदोलन चल रहे थे और सरकारों ने इंटरनेट की सुविधा बंद कर दी थी तो उस वक्त अमेरिका की तत्कालीन विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन का बयान आया था कि संपर्क करने का अधिकार संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में मूलाधिकार के रूप में शामिल किया जाना चाहिए। इंटरनेट किसी खास मुद्दे को लेकर समर्थकों के विशाल समुदाय खड़े कर सकता है। ये समुदाय किसी भी सरकार के लिए उसकी किसी नीति या उसके अस्तित्व तक पर सवाल खड़े कर सकता है।

टेक्नोलॉजी के विस्तार के साथ अब दुनिया की हर घटना की जानकारी लाइव सभी के पास पहुंच जाती है। भारत में लालकिले पर किसानों के एक गुट द्वारा उपद्रव हो या अमेरिका में ट्रंप समर्थकों द्वारा वहां की संसद में घुसकर तोड़फोड़, सबकुछ दुनिया भर में उसी समय पहुंच जाता है जिस समय यह घटित हो रहा होता है। इस स्थिति में आंदोलन और भी भड़क सकता है या फिर यहीं से इसका पतन भी शुरू हो सकता है।

प्रजातंत्र एक धीमी प्रक्रिया है। पूर्ण बहुमत की सरकार भी अपने चुनाव पूर्व घोषित कार्यक्रम को फिर से जनमत बनाए बिना लागू नहीं कर सकती। विपक्ष चाहे वह किसी भी दल का हो, वह सत्तारूढ़ दल के खिलाफ हर मुद्दे पर विरोध करता ही रहता है। प्रजातंत्र में यह नैतिक अभाव रहता ही है, विरोध केवल विरोध के लिए। अत: पूर्ण बहुमत के बावजूद सत्ता दल को विपक्ष को साथ लेकर चलना ही पड़ता है।

पिछली सदी में साम्यवादी व्यवस्था से दुनिया के अनेक देशों ने भारी तरक्की की पर मानवीय मूल्यों और स्वतंत्रता के मुद्दों की अनदेखी के कारण सोवियत संघ के विघटन के बाद आज दुनिया के लगभग दो तिहाई देशों में प्रजातंत्र व्यवस्था काम कर रही है हालांकि इसका स्वरूप एक समान नहीं है। पूंजीवादी व्यवस्था प्रजातांत्रिक व्यवस्था का अभिन्न अंग है। अमेरिका व यूरोपीय देशों ने इसी व्यवस्था के तहत तेज़ तरक्की की है। पर इस व्यवस्था का भी एक गंभीर दोष सामने आ रहा है। समाज की पूंजी कुछ एक अमीर घरानों के पास इकट्ठी हो रही है। अमीर अधिक अमीर होता जा रहा है और गरीब अधिक गरीब। लगता है दोनों ही व्यवस्थाएं फेल हो रही हैं और कोई नया विकल्प भी नहीं सूझ रहा। विभिन्न देशों में उभरे आंदोलन इसी विफलता की निशानी हैं।

नागरिक स्वतंत्रता भी बनी रहे और तेज तरक्की भी हो जिसके लाभ सभी तक समान रूप से पहुंच सकें, ऐसी व्यवस्था की ज़रूरत है पर यह कैसे संभव होगी यही लाख टके का सवाल है। मेरी निजी राय है कि अनेक अन्य देशों की तुलना में भारत कुल मिलाकर विकास और नागरिक आज़ादी की व्यवस्था का एक अच्छा उदाहरण है पर राजनैतिक दलों में पारस्परिक सद्भाव की कमी अक्सर खेल बिगाड़ देती है।

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 81 ☆ मोबाइल और ज़िन्दगी ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  स्त्री विमर्श मोबाइल और ज़िन्दगी।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 81 ☆

☆ मोबाइल और ज़िन्दगी ☆

ज़िन्दगी एक मोबाइल की भांति है, जिसमें अनचाही तस्वीरें, फाइलों व अनचाही स्मृतियों को डिलीट करने से उसकी गति-रफ़्तार तेज़ हो जाती है। भले ही मोबाइल ने हमें आत्मकेंद्रित बना दिया है; हम सब अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह गये हैं; खुद में सिमट कर रह गये हैं…संबंधों व सामाजिक सरोकारों से दूर…बहुत दूर, परंतु मोबाइल पर बात करते हुए हम विचित्र-सा सामीप्य अनुभव करते हैं।

आइए! हम मोबाइल व ज़िन्दगी की साम्यता पर चिंतन-मनन करने का प्रयास करें। सो! यदि ज़िन्दगी व ज़हन से भी मोबाइल की भांति, अनचाहे अनुभव व स्मृतियों को फ़लक से हटा दिया जाये, तो आप खुशी से ज़िन्दगी जी सकते हैं। वैसे ज़िन्दगी बहुत छोटी है तथा मानव जीवन क्षणभंगुर … जैसा हमारे वेद-शास्त्रों में उद्धृत है। कबीरदास जी ने भी—‘पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात/ देखत ही छिप जायेगा,ज्यों तारा प्रभात’ तथा ‘जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी/ फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तत् कह्यो ज्ञानी’…यह दोनों पद मानव जीवन की क्षणभंगुरता व नश्वरता का संदेश देते हैं। मानव जीवन बुलबुले व आकाश के चमकते तारे के समान है। जिस प्रकार पानी के बुलबुले का अस्तित्व पल-भर नष्ट हो जाता है और वह पुनः जल में विलीन हो जाता है; उसी प्रकार भोर होते तारे भी सूर्योदय होने पर अस्त हो जाते हैं। जल से भरा कुंभ टूटने पर उसका जल, बाहर के जल में समा जाता है, जिसमें वह कुंभ रखा होता है। सो! दोनों के जल में भेद करना संभव नहीं होता। यही है मानव जीवन की कहानी अर्थात् जिस शरीर पर मानव गर्व करता है; आत्मा के साथ छोड़ जाने पर वह उसी पल चेतनहीन हो जाता है, स्पंदनहीन हो जाता है, क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त समस्त जीव-जगत् मिथ्या होता है।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। परंतु बावरा मन इस तथ्य से अवगत नहीं होता कि प्रभु मानव को पल-भर में अर्श से फर्श पर गिरा सकते हैं, क्योंकि जब जीवन में अहं का पदार्पण होता है, तब हमें लगता है कि हमने कुछ विशिष्ट अथवा कुछ अलग किया है। यही ‘कुछ विशेष’ हमें ले डूबता है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब हम दूसरों की कही बातों व जुमलों पर विश्वास करने लगते हैं तथा उसकी गहराई तक नहीं जाना चाहते। वास्तव में ऐसे लोग हमारे शत्रु होते हैं, जो हमसे ईर्ष्या करते हैं। वे हमें उन्नति के पथ पर अग्रसर होते देख सहन नहीं कर पाते और तुरंत नीचे गिरा देते हैं। सो! उनसे दूर रहना ही बेहतर है, उपयोगी है, क़ारगर है।

परंतु हमें सम्मान तब मिलता है, जब दुनिया वालों को यह विश्वास हो जाता है कि आपने दूसरों से कुछ अलग व विशेष किया है, क्योंकि मानव के कर्म ही उसका आईना होते हैं। शायद! इसलिए ही इंसान के पहुंचने से पहले उसकी प्रतिष्ठा, कार्य-प्रणाली, सोच, व्यवहार व दृष्टिकोण वहां पहुंच जाते हैं। वे हमारे शुभ कर्म ही होते हैं, जो हमें सबका प्रिय बनाते हैं तथा विशिष्ट मान-सम्मान दिलाते हैं। सम्मान पाने की आवश्यक शर्त है— दूसरों की भावनाओं को अहमियत देना; उनके प्रति स्नेह, सौहार्द व विश्वास रखना, क्योंकि इस संसार में– जो आप दूसरों को देते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है…वह आस्था, श्रद्धा हो या आलोचना; प्रशंसा हो या निंदा; अच्छाई हो या बुराई। सो! महात्मा बुद्ध का यह संदेश मुझे सार्थक प्रतीत होता है कि ‘आप दूसरों से वैसा व्यवहार कीजिए, जिसकी अपेक्षा आप उनसे रखते हैं।’ मधुर वाणी व मधुर व्यवहार हमारे जीवन के आधार हैं। मधुर वचन बोल कर आप शत्रु को भी अपना प्रिय मित्र बना सकते हैं और वे आपके क़ायल हो सकते हैं…आप उनके हृदय पर शासन कर सकते हैं। कटु वचन बोलने से आपका मान-सम्मान उसी क्षण मिट्टी में मिल जाता है; जो कभी लौटकर नहीं आता…जैसे पानी से भरे गिलास में आप और पानी तो नहीं डाल सकते, परंतु यदि आप आपका व्यवहार मधुर है, तो आप शक्कर या नमक की भांति सबके हृदय में अपना स्थान बना कर अपना अस्तित्व कायम कर सकते हैं। सामान्यतः नमक हृदय में कटुता व ईर्ष्या का भाव उत्पन्न करता है, परंतु शक्कर सौहार्द व माधुर्य … जो जीवन में अपेक्षित है और वह उसकी दशा व दिशा बदल देती है।

महाभारत के युद्ध का कारण द्रौपदी द्वारा उच्चरित शब्द ‘अंधे का पुत्र अंधा’ ही थे, जिसके कारण वर्षों तक उनके मन में कटुता का भाव व्याप्त रहा और वे प्रतिशोध रूपी अग्नि में प्रज्ज्वलित होते रहे। उसके अंत से तो हम हम सब भली-भांति परिचित हैं। कुरुक्षेत्र के मैदान में महायुद्ध हुआ और श्रीकृष्ण को गीता का उपदेश देना पड़ा; जो आज भी प्रासंगिक व सम-सामयिक है। इतना ही नहीं, विदेशी लोग तो गीता को मैनेजमेंट गुरु के रूप में स्वीकारने लगे हैं और विश्व में ‘गीता जयंती’ व ‘योग दिवस’ बहुत धूमधाम से मनाया जाता है… परंतु यह सब हम लोगों के दिलों में पूर्ण रूप से नहीं उतर पाया। वैसे भी ‘जो वस्तु विदेश के रास्ते से भारत में आती है, उसे हम पूर्ण उत्साह व जोशो-ख़रोश से अपनाते व मान सम्मान देते हैं तथा जीवन में धारण कर लेते हैं, क्योंकि हम भारतीय विदेशी होने में फख़्र महसूस करते हैं।’ इससे स्पष्ट होता है कि हमारे मन में अपनी संस्कृति के प्रति श्रद्धा व आस्था का अभाव है और पाश्चात्य की जूठन स्वीकार करना; हमारी आदत में शुमार है। इसलिए हम ‘जीन्स-कल्चर व हैलो-हॉय’ को इतना महत्व देते हैं। ‘लिव-इन, मी टू व परस्त्री-गमन’ हमारे लिए स्टेटस-सिंबल बन गए हैं, जो हमारी पारिवारिक व्यवस्था में बखूबी सेंध लगा रहे हैं। इनके भयावह परिणाम बच्चों में बढ़ रही हिंसा, बुज़ुर्गों के प्रति पनप रहा उपेक्षा भाव व वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या के रूप में हमारे समक्ष हैं। इसी कारण शिशु से लेकर वृद्ध तक अतिव्यस्त व तनाव-ग्रस्त दिखाई पड़ते हैं। हमारे संबंधों को दीमक चाट रही है और सामाजिक सरोकार जाने कहां मुंह छिपाए बैठे हैं। संबंधों की अहमियत न रहने से स्नेह-सौहार्द के अस्तित्व व स्थायित्व की कल्पना करना बेमानी है। सो! जहां मनोमालिन्य, स्व-पर व ईर्ष्या-द्वेष की भावनाओं का एकछत्र साम्राज्य होगा; वहां प्रेम व सुख-शांति कैसे क़ायम रह सकती है? सो! मोबाइल जहां संबंधों में प्रगाढ़ता लाता है; दिलों की दूरियों को नज़दीकियों में बदलता है; हमें दु:खों के अथाह सागर में डूबने से बचाता है… वहीं ज़िंदगी में अजनबीपन के अहसास को भी जाग्रत करता है। इतना ही नहीं, वह उनके दिलों की धड़कन बन सदैव अंग-संग रहता है और उसके बिना जीवन की  कल्पना करना बेमानी प्रतीत होता है।

आइए! इस संदर्भ में सुख व सुविधा के अंतर पर दृष्टिपात कर लें। मोबाइल से हमें सुविधा के साथ  सुख तो मिल सकता है, परंतु शांति नहीं, क्योंकि सुख भौतिक व शारीरिक होता है और शांति का संबंध मन व आत्मा से होता है। जब मानव को मोबाइल की लत लग जाती है और वह सुविधा के स्थान पर उसकी ज़रूरत बन जाती है, तो उसके अभाव में उसका हृदय पल-भर के लिये भी शांत नहीं रह पाता; जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण विदेशों में बसे लोग हैं। उनके पास भौतिक सुख-सुविधाएं तो हैं, परंतु मानसिक शांति व सुक़ून की तलाश में वे भारत आते हैं, क्योंकि हमारी भारतीय संस्कृति अत्यंत समृद्ध है तथा ‘सर्वेभवंतु सुखीनाम्’ अर्थात् मानव-मात्र के कल्याण की भावना से आप्लावित है। ‘अतिथि देवो भव’ का परिचय–’अरुण यह मधुमय देश हमारा/ जहां पहुंच अनजान क्षितिज को/ मिलता एक सहारा’ की भावना, हमें विश्व में सिरमौर स्वीकारने को बाध्य करती है; जहां बाहर से आने वाले अतिथि को हम सिर-आंखों पर बिठाते हैं और उनके प्रति अजनबीपन का भाव, हृदय में लेशमात्र भी दस्तक तक नहीं दे पाता। जिस प्रकार सागर में विभिन्न नदी-नाले समा जाते हैं; वैसे ही बाहर के देशों से आने वाले लोग  हमारे यहां इस क़दर रच-बस जाते हैं कि यहां रंग, धर्म, जाति-पाति आदि के भेदभाव का कोई स्थान नहीं रहता।

‘प्रभु के सब बंदे, सब में प्रभु समाया’ अर्थात् हम सब उसी परमात्मा की संतान हैं और समस्त जीव-जगत् व सृष्टि के कण-कण में मानव उसी ब्रह्म की सत्ता का आभास पाता है। आदि शंकराचार्य का यह वाक्य ‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ का इस संदर्भ में विश्लेषण करना आवश्यक है कि केवल ब्रह्म ही सत्य है और उसके अतिरिक्त जो भी हमें दिखाई पड़ता है, मिथ्या है; परंंतु माया के कारण सत्य भासता है। सो! प्राणी-मात्र में उस प्रभु के दर्शन पाकर हम स्वयं को धन्य व भाग्यशाली समझते हैं; उनकी प्रभु के समान उपासना करते हैं। इसलिए हम हर दिन को उदार मन से उत्सव की तरह मनाते हैं और उस मन:स्थिति में दुष्प्रवृत्तियां हमें लेशमात्र भी छू नहीं पातीं।

अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता के भाव से ग्रस्त व्यक्ति हमें यह सोचने पर विवश कर देता है कि वह हमारे पथ की बाधा बनकर उपस्थित हुआ है और हमें उसकी रौ में नहीं बह जाना है। तभी हमारे मन में यह भाव दस्तक देता है कि हमें आत्मावलोकन कर आत्म-विश्लेषण करना होगा ताकि हम स्वयं में सुधार ला सकें। वास्तव में यह अपने गुण-दोषों के प्रति स्वीकार्यता का भाव है। जब हमें यह अनुभूति हो जाती है कि हम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर हैं। उस स्थिति में हम खुद में सुधार ला सकते हैं और दूसरों को दुष्भावनाओं व दुष्प्रवृत्तियों से मुक्ति दिलाने में अहम् भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं। वास्तव में जब तक हम अपने दोषों व अवगुणों से वाक़िफ़ नहीं होते; आत्म-परिष्कार संभव नहीं है। वास्तव में वे लोग उत्तम श्रेणी में आते हैं; जो दूसरों के अनुभव से सीखते हैं। जो लोग अपने अनुभव से सीखते हैं, वे द्वितीय श्रेणी में आते हैं और जो लोग ग़लती करने पर भी उसे नहीं स्वीकारते; वे ठीक राह को नहीं अपना पाते। वास्तव में वे निकृष्टतम श्रेणी के बाशिंदे कहलाते हैं तथा उनमें  सुधार की कोई गुंजाइश नहीं होती। हां! कोई दैवीय शक्ति अवश्य उनका सही मार्गदर्शन कर सकती है। ऐसे लोग अपने अनुभव से अर्थात् ठोकरें खाने के पश्चात् भी अपने पक्ष को सही ठहराते हैं। मोबाइल के वाट्सएप, फेसबुक आदि के ‘लाइक’ के चक्कर में लोग इतने रच-बस जाते हैं कि लाख चाहने पर भी वे उससे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते और वे शारीरिक व मानसिक रोगी बन जाते हैं। इस मन:स्थिति में वे स्वयं को ख़ुदा से कम नहीं समझते।

परमात्मा सबका हितैषी है। वह जानता है कि हमारा हित किस में है…इसलिए वह हमें हमारा मनचाहा नहीं देता, बल्कि वह देता है…जो हमारे लिए हितकर होता है। परंतु विनाश काल में अक्सर बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है; विपरीत दिशा में चलती है और उसे सावन के अंधे की भांति सब  हरा ही हरा दिखाई पड़ता है। उस स्थिति में मानव अतीत की स्मृतियों में खोया रहता है और स्वयं को उस उधेड़बुन से मुक्त नहीं कर पाता, क्योंकि अतीत अर्थात् जो गुज़र गया है, कभी लौटकर नहीं आता। सो! उसे स्मरण कर समय व शक्ति को नष्ट करना उचित नहीं है। हमें अतीत की स्मृतियों को अपने जीवन से निकाल बाहर फेंक देना चाहिए, क्योंकि वे हमारे विकास में बाधक व अवरोधक होती हैं। हां! स्वर्णिम स्मृतियां हमारे लिए प्रेरणास्पद होती हैं, जिनका स्मरण कर हम वर्तमान की ऊहापोह से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं और उस स्थिति में हमारे हृदय में आत्मविश्वास जागृत होता है। प्रश्न उठता है कि यदि हममें पहले से ही वह सब करने की सामर्थ्य थी, तो हम पहले ही वैसे क्यों नहीं बन पाये? सो! यदि हममें आज भी साहस है, उत्साह है, ओज है, ऊर्जा है, सकारात्मकता है…फिर कमी किस बात की है? शायद जज़्बे की… ‘मैं कर सकता हूं; मेरे लिए कोई भी कार्य कठिन नहीं है। ‘वह विषम परिस्थितियों में सहज रहकर उनका साहसपूर्वक सामना कर, अपनी मंज़िल को प्राप्त कर सकता है। मुझे याद आ रही हैं– स्वरचित अस्मिता की अंतिम कविता की अंतिम पंक्तियां…’मुझमें साहस ‘औ’ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं मैं/ आकाश की बुलंदियां।’ हर मानव में साहस है, उत्साह है ….हां! आवश्यकता है– आत्मविश्वास और जज़्बे की…जिससे वह कठिन से कठिन कार्य कर सकता है और मनचाहा प्राप्त कर सकता है। ‘कौन कहता है/ आकाश में छेद/ हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो/ तबीयत से उछालो! यारो।’ आप कर सकते हैं…निष्ठा से, साहस से, आत्मविश्वास से…परंतु उस कार्य को अंजाम देने के लिए अथक परिश्रम की आवश्यकता होती है।

हां! असंभव शब्द तो मूर्खों के शब्दकोश में होता है और बुद्धिमान तो अपने लक्ष्य-प्राप्ति के लिए वह सब कुछ कर गुज़रते हैं; जो कल्पनातीत होता है और पर्वत भी उनकी राह में बाधा नहीं बन सकते। वे विषम परिस्थितियों में भी पूर्ण तल्लीनता से अपने पथ पर अग्रसर रहते हैं। वैसे भी जीवन में ग़लती को पुन: न दोहराना श्रेष्ठ होता है। सो! अपने पूर्वानुभवों से शिक्षा ग्रहण कर जीने की राह को बदल लेना ही श्रेयस्कर है। जीवन में केवल दो रास्ते ही नहीं होते …तीसरा विकल्प भी अवश्य होता है। उद्यमी व परिश्रमी व्यक्ति सदैव तीसरे विकल्प की ओर कदम बढ़ाते हैं और मंज़िल को प्राप्त कर लेते हैं। बनी-बनाई लीक पर चलने वाले ज़िंदगी में कुछ भी नया नहीं कर सकते और उनके हिस्से में सदैव निराशा ही आती है; जो भविष्य में कुंठा का रूप धारण कर लेती है। मुझे तो रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘एकला चलो रे’ पंक्तियों का स्मरण हो रही हैं… ‘इसलिए भीड़ का हिस्सा बनने से परहेज़ रखना श्रेयस्कर है, क्योंकि शेरों की जमात नहीं होती।’ इसलिए अपनी राह का निर्माण खुद करें। मालिक सबका हित चाहता है और हमें सत्य मार्ग पर चलने को प्रेरित करता है– ‘उसकी नवाज़िशों में कोई कमी न थी/ झोली हमारी में ही छेद था।’ यह पंक्तियां परमात्मा के प्रति हमारे दृढ-संकल्प व अटूट विश्वास को दर्शाती हैं व स्थिरता प्रदान करती हैं। वह करुणामय प्रभु सब पर आशीषों की वर्षा करता है तथा हमें आग़ामी आपदाओं से बचाता है। हां! कमी हममें ही होती है, क्योंकि हम पर माया का आवरण इस क़दर चढ़ा होता है कि हम सृष्टि-नियंता की रहमतों का अंदाज़ भी नहीं लगा पाते…उस पर विश्वास करना तो कल्पनातीत है। हम अपने अहं में इस क़दर डूबे रहते हैं कि हम स्वयं को ही सर्वश्रेष्ठ समझने का दंभ भरने लगते हैं। इसलिए हमारी  झोली हमेशा खाली रह जाती है। वास्तव में जब हम उस सृष्टि-नियंता के प्रति समर्पित हो जाते हैं; उसके प्रति आस्था, श्रद्धा व विश्वास रखने लगते हैं; तो हमारा अहं स्वत: विगलित होने  लगता है और हम पर उसकी रहमतें बरसने लगती हैं। इस स्थिति में हम सोचने पर विवश हो जाते हैं कि हमारा कौन-सा अच्छा कर्म, उस मालिक को भा गया होगा कि उसने हमें फ़र्श से उठाकर अर्श पर पहुंचा दिया।

यदि हम उपरोक्त स्थिति पर दृष्टिपात करें, तो मानव को अपने हृदय में निहित काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि भावों को निकाल बाहर फेंकना होगा और उसके स्थान पर स्नेह, प्यार, त्याग, सहानुभूति आदि से अपनी झोली के छेदों को भरना होगा। इस स्थिति में आपको दूसरों से संगति व सद्भाव की अपेक्षा नहीं रहेगी। आप एकांत में अत्यंत प्रसन्न रहेंगे, क्योंकि मौन को सबसे बड़ा तप व त्याग स्वीकारा गया है; जो नव-निधियों का प्रदाता है। ‘बुरी संगति से अकेला भला’ में भी यह सर्वश्रेष्ठ संदेश निहित है। इसलिए जो व्यक्ति एकांत रूपी सागर में अवग़ाहन करता है; वह अलौकिक आनंद की स्थिति को प्राप्त कर सकता है; जिसमें उसे अनहद-नाद के स्वर सुनाई पड़ते हैं। सो! तादात्म्य की स्थिति तक पहुंचने के लिए मानव को अनगिनत जन्म लेने पड़ते हैं। हां! यदि आप अलौकिक आनंद की स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाते हैं, तो भी यह सच्चा सौदा है। आप सांसारिक बुराइयों अर्थात् तेरी-मेरी, राग-द्वेष, निंदा-प्रशंसा आदि दुष्प्रवृत्तियों में लिप्त नहीं होंगे … आपका मन सदैव पावन, मुक्त व शून्यावस्था में रहेगा और आप प्रभु की करुणा-कृपा पाने के सुयोग्य पात्र बने रहेंगे।

आइए! अतीत की स्मृतियों को विस्मृत कर वर्तमान में जीने की आदत बनाएं, ताकि सुखद व सुंदर भविष्य की कल्पना कर; हम खुशी से अपना समय व्यतीत कर सकें। ज़िंदगी बहुत छोटी है। सो! हर पल को जी लें। मुझे याद आ रही हैं… वक्त फिल्म की दो पंक्तियां ‘आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू/ जो भी है, बस यही एक पल है।’ यह पंक्तियां चारवॉक दर्शन ‘खाओ-पीओ और मौज उड़ाओ’ की पक्षधर हैं। इसलिए मानव को अतीत और भविष्य के भंवर से स्वयं को मुक्त कर, वर्तमान अर्थात् आज में जीने की दरक़ार है, क्योंकि यही वह सार्थक पल है। यह सर्वविदित है कि हम ज़िंदगी भर की संपूर्ण दौलत देकर एक पल भी नहीं खरीद सकते। इसलिए हमें समय की महत्ता को जानने, समझने व अनुभव करने की आवश्यकता है, क्योंकि गुज़रा हुआ समय लौट कर नहीं आता।  सो! सृष्टि-नियंता की करुणा-कृपा व रहमत को अनुभव कर उसके सान्निध्य को महसूस करना बेहतर है। यही वह माध्यम है…उस प्रभु को पाने का; उसके साथ एकाकार होने का; स्व-पर का भेद मिटा अलौकिक आनंद में अवग़ाहन करने का। सो! एक सांस को भी व्यर्थ न जाने दें… सदैव उसका नाम-स्मरण करें…उसे अपने क़रीब जानें और अपनी जीवन-डोर उसके हाथों में सौंप कर निर्मुक्त अवस्था में जीवन-यापन करें… यही निर्वाण की अवस्था है, जहां मानव लख-चौरासी अथवा आवागमन के चक्र से मुक्ति प्राप्त कर लेता है और यही कैवल्य की स्थिति और हृदय की  मुक्तावस्था है। सो! हर पल ख़ुदा की रहमत को अनुभव करें और ज़िंदगी को सुहाना सफ़र समझें, क्योंकि ‘यहां कल क्या हो…किसने जाना’ आनंद फिल्म की इन पंक्तियों में निहित जीवन संदेश… ‘हंसते, गाते जहान से गुज़र, दुनिया की तू परवाह न कर’…इसलिए ‘लोग क्या कहेंगे’ इससे बचें, क्योंकि ‘लोगों का काम है कहना; टीका-टिप्पणी व आलोचना करना।’ परंतु यदि आप उनकी ओर ध्यान नहीं देते, तभी आप अपने ढंग से ज़िंदगी जी सकते हैं, क्योंकि प्रेम की राह अत्यंत संकरी है, जिसमें दो नहीं समा सकते। जब आप पूर्ण रूप से सृष्टि-नियंता के चरणों में समर्पित हो जाते हैं, तो परमात्मा आगे बढ़ कर आपको थाम लेते हैं … अपना लेते हैं और आप अपनी मंज़िल तक पहुंच पाते हैं। इसलिए कछुए की भांति स्वयं को आत्म-केंद्रित कर, अपनी पांचों कर्मेंद्रियों को अंकुश में रखें और हंसते-हंसते इस संसार से सदैव के लिए विदा हो जाएं। इस स्थिति में आप लख चौरासी से मुक्त हो जायेंगे, जो मानव के जीवन का अंतिम लक्ष्य है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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